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कशमकश

भाग 1

कितनी तेज़ चल रहीं थीं धड़कनें । दिल में बहुत ज़्यादा हलचल थी। “ क्या मैं यह सब कर सकूंगी? कहीं खुद पर काबू न खो दूँगी?” सोचते हुए वन्या दरवाज़े से जैसे ही अंदर दाखिल हुई, पास ही खड़ी एक लड़की उसे मिसेज़ सिंह के पास ले गयी। आँखें नीची किये शांत बैठीं मिसेज़ सिंह पलकें उठा कर बोलीं “वन्या! वन्या ही हो न आप पुत्तर?” “जी आंटी जी “ वन्या आगे कुछ न कह सकी,कुछ पल भरी आँखों से वो वन्या निहारतीं रहीं।

“ विक्रम ने दिखाई हुई तस्वीर से कहीं ज़्यादा खूबसूरत हो।”

फिर उन्होंने वन्या का चेहरा अपने दोनों हाथों से थाम उसका माथा चूम लिया। और वे दोनों एक दूजे से लिपट गईं। दोनों के बीच कोई और संवाद न हो पाए। वन्या का मन उसे चार साल पहले की उसके ऑफिस की न्यू ईयर पार्टी में ले गया।

पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी। बारह बजने को केवल पाँच मिनट रह गए थे। पार्टी के एंकर ने सभी को काउंट डाउन शुरू करने के लिए एक गोला बना कर खड़े रहने को कहा। सभी गोले में एक दुसरे का हाथ पकड़ कर खड़े थे। उसके बगल में उसकी बेस्ट फ्रेंड कृतिका खड़ी थी। लाइट्स ऑफ हुईं और काउंट डाउन शुरू हुआ टेन , नाइन , ऐट ......… थ्री, टू, वन “हैप्पी न्यू ईयर “ सभी एक सुर में चिल्लाए। और सिलसिला आपस में गले मिल कर बधाई देने का।

“हैप्पी न्यू ईयर कृतिका “ कहते हुए ज्यों ही वन्या ने पलट कर गले लगाया, “ओह माय गॉड आई ऍम सो सॉरी। मैंने देखा नहीं, मममम मुझे लगा कृतिका है।”

“इट इज़ ओके मैडम, अँधेरा था। कोई बात नहीं, आप परेशान न हों। बाय द वे आई ऍम विक्रम, विक्रम जीत सिंह। हैप्पी न्यू ईयर” विक्रम ने हाथ मिलते हुए कहा, और तभी लाइट्स ऑन हो गईं।

पहले से सहमी हुई सी वन्या विक्रम को देखते ही स्तब्ध रह गयी। साँवला रंग, छः फुट का कद,मज़बूत गठा हुआ शरीर।

“हैप्पी न्यू ईयर” कृतिका वन्या से आकर लिपट गई।

“सेम टू यू” वन्या उसे विश करके पलटी, वो वहां नहीं था।वो अपने दोस्तों को एक एक कर विश करती जा रही थी लेकिन उसकी अचम्भित नज़रें पलट पलट कर उसे ही ढूंढ रहीं थीं। कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।

पार्टी खत्म होने पर हॉल के दरवाजे पर वन्या कृतिका का इंतज़ार कर रही थी।

"एक्सक्यूज़ मी"

मुड़ कर देख तो वही था। "आई एम रियली सॉरी, अंधेरे और भीड़ की वजह से मैं कब आपके बगल में आ कर खड़ा हो गया पता ही नहीं चला। आप गलत मत समझियेगा।"

"अम्म्म वेल इट्स ओके।" वन्या ने कहा

"क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ?"

"वन्या, वन्या हेगड़े।"

"मैं विक्रम...."

"विक्रम जीत सिंह"

"हांजी। वाह! नाम याद रह आपको।" उसकी मुस्कान में अजीब सा आकर्षण था।

"आप यहीं जॉब करतीं हैं?"

"हाँ, और आप, आपको पहली बार देख रही हूँ यहाँ, नया जॉइन किया है क्या?"

"नहीं नहीं, मैं तो एक दोस्त के साथ आया था।"

तब तक कृतिका अपनी कार लेकर आ चुकी थी।

"ओके बाय, मुझे अब जाना होगा। लेट हो रहा है,ठंड बढ़ गयी है।"

"बाय"

जैसे ही वो कर में बैठी, कृतिका बरस पड़ी " क्या यार, कितना टाइम लगती है तू। डांट पड़ेगी न घर पर। और कौन था वो, किसी से भी बात करना शुरू हो जाती है....."

कृतिका बड़बड़ाती जा रही थी, और वन्या कार के साइड मिरर में हल्की सी मुस्कान लिए उसे दूर होता देख रही थी।


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भाग 2


"बेटे ये लीजिए, थोड़ा पानी पी लीजिए" मिसेज़ सिंह पानी का ग्लास थामते हुए कहा।

"आप संकोच मत करिएगा पुत्तर, यहाँ बाहर अगर आपको कम्फ़र्टेबल न लग रहा हो तो आप अंदर जा कर आराम कर सकती हो।"

"जी ठीक है आंटी जी। चलिए।" और वन्या उनके पीछे हो ली।

मिसेज़ सिंह ने एक कमरे का दरवाज़ा खोला " आइए पुत्तर, ये विक्रम का ही कमरा है। यहां आराम करिए। विक्रम को आने में अभी टाइम है। तब तक चाहो तो उसकी सभी चीज़ें देख सकते हो।"

"थैंक यु आंटी"

मिसेज़ सिंह के जाते ही वन्या पास रखी रॉकिंग चेयर पर बैठ गयी। उसकी नज़र सामने सजी विक्रम की डेस्क पर पड़ी। बहुत ही करीने से जमा कर रखी हुई अनेकों ट्रॉफीज़, और कोने में रखी हुई उसकी एक तस्वीर। वन्या ने उसकी तस्वीर हाथ में उठाई। कितनी गहराई है उसकी आँखों में। वन्या उन आँखों की गहराईयों में गोते लगती, फिर अतीत की सीढ़ियाँ उतारने लगी।

"शट अप वन्या, ये कोई 1960 की फ़िल्म चल रही है क्या? और ऐसा कौनसा स्टड बंदा था कि तू ऐसे लट्टू हो गयी। तुझे न उसका नंबर पता है न नाम"

"विक्रम जीत सिंह"

"अरे हाँ यार होगा कोई विक्रम मैं वाशरूम क्या गयी सीधे गले पड़ गया तेरे। कोई जेन्युइन बंदा होता ना तो कभी ऐसा न करता।"

"बस भी कर न यार कृतिका, वो मेरे नहीं, गलती से मैं उसके गले पड़ी थी। हाँ मुझे वो बहुत अच्छा लगा। पहली बार किसी अनजान के गले लगी लेकिन बिल्कुल इनसिक्योर नहीं लगा। मेरी इंस्टिंक्ट भी यही कह रही है।"

"हओ, तू और तेरी फालतू इंस्टिंक्ट। अब थप्पड़ खायगी।"

"कितना ओवर रिएक्ट कर रही है तू, केवल इतना ही कहा न मैंने की मुझे वो लड़का बहुत अच्छा लगा। कौनसा उस से शादी करने वाली हूँ मैं। वैसे भी नाम के अलावा जानती ही क्या हूँ मैं उसके बारे में।"

कितना डांटा था उस दिन उसे कृतिका ने। विक्रम की तस्वीर सीने से लगाए वन्या अतीत के अलग अलग झरोखों में झांक रही थी।

जनवरी की सर्द शाम थी, वन्या ने हॉस्पिटल के पास वाले मेडिकल स्टोर के सामने स्कूटी रोकी। तभी बिल्कुल पास में एक कार आकर रुकी। इसके पहले कि वन्या पलट कर कार थोड़ी दूर पार्क करने को कह पाती, कार का दरवाज़ा खुला।

"ओह्ह सॉरी मैडम जगह बहुत कम थी यहां। वेट अ मिनिट, वन्या!! हाय"

विक्रम को अचानक सामने पाकर वन्या मूर्ति की तरह खड़ी रह गयी।

"हेलो, वन्या ही हैं न आप?"

"आँ, हाँ, हाय विक्रम"

"वाओ, नाम याद रहा आपको"

वो कैसे कह देती की भूली ही कब थी। कुछ सूझ ही नहीं रहा था क्या कहे।

"अच्छा अगर आपके पास थोड़ा टाइम हो, और आप बुरा न मानो तो पांच मिनिट वेट करोगी मैं अभी आया"

"ओके, वैसे भी मैं घर ही जा रही थी।" वन्या मन ही मन मुस्कुरा उठी।

विक्रम ने कार की पीछे की सीट से हाथ पकड़ कर एक सुंदर सी लड़की को उतारा।

"आराम से, धीरे"

वन्या के होश फ़ाख्ता हो गए, वो लड़की प्रेग्नेंट थी। उसके पीछे उतरी एक बुज़ुर्गवार महिला। वो उन दोनो को हॉस्पिटल के अंदर ले गया। वन्या को समझ नही आ रहा था कि वो कैसे रियेक्ट करे। वो फौरन स्कूटी पे बैठी, और जैसे ही स्टार्ट करने के लिए बटन दबाया विक्रम ने पीछे से आवाज़ लगा दी "वन्याss, जल्दी में हैं क्या आप?"

