लोक डॉउन एंड कोचिंग सिटी कोटा - भाग 3 Rekha Pancholi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लोक डॉउन एंड कोचिंग सिटी कोटा - भाग 3

लेखिका- रेखा पंचोली

* सुरभि का पैचअप

हॉस्टल के लोन में सोशल डिस्टेंसिग के पालन के साथ खाने के पैकेट बांटते-बांटते अचानक सुरभि की नजर निखिल पर पड़ी, वह एक दूसरी कतार में खाने के पैकेट बांट रहा था मास्क चेहरे पर लगा होने के कारण वह शुरू में देख नहीं कर पाई थी ।

बाद में नजर आ जाने पर वह जानबूझकर निखिल की ओर पीठ करके खड़ी हो गई ।

बाहर निकलने लगे तो सुरभि को निखिल ने आवाज देकर रोक लिया। सुरभि चाह कर भी इग्नोर नहीं कर सकी । तुम तो बिल्कुल भूल ही गई सुरभि 6 महीने हो गए तुमने एक बार भी बात करने की कोशिश नहीं की। निखिल पास आकर बोला । तो तुमने ही कौन सा मुझे याद कर लिया ? निखिल को सुरभि ने उलाहना देते हुए कहा। 'कुछ समय मैं यह सोचता रहा सुरभि की तुम अभी तक मुझसे नाराज होंगीं ,कुछ अपने आपको और तुम्हें वक्त देने के बारे में सोचा ...अपने रिश्ते की गहराई मापने का खयाल था मन में और बाद में हालात ही बदल गए | पर सुरभि अब लगता है तुम्हारे बिना अधुरा हूँ ,,अकेला हूँ |' अभी चलती हूँ निखिल ...समय से घर पहुंचना है फिर मिलते हैं कह कर लौट आई सुरभि | पर घर आ कर वो निखिल के अलावा कुछ नहीं सोच सकी |सच तो यह था कि कई बार सोचा सुरभि ने कि निखिल को फोन करे ,,, दूर रहकर भी ऐसा कोई दिन नहीं गया था,जब सुरभि ने निखिल को याद नहीं किया था । हर रोज इंतजार करती थी कि निखिल का फोन आए, निखिल के फोन का इंतजार कर-कर के वह बार-बार निराश भी हुई, पर फिर भी उम्मीद की किरण टूटी नहीं थी | न जाने कौन सी बात थी जो उसे फोन करने या पहल करने से रोक देती थी | शायद आत्म-सम्मान या वह पहल करे ऐसा वाला ईगो | केवल इतनी सी बात के लिए कि वह अभी तक उससे नाराज होंगी , निखिल ने फोन ही नहीं किया ? सुरभि का मन फिर से तर्क- वितर्क में उलझ गया । गलती तो कहीं ना कहीं उसकी भी थी ।एक बार उसी ने निखिल को फोन कर लिया होता। अपने मन को टटोल रही थी वह , कि निखिल के बिना उसका जीवन कितना अधूरा है। कितनी छोटी-छोटी बातों पर वे लोग लड़कर कर अलग हो गए | पर समय बीता समय, उन्होंने कैसे गुजारा है ये वे ही समझ सकते थे । वास्तव में दोनों का काम अलग-अलग होना ही उनके बीच झगड़े का कारण बन जाता था |जहां सुरभि की एक निश्चित समय क्लास से होती थी, वही निखिल अपने के पिता का बिजनेस से जुड़ा था और वह अक्सर ही सुरभि को वक्त नहीं दे पाता था | कितनी ही बार ऐसा हुआ कि वह निश्चित वक्त पर पहुँच तय किये गए कैफे या रेस्टोरेंट में पहुँच गई मगर निखिल कभी आधा घंटे लेट या पूरे एक घंटे देरी से दरअसल उनका होटल और मैरिज हॉल का व्यवसाय था | सीजन के समय निखिल को सुरभि से मिलने और बात करने का जरा भी वक्त नहीं मिलता था। एक दिन सुरभि निखिल के लेट हो जाने पर उसके मैरिज गार्डन पहुँच गई, , निखिल बुकिंग के लिए आई किसी पार्टी के साथ अपने ऑफिस में उलझा था | अन्दर आने की सूचना भिजवाने के बावजूद वह ऑफिस से एक घंटे बाद बाहर आया | उसने सॉरी भी कहा , पर सुरभि ही उस दिन माफ़ करने के मूड में नहीं थी | यह पहली बार नहीं था इससे कितनी बार पहले ऐसा हो चुका था | दोस्ती तोड़ कर वह उस दिन घर लौटी थी | मगर 6 महीने के इस वक्त ने सुरभि को मैच्योर बना दिया था। वह निखिल की व्यस्तता को समझ रही थी। तभी निखिल का फोन आ गया । निखिल ने बताया कि 'एक माह पहले उसकी मां इस दुनिया में नहीं रही' सुनकर चौंक पड़ी सुरभि --- 'इतना गैर समझ लिया मुझे ?? इतनी बड़ी बात... मुझसे छुपाई । आंटी मुझसे कितना प्यार करती थीं |तुमने मुझे बताया क्यों नहीं? वह कैसे बीमार हुईं ? क्या हुआ उन्हें ?' क्या उन्होंने भी मुझे एक बार भी याद नहीं किया ? भरे मन से एक ही साँस में ढेर सारे प्रश्न कर डाले सुरभि ने निखिल रुंधे गले से बोला ' तुम्हें तो वह अक्सर ही याद किया करतीं थीं सुरभि उन्हें हमारे बारे में कुछ पता नहीं था | मैंने उन्हें बताया था