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रेडियो वाली मेज

लेखिका दीपक शर्मा

''रेडियो वाली मेज़ कहाँ गई?'' गेट से मैं सीधी बाबू जी के कमरे में दाखिल हुई थी।

माँ के बाद अपने मायके जाने का वह मेरा पहला अवसर था।

''वह चली गई है,'' माँ की कुर्सी पर बैठ कर बाबू जी फफक कर रो पड़े।

अपने दोनों हाथों से अपनी दोनों आँखों को अलग-अलग ढाप कर।

''सही नहीं हुआ क्या? तीन महीने पहले हुई माँ की मृत्यु के समय मेरे विलाप करने पर बाबू जी ही ने मुझे ढाढ़स बँधाया था, ''विद्यावती की तकलीफ़ अब अपने असीम आयाम पर पहुँच रही थी। उसके चले जाने में ही उसकी भलाई थी..?''

''नहीं।'' बाबू जी अपनी गरदन झुका कर बच्चों की तरह सिसकने लगे, ''हमारी कोशिश अधूरी रही...''

''आपकी कोशिश तो पूरी थी, ''पिछले बाहर सालों से चली आ रही माँ के जोड़ों की सूजन और पीड़ा को डेढ़ साल पहले जब डॉक्टरों ने 'सिनोवियल सारकोमा' का नाम दिया था तो एक टेस्ट के बाद दूसरे टेस्ट के लिए या फिर एक प्रकार के इलाज के बाद दूसरे प्रकार के इलाज के लिए एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल के चक्कर काटते समय भाई ज़रूर उनके साथ रहता रहा था, लेकिन शरीर की दृष्टि से जितनी भी सुविधा अथवा साझेदारी माँ को दी जा सकती था, बाबू जी ही उपलब्ध करा रहे थे। माँ के साथ ही वे खाना खाते, माँ के साथ ही वे सोते-जागते, माँ के साथ ही वे उठते-बैठते, ''चूक मुझीसे हुई। माँ के लिए मैंने ही कुछ नहीं किया...''

उधर मुंबई में रहते हुए भी वहाँ के कैंसर इंस्टीट्यूट में उनका उपचार मैं टाल गई थी। अपने भेद ढके के ढके रखने हेतु।

''नहीं।'' मैं विह्वल हुई तो बाबू जी फौरन संभल लिए, अब कोई गुंजाइश न बची थी।''

अपने हाथ उन्होंने अपनी आँखों से अलग कर लिए।

''ममा नहा रही है।'' पानी की ट्रे के साथ तेरह वर्षीय मेरी बड़ी भतीजी, रेखा, कमरे में आ खड़ी हुई, ''अभी आ जाएँगी।''

''रेडियो वाली मेज़ कहाँ है?'' ट्रे के लिए दूसरी छोटी मेज़ पर जगह बना रही रेखा से मैंने पूछा।

कहने को तो वह मेज़ 'रेडियो वाली मेज़' रही, लेकिन रेडियो केवल उसके बीच वाला भाग ही घेरा करता। बाकी का उसका तल कभी बाबू जी के खाने की मेज़ बन जाता तो कभी माँ की डायरी लिखने का पट्ट।

''वह मैं अपने कमरे में ले गई हूँ।''

रेखा हँसने लगी, ''बड़ी मम्मी के बाद बाबू जी ने उसे एक दिन भी न चलाया होगा-''

''तुम रेडियो की बात कर रही हो?''

मैंने पूछा।

रेडियो की शौकिन माँ का वह रेडियो चालीस साल पुराना था। समय-समय पर उसके अंदर के पुरज़े ज़रूर बदलते चले गए थे, लेकिन उसके बाहरी स्वरूप की आन-बान ज्यों की त्यों बनी रही थी। नियमित रूप से रोज़ अखबार पढ़ने वाली माँ अपने आखिरी दिनों में जब बहुत शिथिल हो गई थी तो उसी रेडियो ने उनका जी बहलाए रखा था। यों भी टेलिविजन उधर भाई के कमरे में रहता था और किसी खास प्रोग्राम के समय उधर बुलाए जाने पर केवल बाबू जी ही जाते थे। माँ नहीं। माँ ने उधर जाना तब से छोड़ रखा था जब इसी रेखा ने एक दिन अपनी नानी के सामने माँ से कहा था,

''यह हमारा कमरा है। आप यहाँ क्यों आती हो?''