वन्या ने बिल्कुल रूखे अंदाज़ में कहा "नहीं, आप बिजी होंगे ना, वाइफ जो प्रेग्नेंट है आपकी"

"वाइफ?" विक्रम अपनी हंसी न रोक पाया "मेरी शादी नहीं हुई है अभी। वो तो मैं दोस्तों से मिलने निकल था, ये आंटी और उनकी बेटी सड़क पर खड़े परेशान हो रहे थे, कैब नहीं मिल रही थी। इसलिए मैंने उनको यहां तक पहुंच दिया। बस"

"ओह आई एम सॉरी" वन्या भी अपनी हंसी न रोक पाई।

"फेसबुक पर तो होंगे ही न आप"

"अम्म, हूँ तो लेकिन बहुत कम यूज़ करता हूँ।"

"आप बुरा न माने तो आपका नंबर ले सकता हूँ।"

"हाँ श्योर"


"दूसरी बार ही मिलने पर कैसे मैंने तुम्हे अपना नंबर दे दिया था विक्रम" उसकी तस्वीर पर अपनी उंगलियाँ फेरते हुए वन्या ने सोचा।

"बेटा जी चाय लोगे?" मिसेज़ सिंह कमरे में चाय का कप लिए दाखिल हुईं।

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भाग 3


"ये तस्वीर" मिसेज़ सिंह ने उसके हाथ तस्वीर लेते हुए कहा "मैंने ही ज़बरदस्ती खिंचवाई थी, सोचा था कि कभी न कभी लड़की वालों को भेजने के काम आएगी कभी" अपने दुपट्टे से तस्वीर पोंछ कर वापस मेज़ पर सजा दी। "बेटे जी, ये दोनों विक्रम की ही अलमारियाँ हैं आप चाहो तो देख सकती हो।" वन्या के दाहिने गाल हो हौले से थपथपा कर वे चली गईं।


"बिल्कुल विक्रम वाली चाय" चाय का पहला ही घूंट लेते ही मिठास से चिपकते होठों पर ज़ुबान फेरते हुए वन्या ने सोचा। "मेरे रूम पर आकर ऐसी ही कड़क मीठी चाय बनाई है उसने कई बार। आंटी जी से ही सीखी होगी।" चाय खत्म करने पर मिसेज़ सिंह की बात याद करते हुए वो पहली अलमारी की ओर बढ़ी। अलमारी खोलते ही सबसे आगे ही टंगा हुआ था उसका तोहफे में दिया वही क्रीम कलर का ब्लेज़र। उसने वो ब्लेज़र हैंगर से उतारा। ब्लेज़र के पीछे से झाँकती अपनी मुस्कुराती हुई बड़ी सी तस्वीर देखते ही उसने बाकी के हैंगर एक ओर सरका दिए। तस्वीर में उसके बगल में खड़ा विक्रम भी मुस्कुरा रहा था। ब्लैक टी-शर्ट में कितना स्मार्ट लग रहा था वो उस दिन।

"हाय, अच्छी लग रही हो"

"ओह रियली! मुझे ज़्यादा कॉम्पलिमेंट्स की आदत नहीं है वैसे। लेकिन फिर भी थैंक्स"

"क्यों?"

"न मैं बहुत गोरी हूँ, न ही बहुत खूबसूरत।"

"काश मेरी आँखों के लेन्सेस पोलरॉइड कैमरा होते, तुम्हारी तस्वीर खींच के दिखा देता की तुम सच में सुंदर हो।"

"ओह माय गॉड! इतना बड़ा कॉम्पलिमेंट! शायर भी हो क्या"

"ग़ज़ल सामने बैठी हो तो कोई भी शायर हो जाए"

वन्या अपनी हल्की सी शर्म वाली हँसी न रोक सकी। "अब ये न थोड़ा ज़्यादा हो रहा है। शायद इसी को फ्लर्टिंग कहते हैं"

"मैडम, एक तो मैं कभी फ्लर्टिंग नहीं करता और अगर सच में इसी को फ्लर्टिंग कहते हैं तो जान लीजिए की यह मैं पहली बार कर रहा हूँ।" गहरी आँखें, हल्की मुस्कान से दोनों गालों में उभरे डिंपल, वन्या को और भी खींच रहे थे विक्रम की ओर। पिछले 4 महीनों में 3-4 छोटी छोटी मुलाक़ातों और व्हाट्सएप्प पर चैटिंग के बाद आज, आखिरकार दोनों पहली बार डिनर पर मिले थे।

"सर आप क्या लेंगे?" अचानक वेटर के आ जाने के दोनों की नज़रें जो अब तक मिली हुईं थीं मेनू कार्ड पर जा टिकीं।

खाना खाने के बाद सड़क के किनारे टहल रहे थे।

"पिंक कलर जँचता है तुम पर। अच्छा सूट है"

"रियली" वन्या ने दुपट्टे तो अपनी उंगली में लपेटते हुए कहा "वैसे मुझे ब्लू ज़्यादा पसंद है। ये सूट मुझे मेरी रूममेट कृतिका ने तोहफे में दिया था।"

"वही कृतिका न जिसके कंफ्यूजन में तुमने मुझे न्यू ईयर पर....." छेड़ते हुए विक्रम ने कहा

"कम ऑन विक्रम डोंट एम्बेरेस मी" सकुचाती हुई वन्या उसकी बाँह पर हल्के से मुक्का मरती हुई बोली।" कुछ सेकंड तक उसकी नज़र अपनी उसी बाँह पर ही टिकी रही। शायद वो उस स्पर्श को कैद करना चाहता था।

"ओके बाबा, नहीं बोलूँगा उस बारे में। चलो कुछ और बात करते हैं। अब तक जितनी बार भी मिले यूँ ही थोड़ी सी देर के लिए मिले। और व्हाट्सएप् पर जितनी भी बातें हुईं, हमने बहुत कुछ डिसकस किया, लेकिन अपनी पर्सनल लाइफ के बारे में कभी नहीं"

"हाँ, यार ये बात तो सही है। चलो मैं बताती हूँ अपने बारे में। जैसा कि तुम जानते हो मैं यहाँ बैंगलोर में आई टी इंडस्ट्री में जॉब करती हूँ। मेरी फैमिली इंदौर में रहती है। पापा रिटायर्ड बैंक मैनेजर हैं, मम्मा टीचर, दीदी हैं जिनकी 2 साल पहले शादी हो चुकी है, वो और जीजाजी दोनों इंदौर में ही अपना बिज़नेस संभाल रहे हैं। अब तुम अपने बारे में बताओ"

"मेरी फैमिली में बस मैं और मम्मा हैं। पापा नहीं रहे कुछ साल पहले।"

"ओह, आई एम सॉरी"

"इट्स ओके। तुम्हारे क्या फ्यूचर प्लान्स हैं?" जिज्ञासा भरी मुस्कान के साथ विक्रम ने पूछा," कोई रिलेशनशिप? शादी वादी....?"

"बड़े स्ट्रेट फारवर्ड हो, इरादा क्या है? शादी करना है क्या मुझ से?" वन्या के शरारती अंदाज़ से विक्रम झेंप गया

"अरे ऐसे ही पूछा"

"मतलब इरादा नहीं है?"

"ऐसा मैंने कब कहा"

"मतलब इरादा है?"

ज़ोर से हँस पड़ी वन्या। विक्रम कुछ न कह सका, उसकी मसूड़ों वाली निश्छल हंसी निहारता रहा। मुश्किल से हंसी पर काबू पाया वन्या ने।

"मज़ाक कर रही थी"

"कोई बात नहीं"

"वेल वैसे काफी दोस्त हैं मेरे लेकिन रिलेशनशिप के लायक कोई मिला ही नहीं। कुछ महीनों पहले एक रिश्ता आया था। लड़का आर्मी में कैप्टन था।"

"अच्छा, फिर?" विक्रम उत्सुक था।

"कुछ नहीं, मैंने मना कर दिया। मुझे आर्मी वाले पसंद नहीं"

"क्यों? बुरा क्या है आर्मी वालों में?"

"बुरा कुछ नहीं है, अच्छे ही होते हैं। लेकिन कुछ ज़्यादा ही अनुशासन वाले होते हैं। बिल्कुल टाइम टेबल टाइप्स। मेरे मौसाजी आर्मी में ही हैं। बेहद कड़क मिजाज़। माय गॉड, क्या बताऊँ तुम्हें। डिसिप्लिन अच्छी बात है लेकिन एक हद होती है। वो ज़रा भी फ्लेक्सिबल नहीं हैं। चाहे कुछ हो जाए उनका रूटीन डिस्टर्ब नहीं होना चाहिए, वरना मौसी और बच्चों की शामत। टेरर है उनका घर में। उनके घर संडे को भी जाओ तो अपॉइंटमेंट ले के। ये भी कोई बात हुई भला। ज़रा भी भावनाएं नहीं हैं उन में। पत्थर जैसे हैं। हमेशा एक ही एक्सप्रेशन चेहरे पर।"

"सभी आर्मी वाले ऐसे थोड़े ही होते होंगे, अच्छे लोग भी होते हैं आर्मी में। आर्मी वाले न केवल बॉर्डर पर हमारी रक्षा करते हैं, इलेक्शन, दंगे, बाढ़, भूकंप जैसी प्रोब्लेम्स भी जब हाथ से निकल जाती हैं, तब आर्मी को ही बुलाता है प्रशासन।"

