इंसानियत - एक धर्म - 7 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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इंसानियत - एक धर्म - 7

सघन चिकित्सा कक्ष का दरवाजा खुला और उसमें से डॉक्टर मुखर्जी बाहर निकलते हुए अपने हाथों से दस्ताने खींचते हुए दयाल बाबू की तरफ देखते हुए बोले ” शायद रमेश आपका बेटा है । “
” जी ! डॉक्टर साहब ! ” दयाल बाबू बोले ” अब कैसा है मेरा बेटा ? “
डॉक्टर मुखर्जी ने अपनत्व से दयाल बाबू के कंधे पर अपना हाथ रखते हुए बोला ” मैं आपकी मनोदशा को समझ सकता हूं लेकिन आपको निराश होने की कोई जरूरत नहीं है । शुक्र है भगवान का कि लाठी की मार का असर उसके दिमाग तक नहीं पहुंचा है । सिर्फ कुछ जख्म हैं जो गहरे हैं लेकिन खतरनाक नहीं हैं । कुछ ही दिनों में उसके सिर के जख्म भर जाएंगे और वह एक बार फिर पहले की तरह भला चंगा हो जाएगा । अब आप लोग चाहें तो उससे एक एक कर मिल सकते हैं । लेकिन ध्यान रहे उसको कोई मानसिक चिंता वाली बात नहीं बतानी है । ठीक है ? अभी उसे आराम की सख्त जरूरत है । उम्मीद है आप लोग इस बात का ध्यान रखेंगे । “
कहते हुए डॉक्टर मुखर्जी सामने की तरफ अस्पताल के अधिकारियों के लिए कक्ष की तरफ बढ़ गए ।
अब तक राखी और सुषमा जी भी दयाल बाबु के पास आ पहुंची थीं और डॉक्टर की बात सुनकर रमेश की कुशलता का हाल जान चुकी थीं ।
राखी की खुशी का कोई ठिकाना ना था । दरअसल इस सारे घटनाक्रम के लिए वह शुरू से ही खुद को दोषी ठहरा रही थी । ‘ उसके कितना जिद्द करने की वजह से ही रमेश उसके साथ शहर जाने के लिए तैयार हुआ था । शहर में भी खरीद दारी के दौरान उसने तेजी से बित रहे समय का ध्यान दिलाया था और जो कुछ हुआ वह अधिक देर होने की वजह से हुई । इतना ही नहीं आलम ने रमेश पर अत्याचार भी उसीकी वजह से ही किया था । उसके बुरे इरादे की कामयाबी में आखिर रमेश ही तो सबसे बड़ा रोड़ा था । और अब उसी रमेश के सलामती की खबर ने उसे काफी राहत प्रदान की थी ।
वह तेजी से सघन चिकित्सा कक्ष के दरवाजे से दाखिल होकर रमेश के सामने जाकर उसे अपनी सलामती और उपस्थिति की जानकारी देना चाहती थी । जिस वक्त वह बेहोश हुआ था उस वक्त कुछ भी तो अच्छा नहीं हो रहा था । आलम अपनी दरिंदगी राखी पर आजमाना चाहता था । उसकी नजरों में तो अभी तक तो वही दृश्य नाच रहा होगा । अब जबकि वह होश में आ चुका है यही दृश्य बार बार उसकी आँखों के सामने घूम रहे होंगे । उसे तड़पा रहे होंगे और एक अनजाना सा डर उसके मनोमस्तिष्क को झिंझोड़ रहे होंगे । वह सोच रहा होगा ‘ में तो बेहोश हो गया था । उसके बाद मेरी राखी पर क्या बीती होगी ? कैसी होगी ? कहाँ होगी ? किस हाल में होगी ? ‘
इससे पहले कि ये अनचाहे सवाल उसके जख्मों को कुरेदकर उसे बेइंतहा कष्ट दें मुझे उनसे मिलकर उन्हें सारी बात बता देनी चाहिए । हाँ ! यही ठीक रहेगा । ‘
और फिर किसी की प्रतीक्षा किये बिना ही राखी धड़कते हॄदय के साथ धड़धड़ाते हुए सघन चिकित्सा कक्ष में दाखिल हो गयी । उसे अंदर जाते देख दयाल बाबू और सुषमा जी के कदम जहां के तहां ठिठक गए थे और उन दोनों ने अपनी बहू के भावनाओं की कद्र करते हुए बाहर ही रुकने का निश्चय किया ।
