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बैंगन - 20

गहराती रात के साथ सन्नाटा बढ़ता गया पर न तांगा आया और न तन्मय। मेरा मन अब भीतर ही भीतर डरने सा लगा।
आधी रात को मंदिर के वीरान से इलाक़े में एक अजनबी को घूमते देख कर किसी को अकारण कोई शंका न हो, यही सोच कर मैंने सीढ़ी दीवार से लगाई और मैं छत पर आ गया।
बिस्तर पर लेट कर भी मैं घटना के बारे में ही सोचता रहा।
रात के लगभग दो बजे होंगे तभी अचानक मैंने दीवार के पास कोई आहट सी सुनी और उसके साथ ही लकड़ी की सीढ़ी के गिरने की आवाज़ आई।
मैं बिस्तर से लगभग उछल कर छत से नीचे झांकने लगा। जिस सीढ़ी से मैं ऊपर आया वह अचानक नीचे गिर गई थी।
मैंने इधर- उधर देखा। हल्के अंधेरे के बावजूद आसमान में चमकते चांद के कारण नीचे साफ़ दिखाई दे रहा था।
क्या किसी कुत्ते- बिल्ली ने सीढ़ी को गिरा दिया या फ़िर यहां कोई आया था?
मेरी नींद उड़ गई। अब सत्रह चिंताओं में ये एक चिंता और आ जुड़ी कि सुबह मैं नीचे कैसे उतरूंगा? सीढ़ी कैसे गिरी?
बिस्तर पर बैठ कर मैं कुछ सोच ही रहा था कि मेरे मन में एकाएक एक नए ख्याल ने सिर उठाया। मुझे लगा कि कहीं तन्मय का घोड़ा तो नहीं आ गया?
मुझे ऐसे में भी इस ख्याल से थोड़ी हंसी आ गई। धत! ऐसा तो फिल्मों में होता है। वहां जानवर भी अपने मालिक की मदद करते हैं, तरह - तरह के कारनामे दिखा देते हैं।
अगर घोड़ा आता तो तांगा भी साथ में आता। और अगर घोड़ा आया ही था तो कहां गया?
मुझे अब नींद आने का सवाल ही नहीं था। मुझे मालूम था कि तन्मय के पिता तो सुबह अंधेरे ही उठ जाएंगे। बाहर लगे नल पर नहा धोकर मंदिर चले जाएंगे। अगर उनका ध्यान गिरी हुई सीढ़ी पर नहीं गया तो वो इसे क्यों उठाएंगे? उन्हें क्या पता चलेगा कि मैं छत पर हूं। वो चले जाएंगे।
फ़िर उनके जाने के बाद मैं नीचे उतरूंगा कैसे?
अजीब मुसीबत है।
क्या करूं? अभी ज़ोर से चिल्ला कर पुजारी जी को जगा दूं? पर इस तरह चिल्लाने से कहीं पुजारी जी डर न जाएं। बेचारे। एक ही दिन में उन पर दूसरी मुसीबत का पहाड़ टूट पड़े।
एक तो बेटा जाने कहां गया, दूसरे घर में एक अनजान आदमी आया पड़ा है और अब आधी रात को ये चीख पुकार!
नहीं - नहीं, उन्हें जगाने से बेहतर है कि मैं ही कुछ देर जागूं। घंटे- दो घंटे में वो जाग ही जाएंगे, तब खड़े होकर उन्हें पूरी बात बता दूंगा।
मैं पड़ा- पड़ा न जाने क्या क्या सोचता रहा और करवटें बदलता रहा। मेरी तंद्रा टूटी तब, जब मुझे नीचे से कुछ खटर- पटर की आवाज़ सुनाई दी। शायद पुजारी जी जाग गए थे। मैं एकदम से उतावला होकर उठा कि उन्हें सीढ़ी के बाबत बताऊं।
लेकिन जैसे ही मैंने नीचे झांकने की कोशिश की वो मुझे शौच के लिए घुसते हुए दिखाई दिए। अब चड्डी पहन कर कान पर जनेऊ लपेटे निपटने घुसते हुए आदमी को क्या रोकूं, यही सोच कर मैं रुक गया। पर मैं ये भी जानता था कि पुजारी जी दातुन तो भीतर बैठे- बैठे ही कर लेंगे और झटपट बाहर निकलते ही नल के नीचे नहाने लगेंगे इसलिए मैं वापस बिस्तर पर न जाकर मुंडेर पर पैर लटका कर इंतजार में वहीं बैठ गया।
तमाम चिंताओं- दुश्चिंताओं के बावजूद मुझे अब नींद भी आ ही रही थी। आखिर पूरी रात मैंने आंखों- आंखों में ही काट दी थी।
तभी एक और हादसा होते- होते बचा। शौचघर से निकलते ही पुजारी जी को अंधेरे में मुंडेर पर पैर लटकाए बैठे किसी आदमी का साया दिखा तो चमक कर वो भी सहम गए। उनके हाथ से लोटा छूट कर लुढ़कता हुआ ज़मीन पर बजता चला गया। ख़ाली लोटा, पक्की ज़मीन!
उधर आवाज़ से उनींदा सा मैं भी चौंक कर गिरता- गिरता बचा।
पुजारी जी मुझे पहचानते ही संभल गए और मेरे कुछ बोलने से पहले ही सीढ़ी को उठाने की कवायद में लग गए।
मैंने हड़बड़ा कर उन्हें राम- राम कहा, फ़िर वो बुदबुदाए- तन्नू आया या नहीं?
लेकिन तन्मय के बारे में पूछते समय उन पर कल से दिखाई न दिए बेटे की चिंता रंचमात्र भी नहीं व्याप रही थी। उनका पूछने का ढंग मात्र ऐसा था मानो पूछना चाहते हों कि तन्नू आ गया या आपको चाय बना कर मैं दूं?
मैं उनका आशय समझ गया और मैंने उन्हें बताया कि वह तो कल से नहीं आया है, थोड़ी देर में मैं ही जाकर देखता हूं कि क्या बात हुई।
वो मेरी शक्ल देखने लगे।


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