"अरे मैं आर्मी के खिलाफ बिल्कुल भी नहीं हूँ। इनफैक्ट मैं बहुत इज़्ज़त करती हूँ !आर्मी वालों की। लेकिन शादी... बिल्कुल नहीं। चलो छोड़ो ये बातें, जिस गली जाना ही नहीं, वहां का रास्ता क्यों पूछना। तुम बताओ, तुम्हारी क्या जॉब है।"

"मेरी जॉब, वेल.....मैं मर्चेंट नेवी में हूँ।"

"ओह... नाइस"

"आई होप तुम्हें मर्चेंट नेवी से कोई दिक्कत नहीं, मेरा मतलब है दोस्ती करने से।"

"अरे नहीं नहीं, वैसे दिक्कत मुझे आर्मी से भी नहीं है, बस शादी नहीं करूँगी...... हम्म्म्म तो तुम मर्चेंट नेवी में हो। तभी मैं कहूँ, तुम्हारा फोन ज़्यादातर बन्द कैसे आता है। व्हाट्सएप्प पे भी हफ्ते में एक दो बार ही बात करते हो"

"क्या करें जॉब ही ऐसी है। महीनों बाद छुट्टियाँ मिलतीं हैं। वो तो मम्मा की तबियत ठीक नहीं थी इसलिए मुझे बीच बीच में आना पड़ा। इस बार जाऊँगा तो शायद छः महीने, या उस से भी ज़्यादा"

"मतलब तुम जाने वाले हो"

"जॉब है, जाना तो पड़ेगा ही"

कुछ पल उनके बीच शब्दों की जगह खामोशी ने ले ली थी। गाला साफ करते हुए विक्रम ने चुप्पी तोड़ी "सो वन्या, मुझे लगता है कि अब हमें निकलना चाहिए, दस बजने वाले हैं, तुम्हें घर पहुंचने में देर हो रही है"

वन्या ने गर्दन घुमाकर उसकी तरफ देखा। वो अपनी नज़रें नहीं हटा पा रही थी। उसकी नज़रें भी वन्या के चेहरे पर थम गयीं थीं। कुछ पल के लिए जैसे सारा जहाँ ही थम गया हो। सड़क के किनारे खड़े होने के बावजूद दोनों के बीच बिल्कुल खामोशी थी शायद एक दूसरे की धड़कनें सुनना चाह रहे थे उनके दिल। तभी उस खामोशी को वन्या के फोन के बज़ ने तोड़ा।

जैसे ही उसने फ़ोन उठाया "वन्या कहाँ है तू इडियट, एक घंटे से फ़ोन लगा रही हूँ, उठा क्यों नहीं रही थी, पता है अगर अभी भी नहीं उठती तो मैं सीधे तेरे घर आंटी को काल करने वाली थी"

"अरे सॉरी यार कृतिका, वो फ़ोन साइलेंट पे था, पता ही नहीं चला"

"हओ! अरे दस बज रही है, तू है कहाँ?"

"यार वो मैं, मैं विक्रम के साथ डिनर पर आई थी, यहीं जे पी नगर में ही हूँ"

"ओहहो तो मैडम डेट पर गईं हैं। और हम यहां चिंता से घुले जा रहे हैं। और एक मिनिट ये विक्रम कौन है?" कृतिका की तेज़ आवाज़ विक्रम तक पहुंच रही थी।

वन्या झिझकते हुए विक्रम को देख के मुस्कुराई और दूसरी ओर घूम कर अपनी आवाज़ दबाते हुए कहा "अरे थोड़ा धीरे बोलेगी क्या, विक्रम यार, वही विक्रम"

"ओक्के, वो मिस्टर खुफिया, जिसके न ओर का पता न छोर का, और तू पागलों की तरह उसको फ़ोन करने की कोशिश करती रहती है। और मुझे बताया तक नहीं तूने हाँ"

वन्या ने फोन का वॉल्यूम कम कर दिया, लेकिन विक्रम सब सुन चुका था।

"चुप कर, आ रही हूँ पंद्रह मिनिट में"

फोन काट कर बनावटी मुस्कान के साथ वन्या पलटी "ये कृतिका भी न"

"बहुत चिंता करती है तुम्हारी, ऐसे दोस्त कम मिलते हैं"

"हाँ, बचपन से साथ पढ़ी है न। बहुत पोज़ेसिव है मेरे लिए। चलो न चलते हैं"

पार्किंग लॉट पहुँचते ही वन्या को विक्रम ने उसकी स्कूटी निकल के दी

"तुम कैसे जाओगे"

"अपनी बाइक से, वो खाड़ी है"

"वाओ रॉयल एनफील्ड"

"पसंद है"

"बहुत, मुझे चलना सीखोगे"

"क्यों नहीं, लेकिन अगली बार, कुछ महीने वेट करना पड़ेगा तुम्हें"

"अगली बार..."

इस बार वन्या ने नज़रें झुका लीं। विक्रम ने मूड को हल्का करते हुए कहा "तो मिस्टर खुफिया, हाँ?"

"अरे कुछ नहीं, वो कृतिका पागल है"

"अब मैं इतना इंतज़ार नहीं करवाऊँगा तुम से। परसों जा रहा हूँ। रोज़ तो नहीं लेकिन कोशिश करूंगा की हफ्ते में एक बार कॉल ज़रूर करूँ।" वन्या शरमा गयी। "तुम बुरा न मानो तो........ क्या मैं हमारी एक सेल्फी ले सकता हूँ?" वन्या ने सकुचाते हुए हाँ में गर्दन हिला दी।

"चलो अब निकलो जल्दी, कहो तो मैं चलूँ साथ साथ ड्रॉप करने?"

"नहीं, पास ही है घर, चली जाऊँगी"

"आर यू श्योर? रात काफी हो गयी है"

"या आई एम श्योर"

"बाय"

"बाय"

खोई खोई सी वन्या ने स्कूटी स्टार्ट की और घर की ओर निकल पड़ी। वो गले लगना चाहती थी इस बार उसके, गलती से नहीं सच में। रास्ते भर उसे लगता रहा कि कोई साथ था उसके कि वो अकेली नहीं थी। शायद..... विक्रम? साइड मिरर में देखा, हैं विक्रम ही तो था। "इतनी चिंता है उसे मेरी?"

तभी फोन फिर बज़ होने लगा "ओफ्फो ये कॄतिका भी न चैन नहीं लेने देती।"

सचमुच उसका फ़ोन बज़ हो रहा था। वो वर्तमान में वापस लौटते हुए जब तक फोन उठा पाती, कट चुका था। तभी कॄतिका का व्हाट्सएप पर मैसेज आया "तू, पहुँच गयी न, अंकल आंटी को एयरपोर्ट से पिक करके मैं भी उनके साथ आ जाऊँगी। ओके, टेक केअर"

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भाग 4


"ओके, कैब कर लेना। अम्मा अप्पा की फ्लाइट ढाई बजे लैंड होगी। चार बजे से पहले पहुंच जाना" वन्या ने कृतिका को जवाब लिखा।

जैसे ही वन्या ने नज़रें उठाईं उसकी नज़र डायरी पर पड़ी। नीले रंग की गुलाबी पन्नों वाली डायरी। "ये तो शायद वही डायरी है। उसने झट से उस डायरी का पहला पन्ना पलटा

"हासिल हुआ है तेरी दुआओं से हर मक़ाम, तू ही तो मेरे अज़्म की ताक़त है मेरी माँ

तेरे वजूद से ही तो वजूद है मेरा,

तू ही मेरे हयात की रंगत है मेरी माँ"

उसका दिल वाह कर उठा। अगला पन्ना खोलते ही अगला शेर था।

"बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक ऐ ज़मीं माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी"

- परवीन शाकिर

कुछ और पन्ने पलटने के बाद उसे लगा कि डायरी में कुछ दबा हुआ था। वो पन्ना खोल कर देखा तो उसकी ही तस्वीर थी। साथ ही दबा था वही सुर्ख गुलाब। जो सूख चुका था, लेकिन उसकी ताज़गी में कोई कमी न आयी थी। आठ महीने कैसे बीते, पता ही न चला। इस दौरान हर हफ्ते दस दिनों में होने वाली बातों और चैटिंग उनके बीच की इंटरनॅशनल दूरी को पाटती रहती। वन्या अपना लगभग सब कुछ शेयर कर चुकी थी विक्रम से। लेकिन फिर भी बहुत कुछ अनकहा था। विक्रम ही हर बार फोन लगता, क्योंकि वन्या जब भी लगती, फ़ोन हमेशा बन्द ही मिलता। विक्रम बोलता कम, सुनता ज़्यादा था। शायद फोन पर ज़्यादा बात करने की आदत न थी उसे। फोन आने पर अगर कृतिका उसके साथ होती, उसके मज़ेदार तानों का बैकग्राउंड म्यूजिक चलता ही रहता। आखिरकार वो शाम आई जब वन्या के फोन की फिर वही रिंगटोन बजी जो उसने खास विक्रम के लिए सेट कर रखी थी।

"हैल्लो"

"हाय, हाऊ आर यु"

"आई आम फाइन, तुम कैसे हो?"

"मैं भी ठीक हूँ। अच्छा सुनो, आई एम कमिंग दिस फ्राइडे। केवल दस दिनों के लिए आ रहा हूँ।"

"ओह वाओओओओ" वन्या ज़ोर से चिल्लाई।

"वन्या?आर यु ऑल राइट?"

