कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 5 Anagha Joglekar द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 5

अंतिम पड़ाव

दारचिन

दारचिन पहुँचने से पहले एक जगह पर हमारी बस बदली जानी थी और हमें चीन सरकार द्वारा मुहैया करवाई गयी बस में बैठना था । हम सब जब उस जगह की ओर बढ़ रहे थे तो अचानक सुजाता जी, लक्ष्मी, प्रशांत सब चिल्ला पड़े ''कैलाश… कैलाश…''

हम, जो पहली दफा इस यात्रा पर आए थे, वे सब बस की खिड़की से इधर-उधर देखने लगे। हमारी दाई ओर एक लम्बी-सी पर्वत श्रृंखला थी । हमें लगा वही कैलाश पर्वत है । उसे देख कर थोड़ी-सी निराशा हुई क्योंकि वह पर्वत श्रृंखला तो अन्य किसी और पर्वत श्रृंखला जैसी ही थी । उसमें ऐसा कुछ भी खास न था जिसके लिए इतना कठिन सफर किया जाये । हम सब के मुँह से निराशा में निकला, "ओह ! ये है कैलाश पर्वत?"

और तभी हर्ष जी जोर से चिल्ला पड़े, "ओ माय गॉड ! उस पर्वत श्रृंखला के बीच में वह क्या है? इतना बड़ा ! इतना विशाल ! बर्फ से ढका हुआ ! अद्भुत ! अनबिलिवेबल !"

अब हम सब ने भी उनकी देखने की दिशा में देखना शुरू किया । उस पर्वत श्रृंखला के बीचो-बीच एक बृहद… मतलब इतना बृहद… की वह आकार हमारी कल्पना को छू भी न गया था, ऐसी बर्फ से ढंकी आकृति दिखी । हम सबके मुँह खुले-के-खुले रह गए । देह में एक कम्कपी सी छूटी । आँखों से अश्रु बह चले।

उस पर्वत श्रृंखला के बीच एक बहुत बड़ा… अकेला पर्वत… पूरी शान से खड़ा था । आकाश बिल्कुल साफ होने के कारण हम उसे स्पष्ट देख पा रहे थे । वही भव्य पर्वत “कैलाश” था। जब तक हम अपने भावों को समेट पाते… तब तक बस एक खुली जगह पर आकर रुक गई । बस से उतर कर हम सब किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े-के-खड़े रह गए । हमारी आँखों के सामने कैलाश पर्वत के रूप में स्वयं शिव अपनी पूरी भव्यता के साथ विराजमान थे । कैलाश के बाईं ओर मानसरोवर हिलोरे मार रहा था । वह दृश्य देखकर जीवन सफल हुआ-सा लगा।

हम उस मनोरम दृश्य को निहार ही रहे थे कि हमारे गाइड पेमसि ने हम सबको वापस बस में बैठने को कहा । हम सब मन मार कर उसके पीछे चल पड़े क्योंकि हमारी यात्रा के प्लान के मुताबिक हमें पहले कैलाश परिक्रमा करनी थी फिर मानसरोवर आना था । और कैलाश परिक्रमा करने के लिए पहले दारचिन के बेसकैंप तक जाना जरूरी था ।

बस में बैठते ही गाइड ने बताया कि यह कैलाश का ईस्ट फेस है । दरअसल कैलाश पर्वत एक पिरामिड की तरह है और उसके चार अलग-अलग फेस हैं - नार्थ फेस को गोल्ड, साउथ फेस को लापीस लज़ूली, ईस्ट फेस को क्रिस्टल और वेस्ट फेस को रूबी भी कहते हैं ।

गाइड और हमारे सहयात्री जो पहले भी कई बार यहाँ आ चुके थे, उनका कहना था कि आज तक उन्हें एक भी बार इस “ईस्ट फेस” के दर्शन नहीं हुए थे क्योंकि वे जब भी आये यहाँ हमेशा बादल छाए रहे लेकिन हम खुश किस्मत हैं जो हमें वह अलौकिक दृश्य देखने को मिला ।

जैसे ही हम दारचिन के होटल के पास पहुँचे… सामने ही कैलाश का भव्य “साउथ फेस” दिखाई दिया । पूरा साउथ फेस बर्फ से ढका हुआ था लेकिन कुछ हिस्से बर्फ से अछूते थे... जो आँख, नाक, मूंछ और जटाओं के आकार के तरह स्पष्ट दिख रहे थे । यूं लगा जैसे साक्षात शिव साधना में बैठे हों । हम सब भावविभोर हो वह दृश्य देखते रहे और कब हमारी बस होटल के दरवाजे पर आ लगी… पता ही ना चला ।

