कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 1 Anagha Joglekar द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 1

वे अद्भुत, अविस्मरणीय 16 दिन

लेखिका

अनघा जोगलेकर

अपनी बात

यूँ लगा जैसे मैंने कोई बहुत ही मनोरम स्वप्न देखा हो। पिछले 20 वर्षों से मन में पल रही एक मनोकामना यकायक फलीभूत हो उठी। हाँ, कदाचित स्वप्न ही था वह।

दिवास्वप्न....

आज से 4 माह पूर्व मुझे एक फोन आया, "हम कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए जा रहे हैं। क्या आप हमारे साथ जाना चाहेंगे?"

मुझे तो यूँ लगा जैसे वह फोनकॉल न होकर साक्षात प्रभुवाणी हो।

उस फोनकॉल ने मेरे मन में उथल-पुथल मचा दी। घर में यात्रा पर जाने के लिए पूछा तो सबने मना कर दिया क्योंकि सभी ने सुना था कि यह बहुत ही कठिन यात्रा है। पति और बेटा बोले कि वह क्षेत्र अब चीन के अधिकार में आता है और वहाँ का वीजा मिलना भी बंद हो चुका है। यह सुन मैं मन मसोसकर रह गई लेकिन मेरी इच्छा बलवती थी। मैं उठते-बैठते एक ही रट लगाती कि मुझे जाना है… मुझे जाना है। अंततः हारकर पति जी ने हाँ कह दी। पैसे जमा किये। टिकिट भी आ गए और वीजा भी।

फिर शुरू हुआ चलने की आदत डालने का दौर। क्योंकि वहाँ 45 से 50 किलोमीटर का ट्रेक चलना था वह भी 16000 से 18000 फीट की ऊंचाई पर। लेकिन रोजमर्रा के कामों के बीच मैं सिर्फ 1 किलोमीटर प्रति दिन ही चल पाती थी। बेटा बहुत चिंतित था कि “मम्मा, तुम कैसे इतना चढ़ पाओगी?” उसी बीच मेरे दाएं पैर और हाथ में कुछ नर्व डैमेज हो गयीं। अब मेरा चलना बिल्कुल बंद हो गया। लेकिन उत्साह ठंडा न हुआ।

जाने की तारीख 4 अगस्त तय हुई थी और वह तारीख भी नजदीक आती जा रही थी। सावन का महीना। घर में नागपंचमी, रक्षाबंधन, सावन सोमवार, ऊपर से बेटे का 13वां जन्मदिन, सब इसी बीच था। इन सब की ओर से आँखें बंद कर, सिर्फ मन की आँखें खुली रख… मैं अकेले ही चल पड़ी अपनी मंजिल पाने।

बेटे ने हिम्मत बंधाई, "मम्मा, यू गो। डोंट वरी अबाउट मी। आई विल मैनेज।"

बेटे की हिम्मत पर मैं चल दी। 4 तारीख को दिल्ली से काठमांडू की उड़ान भरी। 'टच कैलाश ट्रेवल्स' की ओर से संचालित हम 17 लोगों का समूह अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। मैं समूह के सभी सदस्यों से अनजान थी। उनमें से कुछ दुबई से, कुछ पुट्टपर्ती से, कुछ चेन्नई, कुछ अहमदाबाद और कुछ बेंगलुरु से आये थे। से मेरे दीदी जीजाजी भी हमारे समूह में शामिल हो गए। सभी सह यात्रियों के नाम इस प्रकार थे- हमारे ग्रुप लीडर प्रशांत, उनकी माँ सुजाता जी व पिता राजू जी तथा नंदा दीदी, विद्या, लक्ष्मी, करकम्मा जी, किरण दीदी, शंकर राम जी, जयशंकर नटराजन जी और केके जी, ये सब पुट्परती से, इनके आलावा पुनीत जी दिल्ली से, अपर्णा दीदी, हर्ष जी, वसुधा दीदी, और विकास जी बेंगलुरु से और मैं गुड़गांव से । हमारे ये सभी सहयात्री सत्य साईं बाबा के अनन्य भक्त थे तो पूरी यात्रा में भजन, रूद्रपाठ, हनुमान चालीसा कहते हुए दिन बीते।

और अब आरम्भ हुई हमारी यात्रा…

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यात्रा का पहला दिन

काठमांडू

जब हम प्रतीक्षारत होते हैं तब समय मानो रुक-सा जाता है लेकिन कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाने के लिए की गयी मेरी प्रतीक्षा का समय मेरे लिए पंख लगा कर उड़ गया। यह मेरे जीवन का स्वप्न था जिसे पूरा करने का अवसर और शक्ति दोनों ही साक्षात ईश्वर ने प्रदान की थी। 4 अगस्त कब आ गई पता ही नहीं चला।