बमुश्किल वन्या ने अपना एक्साइटमेंट काबू किया "यस आई एम फाइन। फ्राइडे शाम को मिलते हैं, ओके?"

"वन्या, काम डाउन। फ्राइडे दोपहर पहुंचते ही मुझे काम है, शनिवार को लंच करते हैं साथ में। कुछ ज़रूरी बात करनी है तुमसे।बारबेक्यू नेशन, बी टी एम, ठीक एक बजे। ओके।"

"ओके"

"चलो बाय, अभी बिज़ी हूँ बहुत।"

"ठीक है। बाय"

फोन कटते ही वन्या उछाल पड़ी।

"क्या कर रही है तू?" बाथरूम से निकलती हुई कृतिका चिल्लाई "अभी बिस्तर ठीक किया था मैंने" वो बिस्तर पर चढ़ी और खींच कर वन्या को बिठा दिया "बंदर की आत्मा घुस गयी क्या तेरे में, पगला गयी है बिल्कुल"

"कृतिका यु आर सो स्वीट" उसके गाल खींचती हुई वन्या बोली

"अरे हुआ क्या कुछ बोलेगी भी"

एक गहरी सांस लेकर वन्या बोली "सुन, इस फ्राइडे विक्रम आ रहा है। उसने सैटरडे को लंच पे बुलाया है मुझे। बोल रहा था कुछ खास बात करनी है"

"सत्यानाश" कृतिका सिर पीटती हुई बोली "तू समझती क्यों नहीं यार, हज़ार बार समझ चुकी। तू उसे जानती ही कितना है। खुद के बारे में कुछ बताता ही नही ज़्यादा। केवल बातें कर लेने से किसी से प्यार नही हो जाता।"

'प्यार' ये शब्द सुनते ही वन्या की जैसे धड़कनें ही थम गयीं। स्तब्ध थी वो। शायद उसकी भावनाओं को इसी शब्द का इंतज़ार था।

"सुन रही है मैंने क्या कहा? हैलो कहाँ खो गयी।

"हाँ, सुन रही हूँ। यार तू उसके इतने खिलाफ क्यों है? मैं भी कितनी बार समझा चुकी की वो अच्छा लड़का है। पहली बार मिलते ही कुछ कनेक्शन सा बन गया था हम दोनों के बीच। हर किसी के साथ ऐसी फीलिंग नहीं आती। अपन दोनों ही बचपन कॉलेज तक साथ पढ़े, तू ही बता कभी किसी के लिए इतनी स्ट्रांग वाली फीलिंग क्यों नहीं आई मेरे मन में?"

दुखी सा चेहरा बना कर कृतिका उसे ताकती रही "मुझे तेरी चिंता है पागल। स्कूल से ले कर अब तक भले ही तुझे प्यार नहीं हुआ, लेकिन दोस्ती में कितने धोखे खाये तूने? तू भोली है बहुत। जो प्यार से बात भर कर ले, वो अच्छा हो जाता है।"

"ठीक है यार माना की तू अब तक मुझे हमेशा प्रोटेक्ट करती आई है, लेकिन यार अब मैं पच्चीस साल की हूँ। मुझमें भी अकल है। मेरी लाइफ के कुछ फैसले तो मुझे खुद लेने दे"

"अच्छा ठीक है। तुझे जो लगे सो कर। कभी कुछ हुआ ना तो मत बोलना की मैंने वार्न नहीं किया था।" कृतिका गुस्से में मुँह घूम कर सो गयी।

"अरे यार, तू तो गुस्सा हो गयी। ए इधर देख न प्लीज। सुन तो, तेरेको पानी पतासे की कसम। अरे तेरे को खजराना के गणपति की कसम। ओ मोटी, ओ माँ साब। ओ भियो कोई हे क्या, ये आंटी जी भोत रूस गईं।" पक्के इंदौरी अंदाज़ में वन्या को बात करते सुन कृतिका अपनी हंसी न रोक सकी। वन्या ने कस के उसे गले से लगा लिया।

"चल चल जाने दे, नौटंकी।"

"प्लीज न यार, पहली बार प्यार का अहसास हुआ है। जाने दे न उस से मिलने"

"चल ठीक है। लेकिन मैं भी चलूंगी तेरे साथ।"

"अरे नहीं नहीं यार। इस बार नहीं। वैसे भी कल तेरी आफिस की आउटिंग है ना।कभी और मिलवाने ले चलूंगी न तुझे भी।"

"कब? अगले साल?"

"प्लीज़ न यार। इस बार उसे मुझे कुछ खास बात करनी है।"

"ओके। जा वन्या, जी ले अपनी ज़िन्दगी।"

जीन्स पर गहरा नीला टॉप, कानों में नीले मनकों वाली छोटी छोटी झुमकियाँ, बहुत फब रहीं थीं। काजल उसकी बड़ी बड़ी आंखों को और उभार रहा था। वो बहुत ज़्यादा खूबसूरत नहीं थी। लेकिन आज उसकी जज़्बातों ने उसकी खूबसूरती बढ़ा दी थी।

"आपकी बुकिंग है मैडम?" रिसेप्शनिस्ट ने पूछा।

"हां एक बजे की, टेबल फ़ॉर टू। विक्रम जीत सिंह के नाम से।"

"ओके, मैडम, सर आ चुके हैं आप टेबल नंबर 5 पर जा सकतीं हैं"

"अरे, जल्दी आ गए वो"

" नहीं मैडम एक बजने के पांच मिनट पहले ही आये। इट इज़ वन ट्वेंटी नाउ"

"ओह, ओके, सर थोड़े पंक्चुअल हैं।"

सामने के टेबल पर ही बैठा था वो। "कितना हैंडसम है यार" वन्या उसको देख के मन ही मन शर्मा रही थी। उसे आते देख वो उठ खड़ा हुआ। उसकी वो डिम्पल वाली मुस्कान वन्या का स्वागत कर रही थी।

"हाय"

"हेलो"

"कैसी हो?"

"बहुत अच्छी हूँ। तुम कैसे हो। जॉब कैसी चल रही है। इतने महीने कहाँ कहाँ घूमे।"

"अरे बाप रे! इतने सवाल?" वो हंसता हुआ बोला। "घूमना क्या है, जॉब है, कोई एक ठिकाना नहीं होता।"

"कितनी बढ़िया जॉब है तुम्हारी, फ्री में दुनिया घूमने को मिलती है, और नीला नीला समुंदर, वाओ। कितना मज़ा आता होगा न"

"लेकिन मुझे पहाड़ ज़्यादा पसंद हैं। वैसे भी दुनिया में कहीं भी जाओ, अपने इंडिया जैसी जगह कोई नहीं। मुझे यहीं रहना पसंद है। तुम नहीं जानती कितनी बोरिंग जॉब होती है वो"

"कोई मुझे ऐसी जॉब दे तो मैं तो कभी छुट्टी ही न लूँ"

"दिखता बहुत आसान है, लेकिन बहुत मुश्किल है ये जॉब। माँ से दूर, तुम से दूर"

ये सुन कर वन्या की पलकें शर्म से झुक गयीं। "खैर छोड़ो मेरी जॉब की बातें। तुम अपनी सुनाओ। तुम्हारी वो मिस कृतिका कैसी है?"

"अच्छी है।"

"मना नहीं किया मुझ से मिलने के लिए उसने?"

दोनों को हंसी आ गयी।

"एक्चुअली वो बहुत प्रोटेक्टिव हैं मेरे लिए"

"हां बचपन से जो साथ है"

"अच्छा तुम बताओ, तुम्हें कुछ बात करना थी न"

"हां, करूंगा। खाने के साथ" उसने वेटर को इशारा किया।

"ये क्या, तुम तो नॉनवेज कहते हो न"

"मैं तो क्या नहीं खाता लेकिन तुम शुद्ध शाकाहारी हो न, इसलिए पहले ही वेज का बोल दिया था"

वन्या की हर छोटी से छोटी बात का भी खयाल रख रहा था वो। वो वन्या को।ऐसे देखता, मानो आठ महीनों की कसर पूरी कर लेना चाहता हो। थोड़ा शर्माती, थोड़ा घबराती वन्या इंतज़ार में थी, अपने रिश्ते पर मुहर लगने के।

"वन्या, अब मैं पॉइंट पर आता हूँ। मैं थोड़ा सीधा बोलने वाला आदमी हूँ। घुमा फिरा के बात करना नहीं आता। सिंपल ज़िन्दगी पसंद करता हूँ। घर से दूर रहना मेरी जॉब का हिस्सा है। लेकिन बहुत प्यार करता हूँ मैं, अपने देश से, अपनी माँ से और....."

वन्या को अपनी धड़कनें कानों में सुनाई दे रहीं थीं। "और?"

"और तुमसे वन्या"

वन्या की शर्म से भारी हुईं पलकें उठने का नाम हैं नहीं ले रहीं थीं। विक्रम अपनी गर्दन झुका कर उसकी आँखों में देखने की।कोशिश करने लगा।

"तुम ठीक हो न? आई एम सॉरी अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो, मुझे फिल्मी स्टाइल में बात कहना नहीं आता। अगर तुम्हे बुरा लगा हो, और मंज़ूर न हो तो सॉरी।"

"ऐसा नहीं है" वन्या ने हड़बड़ाते हुए विक्रम का हाथ थाम लिया

"फिर कैसा है?"