की तुम आगे पढाई के लिए बाहर गई हो और जाते समय तो उन्हें कुछ कहने-सुनने का वक्त ही नहीं मिला | ये तो तुम्हें पता ही है सुरभि वो पहले से ही हार्ट पेशेंट थी , । यह लोकडाउन के बाद के चौथे-पांचवें दिन की बात है, चारों तरफ कोरोना की वजह से दहशत भरा माहौल था | मां को अचानक अटैक आया और हम उन्हें लेकर नजदीक के जिन दो हॉस्पिटलों में पहुंचे, दोनों में ही एक-एक स्टाफ मेंबर कोरोना के पेशेंट मिल जाने के कारण, दोनों हॉस्पिटल सीज किए जा चुके थे। तीसरे हॉस्पिटल जाते-जाते मां की सांसे दम तोड़ने लगी और जब हम तीसरे हॉस्पिटल पहुंचे तो मां की सांसें तेज गति से चलने लगी | पूरा स्टाफ एकत्रित हो चुका था | माँ को आई.सी.यू में शिफ्ट कर दिया गया था | डाक्टर मां को घेर कर खड़े थे | आई.सी.यु में ले जाते वक्त हमें बाहर ही रोक दिया गया, माँ ने मेरी ओर देखा और अपना हाथ आगे बढाया,इस मुश्किल घडी में जैसे उन्हें किसी अपने के साथ की जरुरत हो ,मैं माँ का हाथ थामना चाहता था, पर स्टाफ ने मुझे बाहर रोक दिया,,, आई.सी.यु.का दरवाजा बंद हो गया... हम सभी खिड़की से माँ को देख रहे थे | सामने ई.सी.जी के मोनिटर पर माँ की हार्ट बीटिंग की टूटती बनती लाईन दिखाई दे रही थी | माँ का हाथ अब भी बार-बार हवा में उठ रहा था जैसे वो कुछ कहना चाहती हों | अचानक मोनिटर पर मुझे सीधी लाईन दिखाई दी | मेरी रूह काँप गई सुरभि ... क्या माँ इस दुनियां में नहीं रही ? डॉक्टर उनके बेड से दूर हट गए... मैं माँ की बंद आँखों और शांत चेहरे को देख पा रहा था | मेरे मुहं से इतनी जोर से चीख निकली कि पूरा हास्पिटल गूंज गया | मैं उस बंद दरवाजे को ठेल कर अन्दर चला गया | मैंने माँ के उस हाथ को पकड़ा जो उन्होंने आगे बढाया था | पर वो निश्चेतन था, काश मैं उनका हाथ थोड़ी देर पहले पकड़ पाता ! काश की पास वाले दोनों हॉस्पिटल खुले मिल पाते ! काश ! माँ को जल्दी चिकित्सा मिल जाती... तो शायद वो जीवित होतीं | अप्रत्यक्ष रूप से माँ को इस कोरोना काल ने हम से छीन लिया |' रो पड़ा निखिल | सुरभि अपने आप को नहीं रोक नहीं सकी ,उसने अपनी गाड़ी निकाली निखिल के घर जाने को तो सुमेधा ने टोका अरे रात के आठ बज रहे हैं ,जा कहाँ रही है तू | मुझे मत रोको माँ मुझे अभी जाना है |सुमिधा ने सोचा किसी बच्चे को इसकी मदद की जरूरत होगी और यह चल पड़ी है| अरे अपना कर्फ्यू के पास तो साथ लेकर जा ... कहती हुए उसने सुरभि को पास दिया | निखिल के पापा और बहिन से मिलकर वह खूब रोई वह । जब निखिल के रूम में बैठी थी तो निखिल भी फूट-फूटकर रो पड़ा कुछ बताने का वक्त ही नहीं मिला सुरभि मां एकदम अचानक से हमें छोड़ कर चली गई | लगभग 20 -25 दिन कैसे गुजरे वह तुम्हें बता नहीं सकता | बड़ी मुश्किल से इस दर्द से बाहर निकलने का प्रयास कर रहा हूं| बच्चों की मदद करके और सोशल वर्क करके। सुरभि मैंने अपना सारा वक्त बिजनेस को संभालने और बढ़ाने में लगाया | तुम्हें वक्त नहीं दे सका, तुम मुझसे दूर चली गई| मां को भी वक्त नहीं दे सका और मां मुझे हमेशा के लिए छोड़ कर चली गई। जिस बिजनेस को सारा वक्त दिया, आज वह बंद पड़ा है| आज मेरे पास वक्त ही वक्त है| क्या करूँ वक्त का ....मां नहीं है, तुम आज न जाने कैसे किस्मत से मिल गई हो, वरना मेरे पास मेरे वक्त का कोई उपयोग नहीं है । रो पड़ी सुरभि तुमने कुछ भी गलत नहीं किया था निखिल, तुम अपने पिता का हाथ बटा रहे थे बिजनेस संभालने में ...गलती तो मेरी है, जो तुम्हें समझ नहीं सकी। अब तुम्हें अकेला छोड़कर कभी नहीं जाऊंगी | मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं। आंसुओं में सुरभि के दिल का पूरा गुबार ...सारी शिकायतें ...और दर्द बह गया था | मन गंगा की तरह निर्मल हो गया था अब आंसूं थे तो सिर्फ निखिल के दुःख के लिए | कहीं टूट न जाये वो हालातों के सामने वह उसकी मां जो उसके करीब थी वह नहीं रही थी उसका बिजनेस जो उसका पेशन भी था वो भी पिछले 6 माह से बंद पड़ा था ... वह उसे संबल देगी, ताकत बनेगी उसकी ,,उस दिन एक संकल्प के साथ लौटी वह |