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दारचिन कैलाश परिक्रमा के लिए बेसकैंप है । यहाँ भी हमारे लिए एक होटल बुक था । यहीं से कैलाश परिक्रमा की शुरुआत होनी थी जिसके लिए यदि घोड़े बुक करने हैं तो उसी समय बुक करने थे । पहले तो हम सभी पैदल परिक्रमा करने का मन बनाए हुए थे लेकिन इतनी ज्यादा ऊंचाई पर आने के बाद जब सांस लेने में तकलीफ होने लगी और बहुत थकान चढ़ने लगी तब समूह के 4 लोगों को छोड़कर बाकी सभी ने घोड़े लेने का निर्णय किया । मैं पहले कभी 1 किलोमीटर से ज्यादा नहीं चली थी जबकि यहाँ पर लगभग 45 से 50 किलोमीटर की परिक्रमा करनी थी इसलिए मैंने भी घोड़ा और पिट्ठू, जो हमारा सामान ढोता, लेने में ही समझदारी समझी ।

दारचिन चीन के अंतर्गत ही आता है इसलिए यहाँ चीन की ही मुद्रा चलती है जो "युवान" है। एक युवान लगभग ₹10 के बराबर होता है । घोडा और पिट्ठू, दोनों मिलाकर लगभग 4000 युवान देने पड़े । उसके बाद हम सभी अपने-अपने कमरों की ओर चल पड़े।

दारचिन के इस होटल की खासियत यह थी कि उसके बाथरूम में पूरा दरवाजा कांच का बना हुआ था । ना जाने किसने क्या सोचकर यह पारदर्शी दरवाजा लगाया होगा । खैर।

अपर्णा दीदी, हर्ष जी, विकास जी, वसुधा दीदी और मैंने परिक्रमा के पहले पड़ाव के लिए घोड़ा और पिट्ठू किया था । ईशा सद्गुरु के अनुसार प्रथम परिक्रमा और चरण स्पर्श करके वापस आने पर भी उतना ही पुण्य मिलता है जितना पूरी परिक्रमा करने से । हमने उस समय ईशा सद्गुरु की बात मानना ही उचित समझा ।

हमारे ग्रुप लीडर प्रशांत ने हम सब की एक मीटिंग ली जिसमें उसने परिक्रमा के दौरान आने वाली हर छोटी-से-छोटी बात के बारे में बताया । क्योंकि प्रशांत की यह पांचवीं बार की यात्रा थी। इसके पहले लगातार 4 साल वह यह यात्रा कर चुका था । उसने हमें यह भी बताया कि घोड़ा चलाने वाला और पिट्ठू आपकी बात बिल्कुल नहीं मानते क्योंकि वह ना आप की भाषा समझते हैं और ना आप उनकी। कई बार घोड़ा अपने सवार को गिरा भी देता है जिसके कारण हड्डी टूटने की पॉसिबिलिटी ज्यादा होती है । कई बार राह में घोड़े वाला अपने घोड़े को पानी पीने के लिए भी दौड़ा देता है जबकि आप उस पर सवार होते हो । घोड़े में कोई सीट बेल्ट नहीं होता लेकिन उसकी जीन को कस कर पकड़ कर बैठना होता है ।

इन सारी हिदायतों के साथ-साथ प्रशांत ने "यम द्वार" के बारे में भी बताया जो परिक्रमा का पहला चरण है । यम द्वार से गुजरे बिना यह परिक्रमा शुरू नहीं होती । इसके साथ ही उसने वहाँ के रमणीक नैसर्गिक सौंदर्य के बारे में भी बताया । परिक्रमा करते समय कैलाश का “वेस्ट फेस” दिखता है । एक पहाड़ में अपने आप निकले गणेश गजरूप में देखने को मिलते हैं, साथ ही राह में बहती हिम नदियाँ और खूब सारे झरने…

रात में प्रशांत द्वारा बताई गई तमाम जानकारीयों को दिलो दिमाग में बैठाकर, सुबह नाश्ता कर, हम सब फिर से बस में जा बैठे । बेसकैंप से "यम द्वार" तक का 6 किलोमीटर का सफर हमने बस में पूरा किया । जैसे ही हमारी बस रास्ते पर दौड़ी, साथ की पगडंडी पर नजर पड़ते ही हम अचंभित रह गए। मूल तिब्बती लोग उन पगडंडियों पर लेट-लेटकर दारचिन से अपनी परिक्रमा शुरू करते हैं और एक दिन के अंदर कैलाश की 50+6 किलोमीटर की पूरी परिक्रमा कर लौट आते हैं। साथ ही कुछ लोग पूरी परिक्रमा में इसी तरह लेट-लेट कर आगे बढ़ते हैं। उन्हें देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे कि तभी एक जगह आकर बस रुक गई ।

