मानसरोवर
मानसरोवर - देवताओं का सरोवर ।
बचपन से ही सुनते आई थी कि मानसरोवर देवताओं का सरोवर है । यहाँ देवता स्नान करने आते हैं, शिव शंभू अपनी पत्नी पार्वती संग विहार करने आते हैं । यह भी सुना था कि इसे ही क्षीरसागर भी कहते हैं और क्षीर-नीर विवेक के हंस भी इसी मानसरोवर में पाए जाते हैं, मानसरोवर के हंस मोती चुगते हैं और इसके तल में स्वयं विष्णु अपने शेषनाग पर विराजमान हैं, इसके साथ ही इस जल में भोलेनाथ के गणों का भी वास है । कहते हैं कि मानसरोवर का असली नाम मानस सरोवर है । यह सरोवर प्रथम ब्रह्मा जी के ह्रदय में उत्पन्न हुआ था और फिर उन्होंने इसे पृथ्वी पर उतारा इसे मानस सरोवर कहते हैं ।
यह सब सुनकर ही मानसरोवर जाने की इच्छा बचपन से ही मेरे मन में थी जो कालांतर में बढ़ती ही चली गई और अंततः मुझे मानसरोवर के दर्शन हो ही गए ।
कहते हैं कि मानसरोवर की परिक्रमा और इसमें स्नान करने से कई जन्मों के पाप धुल जाते हैं । यदि मानसरोवर का पानी पिया जाए तो मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होता है और आप शिवजी की गोद में जाकर बैठ जाते हैं । मानसरोवर की यात्रा करने वाले यात्री इसकी परिक्रमा तो करते ही हैं लेकिन यह परिक्रमा 102 किलोमीटर की है जिसे तिब्बती पैदल पूरी करते हैं जिसमें उन्हें लगभग 3 दिन लगते हैं।
लेकिन हमारे 16 दिन के टूर में से 12 दिन बीत चुके थे और वापसी में भी हमें फिर उन्ही सारी जगहों पर एक-एक रात रुकना जरुरी था जहाँ हम आते समय रुके थे । क्योंकि हमारा शरीर धीरे-धीरे ही उस ऊंचाई और मौसम से सामंजस्य बिठा पता है । सो हमारे पास 3 दिन का समय नहीं था और ना ही हिम्मत इसलिए हमने बस से ही यह परिक्रमा करने का निश्चय किया ।
हम सुबह 9:00 बजे चले तो बस से पूरी परिक्रमा करने में लगभग 3 घंटे का समय लगा। बस की रफ्तार 40 किलोमीटर प्रति घंटे से ज्यादा करने पर ड्राइवर को जुरमाना भरना पड़ता इसलिए बस धीरे-धीरे चल रही थी । बाहर के दृश्य इतने मनोरम थे कि लगता बस यहीं रुक जाये । कभी तो हमारी बस एकदम मानसरोवर के किनारे-किनारे चलती तो कभी इतनी दूर की सरोवर का जल एक अंगूठी में नीलम की तरह जड़ा हुआ दिखता । मानसरोवर का जल कभी सुनहरा, कभी हरा दिखता तो कभी नीला और कभी स्लेटी । इस परिक्रमा के रास्ते में कई छोटे-बड़े झरने और पतली जलधाराएँ मिलीं जो चांदी जैसी चमकती थी जो स्वच्छ, शुद्ध जल से भरी हुई थीं । तभी एक जगह हमारी बस रुकी । हिलोरे मारता नीला शांत मानसरोवर देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा ।
हमारे गाइड पेमसि ने हम सबको नीचे उतर कर यहाँ से जल लेने के लिए कहा । मानसरोवर का वह हिस्सा बिल्कुल अछूता होने के कारण अत्यधिक स्वच्छ था । नीचे के पत्थर और गहराई स्पष्ट दिख रही थी । इतना पारदर्शी जल की लगभग 70 मीटर तक गहराई में बिना किसी उपकरण के देखा जा सकता था ।