लोक डाउन तीन और छात्रों की मुश्किलों में बढोत्तरी

लोकडाउन दो ही मुश्किलों के दौर की बढोत्तरी का समय था अब लोक डाउन तीन ने तो सब्र का बांध ही तोड़ दिया था | जब देश के दूरदराज के हिस्सों में रहने वाले मजदूर और कोटा कोचिंग के स्टूडेंट्स में घर जाने की बेचैनी बढ़ रही थी । सुरभि, निखिल,संचिता व अनिकेत जैसे अनेक लोग और समाज सेवी संस्थाएं बच्चों की मदद के लिए आगे आए थे | कोचिंग इंस्टीट्यूट स्वयं बच्चों की मदद कर रहे थे | पर लाखों बच्चों को इस तरह संभालना कोई आसान काम नहीं था | खाना-नाश्ता बच्चों का प्रतिदिन पहुंचाया जाता था | पर इतने लोगों में से कुछ लोग छूट जायें या कोई पूरा हॉस्टल ही छूट जाए तो कोई बड़ी बात नहीं थी | खाना तो ऐसी चीज है ना, जो दिन में दो बार और बढ़ते बच्चों को तो तीन बार भी चाहिए होता है। इसके अतिरिक्त किशोर वय के बच्चे सोचते बहुत हैं | उनका मनोबल बनाए रखना भी , आसान काम नहीं था । वह टूट रहे थे | अब घर जाना चाहते थे | अपने आपको पल-पल असुरक्षित महसूस कर रहे थे यद्यपि उनको खाना और अन्य जरूरत की चीजें मुहैया करवाई जा रही थी किंतु वे हर चीज को शक की दृष्टि से देखने लगे थे | उन्हें लगता था कि कहीं उन तक पहुंचने वाली वस्तुएं कोरोना पीड़ित हाथों से तो नहीं गुजर रही है और यह स्वाभाविक भी है। हॉस्टल में पड़े-पड़े उन्हें हॉस्टल पिंजरे से लग ते थे।

सुरभि द्वारा बनाए पेज पर निरंतर बच्चों की समस्याएं और परेशानियां वे लगातार लिख रहे थे | घर जाने के लिए उन्होंने बैक टू होम के नाम से ट्यूटर पर एक कम्युनिटी भी बनाई थी कम्युनिटी में सारे बच्चों ने ट्वीट करना शुरू कर दिया था |

कुल मिला कर ये परेशानियों का दौर था |

छात्रों को दो वक्त का खाना भी नसीब नहीं हो रहा था । यह तो केवल हॉस्टल के लिए था ।जो अलग-अलग मकानों में कमरे लेकर रह रहे थे, उन छात्रों के लिए तो यह एक संकट काल था। कभी खाना मिल जाता और कभी नहीं मिलता।

एक दिन संचिता के मित्र दीपक का फोन आया उसके दो दोस्त अहमद और शब्बीर एक मकान में फंसे हुए थे । मकान मालिक वहां नहीं रहता था और खाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। होटल-ढाबे सब बंद थे। दोनों बच्चे बहुत परेशान थे। दीपक रात का बचा हुआ खाना जो उसके पास था ,लेकर उनके लिए पहुंचा और उन तीनों ने मिल बांटकर खाया किंतु यह खाना बहुत थोड़ा था। पर्याप्त नहीं था | दूसरे दिन नगर निगम को फोन किया तो उन्होंने आश्वासन दिया कि वे शाम तक भोजन भिजवा देंगे। पेट में तो सुबह से ही चूहे दौड़ रहे थे ।दीपक ने संचिता को फोन किया उस समय सुरभि किसी होस्टल में खाना बांटने गई थी। संचिता ने सुरभि को फोन किया किंतु उसके पास खाना समाप्त हो चुका था । दोपहर के समय संचिता जैसे-तैसे थोड़ा सा भोजन लेकर घर से उस तरफ के लिए निकली । किंतु रास्ते में पुलिस को देखकर वह घबरा गई और वापस लौट आई । शाम के 6:00 बज चुके थे। किंतु उन तीनों बच्चों के लिए भोजन की कोई व्यवस्था नहीं थी | संचिता ने दीपक को कहा कि वह वहां खाना लेकर नहीं आ सकती । बाहर चारों तरफ पुलिस है | एक समुदाय विशेष की गलियों में पुलिस और डॉक्टर्स पर पथराव हुआ है |पुलिस वाले इस वजह से भड़के हुए हैं ।पुल़िस का मिजाज थोडा सख्त हैं ।किसी को सड़क पर निकलने नहीं दे रहे। अगर वह तीनों उसके घर तक आ सके तो खाना उपलब्ध है। दीपक, अहमद और शब्बीर की भूख से जान निकली जा रही थी ,उन्होंने हिम्मत करके घर से बाहर निकलना ही उचित समझा । शब्बीर ने कहा कि भूखे मरने से अच्छा है, पुलिस वालों से बात की जाए कि उन्हें लगभग 24 घंटे से खाना नहीं मिला है । वे तीनों भूखे बच्चे घर से बाहर निकल आये यह सोच कर कि शायद पुलिस वालों को उनकी तकलीफ समझ में आ जाए किंतु जैसे ही पुलिस के वे नजदीक पहुंचे पुलिस वालों ने उन्हें रोक लिया और एक पुलिस वाले ने उन्हें डांट कर पूछा कि उनकी हिम्मत कैसे हुई, इस समय निकलने की ,अहमद और दीपक बुरी तरह से डर गए ,किंतु शब्बीर ने हिम्मत कर के कहा कि वे तीनों भूखे हैं ,और खाना लेने जा रहे हैं । पुलिस वालों ने उनका नाम पूछा.... जैसे ही शब्बीर ने अपना नाम बताया वे लोग भड़क उठे और डंडा लेकर उनकी तरफ दौड़े ...जाते-जाते एक- दो डंडे उन्होंने शब्बीर ,अहमद और दीपक को जमा ही दिए भूखे बच्चे डंडे खाकर उल्टे पैरों अपने कमरे की ओर जाने लगे ,तभी महिला पुलिस ने उन्हें रोक लिया और अपने साथियों को थोड़ा सा रोष पूर्वक कहा यह कौन सा तरीका है । क्यों किसी का गुस्सा किसी और पर निकाल रहे हो, पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती है । सब एक जैसे थोड़ी ही होते हैं |बच्चे हैं ! भूखे हैं ,हमारा कर्तव्य है ,उनकी मदद करना ।महिला पुलिस की वह टुकड़ी लोगों की मदद कर रही थी ।उन्होंने कई जगह भोजन के पैकेट पहुंचाए थे । कुछ पैकेट उस समय उनके पास बचे हुए थे । उन्होंने उन तीनों बच्चों को वह पैकेट दिए। तीनों कमरे पर लौट आए, डंडो की चोट अभी तक दर्द दे रही थी ,किंतु पेट की अग्नि का जोर उससे अधिक था। 24 घंटे बाद तीनों को भोजन मिला था। आज घर की याद कुछ ज्यादा ही सता रही थी।