''हाँ, बुआ, '' रेखा हँसी, ''इधर रेडियो पर खूब अच्छे प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं...''

और रेडियो वाली मेज़ की दराज़ों का सामान?'' रेखा को लेखा देने के लिए मैंने ज़िम्मेवार ठहराना चाहा, ''माँ की वे डायरियाँ? बाबू जी की खींची हुईं वे तमाम फोटोएँ?''

रेडियो वाली उस मेज़ की दायीं ओर दो दराज़ें रहीं। ऊपर वाली छोटी, जहाँ माँ अपनी दवाइयाँ और पर्चियाँ रखा करतीं और नीचे वाली मेज़ की बाकी ऊँचाई के समांतर जिस में माँ का निजी सामान रखा रहता।

''बाबू जी वाली फोटोएँ तो हम तीनों ने आपस में बाँट ली हैं।'' रेखा फिर हँस दी, ''पेड़ों वाली और फलों वाली कक्कू ने ले ली है और घर वालों की मैंने। बाकी के साथ छोटी खेला करती है-

कक्कू ग्यारह साल का है और छोटी पाँच की।

''तुम्हें कोई देखनी थीं?'' बाबू जी ने मेरी ओर देखा, ''अपने साथ ले जानी थीं?''

''हाँ,'' मैंने कहा, ''पहला इनाम जीतने वाली वह सन सड़सठ की तो ज़रूर ही...''

फोटोग्राफी कि दुनिया में अव्यवसायी होते हुए भी बाबू जी बहुत अच्छी फोटो खींचते रहे थे। राष्ट्रीय स्तर की कई प्रतियोगिताओं में उनकी फोटोएँ चुनी जाती रही थीं। सन सड़सठ की वह फोटो मेरी और भाई के बचपन की थी। एक बूढ़े बरगद के अवतल तने की धसकन में दस महीने का भाई बैठा मुस्करा रहा था जब कि चार साल की रही मैं उसे अपनी बाँह की टेक दिए-दिए घबराए खड़ी थी। फोटो खींचते समय बाबू जी की कल्पना में कुछ और ही रहा था। फोटो में पहले केवल तने में बैठे भाई को ही उन्होंने संकेंद्रित रखना चाहा था, लेकिन जैसे ही भाई को उस तने की धसकन में बिठाया गया था मैंने वेगपूर्वक आगे बढ़ कर उसे थाम लिया था। इस डर से कि वह गिर जाएगा। काली और श्वेत उस फोटो में हम दोनों बहन-भाई के चेहरों पर खिली हुई धूप की रोशनी स्पष्ट देखी जा सकती है। सबसे पहले बाबू जी ही से मैंने सुना था 'फोटोग्राफी' एक यूनानी शब्द है तथा इसका मतलब रोशनी से लिखना होता है। राइटिंग विद लाइट।

'और'', मैंने जोड़ा, ''और भी बहुत-सी। आपकी सभी फोटोओं के संयोजन में कौशल भी है और भावातिरेक भी... आपको फोटोग्राफी छोड़नी नहीं चाहिए थी। जारी रखनी चाहिए थी-''

''जारी रखने के लिए समय बहुत चाहिए था, ''बाबू जी फिर रोआँसे हो चले, ''रुपया बहुत चाहिए था। विद्यावती की बीमारी क्या शुरू हुई मानो ज़िंदगी में विराम लग गया...''

''आप बाबू जी को समझाइए, बुआ,'' रेखा असहज हो उठी, ''बात-बात पर बड़ी मम्मी को याद कर फूट पड़ते हैं-''

''और माँ की डायरियाँ?'' रेखा को मैंने फिर जा घेरा, ''वे कहाँ हैं?''