"जो तुम मेरे लिए महसूस करते हो। वही मैं भी फील करती हूँ" वन्या की पलकें फिर झुक गयीं, लेकिन इस बार उसके होठों की हल्की गुलाबी लिप्स्टिक उसकी।मुस्कान के साथ खिल उठी थी।"

दोनों के बीच पनपी उस रूमानी खामोशी में उनकी धड़कनें मानों एक लय में चल रहीं थीं। औए बैकग्राउंड में चल रही थी चित्र जी और जगजीत जी की ग़ज़ल......

"कौन कहता है, मुहब्बत की ज़ुबाँ होती है

ये हक़ीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है"

वन्या ने सकुचा कर अपना हाथ उसके हाथ पर से हटा लिया। नज़रें कभी मिलतीं, कभी झुक जातीं।

"सर मेन कोर्स लेंगे या अभी स्टार्टर्स ही कंटिन्यू करें"

"बोलो वन्या"

"अम्म्म, हाँ अब में कोर्स लेते हैं"

थोड़ी देर बाद वन्या की चुप्पी एक फ़ोन काल ने तोड़ी

"हेळी अम्मा....हवुदू....सेरी... आ मेले फ़ोन माड़तीनी। ओके बाय"

"ओह माई गॉड, ये क्या था"

"क्या? मेरी अम्मा आई मीन मम्मी का फ़ोन था"

"मुझे ओके बाय के अलावा कुछ भी समझ नहीं आया"

दोनों ज़ोर से हंस पड़े। विक्रम मन ही मन वन्या की अम्मा को धन्यवाद दे रहा था। उनके फोन के कारण उन दोनों के बीच अचानक पनपी असहजता से दोनों मुक्त हुए थे।

"वन्या हेगड़े, कन्नडा हूँ मैं। अप्पा की जॉब के कारण एम पी में रहे हमेशा"

"मैं शायद बीस सालों से बैंगलोर में हूँ। मुझे आज तक एक शब्द कन्नडा नही आई"

"पंजाबियों की वैसे भी साउथ की भाषाएं कहाँ आएँगी" वन्या ने उसे छेड़ते हुए कहा।

लंच के बाद दोनों वहीं पास टहल रहे थे। बातों के बीच कभी विक्रम अपनी नज़रें हटाने की कोशिश करता, और वन्या नज़रें मिलने की। शाम गहराने को थी।

"टाइम हो रहा है, अब लगता है हमें निकलना चाहिए। शाम होते ही बारिश होने लगती है आजकल"

"हां चलते हैं, वरना तुम्हारी कृतिका का फ़ोन आ जाएगा"

वन्या को हंसी आ गयी "नहीं आएगा। को अपने आफिस की आउटिंग पे गयी है देर से आएगी"

"मैं उसे पसंद नहीं हूँ न"

"नहीं ऐसा नहीं हैं, बस बहुत फिक्र करती है मेरी"

"यकीन करो वन्या, मैं बुरा नहीं हूँ। केवल बार बार मिल नहीं सकता तुमसे। तुम्हारा विश्वास कभी नहीं तोडूंगा। आई रियली लव यु। तुम्हारे दिलमें कोई भी शक हो तो तुम बेशक मना कर सकती हो"

वन्या ने थोड़ी हिम्मत बटोरी

"नहीं विक्रम, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है। आई लव यु टू" उसने तोहफा बढ़ाते हुए कहा।

"वाओ, वॉच। नाइस। अरे लेकिन मैंने तो तुम्हे कुछ दिया ही नहीं बहुत कच्चा हूँ मैं इस सब में"

"कोई बात नहीं तुम खुद ही गिफ्ट हो मेरे लिए"

उन दस दिनों में लगभग रोज़ ही मिले थे दोनों। उसके जाने के दिन। आखिरी दिन वन्या का दिया सुर्ख गुलाब, आज भी उसकी डायरी में दबा उसके प्यार की महक समेटे था।

उसके अगले पन्ने पे लिखा था

"हाथों से उसके मेरी जो टकराईं उंगलियाँ

शरमा के खुद-ब-खुद जो सिमट आईं उंगलियाँ

अल्फ़ाज़ भी गले में अटक कर ही रह गए

रुख़सत के वक़्त उसने जो लहराईं उंगलियाँ"

उस दिन की याद कर वन्या की आँखों से दो मोती गिरकर ओस की तरह लग रहे थे उस गुलाब पर।

कुछ पन्नो बाद "कितनी परेशान हुई होगी वो। मुझे उसे फोन करना चाहिए था। मैंने आज से पहले कभी उस से इस तरह बात नहीं की। मुझे माफ करेगी वो,या शक़ करेगी मुझ पर"

उस दिन पब्लिक हॉलिडे पर वो और कृतिका शॉपिंग पर निकले थे। कृतिका एटीएम से पैसे निकलने गयी थी। वन्या उसी का इंतज़ार कर रही थी।

"ए रुक"

विक्रम की आवाज़??? मोबाइल से जैसे ही नज़रें उठा कर देखा, विक्रम ही था। "ये यहां कैसे"

कोई अजीब सा आदमी तेज़ कदमों से आगे आगे चल रहा था। विक्रम उसका पीछा कर रहा था। आश्चर्य से बैचैन वन्या उसके पीछे पीछे हो ली। वो बहुत तेज़ चलते हुए एक तंग गली में दाखिल हो गए। जब वन्या वहां पहुंची विक्रम उस आदमी को कॉलर पकड़ कर झंझोड़ रहा था। वो आदमी विक्रम की पकड़ से खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था। उसने विक्रम पर वार करने की।कोशिश की। विक्रम ने उसे एक ज़ोरदार तमाचा लगाया। वन्या की दी घड़ी उसके हाथ से छिटक कर वन्या के ही पैरों के पास आ कर गिरी।

"विक्रम" वन्या चिल्लाई, "ये क्या कर रहे हो?" वन्या घड़ी उठाते हुए बोली।

"वन्या?? तुम जाओ यहां से। राइट नाउ" विक्रम अपनी पकड़ मज़बूत करता हुआ बोला।

"तुम आये कब? बताया क्यों नहीं मुझे?" वन्या स्तब्ध थी।

"कहा न तुम जाओ यहाँ से"

"लेकिन"

अबकी बार विक्रम बहुत गुस्से में चिल्लाया "एक बार कहा समझ नहीं आता क्या। निकलो यहाँ से। जल्दी"

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भाग 5


"ज़रूर रोईं होंगी तुम। बिना बताए आना, और फोन भी न करना, किसे अच्छा लगेगा। लेकिन क्या बताता तुम्हें मैं? अगर दिल पर काबू कर पाता तो शायद तुम्हें प्रोपोज़ ही न किया होता। तुम्हारा गुनाहगार था मैं। या उस दिन शायद मेरा तुम्हें नज़र आ जाना ही मेरी गलती थी। लेकिन क्या करता? क्या बताता तुम्हें मैं? क्या बताता मजबूरियाँ मेरी। कभी मन करता है कि सब कुछ बता दूँ। मेरा सच तुम कभी स्वीकार न करोगी। इसलिए डरता हूँ, कहीं खो न दूं तुम्हें। इसलिए न अपनी फैमिली के बारे में कुछ बताता हूँ। न अपने बारे में।" विक्रम की डायरी आज उन दोनों के अब तक के सफर की गवाह बनी थी। वन्या आज परत दर परत उसका मन पढ़ रही थी।


उस दिन नाराज़ तो बहुत थी वन्या, उससे भी ज़्यादा दुखी थी। कृतिका का शक़ तो दोगुना हो गया था। लेकिन जाने क्यूँ उसका दिल किसी भी तरह के शक़ को नकारने पर तुला हुआ था। उसके वादे पर यकीन जो था, उसे कि वो वक़्त आने पर सब सच बताएगा।


उसे हमेशा ताज्जुब होता की विक्रम अपने इतने व्यस्त शेड्यूल में भी शायरी, कविताएँ लिखने और पढ़ने का समय कहाँ से निकाल लेता था। एक मुलाकात के वक़्त लाया था वो ये डायरी अपने साथ। तभी पहली बार पता चला था, कितना अच्छा कलेक्शन था उसके पास। लिखता भी बहुत अच्छा था। कुछ ख़ुद का लिखा भी सुनता था कभी कभी।

अपनी तर्जनी को डायरी के उस पन्ने में फंसा कर, डायरी बन्द कर वन्या आँखे बन्द कर अतीत के दूसरे पर्दे हटाने लगी।

"अब तो हर पल यादों का मौसम लगता है

हर मंज़र खुशियों का आलम लगता है

मिलूँ न गर तो लगता है कब मिल लूँ तुम से

और मिलता हूँ तो कम्बख्त ये भी कम लगता है"

"वाह, वेरी नाइस। इतना अच्छा कैसे लिख लेते हो तुम" वन्या ने विक्रम के हाथ की बनी चाय का पहला घूँट लिया। "बाप रे! इतनी मीठी? चाशनी। मेरे होंठ चिपकने लगे"

"वह सॉरी, तुम कम मीठी चाय पीती हो? मुझे बताया क्यों नहीं? वहीं तो खड़ी थीं।"

