ज़िन्दगी और थैला Ajitabh Shrivastava द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ज़िन्दगी और थैला

ज़िन्दगी और थैला - एक विचार

बस यूं ही एक ख्याल आता है, ज़िन्दगी और थैला, कितने एक जैसे हैं, कभी उस नज़र से देखो, कभी उस भाव से परखो, तू यू लगे जैसे एक दूसरे का प्रतिरूप हैं दोनों -

यूँ घर से निकलते थैला लिए, कुछ लाने को कुछ पाने को,
रखने, चीजों को, दुनिया भर की,
सारी भौतिकता समेट, उसे सदा के लिए अपना बनाने को
तमाम उम्र की अभिलाषाओं को, साकार करने
स्मृति पटल पे उकेरी यादों को, सहेज कर रखने
कुछ बिखरे लम्हों को, कुछ अधूरे ख्वाबों को पूरा करने, अनकही, अधूरी रह गई तमाम इच्छाओं को,
कभी सोचो तो लगता है कितनी समानता है,
ज़िन्दगी और थैले में


जब आये तो सब खाली, न कोई एहसास, न कोई सद्भावना
न दुर्भावना, न दुनिया जीतने की चाहत,
न कुछ खो जाने से आहत, न कुछ पा लेने से राहत,
कितना सरल था सब कुछ, बस यूं लगता था,
जैसे, घर में रखा खाली थैला।।

साथ ज़िन्दगी के, वक़्त बह चला, ज़िन्दगी में इंसान कुछ कमाने चल पड़ा, बस यूं समझिए कि थैला चल पड़ा किसी हाथ मे, संसार के बाजार से चाही - अनचाही, तमाम लुभावनी चीजों का संग्रह करने को,

बाजार भरा है, कुछ समर्थ, कुछ व्यर्थ, कुछ यूं ही पड़े सामानों से, तृष्णा यूँ हावी हुई, की अर्थ व्यर्थ के मायने दे गया, जो काम का था वो तो कम, बाकी दुनिया के सारे सामान दे गया,
थैला कुछ तो भरा, पर अभी भी बहुत खाली रह गया।
सांसारिक सामानों की कद्र बढ़ी, साथ ही थैले में कुछ जगह और बढ़ी,
कई पुराने समान सड़ने लगे है, जोड़ तो लिए तो जो बेवजह, वो अब खलने लगे हैं।

भई थैले की भी एक सीमा है, या तुम समझे कि उसका भी बीमा है,
फितरत इंसानी है, नज़र आती नही थैले की परेशानी है,
ज़िन्दगी पड़ाव दर पड़ाव बढ़ रही है,
यूँ लगता जैसे थैले की उम्र भी ढल रही है
बासी चीजें सड़ान्ध मार रही है, फिर भी नई चीजों से थैला भरे जा रहे हैं।

अरे भाई बीच बीच मे बाजार से लौटो, वक़्त वक़्त पर थैले को खाली भी करो, वर्ना, थैला फट जाएगा, उसमे रखा सामान सड़ जाएगा।
जरूरी चीजें थैले में सजाओ, बाकी को विदा करो,
यूँ मृगतृष्णा में क्यों थैले के प्राण निकलते हो, सुंदर जीवन को खुद ही क्यों नकारते हो।
जब जाओगे तो भरा थैला छोड़ जाओगे, कुछ भी उसमे से निकाल न पाओगे।
ज़िन्दगी और थैला दोनों कितने समान है, एक हम हैं कि बस दोनों को भरने में लगे हैं, ज्यादा भरी, चीजें थोड़ा मुश्किल में सम्हलती हैं, कई बार बेवजह ही अकड़ती और उलझती है, खुद भी परेशान और दूसरों को भी परेशान करती है।

इकट्ठा की हुई चीजों को जो सड़ चुकी है, बाहर करो, वरना ज़िन्दगी बदबूदार हो जाएगी।

मेरी मानो दोस्तो तो सिर्फ ज़रूरत का इंतज़ाम थैले में रखो, फिर देखो ज़िन्दगी कितनी खूबसूरत है।

घर आकर थैला खाली करते हो न, यहां से जब जाओगे तो ज़िन्दगी का थैला भी खाली करने पड़ेगा

मैं तो यही समझ सका कि ज़िन्दगी और थैला एक दूसरे के पर्याय ही तो हैं।

अजिताभ श्रीवास्तव - अनजान