नए साल के चढ़ने से पहले बाबू जी के पास जब भी डायरियाँ आतीं, पहली डायरी हमेशा माँ के लिए आरक्षित रहा करती। घरेलू हिसाब के साथ-साथ माँ अपनी डायरी में हर दिन की अपनी टोह-टटोल और टीका-टिप्पणी भी जोड़ दिया करती। माँ केवल बारहवीं पास थीं, लेकिन संक्षेप में और संकेत में बात कहनी उन्हें खूब आती थी। लोगों का उल्लेख करते समय नाम न लेकर उनके नाम के केवल पहले अक्षर का प्रयोग में लाती। यदि किसी की निंदा-आलोचना करतीं तो फिर उस पर लकीरें इतनी होशियार से लगाती कि लाख चाहने पर भी कोई यह न समझ सकता किस के बारे में क्या बात लिखी गई है? जिस दिन वे बीमार होतीं वे बेशक डायरी न लिखतीं लेकिन चिन्हित उस दिन की तिथि का भाग रिक्त छोड़ देती। उनके अंतिम वर्षों की वृहत-सी तिथियाँ खाली रह गईं पूरी-पूरी शून्य।

''ममा अब नहा चुकी होंगी, ''असमंजस की स्थिति में भाभी का सहारा लेने में रेखा दक्ष रही, ''मैं ममा से पूछती हूँ। रेडियो वाली मेज़ की दराजों से सामान उन्हीं ने निकाला था...''

'' तुम कुछ मत पूछो, '' रेखा के जाने पर बाबू जी ने मुझसे कहा, ''वह सब बीत गया है...''

भाभी आते ही मुझसे लिपट कर रोने लगी, ''हाय, हमारी मम्मी...''

''रेडियो वाली मेज़ यहाँ नहीं है,'' मुझे भावुक बनाने का भाभी का प्रयास मैंने निष्फल कर देना चाहा, हालाँकि मैं जानती थी उसे घेरना मुश्किल था। अपने से किए गए सवाल को या तो वह एक घुसपैठ के रूप में लिया करती जिसका जवाब आक्रामक रखना उसे ज़रूरी लगता था या फिर उसे उस दुविधा की मानिंद लेती जिसके मायावर्ग से बच निकलने का पहले तो रास्ता ढूँढ़ने की कोशिश करती और जब सामने रास्ता न सूझता तो उसके बराबर एक समकोण आयताकार खड़ा करने में लग जाती।

''आपके भाई ने कहा उस मेज़ के यहाँ रहने से यह कमरा ठसाठस भरा हुआ लगता है। कमरे में कुछ जगह तो खाली दिखाई देनी ही चाहिए-''

''और माँ की डायरियाँ?'' मैंने फिर पूछा, ''वे कहाँ हैं?''

''वे सब मैंने रद्दी में बेच डालीं। अब वे किस काम की थीं? पहली वालियों में नून-तेल का हिसाब लिखा था और पिछली वालियों में टिकिया-सुई का...''

''तुम नहा क्यों नहीं लेती?''  बाबू जी ने मेरी ओर देखा, ''बाथरूम अब खाली है-''

''हाँ जीजी,'' भाभी ने कहा, ''आप नहा लीजिए अभी। फ्रेश होकर आप आइए। जब तक मैं बाबू जी को नाश्ता करा दूँ। उनका दूध और कार्नफ्लेक्स ज्यों का त्यों रखा है। आपके आने की खुशी में अपना नाश्ता वे टालते ही चले गए हैं। फिर आपके लिए मुझे कढ़ी बनानी है जिसके लिए पिछले तीन दिन से मैं दही जमा कर सूख रही थी, दही खट्टा कर रही थी...''

अपने सूटकेस से अपने ताज़ा कपड़े निकाले बिना ही मैं बाथरूम की ओर निकल पड़ी।

मुझे अभी रोना था।

घोर रोना था।

अत्यधिक रोना था।

दीपक शर्मा

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