"मेरा ध्यान चाय पर होगा क्या? तुम्हारे रहते" वन्या के गालों पर हल्की लाली छा गयी। 4 महीनों और हल्की फुल्की नाराज़गी और कनफ्यूजन के बाद उस दिन वो दोनों डिनर पर मिले थे। घर पहुंचने से पहले ही एनफील्ड का टायर पंक्चर हो गया। बहुत मुश्किल से वन्या के बहुत ज़िद करने पर उसके घर रुकने को राज़ी हुआ था था विक्रम।

"अच्छा ये बताओ, कृतिका कब वापस आएगी"

"लड़का देखने गयी है। इंदौर का ही है। हो सकता है कल सुबह ही आ जाए"

"वो अक्सर शिकायत करती है न की मैं नहीं मिलता उस से, आज होती तो उसकी शिकायत और शक़ शायद दूर कर पाता"

रात गहरा चुकी थी। वन्या बार बार मोबाइल चालू कर टाइम देखती। काश सुबह ही न हो और विक्रम ऐसे ही उसके सामने बैठा रहे। वो करीब आना चाहती थी। शायद विक्रम भी समझ पा रहा था।

"वन्या" विक्रम ने उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में थाम कर उसका माथा चूम लिया। "तुम ज़िम्मेदारी हो मेरी। मैं नहीं चाहता कि ऐसा कुछ भी हमारे बीच जिससे मेरे जाने के बाद तुम गिल्ट में जिओ। और मैं भी जब अपना चेहरा आईने में देखूँ, तो खुद से नज़रें न मिला सकूँ। बेहतर होगा की तुम अंदर जाकर सो जाओ। मैं यहीं सो जाऊँगा।"

वन्या ने उसे एक बार गले लगाया। और चुपचाप जाकर सो गयी। अगली सुबह साढ़े पाँच बजे किसी आवाज़ से उसकी नींद खुली। वो बाहर आई। विक्रम बाथरूम में मुँह दो रहा था। चाय चढ़ाने के बाद ड्रॉइंग रूम में वापस आकर सोफे पर पड़ी विक्रम की शर्ट जैसे ही उठाई। उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था। उसका पिछले तीन सालों में बहुत मुश्किल से पनपा विश्वास। एक बार फिर हिलने लगा। "क्या ये सचमुच् पिस्टल है?" घबराते हुए वो उसे उठाने को हुई ही थी।

"ओह गॉड! उसे हाथ भी मत लगाना वन्या। लोडेड है।"

उसे बेहद सहम हुआ पाकर विक्रम ने उसे गले लगा लिया। "कूल डाउन डियर। ये मुझे कंपनी की तरफ से मिलती है। कंपल्सरी होता है ये रखना। डरो मत।"

चाय के उफनने साथ वन्या के दिल में भी तेज़ उफान उठ रहा था। हाथ पैर बिल्कुल सुन्न से पड़े हुए थे।

इस बार विक्रम को अलविदा कहते समय बहुत बुझी हुई सी थी वो। ये जानने के बावजूद भी की वो फिर कुछ महीनों के लिए दूर हो जाएगा, वो ठीक से मिल न सकी उससे। उसके जाने के एक घंटे बाद उसका मैसेज आया। "मैं समझ सकता हूँ। पिस्टल देख कर तुम्हें झटका लगा है। मेरा यकीन करो, वो एक लाइसेंस्ड पिस्टल है। मेरे प्रोफेशन में रखना ज़रूरी होता है। कोई वहम मत पालना। आई लव यु सो मच"

अब उसे इंतज़ार था तो कॄतिका का। आठ बजे तक वो भी आ गयी थी।

"क्या बात कर रही है। तूने उसे यहां रुकने कैसे दिया?"

"यार वो नही मान रहा था। लेकिन इतनी रात को पंक्चर की दुकान कहाँ मिलती"

"सच सच बता, उसने कुछ किया तो नहीं न तुझे?"

"नहीं रे, बिल्कुल भी नहीं। वो नहीं चाहता कि मुझे कभी कोई गिल्ट हो। यहीं सोफे पर सोया वो। और सुबह छह बजे चला भी गया। पता होता की तू आज आ रही है तो रोक लेती उसे थोड़ी देर और। खैर मेरी छोड़ तू ये बता कैसा लगा लड़का। कुछ बात बनी?"

"वेल तू छुट्टी का इंतज़ाम करके रख लेना, और टिकट बुक करवा लेना। नवंबर में सगाई है, और जनवरी में शादी"

"वाओओओओ कॉन्ग्रेचुलेशन्स।" वन्या ने उसे ज़ोर से गले लगा लिया। "अच्छा करते क्या हैं साहब?"

"गेस व्हाट, आपके वाले की ही तरह मर्चेंट नेवी में हैं। एपीएस मेरीटाइम सर्विसेज लिमिटेड में सेकंड इंजीनियर हैं अर्पित।"

" एपीएस मेरीटाइम! यार विक्रम भी तो इसी में हैं।"

"तो फाइनली तुझे उसने बात ही दिया। गुड। मुझे सच में तेरी बहुत चिंता होती है। मर्चेंट नेवी जैसी एक्साइटिंग जॉब होने के बाद भी कभी किसी लोकेशन की फोटो नहीं दिखाई उसने तुझे। कभी तेरे लिए कोई इम्पोर्टेड गिफ्ट नहीं लाया। अपनी शायरियाँ ले आता है बस। ज़्यादा फ़ोटो नहीं लेने देता। और तेरे फोन में जितनी भी पिक्स हैं सब में सनग्लासेस चढ़ा रखे हैं। यार इतना खुफिया बॉय फ्रेंड आज तक नहीं देखा किसी का। पता नहीं क्यों और कैसे टिकी हुई है तू उसके साथ"

"तू फिर शुरू हो गयी। अरे कल ही शादी पक्की करके आई है। और ये सब फालतू बातें ले के बैठ गयी।"

"बहुत सीधी है तू वन्या, डर लगता है कि....."

"बस अब बिल्कुल चुप। मेरे बारे में कोई बात नहीं। ये बता शॉपिंग कब से शुरू करनी है?"

"अरे बिल्कुल इसी वीकेंड से, डेढ़ ही महीना बचा है सगाई के लिए। अब चल जल्दी से रेडी हो जा, आफिस के लिए लेट हो जाएंगे"

वन्या उसे पिस्टल के बारे में बताना चाहती थी। लेकिन पहले से कृतिका के पास विक्रम पर शक़ करने की वजहें कम न थीं।

"अच्छा सुन मैं तेरे अम्मा अप्पा से भी मिल कर आई।"

"अच्छा! क्या बोले"

"चिंता कर रहे थे तेरी। तूने दो बार लड़का देखने से जो मना कर दिया। और कोई पसंद है पूछने पर भी विक्रम के बारे में नहीं बताती"

"तूने उन्हें बताया तो नहीं"

"अरे इतनी ज़्यादा पूछताछ की तो बताना ही पड़ा"

"हे भगवान, क्या बताया तूने"

"चिंता मत कर। ऐसा कुछ भी नहीं बताया की मेरी तरह टेंशन हो उनको। बस उसका नाम और जॉब के बारे में ही बताया।"

"ओह माय गॉड। क्या कहा उन्होंने?"

"कुछ नहीं कहा। मिलना चाहते हैं वो विक्रम और उसकी फैमिली से।"

"अरे यार, बताने से पहले एक बार पूछ तो लिया होता तूने मुझ से। आज ही विक्रम चला जाएगा। क्या पता कैसे रियेक्ट करेगा ये बताऊँगी तो।"

"अरे गया तो नहीं न। पूछ पूछ जल्दी। फोन कर"

वन्या बहुत टेंशन में थी। पता नहीं विक्रम क्या कहेगा।

"अरे मुझसे एक बार तो पूछा होता। मैं तैयार नहीं हूँ अभी। वैसे भी आज जा रहा हूँ।"

"प्लीज विक्रम। एक बार मिल लो न। अप्पा आजकल टेंशन में रहते हैं। मिल लोगे तो तसल्ली हो जाएगी।"

"लेकिन अभी हम दोनों के बीच ही कुछ भी क्लियर नहीं है फिर मैं कैसे मिल लूँ"

"क्या क्लियर नहीं है विक्रम?" वन्या झल्ला कर बोली "टाइम पास कर रहे हैं क्या हम तीन साढ़े तीन सालों से। कभी कुछ कर बताया है तुमने अपने बारे में जो क्लियर होगा। अपनी मम्मी से तक नही मिलवाया एक बार भी। इसी शहर के हो लेकिन तुम्हारा पता तक नहीं जानती मैं।"

"हैव पेशेंस वन्या थोड़ा तो टाइम दो।"

"क्या पेशेंस। कब तक। और कितना टाइम दूँ अट्ठाइस की हो गयी हूँ। पेरेंट्स को चिंता नहीं होगी?"