लेकिन 3 तारीख की रात गुजारना बहुत कठिन था। पूरी रात सुबह का इंतजार करते बीती। हालांकि यात्रा पर जाने की तैयारी तो 4 दिन पहले ही पूरी कर ली थी। 3 तारीख की सुबह से लेकर रात तक ना जाने कितनी बार बैग खोला और बंद किया कि कहीं कुछ रह तो नहीं गया... कहीं कुछ छूट तो नहीं गया... यही मन में लगा रहा। इसके दो कारण थे- पहला कारण तो यह कि मैं पहली बार ही अकेले, इतनी दूर और इतने दिनों के लिए जा रही थी और दूसरा कारण कि मैंने आज तक कभी हमारी सोसाइटी का जोगिंग ट्रैक भी पूरा नहीं चला था जबकि इस यात्रा में तो 18000 फीट की ऊंचाई पर पर्वतारोहण करना था और लगभग 45 से 50 किलोमीटर चलना था। पूरी रात मन में अजीब हलचल होती रही लेकिन डर कहीं भी नहीं था। एक तो भोलेनाथ और प्रभु राम पर पूरा विश्वास था साथ ही मानसरोवर, जिसे देवताओं का सरोवर कहा जाता है, के दर्शन का बचपन से देखा स्वप्न साकार होने जा रहा था ।

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हर बार की तरह इस बार भी मैं बिफोर टाइम ही एयरपोर्ट पहुँच गई । अभी हमारे समूह का एक भी व्यक्ति एयरपोर्ट नहीं पहुँचा था। फिर मेरा इंतजार शुरू हुआ। जब इंतज़ार लम्बा हो गया तो मैंने पुनीत जी को फोन लगाया। उनका फोन स्विच ऑफ आ रहा था और मेरी धड़कन बढ़ती जा रही थी क्योंकि हम सबके पासपोर्ट और टिकट पुनीत जी के ही पास थे । मुझे डर सताने लगा कि बिना पासपोर्ट के मैं यात्रा पर कैसे जा पाऊंगी कि तभी पुनीत जी सामने से आते हुए दिखाई दिए। उनके साथ ही चेन्नई, बेंगलुरु से भी आने वाले सहयात्री आ पहुँचे। उन सबको देखकर मैं दौड़कर उनके पास पहुँची जैसे मुझे पंख लग गए हों।

सुबह आठ बजे घर से निकलने और अति उत्साह के कारण मुझसे नाश्ता नहीं खाया गया था और मैं वैसे ही सुबह की एक कप चाय पर यात्रा के लिए निकल पड़ी थी । लेकिन अब जब सब आ चुके थे और हम काठमांडू की फ्लाइट का इंतजार कर रहे थे तब पेट में चूहे कूदने लगे। मैं खाने की तलाश में एयरपोर्ट पर बने स्टाल्स की ओर देख ही रही थी कि तभी पुनीत जी ने अपने साथ लाए बैग को खोला और उसमें से निकले गरमागरम पराठे और आलू की सब्जी जो उनकी धर्मपत्नी ने हम सबके लिए और बहुत ही करीने से पैकेट में पैक करके रखे थे । पुनीत जी ने एक-एक पैकेट हमारे हाथ में दिया और हम सब प्लेन में बैठ गए । प्लेन में बैठते ही मैंने पैकेट खोला और सबसे पहले पेट पूजा की।

जब हमें लगता है कि समय जल्दी से कट जाये तभी समय सबसे धीरे चलता है। हालाँकि यह भी एक परसेप्शन ही होता है फिर भी इंतज़ार की घड़ियाँ काटना बहुत कठिन होता है। प्लेन में बैठने से लेकर प्लेन के उड़ने तक का समय काटना भी मेरे लिए बहुत कठिन था। लेकिन आखिर समय रेंगते हुए अपने मुकाम तक पहुँचा और हम सब ने दिल्ली के एयरपोर्ट टर्मिनल 3 से अपनी पहली उड़ान भरी ।

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हमारी फ्लाइट दिल्ली से काठमांडू पहुँची। काठमांडू के एयरपोर्ट पर पहुँचकर हम सब खुशी-खुशी प्लेन से बाहर निकले। बाहर आते ही सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि हमारे ट्रैवल एजेंट "टच कैलाश" के स्टाफ ने हम सबको रुद्राक्ष की माला पहनाकर हम सबका स्वागत किया। साथ ही एक बड़े से बैनर के साथ हम सबकी यादगार तस्वीरें खींची।

