परिक्रमा का पहला पड़ाव
देरापुक
देरापुक में जहाँ हमारी डॉरमेट्री थी... उसके ठीक सामने कैलाश का साउथ फेस था । हम उस डॉरमेट्री में 2 दिन के लिए रुके थे । वहाँ तकरीबन 6 कमरे थे और हर कमरे में लगभग 4-5 पलंग डले हुए थे । उन पलंगों पर मोटी-मोटी गद्दियाँ और डबल रजाइयाँ रखी हुई थीं। इसके अलावा और कोई भी मूलभूत सुविधा वहाँ नहीं थी । मतलन न तो वहाँ बाथरूम थे और न ही टॉयलेट्स ।
वहाँ पहुँचते ही अचानक जाने क्या हुआ कि मेरा सर बहुत दर्द होने लगा। यूं लगा जैसे किसी ने 5 किलो का पत्थर सर पर रख दिया हो । घबराहट पूरे चरम पर थी । मेरी हालत देख सब डर गए क्योंकि इतनी ऊँचाई पर ऑक्सीज़न बहुत कम थी जिसमें सर दर्द होना भी खतरनाक रूप ले सकता था । तभी हमारे ग्रुप लीडर प्रशांत ने मुझे क्रोसिन पेन रिलीफ लाकर दी और अशोक तुरंत ऑक्सीजन नापने की मशीन ले आया । ऑक्सीजन चेकर देखते ही मैंने अपने हाथ पीछे छुपा लिए । मैं ऑक्सीजन चेक करवाना नहीं चाहती थी क्योंकि किसी की भी ऑक्सीजन यदि 70 से कम निकलती तो उसे वापस बेसकैंप जाना पड़ता था और इतनी दूर आने के बाद मैं वापस जाना नहीं चाह्ती थी। लेकिन अशोक मानने को तैयार न हुआ और उसने जबरदस्ती मेरी उंगली में ऑक्सीजन चेक करने की मशीन लगा दी । उसमें ऑक्सीजन लेवल 72 फ्लेश हुआ । मैंने तसल्ली की सांस ली । बाल-बाल बच गयी । तब तक क्रोसिन पेन रिलीफ ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था । और अंततः मेरा सर दर्द जाता रहा ।
जब तक हमारा पूरा समूह डॉरमेट्री पहुँचा तब तक रात हो चुकी थी। रात में चारों ओर अंधेरा था लेकिन चांदनी रात होने के कारण उस अंधेरे में भी कैलाश का साउथ फेस दमक रहा था । मैं सुध बुध बिसरा रात 1:00 बजे तक उसे निहारती रही। इस यात्रा पर आने से पूर्व मेरे साहित्य समूह के सभी साथियों ने अपनी-अपनी मनोकामनाएँ लिखकर मुझे फेसबुक पर भेजी थीं जो मैंने कैलाश के सामने पढ़ने का प्रॉमिस किया था । मैंने तुरंत अपना मोबाइल चालू किया लेकिन वहाँ सिग्नल नहीं था । फिर याद आया कि मैंने कल ही उन सारे संदेशों का स्क्रीनशॉट ले लिया था । वो स्क्रीनशॉट गैलरी में से निकालकर मैं सबके मैसेज कैलाश को देखते हुए जोर-जोर से पढ़ने लगी।
रात के ३ बज चुके थे। नींद नहीं लग पा रही थी । सांस लेने में तकलीफ तो थी ही साथ ही नाक पूरी तरह सूख चुकी थी । नाक से फिर से खून आना शुरू हो गया था । नाक में लगाने के लिए साथ में लाई नियुस्प्रिन की ट्यूब भी खत्म हो चुकी थी । तब पहली बार अनुभव हुआ कि नाक का गीला रहना श्वसन प्रक्रिया के लिए कितना आवश्यक है ।
डॉरमेट्री में किसी तरह का कोई डर नहीं था इसलिये हम सब ने अपने कमरे के दरवाजे खुले रखे थे ताकि कमरों में थोड़ी हवा खेल सके और हम ठीक से सांस ले सकें । बड़ी मुश्किल से आँख लगी ही थी कि डॉरमेट्री में नए आये एक चीनी समूह की आवाजें आने लगीं । कोई फोन पर बहुत जोर-जोर से बात कर रहा था । रात के करीब साढ़े 3:00 बजे होंगे । लेकिन खुले दरवाजे से बाहर की आवाजें और तेजी से सुनाई दे रही थीं ।