"काम डाउन वन्या। प्लीज। बोलो कब मिलना है। अगले महीने 2 दिन के लिए आ जाऊँगा। डेट बता देना।"

वन्या आँखें बन्द कर गहरी सांस भरकर सोफे पर बैठ गयी। पहली बार कुछ पॉजिटिव होता लग रहा था।

"पुत्तर जी आपके पापा मम्मी आ गए हैं, आपकी दोस्त भी है साथ में। नीचे आओगे या यहीं भेज दूँ उन्हें?" मिसेज़ सिंह के कंधे पर हाथ रखते ही वन्या वर्तमान में वापस आई वन्या ने झट से अपने आँसू पोंछे।

"नहीं आंटी जी। उन्हें नीचे ही रहने दीजिए मैं अभी यहीं रहना चाहती हूँ कुछ देर और अकेले।"

"ठीक है बेटे, आप जैसा ठीक समझो"

मिसेज़ सिंह के जाते ही उसने डायरी का अगला पन्ना पलटाया।

"मेरी वन्या

आज तो हर बात में तुझे देखा है

हर अक्स हर आवाज़ में तुझे देखा है

तेरा होना भी अब ज़रूरी नहीं के

हर नींद हर ख्वाब में तुझे देखा है

हर फूल हर बाग में तुझे देखा है

हर सुर हर राग में तुझे देख है

देखा है तुझे जीवन के हर क्षण में

हर सांस हर धड़कन में तुझे देखा है

हर मौसम हर बहार में तुझे देखा है

बारिश की हर फुहार में तुझे देखा है

तुम न मिल पाओ तो क्या गम होगा भला

हर पल इंतज़ार में तुझे देखा है।

"तुम्हारा विक्रम"

वन्या पलकें मूंदे फिर अतीत में खो गयी।


"शक़ का कोई इलाज नही होता वन्या। मेरी जॉब ही ऐसी है। जान बूझ कर क्यों नहीं आऊँगा मैं। अगर न आना होता तो हाँ क्यों करता तुम्हारे अम्मा अप्पा से मिलने के लिए। प्यार करता हूँ तुमसे। यकीन करो मेरा। मुझे इतना ज़्यादा ज़रूरी काम आ गया था की मुझे फौरन फ्लाइट पकड़ के जाना पड़ा।"

"मुझसे से ज़रूरी था क्या कुछ उस दिन? एक बार तो तुमसे कुछ मांगा। कितना मायूस हुए मेरे पेरेंट्स तुम क्या जानो। मैं नज़रें नहीं मिला पा रही थी उन से। प्यार करते हो न मुझसे, तो क्यों कर रहे हो ऐसी जॉब। मिलने तक को तरस जाती हूँ तुम से। छोड़ क्यों नहीं देते ऐसी जॉब तुम?"

"वन्या" विक्रम की तेज़ आवाज़ से दहल।सी गयी वन्या "आज कह दिया है। फिर कभी ये मत कहना। मेरी जॉब बहुत ज़्यादा प्यारी है मुझे। शायद तुम से भी ज़्यादा।"

"ओके विक्रम, थैंक यु। बहुत अच्छा किया जो बात दिया आज। फिर भी तुम्हें दस दिन का टाइम देती हूँ। क्या करूं? प्यार जो करती हूँ तुमसे।" बहुत ज़्यादा दर्द था वन्या की आवाज़ में "अगले हफ्ते कृतिका की सगाई में जा रही हूँ। वापस आने पर मुझे तुम्हारा फाइनल डिसिशन चाहिए।"

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कश-म-कश अंतिम भाग

"प्यार मुझ से जो किया तुमने तो क्या पाओगी

मेरी हालात की आंधी में बिखर जाओगी।


कितना सही लिखा है जावेद अख्तर साहब ने। वन्या, बहुत ज़्यादा दिल दुखाया है मैंने तुम्हारा। कभी सोचता हूँ की आज़ाद कर दूँ तुम्हे इस रिश्ते की कैद से। लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाता। कैसे कहूँ कि क्या जिंदगी है मेरी। लेकिन क्या करूँ, नहीं होगा मुझ से। बहुत बहुत प्यार करता हूँ मैं तुम से।"


"इतना प्यार है उसके दिल में मेरे लिए" वन्या की आँखों से दो बूंदें ढुलक कर उस पन्ने पर आ गिरी। वो उसकी और विक्रम की अलमारी में लगी तस्वीर को ताकती रही।

"हाय कॄतिका, क्या हुआ बोल? क्यों बुलाया इतनी अर्जेंटली?"

"तू पहले अंदर चल। फिर सब बताती हूँ।"

"हां अब जल्दी बोल, मेरी फ्लाइट है रात की यार"

"सुन मैं तुझे कल इंगेजमेंट पार्टी में ही सब बताने वाली थी। लेकिन मौका ही नहीं मिला। हमेशा कोई न कोई घेरे रहता।"

"बात क्या है? अर्पित अच्छे तो हैं न"

"अरे वो तो बहुत अच्छा है। लेकिन .... इट इज़ अबाउट विक्रम"

"तू यहां भी नहीं छोड़ेगी क्या? कल ही सगाई हुई है तेरी"

"वन्या, तू छोड़ दे विक्रम को। वो बिल्कुल ठीक नहीं है तेरे लिए"

"क्यों? अब क्या किया उसने?"

"झूठा है एक नंबर का, हर बार झूठ बोला उसने"

"साफ साफ बता क्या कहना चाह रही है"

"विक्रम उस शिपिंग कंपनी में नहीं है। इन फैक्ट वो तो मर्चेंट नेवी में ही नहीं है। मैंने अर्पित से कन्फर्म करावाया। उसके कई दोस्त जो दूसरी कंपनीज़ में हैं उन से भी चेक करवाया। धोखा दिया उसने तुझे। हमेशा झूठ कहा"

सब सुन्न हो गया था। हाथ पैर, दिमाग, सब। उससे आगे कुछ सुनाई न दे पा रहा था। एक अजीब से सन्नाटा वन्या को घेरता जा रहा था। मौन थे सब दृश्य किसी साइलेंट फ़िल्म की भाँति। जो आँखों सामने बार बार रिवाइंड और फारवर्ड हो रहे थे। न्यू ईयर नाईट, अक्सर उसके फोन और मैसेज का निरुत्तर रह जाना। वो, वो अजीब सा आदमी, हाथापाई। वो पिस्टल। कड़ियाँ जुड़ते जुड़ते टूट जा रहीं थीं। हर कड़ी के एक ओर वो थी, और दूसरी ओर............. दूसरी ओर भी तो वही खड़ी थी, अकेली। इस छोर से उस छोर तक, विक्रम था? कहाँ था? मूक सन्नाटे का कानों से लेकर आत्मा तक को चीरता शोर जब बर्दाश्त के बाहर हो जाता तो वो कस के आँखें बन्द कर दोनों कानों को हाथों से ढँक लेती। वो छुप जाना चाहती थी। कॄतिका से, अम्मा अप्पा से। किसी की नज़र में नहीं आना चाहती थी। विक्रम के धोखे पर रोये या अपनी बेवकूफी पर। दिमाग और दिल दोनों जवाब दे चुके थे।

रोज़ काल करने लगा था विक्रम। इतने कॉल्स कभी न किये थे विक्रम ने पहले। लेकिन न वो अब कुछ बोल पा रही थी, न सुनना चाहती थी। हर बार फोन काट देती। एक बार भी बात नहीं की। कहती भी क्या। लेकिन जाने क्या बात थी जो वो उसे ब्लॉक न कर सकी। उसकी ऐसी ठगी हुई शक्ल कोई न देख ले इसलिए आफिस से वर्क फ्रॉम होम लिया। उसके साथ इन साढ़े तीन चार सालों में क्या हुआ? बार बार अलग अलग विधि से ये समीकरण हल करने की कोशिश करती, लेकिन उत्तर हर बार अलग अलग ही आता। जो गलत लगता।

"वन्या, वन्या!!!!! चल उठ, मुँह धो। अरे उठ ना,मुझे आफिस के लिए लेट हो रहा है। तेरी चाय माइक्रोवेव में और नाश्ता भी प्लेट में लगा कर रखा है। खा लेना। अरे इधर देख न यार। फ़ोन पास में रखना। मैं कॉल करूँगी। शाम को तैयार हो जाना, आज तुझे चलना ही पड़ेगा शॉपिंग के लिए। मेरी शादी है यार। अरे अब बोलेगी कुछ??"

"हम्म्म्म"

"चल, निकल रही हूँ मैं। दरवाज़ा लगा ले। ठीक है, बाय"

"बाय"

कॄतिका के जाते ही वन्या ने दरवाज़ा बन्द किया और फ्रेश होकर लैपटॉप खोल कर आफिस का लॉगिन किया। स्क्रीन पर आज भी विक्रम और उसका फ़ोटो ही लगा था। जिसे वो चाह कर भी नहीं हटा पा रही थी। तभी फोन की रिंगटोन बजी। हरदम विक्रम के कॉल के इंतज़ार में फोन पास रखने वाली वन्या को आज अपना फोन ढूंढने पर मिला। फोन कट चुका था। कोई अनजान नंबर था। लोअर की जेब में फ़ोन डाल लिया। किचन में अपना चाय नाश्ता गर्म कर वापस आकर लैपटॉप लेकर बैठ गई। फोन फिर बजा, वही अनजान नंबर था।

"हेलो"

"आप वन्या बोल रहे हो" दूसरी तरफ कोई महिला थीं

"यस"

"बेटे मैं विक्रम की मम्मा, मिसेज़ सिंह"

दो पल के लिए वन्या आश्चर्य से कुछ बोल ही न पाई।

"हेलो, आप लाइन पर हो न बेटे"

"जी, जी नमस्ते आंटी"

"बेटे जी मैंने फ़ोन इसलिए किया था, कि क्या आप हमारे घर आ सकते हो, आज ही। आप से बात करनी है"

क्या कहे उसकी कुछ समझ नहीं आ रहा था। जिनके बेटे ने उसे इतना बड़ा धोखा दिया, वही उस से मिलना चाहतीं थीं।

"वन्या, पुत्तर आप बस आ जाइये जितनी जल्दी हो सके। आपके पापा मम्मी भी पहुंच रहे हैं हमारे घर। पता है मुझे, आपके मन में ढेरों सवाल होंगे। आज विक्रम भी आ रहा है। उसके आते ही आपको अपने सारे जवाब मिल जाएंगे। आ रहे हो न?"