राहत- ख़ुशी और गम के पलों का संगम-

यूपी की सरकार ने कोटा में 14 सौ बसें भेजने को मंजूरी दे दी थी । बच्चों में जश्न का माहौल था । कोचिंग स्टूडेंट्स कोटा से लौटने की तैयारी कर रहे थे । अपने सामान अपनी किताबें सहेज रहे थे | पर इस मन को कैसे सहेजें ,जो यहां आकर, यहां की आबोहवा में घुल-मिल गया था और जिस मकसद को लेकर वह यहां आए थे , वह लक्ष्य वह अरमान अभी अधूरा था । माता-पिता के कठोर अनुशासन से निकलकर वे कोटा की खुली हवा में आए थे | पढ़ाई के अतिरिक्त दिमाग में और कुछ नहीं था । दोस्तों के साथ यहां कितनी मस्तियां की थी । कितने दोस्त कितने दिल के करीब हो गए थे । आज उन सब छोड़ कर बिछड़ जाना है और अपनी अपनी राह पर चले जाना है । अपना कमरा खाली करते समय दीपक का दिल आज भावुक हो चला था |अपने सपनों से जुडी वो कुर्सी ,वो टेबिल जिस पर बैठ कर मन पढते-पढते ख्वाबों में खो जाया करता था | उसके होस्टल की बाउंड्रीके पास चाट का ठेला लगता था उसके सामने स्टूडेंट्स की लम्बी कतार शाम को लग जाती थी , उसे अपनी टेबिल से सिर्फ वो कतार ही दिखाई देती थी और वो इस कल्पना में खो जाता की वो डाक्टर बन चुका है और यह कतार उसके मरीजों की है |हर रोज शाम को वह इन्ही ख्यालों में डूब जाता | एक दिन अपनी साईकिल को स्टेंड पर रख कर वो क्लास की तरफ जा ही रहा था की संचिता मिल गई, बातें करते करते उसने जागती आँखों से देखे इस सपने को उसने संचिता को सुना दिया | "और ये रहा तेरा स्टेथस्पोक" संचिता ने उसके हाथ से साईकिल की चाबी की लम्बी चैन हाथ में ले कर उसके गले में पहना दी | दोनों ही खिलखिला कर हंस पड़े थे तब | उसके होटों पर मुस्कुराहट फ़ैल गई | वह यूँही खिड़की के बाहर देखने लगा | उसकी खिड़की से दिखता इस शहर का यह ख़ूबसूरत नजारा , ऊँची-ऊँची होस्टल्स की ये गगन चुम्बी बिल्डिंगें,,, कोचिंग इंस्टीट्यूट की यह ईमारत जिससे जुडी हैं, यहाँ की अनेक यादें, हम उम्र सहपाठी छात्र-छात्राएं, ये चहकती सड़कें ....हवा में तैरते सैंकड़ों अरमान ,बिखरती हंसी ,गूंजते ठहाके सब का जैसे एक साथ.... विसर्जन ! .... अपनी टेबिल के सामने जो चिपकाये हुए वो मोटिवेशनल कोटेशन, अपने आप से किये गए वादे ,पोस्टर खीँच कर हटाते वक्त लगा जैसे सूखते जख्म की पपड़ी को कुरेद लिया है |सामने दीवारपर रंग-बिरंगे महीन पेपर से लिखा था.... हेप्पी बर्थ डे दीपक ....संचिता ने पेपर की कटिंग करके लिखा था | उसकी बर्थ डे पर | ये लड़कियां भी ना कितने सीमित साधनों में कितना कुछ अच्छा सा यादगार वक्त बना देती हैं , उसके होटों पर मुस्कान फ़ैल गई | उसे याद आया उसका बर्थ डे,उसे आये कुछ ही वक्त हुआ था ,जितना सोचा था, पैसा बजट से ज्यादा खर्च हो गया था ,सोचा था अपने जन्म दिन के बारे में किसीको बताऊंगा ही नहीं | पर नए बने दोस्तों में से संचिता ने कब नोट करके रखा पता ही नहीं चला | क्लास ख़त्म होते ही संचिता , अनिकेत, अंजली ,रूचि और वरुण वगैरह घेर लिया उसे | उसने केंटिन से समोसे ख़रीदे संचिता केक लेकर आई थी | होस्टल में आकर इसी तरह एक छोटी सी यादगार बर्थ डे मना दी थी उन लोगों ने | वह अभी उन अक्षरों को निहार ही रहा था कि दरवाजा खुला और संचिता अन्दर आ गई| अरे तुमने अभी तक अपना सामान पेक नहीं किया | अच्छा अपनी बर्थ डे याद कर रहे हो |" मैं कैसे भुला पाउँगा तुम लोगों को संचिता !" दीपक की आँखों में नमी थी | "सच !तुम मुझे भी बहुत याद आओगे" संचिताने भावुक होते हुए कहा ,पर भूलने की जरुरत भी कहाँ है | हो सकता है हमें एक ही कॉलेज मिल जाये , नीट की परीक्षा पास करने के बाद | उसने आशा वादी लहजे में कहा ...और हाँ अब जल्दी से पेकिंग करो चलो मैं तुम्हारी मदद करवाती हूँ |सामानों की पेकिंग करवा कर संचिता घर लौट आई उनकी स्वंसेवी टीम को शाम को अपनी सेवाएँ जो देनी थीं |