मैं सबसे पहले बस से नीचे उतरी और दौड़ते हुए सरोवर के पास पहुँची लेकिन वहाँ हरे छोटे-छोटे पौधे बहुत ज्यादा थे तो वहाँ से जल भरना सम्भव न लगा और मैं और आगे चल पड़ी। उस पवित्र जगह की शुद्ध हवा को अपने भीतर भरने के लिए मैंने गहरी साँस ली और आँखें बंद करके अपनी बाहें फैला दीं ताकि मैं उस स्थान की पवित्रता को अपने अंक में भर सकूं । तब तक बाकि सब भी नीचे उतर आए । मैंने भी उस जगह से अपने स्टील के थरमस में मानसरोवर का जल भरा और सबके पास चली आई ।
तब तक बाकी सब लोग अपने जूते उतार कर पानी में उतर चुके थे । थरमस बस में रखकर मैं भी दौड़ पड़ी । खूब सारी फोटो खींची । वहाँ डुबकी लगाने का मन न था लेकिन पिछले 2-3 सालों से चीन सरकार ने मानसरोवर में डुबकी मारने पर पाबंदी लगा दी है । आप जल भरने के लिए ही बीच में कहीं भी रुक सकते हो लेकिन डुबकी नहीं लगा सकते ।
हम सब को घुटनों तक पानी में उतर कर ही संतुष्ट होना पड़ा । इतनी ठंड में भी सुबह से ही तेज धूप खिली हुई थी इस कारण अत्यंत ठंडा पानी गुनगुना-सा लग रहा था लेकिन असल में पैर ठंड से जमने लगे थे । लेकिन कमाल की बात यह थी कि उस पानी को छूकर ऐसा लगा जैसे पैरों के नीचे किसी ने कमल बिछा दिए हों । आखिर में हम सब ने मानसरोवर के जल से कुछ पत्थर चुने और वापस बस में आकर बैठ गए । बस फिर चल पड़ी ।
मानसरोवर के ठीक सामने एक और ताल था जिसमें 2 टापू बने हुए थे। वह भी बहुत शांत और सुंदर था । उस दृश्य ने हम सबका मन मोह लिया लेकिन… यह क्या यहाँ तो कोई भी पक्षी नहीं जबकि मानसरोवर में हमने कई पक्षी, हंस, बगुले, कबूतर देखे थे । बल्कि उस ताल को देखकर कुछ रहस्य-सा अनुभव हो रहा था। तब गाइड ने बताया कि यह “राक्षस ताल” है और इसका पानी कड़वा है । कहते हैं कि यहाँ नकारात्मक शक्तियों का वास है इसलिए किसी को इसके आस-पास जाने की भी अनुमति नहीं है । इसके कड़वे पानी के कारण ही इसमें कोई पशु-पक्षी नहीं है ।
"और वह टापू?" मैंने आश्चर्य से पूछा।
“दोनों ही टापू प्राकृतिक है । कहते हैं कि रावण ने इनमें से ही एक टापू पर खड़े होकर शिव को प्रसन्न करने के लिए अखंड तपस्या की थी । लेकिन जब शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट नहीं हुए तो रावण ने कैलाश को उठाकर हिलाने का प्रण किया । इसके बाद ही शिव ने प्रसन्न हो उसे वरदान दिया था ।” पेमसि ने बताया।
“राक्षस ताल मानसरोवर से छोटा है । राक्षस ताल की सीमाएँ साफ देखी जा सकती हैं जबकि मानसरोवर अत्यंत विशाल है और इसका ओर-छोर तक नहीं दिखता । राक्षस ताल का आकार चंद्र जैसा है जबकि मानसरोवर का आकार सूर्य समान गोल है । लेकिन आश्चर्य की बात है कि ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम स्थान यह राक्षस ताल ही है।
सेटेलाइट द्वारा भेजी गई तस्वीरों में यह दोनों ही आकर स्पष्ट दिखाई देते हैं। और ये दोनों ही आकर गूगल पर आप सर्च करके भी देख सकते हैं।”
