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देवदूत

कहानी

देवदूत


शांत. . . . . . एकदम शांत था सारा शहर। पिछले छह दिन से सड़कें सुनसान थी और बाजार बंद। न मोटर गाड़ियों की पौं-पौं और न ही कारखानों में मशीनों की घर्र घर्र। ऐसा लगता था जैसे समस्त शहर गहरी निद्रा में लीन हो गया हो। इतना शांत यह शहर पहले कभी नहीं था। दूरदर्शन या आकाशवाणी के माध्यम से ही पता चलता था कि केवल इसी शहर का नहीं बल्कि पूरे देश के प्रत्येक छोटे बड़े शहर, गांव और कस्बे का यही हाल था। इक्कीस दिन का लॉकडाउन. . . . बंद एकदम बंद। सड़कों पर कहीं-कहीं, कभी-कभी पुलिस की इक्का-दुक्का गाड़ी गश्त करती हुई दिखायी पड़ जाती थी। हां, कभी-कभी कोई गाड़ी ऐसी भी होती थी जिसने भोजन पास बनवाया होता और उसमें कुछ स्वयंसेवक उन लोगों में भोजन वितरण करते जिनके घर में खाने के लिए राशन नहीं बचा था। जो दिहाड़ी, मजदूरी कर अपना घर चलाते थे। रेहड़ी-फड़ी वाले, रिक्शा चलाने वाले, सड़क किनारे अपना सामान बेचने वाले - कितने ही ऐसे लोग थे . . . जो प्रतिदिन काम करते थे तो उनका चूल्हा जलता था। जिस दिन से लॉकडाउन हुआ - भूख का काला साया इनके सर पर मंडराने लगा। परंतु ऐसे में कुछ लोग, कुछ संस्थाएं देवदूत बनकर सामने आये जो ऐसे ही लोगों के पास जाते और उन्हें तैयार भोजन के पैकेट वितरित करते।

प्रतिदिन गाड़ी आती - खाने के पैकेट बांटती और चली जाती। परंतु शहर के पूर्वी कोने में बसी इस बस्ती में एक घर ऐसा भी था जिसने पिछले दो दिनों से खाना नहीं खाया था। इस घर का मुखिया स्वयंसेवकों से भोजन के पैकेट स्वीकार नहीं कर रहा था। यह घर था रामचरण का। रामचरण- एक गरीब अनपढ़, परंतु स्वाभिमानी रिक्शा चालक; जो प्रतिदिन रिक्शा चला कर अपना जीवनयापन कर रहा था। अनपढ़ता और बेटे की चाह ने परिवार को बड़ा कर दिया था। छह बेटियों के बाद ही एक बेटे का जन्म हुआ था। बेटा जिस दिन से पैदा हुआ था, उसी दिन से छोटी-मोटी बीमारियों से घिरा रहता था। रामचरण की पत्नी कजरी अमीर घरों में साफ-सफाई झाड़ू पौंछे का काम किया करती थी। बेटे की अस्वस्थता के कारण वह ये सब काम छोड़ चुकी थी। परिवार की पूरी जिम्मेदारी रामचरण के कंधों पर आन पड़ी थी। घर में छह बेटियों की जिम्मेदारी और बेटे की बीमारी पर हो रहे खर्च ने रामचरण की कमर को दोहरा कर दिया था। रामचरण था बहुत खुद्दार। कभी किसी के आगे मदद के लिए हाथ नहीं पसारता था। परंतु यह लॉकडाउन उसे झुकने के लिए या फिर टूटने के लिये विवश कर रहा था। दोनों ही परिस्थितियों में उसकी हार निश्चित थी। क्योंकि भूख लाॅकडाउन नहीं देखती। भूख की तालाबंदी नहीं हो सकती। भूख मिटाने का कोई विकल्प भी नहीं था। बस यही भूख थी जो उसे हारने के लिये मजबूर कर रही थी। वह स्वयं सब कुछ सह सकता था मगर बच्चों की भूख. . . . . . . ! बच्चों को भूख से तड़पते देख उसका कलेजा मुंह को आ रहा था। वह कैसे कोई रास्ता निकालें? किस तरह अपने बच्चों की भूख शांत करे। कैसे अपना घर चलाये? यदि वह भोजन के पैकेट स्वीकार कर भी ले तो यह केवल अस्थायी समाधान है। वह भी केवल पेट की आग शांत करने का। इस कोरोना महामारी का क्या पता यह कितनी जिंदगियां लील जाये?