1400 बसों की कतार कोटा की सबसे बड़े कोचिंग इंस्टिट्यूट के सामने खड़ी थी । बसों के साथ अपने राज्य से पहुंचे ड्राइवर और कंडक्टरों पर बच्चे खुशी से फूल बरसा कर रहे थे | उनका स्वागत कर रहे थे । हजारों बच्चे अपने सामानों से लदे-फदे सड़कों पर थे । सरकार से घर भिजवाने के लिये जो प्रयास और संघर्ष बच्चों द्वारा किया गया था, वो यूपी के साथ झारखंड, पश्चिम, बंगाल ,बिहार अन्य सभी राज्यों के बच्चों ने एक साथ मिलकर किया था। पर सबसे पहले यह खुशी उत्तर प्रदेश के बच्चों की झोली में आई थी। सौरभ अपनी फोर्स के साथ यहां पर मौजूद थे। सारे इंतजाम देखने के लिए| पुलिस सोशल डिस्पेंसिंग की पूरी कवायद में लगी हुई थी। जहां बड़ी उम्र के लोग कोरोनावायरस से बाहर निकलने में भी भयभीत थे ।ये बच्चे अपने इन दोस्तों को विदा करने के लिए बस स्टैंड पर खड़े हुए थे। अलग-अलग राज्यों से थे ये बच्चे, चाहत तो सबके मन में थी इस संकट काल में वो कैसे भी अपने घर पहुँच जाएँ | पर बिना किसी जलन और ईर्ष्या के वह अपने दोस्तों को विदा करने आए थे । दोस्त घर पहुंच जाएंगे, उनकी जाने की खुशी में ही उनके दिलों में भी खुशी थी । पर आंख में आंसू थे ,हमेशा के लिए बिछड़ जाने की वजह से | वह अपने दोस्तों की मदद करते हुए उनके सामानों को उठाएं यहाँ-वहां खड़े हुए थे । पुलिस उन्हें सोशल-डिस्टेंसिंग रखने न रखने के कारण वहां से वापस भेजने के प्रयास में जुटी हुई थी । मगर वह थे कि जाने को तैयार ही नहीं हो रहे थे। मानो जब तक बस ना जाए, वह अपने दोस्तों को आंख से ओझल होते नहीं देखना चाहते थे ।सच यही तो है टीन एज का साफ सुथरा दिल और विशुद्ध प्यार | बड़े होकर ऐसा ऐसा विशुद्ध प्रेम अपने मित्रों के प्रति कहां रख पाता है,, यह मानव हृदय । संचिता , अनिकेत और सुरभि भी स्वयंसेवकों के रूप में यहां पहुंचे थे । जाने वाले बच्चों के हाथों में खाने के पैकेट और बिस्किट पकड़ा रहे थे। उन जैसे अनेक लोग यहां पर बच्चों की रास्ते के लिए खाने और सूखे नाश्ते लेकर खड़े थे । धन्य है चम्बल की धरती ,चम्बल की धारा केवल धरती को ही नहीं सींचती बल्कि मानवता और प्रेम से दिलों को भी सिंचित करती है | संचिता का मित्र या मित्र से कह लीजिए थोड़ा ज्यादा ,,,दीपक आज कोटा छोड़कर जा रहा था ।संचिता अंदर से दुखी थी । किंतु वह इस बात के लिए खुश थी कि दीपक यहां पर अनेक परेशानियों का सामना इन दोनों कर रहा था ।अब अपने मम्मी-पापा के पास पहुंच जाएगा । दीपक अपना सामान रखकर बस से नीचे उतर आया और संचिता के पास आकर खड़ा हो गया |" संचिता हम फिर मिलेंगे ना, कितने दिन कोटा में जो गुजारे, मैं भूल नहीं पाऊंगा, कितना साथ-साथ घूमे हम ।घर जाने की चाहत में, मैं तो भूल ही चुका था कि कोटा भी एक तरह से मेरा घर बन गया था और जब मैं घर जाऊंगा तो मुझसे यह छूट जाएगा ,यह सारे दोस्त और तुम्हारी जैसी प्यारी दोस्त हमेशा के लिए दूर हो जाएगी ।" दीपक का गला रूंध गया।" नहीं दीपक ऐसा मत बोलो हमेशा के लिए दूर नहीं हो जाऊंगी,, हम फिर मिलेंगे अपना करियर बना लें। "संचिता की आंखों में भी आंसू छल छला आए। बस छात्रों को जल्दी से बैठने के लिए हार्न दिए जा रही थी ।दीपक दौड़ कर बस में बैठ गया ?एक के बाद एक 1400 बसों का काफिला धीरे-धीरे वहां से गुजरने लगा । हजारों छात्र अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे ।तो हजारों अपने दोस्तों को जाते हुए देख रहे थे और फिर गर्दन लटका कर धीरे-धीरे वापस हॉस्टल में लौटने लगे थे।

दीपक बस की ओर जाते-जाते बार-बार अनिकेत, संचिता और सुरभि को कह रहा था कि वरुण का ध्यान रखें आज यू.पी .का वरुण पूरे हॉस्टल में अकेला रह गया था । वरुण को उसके पेरेंट्स ने इन बसों में ना लौटने की हिदायत दी थी ।क्योंकि वरुण को साइनस की प्रॉब्लम थी। लंबी यात्रा करने पर उसकी तबीयत घर पहुंचते-पहुंचते खराब होने की संभावना थी और ऐसे में उसे यूपी पहुंचने पर उसे 14 दिन के लिए क्वॉरेंटाइन कर दिया जाता और क्वारंटाइन सेंटर में रखा जाता । उस के पेरेंट्स का कहना था कि लोक डाउन खुलने के बाद में वे स्वयं आकर उसे वहां से ले जायेंगे। लेकिन वह शायद यह नहीं समझ पा रहे थे कि 14 दिन क्वेरेंटाईन सेंटर में घर जाने की आस में गुजार देना ज्यादा आसान था ।जबकि अपने दोस्तों के जाने के बाद पूरे हॉस्टल में अकेले रहना और लोक डाउन कब खुलेगा ,इसका निराशा में इंतजार करना बहुत मुश्किल था। सच तो यह है कि माता-पिता किशोर-वय के मन को कभी-कभी इतना नहीं समझ पाते, जितना उनके बराबर के उनके दोस्त समझ लेते हैं। यही कारण था कि दीपक को जाते-जाते वरुण की चिंता थी। एक सीट छोड़कर एक सीट पर बच्चों को बिठाया गया था ।बस पूरी तरह सैनिटाइज्ड थी ।अपने दोस्तों को विदा होते देखकर निराश-हताश मन से सब दूसरे राज्यों के बच्चे धीरे-धीरे लौटने लगे थे। किंतु उनके मन में भी एक उम्मीद थी कि जिस तरह से यूपी के बच्चों को यहां से ले जाया गया ।उनके राज्य की सरकारें भी उन्हें यहां से ले जाएंगी और इस कोरोना काल में जब चारों तरफ एक भय प्रद वातावरण है ।वह अपने माता-पिता, अपने परिवार और भाई-बहनों के साथ रह सकेंगे |