इतना बता कर हमारा गाइड शांत हो गया और हम फिर से मानसरोवर के मनोरम दृश्य का आनंद लेने लगे ।
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हम तकरीबन 12:00 बजे मानसरोवर के तट पर बने मिट्टी के घरों तक पहुँचे जिसे “मड हट” कहा जाता है। बस से उतर कर मड हट में जाना एक अभिनव अनुभव था । आज तक सुना ही सुना था कि हमारे पूर्वज मिट्टी के घरों में रहते थे। मैंने भोपाल में मानव संग्रहालय में सजे संवरे मिटटी के आर्टिफिशियल घर देखे थे जो आदिमानव उपयोग में लाते थे । मैं वहाँ की सौंधी खुशबू मन में संजोए हुई थी । उन्ही यादों के सहारे मैंने इन मड हट में प्रवेश किया ।
"नॉट बैड..." पहला विचार मन में यही आया । वहाँ लगभग 6 कमरे थे । मिट्टी की दीवारों पर बने छत के नाम पर लकड़ी के फट्टे डले थे । सामने एक झरोका था जिसमें छह कांच की छोटी-छोटी खिड़कियाँ थीं । 5 पलंग एक पंक्ति में डले थे और एक दरवाजे से सटा हुआ । लेकिन कमरे में बहुत सारी मक्खियाँ थीं ।
मेरे कमरे में हम 5 लोग थे- मैं, अपर्णा दी, हर्ष जी, वसुधा दी और विकास जी । कमरे की मखियों को देखकर हमने सबसे पहला काम उन वो मक्खियों को भगाने का किया । हर्ष जी ने हाथ में चादर पकड़कर उसे सुदर्शन चक्र की तरह हिलाते हुए उन मक्खियों को भगाने की कोशिश की लेकिन वे जाने को तैयार न हुईं । कमरे के बाहर खुला मैदान था और पास ही एक होटल अंडर कन्स्ट्रकशन था । बार-बार होने वाली बरसात से बाहर कीचड़ हो गया था जिससे मक्खियाँ बढ़ रही थीं । अब हमने कमरे में कपूर छिड़क कर देखा फिर भी वे हटी ही नहीं । आखिरकार अपर्णा दी ने अपने बैग में से हिट निकाला और सारे कमरों में हिट उड़ा दिया। तुरंत ही सारी मक्खियाँ बेहोश होकर गिरने लगीं । फिर हम उन सारी बेहोश मक्खियों को इकट्ठा कर बाहर फेंकने लगे । जब कमरा मखियों से विहीन हुआ तो हमारा ध्यान कमरे में बिछे पलंगों पर गया । लकड़ी के पलंग पर दो मोटी गद्दियाँ बिछी हुई थीं और उनके ऊपर एक बहुत मोटी रजाई । आज हमारा यही घर था और यह रजाई हमें भीषण ठंड से बचाने वाली थी ।
अपना सामान कमरे में रख हम सैर करने मानसरोवर के किनारे पहुँचे । वहाँ भी डुबकी लगाने की अनुमति नहीं थी लेकिन सृजन और अशोक ने हमारे लिए टेंट लगा दिए थे और दो बाल्टियों का इंतजाम भी कर दिया था ताकि डुबकी नहीं तो नहीं… कम -से-कम हम मानसरोवर के जल से किनारे पर ही नहा तो सकें । वहीं के एक बड़े टेंट में हम औरतें एक के बाद एक अपने ऊपर पानी डलवा रही थीं । सबसे पहले करकम्मा जी पर सुजाता जी ने बाल्टी भर मानसरोवर का पानी डाला । फिर सृजन पानी भर-भर कर देता रहा और सुजाता जी हम सब पर पानी डालती रहीं।
मैं भी "जय श्री राम" बोलती हुई बैठी थी कि सुजाता जी ने बाल्टी भर पानी मेरे सर पर डाल दिया । मैं चिल्ला पड़ी क्योंकि पानी बहुत ज्यादा ठंडा था । 'ice bucket challenge' का अनुभव हुआ लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि हवा चलने के बावजूद भी गीले बदन पर कपकपी नहीं हुई । हम एक-एक कर दूसरे टेंट में जाकर कपड़े बदल कर बाहर आते गए । तब तक समूह के आदमियों ने भी खुले में नहा लिया था । उनके ऊपर अशोक बाल्टी से पानी डाल रहा था ।
