अभिमान
रवि ने भी प्रतिज्ञा कर ली थी कि वह कभी भी सेठ परषोत्तम दास की बेटी शीला से विवाह नहीं कर सकता। इसके लिए वह अपने पिता सेठ दर्शनलाल को भी वचन दे चुका था। वह अपने स्वर्गवासी पिता को दिए हुए वचन को कैसे तोड़ सकता था जिसके लिए उसके पिता ने बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ उठाई थी और यह भी सच है कि रवि को भी आज उस वचन को निभाने के लिए तथा अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए बड़ी बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है, परन्तु जैसे सेठ परषोत्तम दास ने भी ज़िन्दगी में हारना नहीं सीखा था वह किसी भी कीमत पर रवि को अपना दामाद बना कर झुकाना चाहते थे। यह ज़िद सेठ परषोत्तम दास की नहीं, बल्कि उनकी इकलौती बेटी शीला की थी जो कि शरीर से बहुत मोटी थी। साथ ही वह बदसूरत थी। जब से उसने रवि को देखा था तभी से वह यह रट लगाए बैठी थी कि यदि वह शादी करेगी तो रवि से अन्यथा वह ज़हर खा कर मर जाएगी। इकलौती बेटी होने के कारण सेठ परषोत्तम दास उसकी ज़िद को पूरी करने के लिए तैयार हो गए। उन्हें पता था कि सेठ दर्शनलाल कभी उनकी बात नहीं टालेंगे।
एक ओर रवि और रमा, जो कि साथ साथ पढ़ते थे, इन सभी बातों से अनभिज्ञ अपने प्यार के घरौंदे बनाए बैठे थे। वह एक दूसरे को जी जान से प्यार करते थे। उनका यह प्यार बहुत ही पवित्र था। रमा एक बहुत ही गरीब लड़की थी, साथ ही वह बहुत सुन्दर, भोली और गुणवती तथा कॉलेज की प्रतिभाशाली छात्रा थी। उसके इन्ही गुणों के कारण रवि रमा से प्यार करने लगा था जिसे कि अब रमा भी इकरार कर चुकी थी।
तभी एक दिन सेठ परषोत्तम दास अपने मित्र सेठ दर्शनलाल के यहाँ अपनी बेटी शीला के लिए उनके बेटे रवि का रिश्ता माँगने आए परन्तु सेठ दर्शनलाल ने कहा, "परषोत्तम दास मेरी और तुम्हारी मित्रता की बात तो अलग है, परन्तु यह है शादी का मामला, मैं बिना रवि की राय के हाँ नहीं कह सकता।" उस दिन सेठ परषोत्तम दास अपने मित्र से विदा लेकर घर चले गए, परन्तु उन्हें अपने मित्र पर पूर्ण विश्वास था।
आज रवि जब घर लौटा तो वह बड़ा प्रसन्न था क्योंकि आज वह रमा के घरवालों से अपने और रमा के विवाह की स्वीकृति लेकर आ रहा था। अब उसे अपने पिता की स्वीकृति की और आवश्यकता थी। अभी वह अपने विचारों में मग्न मकान के दरवाज़े के अन्दर घुसा ही था कि उसके पिता की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। वह उसी को पुकार रहे थे। वह नज़रें झुकाएं हुए अपने पिता के कमरे की ओर चल दिया और कमरे के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया। उसके पिता को अपने बेटे के आने का आभास हो गया था। पिता ने कहा बेटे रवि यहाँ आओ ! रवि सर नीचे झुकाएँ हुए अपने पिता के निकट आ गया तब उसके पिता ने कहा, "रवि बेटे, अब तुम अपनी पढाई समाप्त कर चुके हो, हम चाहते हैं कि तुम्हारी शादी हो जाए, ताकि इस घर में फिर से खुशियाँ आ जाए जो कि आज से 15 वर्ष पहले तुम्हारी माँ के मरने पर चली गई थी। तुम्हारी छोटी बहन रानी को भी एक माँ समान भाभी मिल जायेगी। रानी भी अभी बहुत छोटी है; फिर मेरा भी बुढ़ापा है, आज हूँ, कल नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा विवाह मैं देख सकूँ। तुम्हारा क्या विचार है?"