"टच कैलाश" के स्टाफ में एक ख़ास बात देखने को मिली कि उनमें से जितने भी लोग हमारा सामान उठाकर बस में रख रहे थे... वे सब गूंगे थे। हमारा सामान बस में रखवाने के बाद हम सबने एयरपोर्ट के सामने की खुली जगह पर, शुद्ध हवा में खूब सारे ग्रुप फोटो खींचे और फिर होटल की ओर चल पड़े । चूँकि दोपहर के खाने का समय हो चुका था इसलिए होटल जाने से पहले हमें नेपाल के ही एक अच्छे से रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए ले जाया गया। खाना खाकर संतुष्ट होने के बाद हम होटल पहुँचे।

होटल काफी बड़ा, साफ-सुथरा और सुंदर था लेकिन जिस एक चीज ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह था होटल के मुख्य द्वार पर रखा धातु से निर्मित एक बहुत बड़ा वज्र । उसके साथ ही एक छोटी सी तख्ती पर वज्र के बारे में लिखा गया था। पुराणों के अनुसार वज्र भगवान शिव का आयुध था जिसे वे बड़े आसानी से अपने हाथ में उठाए-उठाए घूमते थे । यहीं से मेरे मन में भगवान शिव के विषय में अधिक-से-अधिक जानने की इच्छा जागृत हो गई ।

होटल के दाएं एंट्रेंस में एक छोटी-सी दुकान थी जिसमें स्फटिक के बहुत सारे छोटे-बड़े शिवलिंग, नंदी और रुद्राक्ष आदि रखे हुए थे। हम वह सब देख कर, कुछ देर रिसेप्शन पर बैठने के बाद अपने-अपने कमरों में चले गए । सफर की थकान तो पहले ही मिट चुकी थी इसलिए हम सब तुरंत ही नहा-धोकर, तैयार होकर नीचे आए तो हमारी मुलाकात "टच कैलाश" की टीम के दो साथियों से हुई... अशोक और सृजन। वे दोनों ही हमारी इस पूरी यात्रा में हमारे सहयोगी, हमारे गाइड और हमारी देखभाल करने वाले थे ।

शाम को पांच बजे होटल के सबसे ऊपर बने कॉन्फ्रेंस हॉल में "टच कैलाश" के मालिक ने एक मीटिंग रखी जिसमें हमें आने वाले 15 दिनों की पूरी रूपरेखा बताई गई। साथ ही हमें एक नारंगी रंग का बड़ा-सा डफल बैग दिया गया जिसमें हमें अपना सारा सामान सूटकैस से निकाल कर रखना था। इसके दो कारण थे । पहला कारण - वे सारे डफल बैग एक ही रंग के थे और सारे बैग्स पर हमारे वीज़ा नंबर और नाम लिखे हुए थे ताकि हमारा समूह अलग से पहचाना जा सके। दूसरा कारण - काठमांडू से ल्हासा की फ्लाइट मात्र 18 किलो वजन ही ले जाने देती है। साथ ही फ्लाइट में हार्ड बैग ले जाने की इजाजत नहीं है क्योंकि यह बहुत छोटा प्लेन होता है।

खैर। हमने फटाफट सारे बैग लिए। टच कैलाश की ओर से हमें गरम जैकेट भी दिए गए थे जो लेना ऑप्शनल था तो हमने जैकेट वहीं छोड़ दिए क्योंकि हम खुद अपनी गर्म जैकेट्स लेकर आए थे । शाम को हम सबको ट्रेवल्स की ओर से ही काठमांडू के विश्व प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर के दर्शन करवाने ले जाया गया।

पशुपतिनाथ मंदिर के वर्णन के बिना यह यात्रा वृत्तांत अधूरा होगा। तो आइए पहले पशुपतिनाथ मंदिर के बारे में थोड़ा जाना जाए -

पशुपतिनाथ मंदिर काठमांडू के बागमती नदी के किनारे बसा हुआ है। 1979 में यह यूनेस्को की विश्व धरोहर में दाखिल हो चुका है। इस मंदिर के इतिहास में कई कथाएँ प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार यह मंदिर पांचवी शताब्दी में प्रचंड देव द्वारा बनाया गया था। दूसरी कथा के अनुसार यह मंदिर सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व बनवाया था। इस 2 मंजिला मंदिर में शिवलिंग स्थापित है जिसके चार मुख हैं। बाद के समय में इस मुख्य मंदिर के आसपास अन्य मंदिर भी बनाए गए । इस मंदिर के खुले प्रांगण में चतुर्मुख शिवलिंग के ठीक सामने धातु से निर्मित विशाल नंदी जी की मूर्ति है और उनके सामने ही नंदी जी की धातु की एक छोटी मूर्ति भी रखी गई है जिसकी पूजा की जाती है । कहते हैं कि अपनी मनोकामनाएँ नंदी जी के कान में कहने से वह सीधे शिवजी तक पहुँच जाती हैं। मैंने भी अपनी 1,2,3... न जाने कितनी ही मनोकामनाएँ नंदी जी के कान में बोल दीं...