ये अचानक किस मोड़ पर ला खड़ा किया था उसे ज़िन्दगी ने।

"आ रहे हो ना पुत्तर?"

"जी कितने बजे तक आऊँ?"

"फौरन आ जाइये आप। मैंने अपना पता आपको व्हाट्सएप्प कर दिया है"

"जी आती हूँ"

बिल्कुल हतप्रभ सी रह चुकी वन्या के मन में उमड़ते जज़्बातों की कोई सीमा नहीं थी। वो क्या अब खुश हो सकती थी? कैसे रियेक्ट करे समझ नहीं पा रही थी। जल्दी से आफिस को छुट्टी का मेल भेजा, तैयार हुई, और कैब करके विक्रम के घर पहुँची।

"वन्या पुत्तर!! डायरी पढ़ रहे हो?"

वन्या सकपका सी गयी। "बहुत चाहा है मेरे विक्रम ने तुम्हें। उसकी ज़िन्दगी में मेरे अलावा सिर्फ तुम ही रहीं जिससे उसने इतना दिल से प्यार किया। उसे प्यार जताना कभी नहीं आया। दिल की बातें ज़ाहिर करने में बहुत कच्चा रह गया वो। मैं जानती हूँ बहुत कुछ पूछना है तुम्हें, बस विक्रम को आ जाने दो"

"आंटी जी, कब तक आएगा विक्रम?"

"बस आधे घंटे में"

"तो क्या मैं अभी नीचे चलूँ?"

जाते हुए मिसेज़ सिंह ने पलट कर देखा। "अभी रुक जाओ पुत्तर, अभी कुछ और मेहमान आये हैं, मैं बुला लूँगी"

वन्या ने अपनी नज़रें डायरी के कुछ आखिरी पन्नों की ओर झुका लीं।

"मेरी वन्या,

गुनाहगार हूँ मैं तुम्हारा। क्या करता। बहुत प्यार है तुमसे। तुमने मुझे सब कुछ देना चाहा, लेकिन वक़्त ही कहाँ था मेरे पास।

'आखिर कौनसा मौसम तुम्हारे नाम कर देता

यहाँ हर एक मौसम को गुज़र जाने की जल्दी थी'

- राहत इंदौरी

बावफ़ा होकर भी अपनी वफ़ा साबित न कर सका। न वक़्त पर, न हालात पर मेरा काबू था। क्या कहता? कि कोई और है जिसे तुम से ज़्यादा चाहा है मैंने। कैसे बता देता कि मुझ पर तुमसे ज़्यादा किसी और का हक़ है। लेकिन इतना ज़रूर है, तुममें मुझे जिंदगी नज़र आती है।

"मिलने से पहले तुम से, मौत का डर था हमें, पर चाह नहीं थी जीने की।

मिलने के बाद तुमसे, मौत का डर तो न रहा, लेकिन खुदा से इक और उम्र मांगने लगे।"

-विक्रम

इस से पहले की वन्या सबसे आखिरी पन्ना पलट पाती

"वन्या पुत्तर, चलो नीचे विक्रम आ गया है"

मिसेज़ सिंह आवाज़ में अब वो ठहराव नहीं था। वन्या ने उनकी आँखें पढ़ने की नाकाम कोशिश की। उसने डायरी को डेस्क पर रखा और पंखे का स्विच बन्द करती हुई और उनके पीछे हो ली। बन्द होते पंखे की हवा से डायरी के पन्ने फड़फड़ाते हुए पलटे और आखिरी पन्ना खुल के रह गया। जिस पर लिखा था-

"कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन चुन खाइयो माँस

दो नैना मत खाइयो मोहे पिया मिलन की आस।"

-फरीद

नीचे हॉल में बहुत भीड़ थी बहुत से मेहमान आ चुके थे।

और आ चुका था उसका कोई और भी.......

लिपटा हुआ 'तिरंगे' में

"मेजर विक्रमजीत सिंह" राजपूताना रायफल्स। मिलिट्री इंटेलिजेंस।


वन्या को काटो तो खून नहीं। ये सब सच था। या बुरा ख्वाब था कोई।

"वन्या आई आम सॉरी डिअर, बहुत गलत समझा मैंने तेरे विक्रम को।" उस से लिपट कर कृतिका फफककर रो पड़ी। वन्या चकराकर वहीं धम्म से बैठ गयी। अप्पा ने आकर संभालने की कोशिश की। अंधेरा था आँखों से सामने। आँखों को धुंधलाने वाले बादल गालों पर धार बन बरसने लगे। अम्मा भीगी आँखों के साथ मिसेज़ सिंह का हाथ थामे खड़ीं थीं।

मिसेज़ सिंह उठ कर उसके पास आईं।

"वन्या पुत्तर, बहुत ज़्यादा प्यार करता था विक्रम आप से। लेकिन आपको आर्मी वाले पसंद नहीं होने की वजह से कभी बता न सका। चाह कर भी आपके करीब आ न सका। एक सीक्रेट मिशन के चलते वो अक्सर बैंगलोर में ही रहता। घर भी न आता। आपकी जान और मेरी जान खतरे में नहीं डालना चाहता था वो। पिछले हफ्ते ही कश्मीर गया था। राजौरी में एक घर में टेररिस्ट छूपे थे। वहीं छापा मार रहे थे वो लोग। अंधाधुंध फायरिंग के चलते एक गोली सीधे उसके सीने में आ कर लगी, और दूसरी उसकी आंखों में" कुछ देर तक मिसेज़ सिंह कुछ देर बोल न सकीं। बस चुपचाप पथराई आँखों से तिरंगे में लिपटे कॉफिन बॉक्स को देखतीं रहीं।

".......दूसरी गोली उसकी आंखों में" बुत सी बनी वन्या के कानों में बार बार ये शब्द गूंज रहे थे। विक्रम की बड़ी बड़ी गहरी आँखें, उसके दोनों गालों में पड़ते गहरे डिंपल, दूर खड़ा कहीं वो उसकी मोहक मुस्कान लिए वन्या को निहार रहा था। वन्या फूट फूट कर रो पड़ी।

मिसेज़ सिंह ने अपनी भीगी पलकों को रुमाल से पोंछा। "मुझे तो आदत है पुत्तर, कारगिल में मेरा भाई और पति। और अब मेरा बेटा। लेकिन इस बात की तसल्ली है कि आम लोगों की तरह नहीं गए मेरे लोग, कुछ तो करके गए देश के लिए। विक्रम ने भी तीन टेरेरिस्टों को मार गिराया, जिनका पीछा वो बैंगलोर से कर रहा था।"

वन्या मिसेज़ सिंह से लिपट कर ज़ार ज़ार रोने लगी। "नहीं पुत्तर शहादत पर आँसू नहीं बहाया करते। अपमान होता है शहीदों का। उठो, चलो, मिल लो अपने विक्रम से"

अपने विक्रम पर गर्व महसूस होने लगा था उसे। कॉफिन बॉक्स का अगला हिस्सा खोलने की इजाज़त नहीं मिल पाई। विक्रम का ऐसा चेहरा बर्दाश्त नहीं कर पाती वो। उसके कदमों में अपना सर रख कर अपने सारे गीले शिकवे उसने आँसुओं के साथ बहा दिए। दिल ही दिल में हर बार उसे गलत समझने की बार बार माफी मांग रही थी वन्या।

"एक्सक्यूज़ मी, मिस वन्या"

पीछे वर्दी में एक अफसर खड़ा था। "मैं मेजर अनंत, विक्रम का दोस्त। उस दिन रेड पर जाने से पहले विक्रम ने ये चिट्ठी मुझे सौंपी थी। कहा था की अगर उसे कुछ हो जाए तो मैं ये आप तक पहुँचा दूँ।"

वन्या ने लिफाफा खोला

"प्यारी वन्या"

आगे के दो पैराग्राफ उसने सरसरी निगाह से पढ़े। आखिर में उसने लिखा था। मेरी ज़िन्दगी का निचोड़ लिख रहा हूँ। इसे संभाल कर रखना।

"दीवाना हूँ इस धरती का, न की कोई मनमौजी हूँ

खून से सींची है धरती, तब ही कहलाता फौजी हूँ।

कतरा-कतरा, हर एक बूंद नाम वतन के कर दी थी,

बिक गया भारत माँ की खातिर जब से पहनी ये वर्दी थी।

सीमा पर मैं, मेरे साथी, दुश्मन से आंख मिलते है

रतजगे किया करते हैं हम, तब ही सारे सो पाते हैं।

आराम है क्या? क्या फुर्सत है? इन सबसे सारोकार नहीं

काम बहुत से करने हैं, रुक जाने की दरकार नहीं।

न तो नज़रें झुक के न उठा के बात मैं करता हूँ

दुश्मन की नज़रों से नज़रें मिला के बात मैं करता हूँ

चलता हूँ रेगिस्तानों में, बर्फीले झंझावातों में

न डर है न कोई खौफ मुझे

बस देश ही दिल में बातों में

बस देश ही दिल में बातों में..............

- तुम्हारा

विक्रम"


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