परन्तु रवि तो गुमसुम रमा के विचारों में खोया हुआ था। अपनी ज़िन्दगी के सुनहरे सपने देख रहा था। तभी उसके पिता ने कहा, "बेटे, तुमने कोई जबाव नहीं दिया।" रवि ने तुरंत जबाव दिया, "जैसी आपकी मर्ज़ी, पिताजी।" पिता ने कहा, "मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी बेटे। मैंने तुम्हारे लिए लड़की देख ली है। नाम शीला है और यह उसका फोटो है। लो तुम भी देख लो।"
रवि ने तुरन्त कहा, "लेकिन पिताजी..."
पिता ने कहा, "कहो बेटे, लेकिन क्या?" परन्तु रवि बात कहते में हिचकिचा रहा था। तब पिता ने ही कहा कि बेटे क्या तुमने कोई और लड़की देख रखी है?" रवि ने धीरे से जबाव दिया, "जी पिताजी।" पिता ने कहा कि उसका नाम क्या है? कहाँ रहती है?
रवि: "उसका नाम रमा है। मेरी क्लास की ही छात्रा है। बहुत ही गरीब लड़की है तथा पास के ही मोहल्ले में रहती है।"
रवि ने पिताजी को उसका पता भी बता दिया। तब पिता ने कहा कि बेटे तुमने हमें इतने दिनों से क्यों नहीं बताया?
रवि: "साहस नहीं हुआ।"
पिता: "ठीक है अब तुम जाओ ! मैं स्वयं रमा के घर जाकर बात करूँगा।"
इस बीच में रमा और रवि बराबर मिलते रहे। रवि को यह भी मालूम हो गया कि उसके पिता रमा के घरवालों से मिल आये हैं तथा विवाह के लिए स्वीकृति भी दे आये हैं। रवि अत्यंत प्रसन्न था।
जब सेठ परषोत्तम दास अपने मित्र दर्शनलाल के यहाँ अपनी लड़की शीला के विवाह का उत्तर लेने आए तो सेठ दर्शनलाल ने कहा कि आप कहीं और रिश्ता देख लीजिए क्योंकि मेरा लड़का किसी और लड़की से प्यार करता है तथा वह उसी के साथ शादी करना चाहता है। हर तरह से बात करने पर भी सेठ परषोत्तम दास को न का ही जबाव मिला। परन्तु वह भी हार मानने वाले नहीं थे। वह अपना प्रतिशोध लेने के लिए अपने मित्र के कारोबार को नष्ट कराते रहे और एक समय वह भी आया जबकि उनके मित्र का कारोबार तथा मकान नीलाम होने को आ गया। तब एक बार फिर परषोत्तम दास अपने मित्र के पास गए और बोले कि मैं तुम्हारा मिल व मकान नीलाम होने से बचा सकता हूँ, यदि तुम मेरी लड़की को स्वीकार कर लो। परन्तु दर्शनलाल के हृदय में परषोत्तम दास के लिए इतनी घृणा भर चुकी थी कि उसने कहा कि परषोत्तम दास, मैं मिट सकता हूँ परन्तु झुक नहीं सकता। तब परषोत्तम दास क्रोध में वहाँ से चला गया और वह समय भी नज़दीक आ गया जब कि सेठ दर्शनलाल का मकान व मिल नीलाम हो गई। एक ओर बोली लग रही थी तथा दूसरी ओर सेठ दर्शनलाल का स्वर्गवास हो गया। शायद वह अपनी इज़्ज़त की नीलामी का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके। वह अंत तक झुके नहीं, अपितु मिट गए।
आज रवि ने भी अपने आपको दौलत के आगे नहीं झुकने दिया था। अपने अभिमान को बनाए रखने के लिए उसने बड़ी बड़ी कठिनाईयों का सामना किया था और आज वह समय भी आ गया था जब कि रवि एवं रमा दाम्पत्य सूत्र में बँधने जा रहे थे। इस बात का पता जब सेठ परषोत्तम दास को लगा तो उन्हें अपने ऊपर क्रोध आने लगा और शीला ने तो रो-रो कर बुरा हाल कर रखा था। जबकि एक ओर रमा एवं रवि अत्यंत प्रसन्न थे। आज वह हमेशा के लिए एक होने जा रहे थे। आज रवि का सर अभिमान से ऊपर उठा हुआ था तथा चेहरे पर एक अनोखा तेज था।....
द्वारा
मुकेश सक्सैना 'अमित'
(पुरानी विजय नगर कॉलोनी,
आगरा, उत्तर प्रदेश – 282004)
वर्ष 1982 में लिखी गई एक कहानी