अब मुझसे ना रहा गया । "आखिर हुआ क्या है? इतना शोर किस बात का है?" सोचते हुए मैं बाहर निकली । लेकिन वहाँ तो कोई न था । शायद वह चीनी समूह डॉरमेट्री से रवाना हो चुका था । मैं फिर से कमरे में चली आई । ठंड काफी ज्यादा थी । तापमान बहुत क म शायद शून्य से नीचे हो चुका था । सुबह बर्फबारी की संभावना थी । ओले भी गिर सकते थे । आसमान पर बादल थे । घने बादल । अब उन बादलों से कैलाश पूरी तरह ढंका हुआ था । । सामने अचंभित करती धुंध थी जो रहस्यमई लग रही थी । उस धुंध में भी कभी-कभी कहीं-कहीं से कैलाश का कोई हिंसा चमक उठता था। मैं मंत्रमुग्ध हो उस चमक को देखती रही।
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हमारी सह यात्री करकम्मा जी मेरे ही कमरे में थीं । उन्होंने सोने से पहले सुबह सूर्योदय का समय मोबाइल पर देख लिया था । हम सब का प्लान था कि सूर्योदय के समय हम सब बाहर जाकर खड़े रहेंगे क्योंकि जब सूर्य उदित होता है तो उसकी किरणें एक विशेष एंगल पर कैलाश पर्वत पर पड़ती हैं जिसके कारण कैलाश सोने की तरह चमकने लगता है ।
6:00 बजे का अलार्म लगा कर हम सबने सोने की कोशिश की । लगभग 2 घंटे की नींद हुई होगी और अलार्म बज उठा । आँख खुलते ही मुझे नित्य कर्म के लिए जाना पड़ा । चारों ओर घना कोहरा था । साथ ही अँधेरा भी । कुछ दिखाई नहीं दे रहा था । मैंने अपना टॉर्च निकाला । टिशूपेपर लिए और अंधेरे में ही पास से बहती नदी किनारे चली गई । वापस आकर मैंने माउथवॉश निकाला क्योंकि ठंडे पानी से ब्रश करने की हिम्मत नहीं पड़ी । वहाँ बाथरूम न होने की वजह से नहाने का तो प्रश्न ही नहीं था । वैसे भी प्रशांत ने पहले ही बता दिया था कि इन 4 दिनों में कपड़े बदलने का भी कोई स्कोप नहीं है । हमने जो पहना हुआ था उसी में हमें 4 दिन निकालने थे ।
तब तक लगभग साढ़े 6 बज चुके थे । मैंने सब के कमरों में जाकर सबको नींद से उठाया और खुद कैलाश के सामने खड़ी होकर सूर्योदय का इंतजार करने लगी । लेकिन 7:00 बजे तक पूरा कैलाश बादलों से ढका रहा । सूरज की किरणों का कहीं कोई नामोनिशान नहीं था । फिर भी मैं आस लगाए खड़ी रही । धीरे-धीरे समूह के सभी लोग मेरे पास आकर खड़े हो गए । लगभग 8:00 बजे करीब धुंध हटी और कैलाश पर्वत ने स्पष्ट रूप से अपने भव्य रूप में हमें दर्शन दिए । सूर्यदेव भी धीरे-धीरे अपने रथ पर सवार हो कैलाश की ओर आ ही गए लेकिन कैलाश शिखर स्वर्णिम न हो सका । क्योंकि सूर्योदय तो 7 बजे ही हो चुका था और उनकी किरणें कैलाश पर विशेष कोण बनती हुईं आगे बढ़ चुकी थीं लेकिन बादलों और धुंध के करण हम वह अद्भुत दृश्य न देख सके ।
