इंसानियत - एक धर्म - 40 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इंसानियत - एक धर्म - 40

भीड़ की अधिकता की वजह से मुनीर को आगे बढ़ने में दिक्कत हो रही थी जबकि उस यात्री की बात सुनते ही उस टीसी के तनबदन में आग लग गयी । बिफरते हुए बोला ” तो ठीक है बेटा ! जब जेल में चक्की पिसोगे तब तुम्हें आटे दाल का भाव मालूम पड़ेगा । चलो ! स्टेशन आनेवाला है । ”
आगे बढ़ते हुए मुनीर के दिमाग ने सरगोशी की ‘ अरे ! तू कहाँ जा रहा है ? अब वह टीसी तो खुद ही उतरने की तैयारी में है । अब वह तेरी कोई बात नहीं सुनेगा । बेहतर होगा कि तू उसके पास जाकर उससे मदद मांगने का विचार त्याग दे । तेरा क्या लेना देना है उस झगड़े से ? ट्रेन के सामान्य डिब्बे में तो यह रोजमर्रा की किचकिच है । आये दिन ऐसे लड़ाई झगड़े होते रहते हैं । अभी कुछ ही दिन पहले इसी तरह ट्रेन में एक लड़के की कुछ लोगों ने सबके सामने हत्या कर दी थी और दुर्भाग्य की बात तो ये है कि सैकड़ों की भीड़ भी उन कुछ गुंडों को नहीं पकड़ पाई थी ।समझदारी इसी में है कि फिर से उस झगड़े में अपनी टांग डालने से बचा जाए । एक तो पहले ही कुछ कम मुसीबत नहीं है ऊपर से यह दूसरों की ‘फटी में टांग अड़ाने ‘ का मतलब होगा ‘ आ बैल मुझे मार ‘ । ‘ उसके अवचेतन मस्तिष्क ने हामी भरते हुए कहा ‘ हाँ ! यही सही होगा । इस झगड़े में कहीं कानूनी चक्कर में फंस गया तो फिर तो लंबे समय के लिए जाएगा । जैसे भी हो गुमनाम बने रहने में ही भलाई है । ‘
यह विचार मस्तिष्क में आते ही टीसी की तरफ बढ़ते उसके कदम स्वतः ही थम गए । एक पल रुककर उसने कुछ सोचा और फिर जहां खड़ा था वहीं खिड़की से बाहर झांक कर कुछ देखने का प्रयास करने लगा । भीड़ की अधिकता की वजह से काफी प्रयास करने के बाद मुनीर को खिड़की से बाहर झांकने में सफलता मिली । बाहर पटरी से थोड़ी ही दूरी पर पटरी के समानांतर एक सड़क भी थी जिसे देखकर ऐसा लग रहा था वह ट्रेन के साथ साथ ही चल रही हो । सड़क पर चलने वाले वाहन कुछ देर ट्रेन के साथ चलते हुए प्रतित होते और फिर धीरे धीरे थक हार कर पीछे छूट जाते । सड़क पर बढ़ रही वाहनों की आवाजाही से मुनीर को समझते देर नहीं लगी कि नजदीक ही कोई शहर आनेवाला है । उसने सोचा क्यों न यहीं उतर लिया जाय । अपने शहर से तो काफी दूर आ ही गया है । अब भला उसे यहां कौन पहचानेगा ?
शायद उसकी तात्कालिक मंजिल यही है यही सोचकर मुनीर शीघ्रता से दुसरे दरवाजे की तरफ लपका । अपने पैरों तले किसी के पैर तो किसी के सामानों को रौंदता हुआ मुनीर शीघ्रता से दरवाजे की तरफ लपका । अभी वह दरवाजे से थोड़ी दूरी पर ही था कि धीरे धीरे चलती हुई ट्रेन एक जगह रुक गयी । मुनीर समझा शायद स्टेशन आ गया हो । उसने दरवाजे पर खड़े लोगों की तरफ देखते हुए देहाती लहजे में बोला ” अरे भाई ! टेशन आ गया है और आप लोग हो कि अभी भी दरवाजे से लटके हुए हो । उतरो भाई ! नहीं उतरना है तो कौनो बात नाहीं ! तनिक बगल हट जाओ । जिसको उतरना है खुदै उतर जाएगा । ”
उसके गंवारपन पर हंसते हुए दरवाजे पर खड़े लोगों में से एक युवक बोला ” भाईसाहब ! स्टेशन अभी यहां से दो किलोमीटर दूर है । ये ट्रेन तो सिग्नल नहीं होने की वजह से रुकी है । आगे रेलवे क्रासिंग है जहां फाटक बंद नहीं हुआ होगा । ”
तभी बिजली की सी तेजी से मुनीर के दिमाग में विचार कौंध गया ‘यही तो सुनहरा मौका है उसके लिए । यहीं उतर जाने में ही फायदा है । स्टेशन से बाहर निकलते हुए अगर किसी ने टिकट पूछ लिया तो बैठे बिठाए फजीहत हो जाएगी । और यहां उतर गए तो समझो शहर की भीड़ में खोने में आसानी रहेगी ।’ यह विचार आते ही मुनीर वहां से आगे बढ़ने की कोशिश करते हुए बोला ” अरे भाई लोगन ! तनिक हमें यहीं उतर जाने देते तो बहुतै बढ़िया हो जाता । वो का है न कि हमें यहीं थोड़ा काम था । तनिक हट जाओ दो मिनट के लिए बस ! ”
दरवाजे पर खडा युवक नीचे उतरकर उसके लिए रास्ता देते हुए मजाकिया लहजे में उसकी नकल करता हुआ बोला ” अरे कौनो बात नाहीं भाई ! आगे बढ़ो ! तुमरे लिए ई दरवाजा तो क्या हम पूरी दुनिया खाली कर देंगे । आ जाओ ! ” साथ खड़े युवक खिलखिलाकर हंस पड़े ।
उसकी मजाकिया बातों का कोई बुरा न मानते हुए मुनीर ने देहाती आदमी का शानदार अभिनय करना जारी रखा और अंततः ट्रेन से नीचे पटरी पर ही उतर पड़ा । बाहर आकर उसे बड़ी राहत महसूस हुई । उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसे किसी कैद से आजादी मिली हो । उसने सामने की तरफ नजर उठाकर देखा । इंजिन से चंद कदमों के फासले पर ही उसे सड़क और उस पर चल रही वाहनों की कतारें दिखाई पड़ गईं । पटरी पर कभी आगे तो कभी पीछे देखते हुए मुनीर ने सावधानी से सड़क तक का फासला तय किया । अभी वह सड़क पर पहुंचा ही था कि ट्रेन एक जोरदार चीख के साथ आगे की तरफ सरकने लगी ।
मुनीर लपक कर दूसरी पटरी से होते हुए सड़क पर पहुंच गया और फिर पटरी की विपरीत दिशा में सड़क पर ही चलने लगा ।
शाम के लगभग पांच बजने वाले थे । दिन भर चल चल कर सूर्य देवता भी अब अपने मंजिल के करीब पहुंच चुके थे । सड़क के दोनों तरफ कतारों में बनी दुकानों के बीच ही सड़क पर जहां तक नजर जाती मुनीर की नाक के सीध में है दूर कहीं सूरज एक तपते हुए गोले से परिवर्तित होकर स्वर्णिम व केसरिया आभायुक्त बड़े से गोले की मानिंद नजर आ रहा था । ऊपर आसमान में विचरण करनेवाला सूरज नीचे की तरफ अग्रसर होते हुए यूँ लग रहा था मानो कोई दिव्य गोला दूर कहीं इसी सड़क पर उतरने वाला हो । मुनीर को यह मंजर काफी लुभावना लग रहा था । आज शायद वह पहली बार सूरज को अस्ताचल की तरफ अग्रसर होते हुए इतने ध्यान से देख रहा था । दूर जहां तक नजर जाती सीधी सड़क , दोनों तरफ बने दुकान और उन्हीं के मध्य सड़क पर उतरने को आतुर सुरज का अक्स । अपनी अनजानी मंजिल की तरफ बढ़ते हुए मुनीर अपनी निगाहों में वह मनमोहक दॄश्य हमेशा हमेशा के लिए बसा लेना चाहता था ।