यह यम द्वार तक जाने का पहला पड़ाव था और यहाँ से हमारी मुख्य यात्रा शुरू होनी थी।

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अब ठंड काफी बढ़ चुकी थी। २ लेयर बॉडीवॉर्मर, स्वेटर, जैकेट, सर पर बंदाना और मफलर, ट्रैकिंग शूज साथ ही इन सबके ऊपर रेनकोट पहनकर हम चल पड़े कैलाश की ओर ।

दारचिन से 6 किलोमीटर की दूरी पर आता है यम द्वार। यम द्वार पार करने के बाद ही कैलाश की चढ़ाई चढ़ी जाती है । इसकी मानता यह है कि “हे भोलेनाथ, हम यम द्वार को पार कर आए हैं। अब यह नश्वर देह आपको समर्पित। चाहे तो अपने साथ ले जाएँ या वापस मृत्युलोक भेज दें ।“

एक मानता यह भी है कि "यम द्वार से पार होते समय हम अपने मन में छुपी प्रत्येक बुरी भावना को भस्म करते चलते है क्योंकि बुरी भावना के साथ कोई भी यह परिक्रमा पूरी नहीं कर सकता।"

यम द्वार वैसे काफी अजीब-सा था । छोटा-सा खुले मंदिर के आकर का दरवाजा, उसके छत पर तीन बकरों के कटे सर लटके थे । उन सरों में एक-एक घंटी बंधी थी । उन घंटियों को बजाते हुए उस द्वार से बाहर निकल कर उसकी तीन बार परिक्रमा करने के बाद उस द्वार में से फिर से गुजरना पड़ता था । मुझे वह सब थोड़ा भयानक लगा ।

यम द्वार से निकलते समय मन में एक वैराग्य ने जन्म लिया । यूँ लगा जैसे यह शरीर अब हमारा अपना न रहा । अब हमारे पास सिर्फ आत्मा है... शुद्ध, पवित्र आत्मा जो सामने खड़े कैलाश रूपी महादेव शिव के दर्शन के लिए लालायित है । हमने यम द्वार पार करने के बाद कैलाश की ओर मुँह करके, कपूर जलाकर आरती की और चल पड़े पहली परिक्रमा के लिए जो 12 किलोमीटर का ट्रैक था । ट्रेक पर चलना कठिन लग रहा था सो मैंने घोड़ा कर ही लिया था । एक पिट्ठू भी जो मेरा 4 दिन का सामान लेकर चल रहा था। परिक्रमा की शुरुआत में ही ड्रा सिस्टम से घोड़े वाले और पिट्ठू का नाम निकाला जाता है। क्योंकि यह काम वहाँ के स्थाई लोगों की आजीविका है।

मैं इसके पहले घोड़े पर कभी नहीं बैठी थी इसलिए मुझे बहुत तकलीफ हुई । घुटने जाम हो गए । टखने दर्द होने लगे । रास्ता पथरीला था और घोड़ा उचक-उचककर चल रहा था तो मेरे अंदर का पूरा सिस्टम हिल गया । आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा । सांस रुक-सी गई । नाक से खून आने लगा था। मैंने घोड़े वाले को रुकने के लिए कहा लेकिन उसे मेरी भाषा समझ न आई । फिर मैंने उसे इशारे से समझाया कि मेरे पैर दर्द हो रहे हैं और मुझे घोड़े से नीचे उतरना है । उसने क्या समझा पता नहीं लेकिन घोडा जरूर रोक दिया। शायद उसे इस तरह की इशारे की भाषा अन्य यात्री भी समझाते होंगे ।

नीचे उतरते ही मैं तुरंत वहीं रास्ते पर ही लेट गई । कपूर सुंघा, पानी पीया फिर उठी तो घोड़े पर न बैठी । चलती रही... बस चलती रही । फिर अचानक से थकान महसूस होने लगी तो फिर घोड़े पर बैठ गई लेकिन ज्यादा देर घोड़े पर न बैठ सकी तो फिर नीचे उतर गई ।