एक के बाद एक बस से जाने लगी थी । दीपक की बस जाने के लिए तैयार थी ।वह फिर उतरकर नजदीक आया बिना कुछ बोले वापस पलट गया जैसे बहुत कुछ कहना चाहता था,मगर कुछ कह नहीं पाया। चुपचाप जाकर बस में बैठ गया भरी आंखों से विदा लेते हुए और कोचिंग सिटी कोटा को निहारते हुए । संचिता को लगा कि जैसे दीपक बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ कह गया है । वह बस के बिल्कुल समीप चली गई ,जिस खिड़की के पास दीपक बैठा था । बस में चलने के लिए फिर से हार्न दिया । अचानक संचिता ने खिड़की पर रखे दीपक के हाथ पर धीरे से अपना हाथ रख दिया जैसे यह एक आश्वासन हो। बस धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी और संचिता भी बस के साथ-साथ कुछ कदम चली,, किंतु बस ने स्पीड पकड़ ली थी और पीछे अन्य बसों का काफिला आ रहा था संचिता पीछे हट गई और जाती हुई दीपक की बस को देखने लगी । सुरभि अनिकेत और निखिल आश्चर्य से संचिता को देख रहे थे।

तभी उन्हें आवाज देते हुए देते हुए सौरभ वहां पर आ गए । फिर गंभीरता से बोले कि मैं तुम्हें मदद करने के लिए मना नहीं करता | किंतु अब बहुत हो गया धीरे-धीरे कोरोना बढ़ता जा रहा है । उन्होंने चुपचाप खड़ी संचिता के कंधे पर हाथ रखा और उसे हिलाते हुए कहा क्या सोच रही हो संचिता चलो घर नहीं चलना क्या? यह कोरोना का एक तरह का संकट है, कोई मामूली मजाक नहीं है | तुम्हें अपना ख्याल भी रखना चाहिए, चलो घर पर अब ।उन्हें अपनी गाड़ी में बिठाया और वे लोग घर आ गए घर पहुंचते ही सौरभ ने सबको बोला कि आप सब पहले नहा कर अपने कपड़े बदल लो |क्योंकि वहां इतनी ज्यादा भीड़ थी और यह कहा नहीं जा सकता कि कौन व्यक्ति कोरोना से संक्रमित हो और बतौर सावधानी सभी जब भी घर से बाहर जाकर आए तो नहा लेना चाहिए ।

दूसरे ही दिन से ही सभी राज्यों के बच्चों का एक आंदोलन सा शुरू हो गया था । वह लोग अब अपने घर जाना चाहते थे | अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए, वह विभिन्न प्रयास कर रहे थे। सोशल मीडिया, ट्विटर उनके लिए इसमें सबसे बड़ा मददगार साबित हो रहा था । पहले से चल रहे छात्र-छात्राओं के आंदोलन में तेजी आ गई थी ।धीरे-धीरे सभी राज्यों के मुख्यमंत्री बच्चों की समस्या पर गौर कर रहे थे और समस्या के निदान के लिए उनके राज्यों में विचार चल रहा था। कोचिंग संस्थानों में और कोचिंग संस्थानों के बाहर छात्र-छात्राएं धरने पर बैठे हुए थे । इसी बीच बिहार की छात्राओं ने अनशन कर दिया था और अनशन करने वाले इन छात्राओं का नेतृत्व कर रही थी अंजलि । कोचिंग संस्थान के बाहर सुरभि ने एक प्रेस-कांफ्रेंस बुलाई थी, अंजलि सभी छात्र-छात्राओं की बढ़-चढ़कर मदद कर रही थी और अंजलि ने अखबार और टीवी के लिए अपने स्टेटमेंट दिए थे । सब जगह अंजलि की तारीफ हो रही थी | अचानक ही अंजलि छात्र-छात्राओं के बीच हीरो बन गई थी और सुरभि एक फरिश्ते की तरह, सब उसकी की गई मदद के कारण सुरभि की तारीफ कर रहे थे ।सोशल मीडिया पर सुरभि और अंजलि छाने लगी थीं । छात्रों का आंदोलन रंग लाया था । । सभी राज्यों से धीरे-धीरे बसें कोटा पहुंचने लगी थी ।गुजरात, महाराष्ट्र ,मध्य प्रदेश और राजस्थान के सभी जिलों से । मगर दो-तीन राज्यों की सरकार अभी भी बच्चों को ना बुलाने के लिए अड़ी हुई थी। बिहार की अंजलि कृत संकल्प हो कर लड़ रही थी |