अब वहीं किनारे पर बैठकर हम सब ने अपने-अपने नाम का एक दीप जलाना था जो हमारी एक ग्रुप सदस्य साथ लेकर आई थी । लेकिन हवा बहुत तेज चल रही थी तो दीप जलाना और उसे जलाये रखना कठिन था । इसलिए हमने वहीं पड़े पत्थरों से छोटे-छोटे घर बनाए । और दीप उनके बीच रखकर प्रज्वलित किये । फिर कपूर जलाकर मानसरोवर की आरती की । बहुत देर वहीं बैठे रहे । अच्छी धुप खिली थी इसलिए हमारे कपड़े, बाल जल्दी से सूख गए लेकिन कहते हैं न कि पहाड़ों पर मौसम का कोई भरोसा नहीं होता । न जाने कब बादल घिर जाये । बस थोड़ी ही देर में बहुत तेजी से ओले गिरने लगे और हम सब को दौड़ते हुए हट में जाना पड़ा ।
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अब रात में जगने का चैलेंज था । क्योंकि बहुत सुना था कि मानसरोवर में ब्रह्ममुहूर्त पर अद्भुत दृश्य देखने को मिलते हैं ।
टेंपरेचर जीरो से कम था । मैंने 2:00 बजे का अलार्म सेट कर दिया था । सब सो चुके थे लेकिन मुझे नींद ही नहीं आ रही थी । मैं अलार्म बजने के पहले ही मानसरोवर के किनारे जाने के लिए पूरी तरह से रेडी हो चुकी थी । 3 लेयर में गर्म कपडे तो पहने ही हुए थे । सर पर मंकी कैप और हाथ में दस्ताने भी चढ़ा लिए थे । 2 बजते ही मैंने बाहर झांककर देखा । सामने बहुत कोहरा था लेकिन फिर भी मैं हिम्मत करके ब्रह्म मुहूर्त के पहले ही मानसरोवर के किनारे पर भागी । तब तक विकास जी, वसुधा दी, हर्ष जी और किरण दीदी भी बाहर आ गए । और तब… हमने जो पानी पर तैरती रश्मियाँ देखीं उनका वर्णन करना मेरे बस में नहीं।
जबकि मानसरोवर के आसपास सिर्फ और सिर्फ पहाड़ ही पहाड़ हैं वो भी बर्फ से ढंके हुए । उस दिन राखी पूर्णिमा थी लेकिन पूरा आसमान बादलों से ढका हुआ था। चांद छुपा हुआ था आसमान में एक भी तारा दिख नहीं रहा था। सब बादलों में छिपे थे फिर भी मानसरोवर के जल में रोशनीयाँ चमक रही थीं । वह दृश्य ऐसा लग रहा था जैसे मानो आसमान से देवता अपने प्लेन में नीचे पानी में उतर रहे हों । कहीं तो रोशनी की बस्ती दिख रही थी जैसे प्लेन से नीचे कोई सिटी दिखती है । एकदम पास… । जबकि दिन के समय देखी हुई पहाड़ियाँ बहुत थीं लेकिन रात में वही पहाड़ियाँ बहुत ज्यादा नजदीक दिख रही थीं । हवा बिल्कुल नहीं चल रही थी फिर भी पानी खेल रहा था । 'छपाक' की आवाज़ें आ रही थीं । आसमान से ऐसे स्पॉट लाइट्स आ रही थीं जैसे मानसरोवर के जल में किसी नाटक का मंचन हो रहा हो । कहते हैं कि ब्रह्ममुहूर्त पर शिव पार्वती यहाँ स्नान करने आते हैं । साथ ही सप्तऋषियों की पुण्यात्माएँ यहाँ उनके दर्शन हेतु आती हैं । देवता यहाँ आकर पानी में खेल खेलते हैं जिससे पानी मे अपने-आप हलचल होने लगती है ।
