उम्र के दिसम्बर में Gopal Mathur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उम्र के दिसम्बर में

गोपाल माथुर

मैं इन खण्डहरों में बस यूँ ही आ गया हूँ. मुझे यहाँ एक अजीब सी सान्त्वना मिलती है, जैसे मैं बहुत दिनों बाद अपने किसी पुराने दोस्त से मिल रहा हूँ. सर्दियों की छितरी हुई धूप घने पेड़ों की पत्तियों से छन कर खण्डहर के आँगन में सारा दिन चिड़ियों सी खेलती रहती है. किले की दीवारों के पुराने पत्थर हमेषा की तरह उस खेल को देखा करते हैं, उदासीन और निर्लिप्त ! हालांकि मुझे देख कर उन्हें अवष्य आष्चर्य होता होगा कि यह आदमी यहाँ क्यों चला आता है ! अब मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि मेरा मैं भी ठीक उन्ही खण्डहरों की तरह ही है. क्या एक खण्डहर दूसरे खण्डहर से मिल भी नहीं सकता !

और खण्डहर यूँ ही नहीं बन जाते. सदियाँ बीत जाती हैं, तब जाकर एक इमारत खण्डहर में बदलती है. या यूँ कहिए कि एक उम्र गुजर जाती है आदमी को खण्डहर बनने में ! वैसे भी एक आदमी के पास अपना कहने के लिए एक उम्र ही तो होती है और प्रायः उसे जीने का सलीका वह तब सीखता है, जब वह अपने अन्तिम कगार पर होता है, जहाँ इस समय मैं आ पहुँचा हूँ. क्या अन्तिम क्षणों में फिर से जीना षुरू किया जा सकता है ?

अभी साये लम्बे नहीं हुए हैं. सूरज सिर पर है, पर उसका मुँह टेढ़ा है और उसकी गर्मी को बीच की हवाओं ने भख लिया है. परिन्दे किले की बुर्जियों पर छितरे हुए बैठे हुए हैं. जब कोई परिन्दा उड़ता है, तो बाकी भी उसके पीछे पीछे उड़ने लगते हैं और हवा में एक गोल वृत बना कर फिर वहीं बैठ जाते हैं. थोड़ी देर के लिए हलचल होती है, और फिर उसी प्रकार षान्ति छा जाती है.

मैं घास पर अपने हाथों का तकिया बना कर चुपचाप लेटा लेटा यह खेल देखता रहता हूँ. मुझे सहसा संकेत की याद हो आती है. वह भी अपनी नन्ही सी हथेली में मेरी अँगुली पकड़े मेरे चारों ओर चक्कर लगाया करता था. मेरी गो राउण्ड एण्ड राउण्ड एण्ड राउण्ड.पर अब वह बड़ा हो गया है. बड़ा अफसर हो गया है. अब उसके चारों ओर लोग चक्कर लगाते हैं. मेरी अँगुली में अब तक उसका स्पर्ष जीवित है. बल्कि सच तो यह है कि उस स्पर्ष के कारण ही मैं जीवित हूँ. मुझे कई बार लगता है कि मैं अपना हाथ चारों ओर घुमाऊँगा और वह किलकारियाँ मारते हुए उसी तरह चक्कर लगाने लगेगा.

पर यह भ्रम है. यह भ्रम है एक चुके हुए सच का. और अपने सच्चे झूठे अनुभवों से मैंने जाना है कि भ्रम को सच समझने और सच को भ्रम मानने की ऊहापोह से बाहर निकल पाना आसान नहीं होता. जब संकेत बड़ा हो गया, तब इस समाचार को झूठ मान कर स्वयं को बहुत दिनों तक भ्रम में रखा था कि वह मुझे और अपनी माँ को यूँ अकेला छोड़ कर कभी कहीं नहीं जाएगा और अगर जाएगा, तो हमें लेकर जाएगा. पर आहिस्ता आहिस्ता मुझे यह सच समझ में आने लगा था कि उसका जाना, हमारे जाने-न-जाने की मनःस्थिति से जुड़ा हुआ नहीं था. मैंने चुपचाप उसे जाने दिया, हालांकि उसकी माँ अन्त तक बिलखती रही थी. उसकी पत्नी देवयानी दरवाजे की दहलीज पर चुपचाप खड़ी खड़ी यह सब देखती रही थी. फिर वह भीतर आई, मेरे और मेरी पत्नी के पाँव छूए, अपने पति का हाथ पकड़ा और चुपचाप उसके बगल में खड़ी हो गई. थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा, सिर्फ मेरी पत्नी के सिसकने की घुटी घुटी सी आवाजें कमरे में गूँजती रहीं. मुझे लगा, जैसे मैं हिचकाॅक की कोई डरावनी फिल्म देख रहा हूँ. उन क्षणों सब कुछ स्टिल सा हो गया था, प्राणविहीन, निर्विकार, निर्लिप्त. फिर हवा के एक तेज झौंके की तरह वे दोनों वहाँ से चले गए.