धीरे-धीरे कोटा में कोरोना के केस बढ़ने लगे थे। लोगों में दहशत व्याप्त हो रही थी। खास तौर पर कोचिंग स्टूडेंट्स में। हॉस्पिटल मरीजों से भरने लगे थे। डॉक्टर खुद मरीजों की सेवा करते करते बीमार होने लगे थे ।कुछ डॉक्टर्स कोरोना की चपेट में आ चुके थे। ऐसे में डॉ अमित और डॉ अनाया को डॉक्टर होते हुए भी ऑनलाइन कोचिंग पढ़ाना बिल्कुल नहीं भा रहा था। उन्हें लग रहा था कि उनके पिता इस उम्र में भी कोरोना के मरीजों की देखभाल करके देश सेवा कर रहे हैं ।उनके चाचा सौरभ भी अपने कर्तव्य को पूरा करके देश सेवा कर रहे हैं । यहां तक कि सुरभि, संचिता, अनिकेत भी देश सेवा में लगे हैं | ये स्वं सेवी टीम बना कर लोगों की जरूरतों को पूरा करने में लगे हैं | किंतु वे दोनों डॉक्टर होते हुए भी एक अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी छोड़कर ऐसे काम में लगे हैं, जो अभी बहुत ज्यादा जरूरी नहीं है । इस समय लोगों की जान बचाना ज्यादा आवश्यक है। इसी समय एक प्राइवेट हॉस्पिटल जिसने कोरोना की जिम्मेदारी को संभाला हुआ था ।डॉक्टर्स के लिए वैकेंसी निकाली और अवसर का उपयोग करते हुए अनाया और अमित ने अप्लाई कर दिया। उम्मीद के मुताबिक उनका चयन भी हो गया और वे दोनों खुश थे।

इधर सुरभि की बुलाई हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में छात्रों के हक में जबरदस्त भाषण देकर अंजलि घर लौटी । अंजलि हॉस्टल में नहीं रहती थी। वह अपनी एक सहेली के साथ एक मकान में किराए से रहती थी। क्योंकि आर्थिक रूप से उसके पिता कमजोर थे और हॉस्टल का खर्चा वहन नहीं कर सकते थे। अंजलि ने एक छोटा सा कमरा अपनी एक सहेली के साथ किराए पर ले रखा था और वे दोनों वहीं पर अपना भोजन भी बनाती थी। लोकल टीवी पर उसके भाषण का लाइव प्रसारण हो रहा था । इस समय ऑटो बंद थे। वे दोनों अपनी साइकिल से घर पर पहुंची थी। पास ही के एक मकान में कोरोना का केस निकला था | वहां बैरिकेट्स लगाकर मकान का रास्ता रोका गया था और एक पुलिस वाला बैठा था | आसपास दहशत का माहौल था | उन्हें आते हुए देखकर कुछ लोग अपने मकान और खिड़कियों में से चुपचाप झांक रहे थे। पूरे मोहल्ले में सन्नाटा छाया हुआ था। अंजलि ने घर के बाहर से डोरबेल बजाई । थोड़ी देर कोई जवाब नहीं मिला, कुछ देर बाद मकान मालकिन बाहर आई और गुस्से से बोली तुम्हें कितनी बार मना किया कि घर से बाहर नहीं जाओगी फिर भी तुम्हारा बाहर आना-जाना रुक नहीं रहा है । तुम आज अभी इस वक्त मेरा मकान खाली करो | मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे जैसे किरायेदार तुम्हारी वजह से हमारे घर में कोरोना फैल जाएगा और तुम लोग अपने कमरे में भी नहीं जाओगे। मैं खुद तुम्हारा सामान यहां गेट के पास रख वाती हूं। अंजलि और उसकी सहेली ने हाथ जोड़कर बहुत अनुनय-विनय किया। पर मकान मालकिन नहीं मानी। थोड़ी ही देर में उसकी बेडशीट में बांधी हुई किताबें कपड़े आदि सब सामान बाहर गेट के यहां थे ।मकान मालकिन और उसके बेटे ने मिलकर उन दोनों का सामान गेट के बाहर रख दिया था।अंजलि को समझ नहीं आ रहा था कि इस सामान को वह कैसे इकट्ठा करें कैसे बांधेऔर कैसे कहीं पर ले जाए और कहां ले जाए ? सांझ गहरा गई थी ।अब रात में कहां जाए। उसने अपने पिता को फोन लगाया और मकान मालकिन को समझाने के लिए कहा। किंतु मकान मालकिन उसके पिता से फोन पर बात करने को राजी ही नहीं हुई।माता-पिता के सामने यह कैसा संकट था, कि अपने बच्चे की इस हाल में होने पर भी वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। लॉक डाउन की वजह से ना तो वह कोटा आ सकते थे और ना ही किसी प्रकार अंजलि को वहां बुला सकते थे। तनाव ग्रस्त पिता के सामने कोई रास्ता नहीं था ।उन्होंने कोचिंग इंस्टीट्यूट के मैनेजमेंट और कोटा पुलिस को फोन करना आरंभ किया। किंतु सबकी अपनी-अपनी व्यस्तता थी। अंजलि की मां फूट-फूटकर रो रही थी । उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी बच्ची के लिए क्या करें। अंजलि और उसकी सहेली ने जैसे-तैसे अपने सामान को समेटा। उसने अपने पिता को फोन करके कहा कि वह परेशान ना हो। वह कोई ना कोई रास्ता निकाल लेगी । उसे ध्यान आया अपने मित्र अनिकेत का और उसकी दीदी सुरभि का। उसने अनिकेत को फोन किया। रात के 10:00 बज रहे थे अनिकेत ने सुरभि को कहा | सुरभि ने अपने चाचा सौरभ को बताया वे तीनों एक जगह एकत्रित होकर बात करने लगे। सौरभ को भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अंजलि के लिए क्या करें, इस समय सारे होटल बंद है। वे अंजलि और उसकी सहेली को कहां रखें। उन्होंने सोचा कि चलकर मकान मालकिन को समझाएंगे। वे अनिकेत को लेकर अंजली के मकान मालिक के घर पहुंचे ,अंजलि और उसकी सहेली अभी भी दरवाजे के बाहर खड़ी थी। उसकी सहेली के आंखों में आंसू आ गए थे किंतु अंजलि अपनी हिम्मत को बनाए हुए थी । सौरभ ने मकान मालकिन को समझाने की बहुत कोशिश की मगर वह किसी भी सूरत में मानने को तैयार नहीं थी। उसने कठोर लहजे में सौरभ से कहा कि आपको इतनी ही दया आ रही है ,तो इन लड़कियों को अपने घर पर क्यों नहीं रख लेते।मना करने के बाद भी यह बार-बार बाहर क्यों जाती हैं ? क्या मेरे और मेरे परिवार को कोरोना का खतरा नहीं है ?न जाने कहां घूम कर आईं हैं ? इस कोरोना काल ने लोगों से मानवता छीन ली थी । जहाँ कोचिंग सिटी में लोग बढ़-चढ़ कर मानवता की मिसाल कायम कर रहे थे | वहीँ ऐसे चेहरे भी थे जो अपनी मानवता खो चुके थे | मकान मालकिन का रवैया अमानवीयता का जबरदस्त उदाहरण था ।सौरभ और अनिकेत ने अंजलि और उसकी सहेली को सामान सहित गाड़ी में बिठाया । गाड़ी शहर की सड़कों पर दौड़ रही थी कोई भी लॉज कोई भी होटल खुला नहीं था ।