गर्मी की प्रचंडता क्या कोरोनावायरस को समाप्त कर देगी? यदि ऐसा न हुआ तो कोई संस्था, कोई व्यक्ति आखिर कब तक भोजन वितरित कर सकता है? ऐसे कितने ही विचार रामचरण के मस्तिष्क में निरंतर चल रहे थे। तभी कुछ स्वयंसेवकों ने उसके द्वार पर दस्तक दी और भोजन के पैकेट उसकी ओर बढा़ये। रामचरण ने प्रतिदिन की भांति पैकेट लेने से इनकार कर दिया तो छोटी बेटी की रुलाई फूट गई। वह चिल्ला कर बोली, "भूख लागी आ मन्नै। एक लिफाफा तो ले ले।" यह सुनकर एक स्वयंसेवक बच्चे को भोजन का पैकेट देने के लिए मुड़ा। रामचरण ने उसे रोक दिया, "नहीं बाबूजी, हम गरीब जरूर हैं, फ्री का खाणा ना खावैं। म्हारे पास कोई काम नी! जो आप म्हारी मदद करणा चाहो तो मन्नै कोई काम दे दयो।"

"इस लाॅकडाउन में सारे काम-धंधे बंद हैं। तो काम कहां मिल सकता है?" फिर कुछ सोचकर, "क्या काम कर सकते हैं आप?" एक स्वयंसेवक ने पूछा।

" बाबूजी, काम तो मैं रिक्शा चलाण का करूं, पर कुछ दिन मन्नै ढाबे पर भी काम करया था। मैं सब्जी-रोटी भी बणा लिया करूं।"

"यदि ऐसी बात है, तो आप हमारे साथ आ जाओ। आप खाना बना दिया करो तो हमारा काम और आसान हो जाएगा।" दूसरे स्वयंसेवक ने कहा।

"पर बाबूजी. . . . . . हम छोटी जात के हैं। क्या म्हारे हाथ का खाणा. . . . . ?" रामचरण के मुंह से आगे के शब्द नहीं निकल पाये। परंतु वह जो कहना चाहता था उसे स्वयंसेवकों ने समझ लिया। एक स्वयंसेवक आगे बढ़ा और बोला, "आप मनुष्य हैं . . . . . और आपकी भी वही जात है जो हमारी है। हम सभी मानव हैं और मानव का एक ही धर्म है मानवता। और मानवता धर्म का पालन करना हम सब का कर्तव्य है तभी हम इस धर्म को जीवित रख सकते हैं।" पता नहीं स्वयंसेवक की कही ये बातें उसके कितनी समझ में आयी पर वह हाथ जोड़कर बोला, "बाबू जी चलिये, मैं भी अपना धर्म निभाणा चाहता हूँ।"

"इस शुभ काम की शुरुआत आप अपने घर से करें- अपने हाथों से अपने बीवी बच्चों को यह भोजन के पैकेट देकर।" एक स्वयंसेवक ने भोजन के पैकेट रामचरण को पकड़ाते हुए कहा।

भोजन के पैकेट पाकर रामचरण की लड़कियों की आंखों में एक विशेष चमक आ गयी थी। उन्हें ऐसे लगा जैसे किसी देवदूत ने उनके निष्प्राण तन में प्राण फूंक दिये हों। रामचरण भी एक अजीब सी खुशी अनुभव कर रहा था कि उसे आज प्रतिकूल परिस्थितियों में भी न झुकना पडा़ और न टूटना पडा़।

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बलदेव राज भारतीय

असगरपुर(यमुनानगर)

पिन 133204

हरियाणा

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