लगभग 3 घंटे चलने के बाद, दोपहर के खाने के लिए रास्ते में ही एक टी स्टॉल था, वहाँ पर हमें रुकना था । वहाँ बहुत सारे टेंट लगे हुए थे जिनमें पलंग डले हुए थे और बहुत सारे तिब्बती और दर्शनार्थी वहाँ आराम कर रहे थे । सृजन ने हम सब को खाने का एक-एक पैकेट पकड़ाया जिसमें एक सेब, फ्रूटी का पैकेट और एक समोसा था । लेकिन मेरे आँखों के सामने अभी-भी अंधेरा छा रहा था । साँस लेने में तकलीफ हो रही थी । मैं वहीं एक पत्थर पर लेट गई । जब कुछ न सूझा तो सामने के एक टेंट में बाहर की तरफ लगे पलंग पर जाकर बैठ गई । पानी पीया, गहरी-गहरी साँस ली। जब थोड़ा ठीक लगा तब फिर बाहर उसी पत्थर पर आकर कुछ पल बैठी । समोसा खाया, सेब खाया । फिर इधर-उधर नजर दौड़ाई तो पता चला कि हमारा पूरा समूह घोड़ों के साथ काफी आगे निकल चल चुका है । तभी नज़र की दूरी पर हर्ष जी दिख गए लेकिन वे भी घोड़े पर नहीं बैठे थे । पैदल ही चल रहे थे । उन्होंने मुझे वहाँ से हाथ हिलाकर बाय किया और आगे निकल गए । क्योंकि दुरी काफी ज्यादा थी तो मेरी आवाज उन तक नहीं पहुँची । मैं अकेली रह गई थी । मैंने फिर से चलना शुरू किया तब तक मेरा घोड़े वाला और पिट्ठू वहाँ पहुँच चुके थे ।

थोड़ी देर चलने के बाद घोड़े वाले ने मुझे फिर से घोड़े पर बैठने के लिए कहा । घोड़े पर बैठते ही मुझे फिर से तकलीफ होने लगी और मैं नीचे उतर गई । मेरे साथ चल रहे पिट्ठू का नाम "ईशे" था । उसे सिर्फ हिंदी के दो ही शब्द बोलने आते थे- "क्या है?" और मैं हर बार उसे बोलती - "कुछ नहीं" लेकिन अब घोड़े पर और देर बैठना मेरे लिए संभव नहीं था इसलिए मैं नीचे उतर गई ।

हम जिस उबड़-खाबड़ रस्ते पर चल रहे थे उसके ठीक नीचे से नदी बह रही थी । मैं कुछ देर के लिए नदी किनारे जाकर बैठ गई । यूँ लगा जैसे भोलेनाथ ने उस नदी के शीतल जल से मुझ में उर्जा भर दी हो और मैं फिर से पैदल चलने के लिए तैयार हो गई । राह में चलते हुए सुंदर, मनभावन दृश्य देखते हुए हम सभी आगे बढ़ रहे थे । तभी अचानक मेरी नजर सामने के पहाड़ पर पड़ी । उस पहाड़ पर अपने आप ही उकरी… नृत्य करती हुई... श्री गणेश की प्रतिमा मुझे दिखाई देने लगी । मैंने साथ चल रहे दो-तीन लोगों को वह दिखाने की कोशिश की परंतु वह प्रतिमा और किसी को नहीं दिखी । वह भोलेनाथ का कोई चमत्कार था या शायद मेरी आँखें जो देखना चाह रही थीं वही मेरा मस्तिष्क दिखा रहा था... यह तो भोलेनाथ ही जानें ।

बस उसके बाद मैं अपनी ही धुन में चलती ही चली गयी । घोड़े वाले ने फिर घोड़े पर बैठने के लिए कहा । मैं फिर घोड़े पर बैठ गयी। वह पूरा ट्रेक बहुत संकरा है। उस ट्रैक इतनी भी जगह नहीं है जहाँ से गाड़ियाँ आ जा सकें फिर भी वहाँ पर सरकार की ओर से इमरजेंसी के लिए एंबुलेंस के रूप में छोटी-छोटी खुली जीप चलती हैं भी मात्र 2 - एक आने वाली और एक जाने वाली । लेकिन जब भी वह जीप हमारे पास से गुजरती तो मेरा घोड़ा बिदक जाता । कदाचित वह उस जीप की घर्र-घर्र की आवाज से डरता था । जैसे ही दूर से भी जीप आती दिखती तो मेरा घोड़े वाला घोड़े की आँखें बंद कर एक तरफ पहाड़ पर चढ़ा देता । और मैं उसकी पीठ पर बैठे-बैठे घबराती रहती कि अब गिरी कि तब गिरी ।

कुछ दूर और आगे चलने के बाद एक पुलिया नजर आई जिसके नीचे से बहुत तेज गति से नदी बह रही थी । उस पुल पर बहुत सारी रंग-बिरंगी रिबन बंधी हुई थीं । कहते हैं कि तिब्बत में लोग इन रंगबिरंगी रिबनों से ही ईश्वर को अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं । वहाँ से और थोड़ा आगे जाने पर हमारी परिक्रमा का पहला पड़ाव देरापुक आ चुका था... जहाँ से डॉरमेट्री शुरू हो जाती थी।

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