कोई हॉस्टल वाले भी नए स्टूडेंट को रखने को तैयार नहीं थे। इस समय बस उन्हें अपने हॉस्टल को छात्रों को खाली करवाना था । सबसे बड़ी समस्या मैस संचालकों ने उत्पन्न कर दी थी। क्योंकि सब्जियां और सामान आदि बहुत महंगा मिल रहा था और उन्होंने अपने मैस बंद कर दिए थे। इसलिए छात्रों के सामने भोजन की समस्या थी ।होस्टल वाले भी चाहते थे कि वह कैसे भी खाली करके यहां से चले जाएँ । पर कुछ राज्यों की सरकारें थी कि अपनी जिद पर अड़ी हुई थी। अनिकेत और सौरभ उन बच्चियों को लेकर घर आ गए। सुमेधा और सुनंदा दरवाजे पर आ गई ।सौरभ ने बच्चियों की समस्या और पूरा वाकया बताया , परंतु दोनों ही जो सदैव बच्चों की मदद के लिए आगे रहती थी। कुछ ना खुश दिखाई दीं। यह था कोरोनावायरस का दुष्प्रभाव जो लोगों की सेहत पर ही नहीं, स्वभाव पर भी पड़ रहा था। वे दोनों नहीं चाहती थी कि कोई बाहर का व्यक्ति इस समय उनके घर में आए और रहे। एक-दो दिन से वह सुरभि,अनिकेत और संचिता पर भी पाबंदी लगा चुकी थी,उन्हें घर से बाहर निकलने की हिदायत दे चुकी थी | बढ़ते कोरोना केस उनके मन में दहशत बैठा चुके थे।कोई रास्ता ना देखकर आखिर सुमेधा ने बुझे मन से सर्वेंट क्वार्टर की तरफ इशारा कर दिया । अंजलि और उसकी सहेली दोनों की जान में जान आ गई आखिर डूबते को क्या चाहिए था एक सहारा ..... दोनों ने सर्वेंट क्वार्टर में अपना सामान रखकर अपने माता-पिता को फोन करके आश्वस्त किया कि वे सुरक्षित हैं। देर रात तक अंजलि की आंखों में नींद नहीं थी । वह याद कर रही थी उस दिन को जब उसने अपने भविष्य के सपने लेकर कोटा में अपना एडमिशन पाने का सपना देखा था और ढेर सारे अरमान लेकर वह कोटा आई थी। पहला दिन बड़ा रोमांचकारी था | भुलाए नहीं भूल सकती वह क्लासें शुरू होने का दिन आया भी नहीं था और वह 2 दिन पहले ही अपने माता पिता से ज़िद करने लगी थी | कोटा आने के लिए ।

अपने सपनों के कोचिंग इंस्टिट्यूट में एडमिशन पाकर वह फूली नहीं समा रही थी । वहां का अपने किताबों का कोर्स ,अपनी यूनिफार्म और छाता जिस पर कोचिंग इंस्टिट्यूट का नाम लिखा था ।देख कर वो खुश थी ।बार-बार उन्हें सहेज रही थी। जिस दिन कोचिंग जाना था ।वह अपनी सहेली के साथ घंटा भर पहले ही वहां पहुंच गई थी और उसकी जैसे अनेक लड़कियां और लड़के थोड़ी देर में वहां आने लगे थे ।धीरे-धीरे उसकी सहपाठियों से दोस्ती भी होने लगी थी। दिन पंख लगाकर उड़े जा रहे थे । वे खूब मन लगाकर पढ़ते ,खूब मस्तियां करते और कोटा उनके दिलों जान मैं बसने लगा था । सोचा नहीं था कि कभी ऐसा भी वक्त आएगा जब वह घर जाने को इतना तरसेगी और उसका डॉक्टर बनने का सपना एक अधूरे सपने जैसा दिखाई देगा ।कोरोनावायरस ने ये दिन दिखा दिया था ।अंजलि को लग रहा था कि एक खूबसूरत पेंटिंग में वह धीरे-धीरे रंग भर रही थी, रंग जीवंत होते जा रहे थे ।सुंदर पेंटिंग उभरती जा रही थी कि अचानक किसी ने काली स्याही उस पर गिरा दी थी और अब बदरंग पेंटिंग उसको मुंह चिढ़ा रही थी । वह सर्वेंट क्वार्टर में धीरे-धीरे अपने सामान जमाने लगी। वहां दो तख्ते थे | कूलर नहीं था और गर्मी से राहत देने के लिए मात्र एक पुराना सीलिंग फेन था।चूं चूं घर्र घर्र की आवाज के साथ ये बाबा आदम के ज़माने का सीलिंग फेन मामूली हवा भी फैंक रहा था | बाहर से कुत्तों के रोने की आवाज आ रही थी | बहुत दिनों से भूखे , सर्वेन्ट क्वाटर की दीवारों पर चिपके मच्छरों को तो आज जैसे लजीज दावत ही मिल गई थी|

दुःस्वप्न सी ये रात गुजर गई। सूर्य देव अपनी रश्मियां धीरे-धीरे बिखेर रहे थे |अंजलि क्वार्टर से निकलकर बाहर लोन में आ गई | अंजलि जैसे जीवट युवाओं को कोई भी विषम परिस्थितियाँ तोडती नहीं, अपितु हर दिन का नया सूरज ,उनमें नया आत्म विश्वास ,और आशा भर देता है |