हम सभी ने अपने कैमरे तैयार रखे थे क्योंकि अब सूर्य की किरणें आसपास के शिखरों पर पड़ने वाली थीं । फिर कुछ किरणें कैलाश के बाएं पर्वत, जिसे द्वारपाल कहा जाता है, पर पड़ीं और उसका शिखर स्वर्णिम हो उठा । हम सब एक सुर में "बम बम भोले" चिल्ला पड़े । हमने फटाफट तस्वीरें लेनी शुरू कर दीं । लेकिन वह मनोरम दृश्य कुछ पलों में ही आँखों से ओझल हो गया और कैलाश पर्वत के स्वर्णिम शिखर को देखने का स्वप्न आँखों में लिए हम सब डॉरमेट्री के अंदर चले आये । तब तक अशोक और सृजन हम सबके लिए गरमागरम पैन केक, पोहा, ब्रेड कटलेट, चाय, कॉफी और बॉर्नविटा दूध लेकर हाजिर हो गए । अब हम में से लगभग सभी लोग अपने अगले पड़ाव, "चरण स्पर्श" जाने के लिए तैयार थे ।
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कल रात ही तय हो चुका था कि सुबह नाश्ते के बाद तुरंत ग्लेशियर के लिए निकलेंगे । इस ग्लेशियर को ही कैलाश के चरण कहा जाता है और यहाँ तक जाना चरण स्पर्श । यह एक अतिरिक्त यात्रा है जो मूल यात्रा में सम्मिलित नहीं है लेकिन जो जाना चाहता है वह जा सकता है । और इसीलिए हमने 3 दिन की जगह 4 दिन की परिक्रमा तय की थी । क्योंकि 1 अतिरिक्त दिन चरण स्पर्श की यात्रा में लगना था ।
हमने फटाफट नाश्ता किया और आज की इस अनोखी यात्रा पर निकल पड़े । हमारे समूह के एक सदस्य विकास, हमारे साथ नहीं आए थे । वे डॉरमेट्री में ही रुक गए । बाकी हम सभी पूरी तरह गर्म कपड़ों से लैस हो, इतने कम तापमान में भी, ग्लेशियर की ओर चल पड़े ।
पुनीत जी के कहे अनुसार हम यात्रियों को अपनी नजर उन रंगबिरंगी झंडियों पर रखनी थी जो हमारी डॉरमेट्री से बहुत ही पास दिखती थीं । लेकिन जब चलना शुरू किया तो वे दूर ही दूर होती जा रही थीं । लेकिन पुनीत जी ने कहा था कि आपको बस हिम्मत रख कर वहाँ तक चढ़ना है । उसके आगे तो कैलाशपति खुद ही आपको खींच लेते हैं । चूँकि पुनीत जी की यह आठवीं बार की यात्रा थी तो हम सब उनके पिछले अनुभवों का लाभ उठाते हुए आगे बढ़ रहे थे ।
उन रंगबिरंगी झंडियों तक पहुँचते-पहुँचते हमारा समूह दो भागों में बट गया था । पहला भाग नंदा दीदी के नेतृत्व में और दूसरा पुनीत जी के नेतृत्व में चल रहा था । मैं, प्रशांत, पुनीत जी, हर्ष जी, अपर्णा दीदी, सुजाता जी और वसुधा दीदी हम साथ थे और बाकि 10 लोग बहुत आगे बढ़ चुके थे । हमारी चाल बहुत धीमी थी क्योंकि सुजाता जी और वसुधा दीदी को चढ़ने में बहुत तकलीफ हो रही थी । उनको सांस लेने में कष्ट हो रहा था सो हम सब उनके लिए रुक-रुक कर चल रहे थे तभी पुनीत जी ने कहा, " अनघा, आप जाओ । रुको मत । आप आसानी से चढ़ जाओगे । आप जाओ ।"
पुनीत जी का आदेश था… तो मैं आगे बढ़ गई ।