अंदर कमरे में रमेश एक बेड पर लेटा हुआ था । अस्पताल में मरीजों द्वारा पहनी जानेवाली नीली पोशाक उसने पहनी हुई थी । उसका पूरा सिर पट्टियों से बंधा हुआ था । दर्द की अधिकता से उसकी आंखें बंद थीं और वह बेड पर आराम की मुद्रा में लेटा हुआ था । आहट सुनकर उसने धीमे से अपनी आंखें खोलीं और सामने ही राखी को खड़ी अपनी ओर अपलक निहारते देख कर मुस्कुराने का प्रयत्न किया । तेजी से बढ़ती हुई राखी उसके बेड के नजदीक पहुंचकर उसे आराम करते देख आराम में खलल न डालने के इरादे से थोड़ी ठिठक गयी थी और यही वो पल था जब रमेश ने उसकी आहट को महसूस कर किया था और अपनी बंद पलकें खोल दी थीं । अब उसे अपनी ओर देखते पाकर राखी अपने आपको रोक नहीं पाई और रमेश के आराम और उसके तकलीफ की कोई परवाह किये बिना ही वह उसके सीने से लिपट गयी ।
भावनाओं के अंधड़ दोनों के मनोमस्तिष्क में घुमड़ रहे थे । राखी को अपने सामने सही सलामत पाकर खुशी के मारे उसका दिल जोरों से धड़कने लगा था ।
राखी की साँसों ने भी अपनी रफ्तार बढ़ा दी थी । उसका दिल चाह रहा था काश ! वक्त यहीं ठहर जाता ! जैसा भी और जिस हाल में भी था उसका प्रियतम उसके पास था बस अब उसे और क्या चाहिए था ?
लेकिन वक्त भला कब किसी के चाहने मात्र से रुका है ? दस मिनट कैसे बीत गए पता ही नहीं चला । निगाहों से ही दोनों के बीच बातें होती रहीं जबकि लब खामोशी अख्तियार किये रहे । एक दूसरे को देख कर और उनके सलामती का हाल जानकर दोनों को ही असीम आनंद की अनुभूति हो रही थी ।
तभी दरवाजे पर होनेवाली कोई आहट ने राखी का ध्यान उस तरफ आकृष्ट किया । दयाल बाबू और सुषमा अंदर प्रवेश कर रहे थे ।
उन्हें देखकर रमेश ने बेड से उठकर बैठने की कोशिश की लेकिन राखी ने उसे इशारे से उठने से मना कर दिया और आगे बढ़कर सुषमा जी ने भी उसे लेटे रहने का ही ईशारा किया । दयाल बाबू नजदीक रखी स्टूल पर बैठते हुए रमेश का हाथ अपने हाथों में लेते हुए सिसक पड़े ” बेटा ! अब कैसा लग रहा है ? “
उन्हें रोते देख रमेश की पलकें भी भीग गयी थीं ।
सुषमा ने रमेश को धीरज देते हुए सब ठीक हो जाएगा की दुहाई देती रहीं और फिर कमरे में बैठे डॉक्टरों द्वारा मरीज को अकेले छोड़ देने की विनती करने पर सभी लोग कमरे से बाहर आ गए ।
कमरे से बाहर आते ही दयाल बाबू ने सुषमा जी को एक तरफ घसीटते हुए फुसफुसाते हुए बोले ” ये मैं क्या सुन रहा हूँ रमेश की माँ ? ये बहु किस सिपाही को बचाने की बात कर रही थी ? में पूरी बात समझ नहीं पाया था । जरा मैं भी तो सुनूँ क्या हुआ था जिसके लिए हमारी बहु इतनी बड़ी कुर्बानी करने के लिए तैयार है ? “
राखी से परे सुषमाजी ने संक्षेप में पूरी बात एक बार फिर दयाल बाबू के सामने बयान कर दी । पूरी बात सुनने के बाद दयाल बाबू राखी से मुखातिब होते हुए बोले ” बहू ! हम तुम्हारे इंसानियत के जज्बे की कद्र करते हैं लेकिन तुम्हारा इंसानियत के साथ ही कुछ और जिम्मेदारियां निभाने का भी फर्ज है । तुम हमारे घर की बहू हो इस नाते अब इस घर का मान सम्मान बनाये रखने की जिम्मेदारी भी अब तुम्हीं पर है । माना कि उस सिपाही की इंसानियत की हमें कद्र करनी चाहिए लेकिन क्या उसके लिए हमें अपने सामाजिक मान मर्यादा की भी बलि चढ़ा देनी चाहिए ? ………”


क्रमशः