उसके कदम आगे बढ़ रहे थे लेकिन अब अपने भविष्य को लेकर एक बार फिर उसका दिमाग सक्रिय हो उठा । पल भर में ही उसके दिलोदिमाग पर छाया वह कुदरती मनलुभावन नजारा भविष्य की चिंताओं के घिर आये बादलों में कहीं खो सा गया । उस अद्भुत दृश्य को विसरते हुए मुनीर भविष्य की चिंता से गमगीन हो गया ।
आगे बढ़ते हुए मुनीर सड़क के किनारे दाएं हाथ की पटरी पर धीमे कदमों से चलता हुआ कुछ सोच रहा था । नजदीक ही कहीं कोई स्कूल था शायद और उसमें से निकलकर बहुत से बच्चे विभिन्न सवारियों व साधनों से अपने अपने घरों की तरफ लौट रहे थे ।
एक साईकल रिक्शा पर एक छह वर्षीया बच्ची ‘ परी ‘ भी स्कूल से अपने घर की तरफ जा रही थी । अचानक उसकी नजर सामने से आ रहे मुनीर पर पड़ी और वह चौंक गयी । दो पल तो वह बड़े ध्यान से मुनीर की तरफ गौर से देखती रही और फिर जैसे ही उसकी रिक्शा मुनीर के नजदीक पहुंची वह अपनी पूरी ताकत से चिल्ला पड़ी ” पापा ! पापा रुक जाओ न ! “



क्रमशः