अभी कुछ कदम ही चली थी कि पूरा आसमान बादलों से भर गया और कैलाश जी के ठीक सामने आसपास के बादलों के बीच से एक अद्भुत दृश्य उभरा । मैं मूर्ति बन खड़ी रह गई । कुछ समय तो मैं वह दृश्य अचंभित हो निहारती रही फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगी, "प्रशांत ! प्रशांत ! देखो गणपति जी ।"
सब ने मेरी बताई जगह पर ऊपर आसमान में देखा । सब अचंभित थे । आसमान में बादलों के बीच वीणा बजाते गणपति और साथ में मूषक स्पष्ट दिख रहे थे । हो सकता है वे आस-पास की पहाड़ियों के शिखर हों जिनके अधिकांश हिस्से बर्फ से ढंके हुए थे और जो हिस्से खुले थे वे गणपति जी की आकृति बना रहे थे या... हमारी आँखें जो देखना चाह रही थी... हम वही देख रहे थे । लेकिन वह जो भी था बहुत अद्भुत था ।
हम सब ने अपने-अपने कैमरे निकाल लिए । वह फोटो अभी-भी मेरे पास है । अभी हम वह अद्भुत दृश्य देख ही रहे थे कि बादल साफ हो गए और साथ ही वह अद्भुत, अचंभित करने वाला दृश्य भी गायब हो गया । चढ़ाई की शुरुआत में ही प्रथम वंदनीय गणपति जी के दर्शन से हम सबके मन खिल उठे । ऊर्जा का संचार हुआ और सभी फिर से "ॐ नमः शिवाय" के जयकारे के साथ आगे बढ़ने लगे । मैं अपने इष्ट देव प्रभु राम का नाम जपते हुए आगे बढ़ रही थी ।
सफर बहुत कठिन था । रास्ता तो था ही नहीं बल्कि पर्वत श्रृंखलाओं के बड़े-बड़े पत्थर और साथ में बहती हिमनद । हमारे 10 साथी तो हमसे बहुत आगे निकल चुके थे । पीछे रहे हम सात में से अपर्णा दीदी की सांस बहुत चढ़ने के कारण वे और हर्ष जी रंगबिरंगी झंडियों के पास ही रुक गए थे । पुनीत जी… वसुधा दी को और प्रशांत… अपनी माँ सुजाता जी को सहारा देते चल रहे थे । मैं करकम्मा जी के साथ चल रही थी । कई बार हिमनद में से होकर भी जाना पड़ रहा था लेकिन सुबह का समय और तापमान बहुत काम होने के कारण उसकी धारा बहुत उथली थी क्योंकि अभी ग्लेशियर नहीं पिघले थे ।
मैं बार-बार पीछे मुड़कर देखती और प्रशांत से पूछती, "और कितना चढ़ना है?"
प्रशांत मुस्कुराकर कहते, "सच बोलूं या झूठ..."
मैंने उन्हें सच बोलने के लिए कहा क्योंकि चढ़ाई बहुत ज्यादा थी और काफी ऊपर आने के बाद हिम्मत टूटने-सी लगी थी । पुनीत जी ने बताया था कि "चढ़ते समय कहीं भी रुकना नहीं है। यदि आप एक बार रुक गए तो चढ़ना मुश्किल हो जायेगा। यदि आपकी साँस चढ़ती है तो ५ मिनट के लिए हाथ में पकड़ी छड़ीके ऊपर सर टिकाकर खड़े-खड़े ही गहरी-गहरी साँस लेनी है और फिर से चलने लगना है।" पुनीत जी की कही बात को याद करते हुए सब "ॐ नमः शिवाय" का जाप कर रहे थे और मैं "जय श्री राम जय सियाराम" कहते चढ़ती जा रही थी और इन्हीं नाम स्मरण के सहांरे अंततः मैं चरण स्पर्श तक पहुँच गई ।