(गूगल पर भी आप इनमें से २ रोशनियों के वीडियो और फोटो देख सकते हैं।)
तभी अचानक दो पहाड़ियों के बीच में जोर से आग निकली-सी लगी। हम सब झटके से एक कदम पीछे हट गए । पानी में दूर-दूर तक लाइट टिमटिमाते दिए दिखाई दे रहे थे जैसे कोई जल-बुझ करने वाली दीवाली की झालर लगी हो । जबकि मानसरोवर में दूर-दूर तक सिर्फ और सिर्फ पानी ही है । फिर ब्रह्म मुहूर्त में दूर गहरे पानी में वे लाइट्स कैसे चमके… यह तो भोलेनाथ ही जाने । सच... इतना सुकून, इतना डिवाइन मैंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था । यहाँ मेरी सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो चुकी थी । मैं बस वह अद्भुत दृश्य आँखों से पीती जा रही थी । वे कभी न भूलने वाली यादें होने जा रही थीं ।
सुबह 3:30 बजे अचानक ओले गिरने लगे तब जैसे होश आया कि हम कहाँ खड़े हैं । और हम फिर अपने मड हट में भागे लेकिन उसके बाद… मैं सो न सकी । जो कुछ देखा वह क्या था ! इतना अद्भुत !
सुबह 6:00 बजे मैं फिर मानसरोवर के किनारे टहलने निकल पड़ी लेकिन अब तो वहाँ वैसा कुछ भी नहीं था जो ब्रह्ममुहूर्त में देखा था। सामने बस शांत नीला जल हिलोरे मार रहा था । दूर छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ थीं । हंस, बत्तख, कबूतर उड रहे थे । वे सारी रोशनियाँ, स्पॉटलाइट्स कहीं भी नहीं थे।
मैं किनारे पर बौराई-सी घूम रही थी कि तभी प्रशांत ने आकर बताया कि "जो कुछ तुमने रात में देखा वह भी सच ही था । यहाँ बहुत से लोगों को उससे भी कहीं ज्यादा अनुभव हुए हैं। लेकिन सबके अनुभव अलग-अलग होते हैं । जो तुमने देखा जरुरी नहीं कि वह बाकियों ने भी देखा हो । लेकिन विकास जी, वसुधा दी और किरण दी ने भी मेरे ही जैसी बहुत रोशनियाँ देखी थीं । हर्ष जी ने मेरी ही तरह पहाड़ियों के बीच कुछ पलों के लिए अचानक भड़की वह आग देखी थी । हाँ... लेकिन पहाड़ियों के बीच बसा वह शहर शायद सिर्फ मुझे ही दिखा था जबकि वहाँ ऐसा कोई शहर है ही नहीं । कहते हैं की वहाँ 5th डाइमेन्शन में लोग रहते हैं जो हमें नहीं दीखते । (यह भी आप गूगल पर पढ़ सकते हैं।)
उस दिन रक्षाबंधन का त्यौहार भी था । सुबह ही हम सब औरतों ने हमारे समूह के सभी पुरुष साथियों को राखी बाँधी । दरअसल हमने दारचिन से खूब सारे ब्रेस्लेट खरीदे थे । उन्हें ही राखी की तरह हमने सबके हाथों में पहनाया । फिर हम सबने बाहर खड़े होकर हमारा राष्ट्र गीत "जण गण मण" गाया क्योंकि उस दिन १५ अगस्त… हमारा स्वतंत्रता दिवस भी था और फिर उन सारी यादों और मानसरोवर को आँखों से मन में और मन से आत्मा में बसा हम वापसी की यात्रा पर चल पड़े।
वापसी का सफर वही सागा - शिगात्से - ल्हासा - काठमांडू और दिल्ली ।
मैं अक्सर सोचती हूँ कि वे अद्भुत, अविस्मरणीय 16 दिन क्या सच में मेरे जीवन में आए थे!!!
ॐ नमः शिवाय
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