शिवानी को गांव में एक महीना हो गया था। इस बीच हर रोज उसकी दिनेश व किरण से बात हो जाती थी।
दिनेश के आने के बाद किरण ने शिवानी से फोन पर कहा "दीदी आप भैया को कहो ना कि मैं उनका खाना बना दिया करूंगी। वह क्या अकेले अपने लिए खाना बनाएंगे । वैसे मैं उनके लिए खाना लेकर गई भी थी तो उन्होंने लेने से मना कर दिया।"
शिवानी ने जब दिनेश से इस बारे में बात कि तो वह बोला
"शिवानी मैं अपने आप मैनेज कर लूंगा ना! पहले भी तो करता था ना!"
"अच्छा, पहले कब मैं इतना दिन आप से दूर रही। एक कप चाय तो आप से ढंग से बनती नहीं, खाना बनाओगे। मैं नहीं चाहती रोज-रोज बाहर का खाना खाने से आपकी सेहत खराब हो। इसलिए चुपचाप जो वह देकर जाती है खा लिया करो।"
"शिवानी तुम्हें उनके घर के हालात पता है ना! फिर भी उसके बाद उन पर बोझ डालना सही लगता है क्या!"
"अरे कोई बोझ वोझ नहीं। मैं अपने आप आकर सारा हिसाब कर लूंगी। वैसे भी जो मेरे और किरण के बीच की बात है!" शिवानी बोली।
उसकी बात सुनकर दिनेश कुछ ना बोला।
उसके बाद किरन हर रोज दोनों समय का खाना दिनेश को दे जाती और बीच में कभी कभार आकर घर की सफाई भी कर जाती थी।
एक सवा महीना होने के बाद शिवानी की सास ने उससे कहा "बहू अब तू वापस जा। दिनेश अकेला परेशान हो रहा होगा। रिया की पढ़ाई का नुकसान भी हो रहा है।"
"मां, आपको बताया था ना खाना किरण बना देती है।"
"बहू ,खाने के अलावा भी सौ काम होते हैं और वैसे भी अब मैं ठीक हूं। तू जाकर अपनी घर गृहस्ती संभाल।"
"मांजी,आप भी चलो हमारे साथ! पिताजी के बगैर अकेले कैसे रहोगे आप यहां। पहले तो पिताजी थे लेकिन अब आप बिल्कुल अकेले! मैं आपको यहां ऐसे अकेले नहीं छोड़ कर जाऊंगी। आप भी चलेंगे हमारे साथ और अब
आप वही रहोगे।" शिवानी अपनी सास से मनुहार करते हुए बोली।
"बहू, तेरे पिताजी का शरीर ही इस दुनिया से गया है लेकिन अभी उनकी आत्मा इस घर में ही बसी है। घर की एक एक चीज एक-एक कोना उनकी यादों से भरा है। ऐसे कैसे इतनी जल्दी उनसे नाता तोड़ कर मैं चली जाऊं। अभी मुझे उनकी यादों के सहारे कुछ दिनों अकेले छोड़ दे। मैं इस घर को और उनसे जुड़ी यादों को छोड़कर कहीं नहीं जा सकती। हां बीच-बीच में तुम्हारे पास आती रहूंगी। मेरी चिंता मत कर मैं सही हूं। आस-पड़ोस गांव वाले सब है मेरे पास। यह तो तूने देख लिया कि यहां कोई भी एक पल मुझे अकेला नहीं छोड़ता इसलिए तू मेरी फिक्र मत कर। " उसकी सास प्यार से समझाते हुए बोली।
अपनी सास की बातों से उसे कुछ तसल्ली मिली। बार-बार उनके कहने को वह टाल नहीं पाई और उसने जाने की तैयारी कर ली। 2 दिन बाद ही दिनेश उन्हें लिवाने आ गया। बड़े भारी दिल से उन दोनों ने अपनी मां से विदा ली।
दरवाजा खोलते ही शिवानी की आंखें पूरे घर को इतना साफ सुथरा देखकर चमक गई।
वह खुश होते हुए बोली "अरे वाह दिनेश तुमने तो कमाल कर दिया। क्या बात है, घर को पूरा चमका रखा है तुमने तो! मेरे सामने तो तुम एक पत्ता भी नहीं हिलाते थे। चलो, मेरे जाने के बाद तुमने कुछ काम करना तो सीखा। वैसे कुछ भी कहो, यह काम तो तुमने बहुत बढ़िया किया। वरना मैं तो सोच रही थी कि घर में धूल की परत चढ़ी मिलेगी।"
" तुम औरतों को और कुछ नहीं घर की साफ सफाई का कीड़ा होता है। मुझे लगता है, वहां तुम्हें मेरी नहीं अपने घर की फिक्र ज्यादा रही होगी।"
"घर की भी थी और घर वाले की भी जनाब! लेकिन तुम्हें कब से सफाई के कीड़े ने काट लिया! " शिवानी चुटकी लेते हुए बोली।
"मुझे किसी सफाई के कीड़े ने नहीं काटा। यह तुम्हारी उस छोटी बहन का कमाल है। वही मेरे मना करने के बावजूद तुम्हारे घर को चमका कर जाती थी। पहले तुम धूल मिट्टी उड़ाती रहती थी और तुम्हारे बाद उसने परेशान करके रखा था। पता नहीं तुम औरतों को यह धूल मिट्टी कहां से दिखाई देती है। हमें तो सब कुछ साफ़ ही नजर आता है। कितना मना करता था उसको। फिर भी परेशान करने आ ही जाती थी। वो तो शुक्र है कि हफ्ते में दो-तीन दिन ही उसे यह मौका मिलता था वरना उसका बस चलता तो रोज ही सफाई करने आ जाती।" दिनेश हंसते हुए बोला
"वाह भई वाह, एक तो उसने काम किया। ऊपर से बढ़ाई करने की बजाय मजाक उड़ा रहे हो!"
"काम नहीं मुझे परेशान किया!" दिनेश मुंह बनाते हुए बोला।
"अच्छा कैसे परेशान किया। जरा हम भी तो सुने !"शिवानी शरारती नजरों से दिनेश को देखते हुए बोली।
"क्या तुम भी शिवानी। कहां की बात कहां ले जाती हो। चलो मैं तो चला थोड़ी देर आराम करने। तुम संभालो अब अपना घर बार।" कह दिनेश झेंपते हुआ वहां से उठ अंदर चला गया।
उसका चेहरा देख शिवानी की हंसी छूट गई।
क्रमशः
सरोज ✍️