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हमारे समूह का पहला दल कुछ 15 मिनट पहले ही वहाँ पहुँचा था । मुझे और करकम्मा जी को वहाँ पहुँचा देख उन सब ने तालियां बजा कर हमारा स्वागत किया । मैंने सबसे पहले हाथ की छड़ी फेंकी और दौड़कर कैलाश जी के चरण छुए । यह चरण दरअसल ठंडे बर्फ से ढ़के ग्लेशियर थे । कैलाश के चरणों पर सर टिका मैं खूब रोई । बस रोती रही और प्रभु राम के दर्शन की गुहार लगाती रही । तब तक वसुधा दी, प्रशांत, पुनीत जी, और सुजाता जी भी वहाँ पहुँच गए । हम सभी ने उनका भी तालियों से स्वागत किया ।
नंदा जी वहाँ से और आगे चली गई थीं लेकिन चूँकि वहाँ पहुँचने तक हमें 2:00 बज चुका था और सूरज प्रखर हो गया था इसलिए ग्लेशियर पिघलने शुरू हो गए थे और हिमनद में बहुत अधिक वेग आ गया था । इसलिए नंदा दीदी आगे नहीं जा पाए और वे चरण स्पर्श पर ही लौट आए ।
सुजाता जी ने अपने साथ लाई सत साईं बाबा जी की तस्वीर और पूजा का सामान निकाला । उन्होंने वहीं के एक पत्थर पर कपूर जलाकर आरती की । वसुधा दी सबके लिए चांदी के बेलपत्र लाई थीं। हमने सारे बेलपत्र कैलाश जी के चरणों पर अर्पित किए… अपनी प्रखर आवाज में रुद्र पाठ किया जिससे वातावरण की पवित्रता और बढ़ गई । चारों ओर से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगा । हवा में ॐ का निनाद गूँजने लगा ।
हम सभी आरती कर रहे थे । मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं । मेरी आँखों से आँसू अपने आप बहते जा रहे थे । प्रशांत पूरा तल्लीन हो रुद्र पाठ कर रहा था और मैं जोर-जोर से रो रही थी । मुझे पता था कि मैं रो रही हूँ लेकिन मैं अपना रोना रोक नहीं पा रही थी । रोते-रोते बस एक ही विनती थी कि "हे प्रभु मुझे प्रभु राम के दर्शन करा दो । प्रभु राम मेरे इष्ट देव हैं और मैं उन्हीं का दर्शन करना चाहती हूँ ।“ मैंने भोलेनाथ से क्षमा भी मांगी कि "आपके सामने खड़ी हूँ फिर भी मैं प्रभु राम के दर्शन की प्रार्थना कर रही हूँ ।" लेकिन भोलेनाथ तो भोलेनाथ हैं । ऐसा लगा जैसे उन्होंने मेरी विनती सुन ली और जैसे ही मैंने आँखें खोलीं… कहीं से 3 तिब्बती बच्चे- एक 13-14 लड़का, एक 11-12 लड़की और एक 5-6 साल का छोटा लड़का मेरे सामने आकर खड़े हो गए । मैंने तुरंत उन तीनों के पैर छुए । मुझे लगा जैसे मेरे प्रभु ने बाल रूप में मुझे दर्शन दिए हैं।
वे बच्चे अचानक वहाँ कैसे पहुँचे यह किसी को भी समझ नहीं आ रहा था क्योंकि ऊपर चढ़ने का एक ही मार्ग था जहाँ नीचे अपर्णा दीदी और हर्ष जी बैठे थे और ऊपर हम लोग थे । इस पूरे मार्ग पर चलते हुए हम में से किसी ने भी उन तीनों बच्चों को ऊपर चढ़ते नहीं देखा था । जाने वे बच्चे कहाँ से आए और कैसे आए ! सब यही सोच रहे थे लेकिन मेरा मन मान रहा था कि यह तो मेरे प्रभु अपने बाल रूप में पधारे हैं ।
थोड़ी देर हम सब वहीं पत्थरों पर बैठे रहे । अशोक और सृजन हमारे लिए पैक खाना लेकर आए थे जिसमें आलू की सब्जी के साथ रोल करके पराठें रखे थे । साथ ही एक सेब और एक फ्रूटी थी । हम सब ने वहाँ बैठ खाना खाया और आसपास जो कुछ भी पहले का कचरा पड़ा था उसे भी समेटा और फिर वापसी का सफर शुरू किया । वापसी के समय वे तीनों बच्चे हमें कहीं नहीं दिखे ।