इस मंदिर से संबंधित कई दंत कथाएँ प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार एक बार शंकर-पार्वती विहार के लिए निकले । वे घूमते हुए काठमांडू की घाटी में पहुँचे । वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य और बागमती के जल ने पार्वती जी का मन मोह लिया और उन दोनों ने वहीं कुछ समय रहने का निश्चय किया । शिव और पार्वती दोनों ही भील और भीलनी का रूप धरकर वहाँ विहार करने लगे और वे वापस अपने धाम जाना ही भूल गए । उनके वापस ना आने से अन्य देवता विचलित हो उठे । शिवजी की खोज आरंभ हुई । अंततः उन्हें ढूंढ लिया गया परंतु शिवजी ने वापस जाने से इंकार कर दिया । सबके मनाने पर शिवजी ने इसी स्थान पर पशुपतिनाथ के रूप में अपना एक रूप स्थापित किया और अपने धाम वापस लौट गए ।

एक और कथा के अनुसार कामधेनु, जो हिमालय में विचरण करती थी, वह प्रतिदिन काठमांडू घाटी में एक निश्चित स्थान पर आकर अपना दूध अर्पित करती थी । कई वर्षों तक यह क्रम चलता रहा । कुछ लोगों ने हिम्मत कर वह स्थान खोदा तो वहाँ एक शिवलिंग प्राप्त हुआ जिसे पशुपतिनाथ के नाम से स्थापित किया गया ।

इस मंदिर में जब हम दर्शन के लिए जाते हैं तो यहाँ भोलेनाथ की सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होता है । इस मंदिर के चार द्वार हैं। हमेशा पहले द्वार से चौथे द्वार तक प्रदक्षिणा होती है और हर द्वार पर चतुर्मुखी शिवलिंग के एक मुख के दर्शन होते हैं । सुबह पांच बजे से ही यहाँ श्रद्धालुओं की भीड़ लग जाती है । चारों ओर ॐ नमः शिवाय का निनाद गूंजता रहता है । सड़कों में, बसों में, हर जगह आपको कई नेपाली माथे पर बड़ा-सा रोली चावल का गोल टीका लगाए हुए दिखते हैं। दरअसल वे सभी पशुपतिनाथ मंदिर के दर्शन व आरती करके आए हुए होते हैं।

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तो चलिए, फिर आते हैं हमारी यात्रा के पहले पड़ाव पर ।

पशुपतिनाथ के दर्शन कर हम सब बागमती नदी की आरती देखने पहुँचे । वह एक दिव्य दृश्य था । चारों ओर दीप प्रज्वलित किए हुए थे । मधुर स्वर और ढ़ोल-ताशों के साथ आरती चल रही थी। आरती के बाद सारे दीप नदी में प्रवाहित कर दिए गए। बागमती नहीं दीपों से जगमगा रही थी... और हम सब अपने ह्रदय के उल्लास से।

अध्यात्म का पहला खजाना लेकर हम सब होटल वापस आ गए। रात में पूरी नींद लेकर, सुबह का स्वादिष्ट नाश्ता कर, हम काठमांडू एयरपोर्ट पहुँचे क्योंकि अब हमें अपने दूसरे पड़ाव पर पहुँचना था। हमारी फ्लाइट 11:00 बजे की थी । हम सब 9:30 बजे ही एयरपोर्ट पहुँच गए लेकिन फ्लाइट 2 घंटे डिले हो गई । हम वेटिंग एरिया में बैठे थे... कि सामने लगे टीवी पर एक धमाकेदार ऐतिहासिक समाचार चमका और पूरा वेटिंग रूम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। सबके दिल की धड़कन तेज हो गई । हाँ... यह वही ऐतिहासिक दिन था जिस दिन कश्मीर से धारा 370 हटा दी गई थी । हम सब खुशी से उछल पड़े। नेपाल अलग हुआ तो क्या वह भी तो हिंदुस्तान का ही हिस्सा रह चुका है इसलिए वहाँ के लोग भी हमारी खुशी में शामिल हो गए । हम सब ने वहीं के रिफ्रेशमेंट कॉर्नर में जो मीठा मिला, वह बाट कर खाया। अपने साथ लाए ड्राई फ्रूट खाये और हमने इस खुशखबरी के साथ ही लासा के लिए उड़ान भरी।

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