पुनीत जी ने बताया कि वे तीनों बच्चे कैलाश के इनर कोरा की ओर आगे चले गए थे जबकि आगे ग्लेशियर पिघलने की वजह से पानी-ही-पानी था और रास्ता बंद था । इसी कारण नंदा दीदी आगे नहीं जा पाए थे और हिमनद के भीषण वेग के कारण उन्हें वापस आना पड़ा था । लेकिन वे तीनों बच्चे तो जैसे भोलेनाथ में विलीन होने के लिए आगे बढ़ गए थे । उसके बाद ना तो बच्चे हमें वापस आते हुए दिखे और ना ही ऊपर कहीं दिखे । यह एक चमत्कार ही था ।
इसी तरह जब वसुधा दी ऊपर चढ़ते समय गिरने को हुई तो न जाने कहाँ से एक औरत अपने बच्चे के साथ वहाँ पहुँच गई और उन्हें सहारा देकर बैठाया । यह वही औरत थी जो 1 दिन पहले उनकी पिट्ठू बनी थी लेकिन वह इतनी ऊँचाई पर वहाँ अचानक कैसे पहुँची और फिर अचानक कहाँ चली गई कोई नहीं जान पाया ।
कहते हैं कि इस पूरी परिक्रमा के मार्ग पर प्रत्येक यात्री को भोलेनाथ अलग-अलग रूपों में दर्शन देते हैं । लेकिन उन्हें पहचान पाना… हमारी श्रद्धा और भक्ति की आँखों पर निर्भर करता है ।
उन अद्भुत अचंभित करने वाले अनुभवों के साथ हमने उतरना शुरू किया । अब तक दोपहर के 2:00 बज चुके थे और सूरज चमक रहा था । यह भी एक अचंभित करने वाली बात है की तापमान शून्य से कम था लेकिन फिर भी सूरज चमक रहा था । कभी बदल घिर आते और कभी बारिश हो जाती, लेकिन सूरज के आते ही हिमनद का पानी बहुत तेजी से बहने लगता । इसलिए सुबह की वह पतली धारा अब बहुत मोटी हो चुकी थी । यूँ लगता मानो पास से व्यास नदी अपने पुरे वेग से बह रही हो... फिर भी उतरना तो था ही ।
नंदा दीदी हम सब से बहुत पहले ही डॉरमेट्री पहुँच चुकी थीं । मैं दूसरे नंबर पर पहुँची । जब हम सब कैलाश जी की ओर जा रहे थे तब एक उत्साह था लेकिन कैलाश से दूर वापस डॉरमेट्री की तरफ आना दुखी कर रहा था । मैं, विद्या और लक्ष्मी दम साधकर चलते जा रहे थे । जैसे-जैसे डॉरमेट्री पास आती जा रही थी पैरों की थकान बढ़ती जा रही थी । पैर घसीटते हुए जैसे-तैसे डॉरमेट्री पहुँचे तो दरवाजे पर ही अपर्णा दी, हर्ष जी और विकास जी हमारे स्वागत के लिए खड़े थे । मुझे देख कर अपर्णा दी ने मुझे गले से लगा लिया । मैं जब से चरण स्पर्श के लिए गई थी तब से ही उसका मन मेरे लिए डरा रहा था लेकिन मुझे सही सलामत वापस आया देख उसकी खुशी का ठिकाना न रहा । हम सभी बहुत ज्यादा थक चुके थे और यात्रा का अंतिम पड़ाव पूरा करने का साहस अब नहीं बचा था । इसलिए हमने बेसकैंप से टैक्सी मंगवा ली थी । मैं, किरण दीदी, अपर्णा दी, हर्ष जी, विकास जी, वसुधा दी और सृजन… हम सब टैक्सी में बैठ कर वापस दारचिन की ओर चल पड़े ।
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