क्या अन्तर पड़ता है जनाब, यदि समझ में आ जाए कि सच क्या है और भ्रम क्या ! इस समझ का हम करेंगे क्या ? जिन्हें जाना था, वे चले गए. जिन्हें रहना था, वे रह गए. रह गए और अब तक रह रहे हैं. जीवन ठीक वैसे ही चल रहा है, जैसे पहले चला करता था, अन्तर सिर्फ यह है कि अब यदि संकेत को पुकारो, तो कोई उत्तर नहीं आता. अपनी पुकार खाली खाली सी लौट आती है. घर में हमेषा सन्नाटा पसरा रहता है और हम दोनों पति पत्नी प्रेतात्माओं की तरह पूरे घर में इधर से उधर मँडराते रहते हैं.

इस ऊब को मिटाने मैं अक्सर इस पुराने किले में चला आता हूँ, जो मुझे अपना दोस्त लगता है. कुछ मैं कह लेता हूँ और कुछ यह. हम एक दूसरे की भाशा जानते हैं. जब सड़क चैड़ी करने के लिए इसकी कुछ दीवारें ताड़ी गई थीं, उस दिन यह खूब रोया था. मेरी तरह विरोध करने की षक्ति यह भी पूरी तरह खो चुका है. इसके बहते खून से मेरे मन की दीवारें भी गीली हो गई थीं. इसके साथ साथ रोया मैं भी था, और हो सकता है कि मेरे आँसुओं ने इसके घावों पर मरहम का काम किया हो.

मेरी पत्नी मेरे साथ इन खण्डहरों में आना पसंद नहीं करती. दरअसल उससे अब चला भी नहीं जाता है. सारा दिन अपने हाथों से वह अपने दुखते घुटनों को सहलाती रहती है और अपनी आँखों से पोस्टमॅन की प्रतीक्षा किया करती है, जो कभी कभार संकेत की चिट्ठी ले आता है. हर रोज वह मुझसे यह पूछना नहीं भूलती कि संकेत की पिछली चिट्ठी कब आई थी और हमेषा मुझे झूठ बोलना पड़ता है.मेरा झूठ उसे फिर वहीं पहुँचा देता है, जहाँ वह कुछ देर पहले थी.अपने में सिमटी हुई और घुटनों के दर्द से बेहाल. सब कुछ चिड़ियाओं के ठीक उसी खेल की तरह कई कई बार घटता रहता है. मेरी गो राउण्ड एण्ड राउण्ड एण्ड राउण्ड.... हम बार बार एक ही एक दायरे में घूमते रहते हैं और थक कर फिर उसी जगह आ बैठते हैं, जहाँ चारों ओर घर का सन्नाटा साँय साँय बजता रहता है.

कितना अजीब है कि हम आहिस्ता आहिस्ता उन चीजों के आदी हो जाते हैं, जिन्हें षुरू में हम ज़रा भी पसंद नहीं करते. उन दिनों मुझे संकेत और देवयानी के बिना घर की कल्पना करना भी अजीब सा लगा करता था. मैं घर के किसी भी कोने में जाता, वहाँ उन दोनों की कोई न कोई छाया पहले से ही मौजूद होती. कहीं संकेत के क्रिकेट का सामान, तो कहीं देवयानी की किताबें. संकेत की कोई न कोई चीज हमेषा फर्ष पर पड़ी होती या फिर देवयानी के कपड़ें यहाँ वहाँ फैलेे होते. उनकी बिखरी हुई चीजों से ही घर, घर सा लगता था. वह बिखराव दरअसल घर की आत्मा हुआ करता था, जिसे हम सभी अपने अपने तरीके से महसूस किया करते थे. हालांकि पत्नी उनके अव्यवस्थित होने पर हमेषा खीजा करती थी. उन दोनों के दिल्ली चले जाने के बाद, यदि वह चाहती, तो घर को व्यवस्थित रख सकती थी, पर मुझे याद नहीं कि उसने एक बार भी ऐसी कोई कोषिष की हो.

अब घर का सूनापन हमारी पुरानी हड्डियों में घुलने लगा है.यूँ तो हम पति पत्नी साथ रह रहे हैं, पर अकेले अकेले. हमारी दुनियाएँ अलग अलग हैं. मैं कुछ सोचता रहता हूँ और वह कुछ और. बीच में संकेत की स्मृतियाँ पेन्डुलम सी डोलती रहती हैं. कहते हम कुछ नहीं, बस, उन दोनों का घर में नहीं होना महसूस किया करते हैं. रात को जब दीवारों पर स्ट्रीट लाइट की पीली उदास रौषनी फैल जाती है, तब मन पता नहीं कैसा कैसा होने लगता है और पत्नी अपने दुखते हुए घुटनों को भूल कर खाली खाली आँखों से छत की ओर ताकने लगती है.

और उस दिन, जब संकेत का खत सचमुच आ गया था, मेरे हाथ उसे पकड़े हुए थर थर काँप रहे थे, जैसे उसमें कोई बुरी सूचना हो. मैं एकाएक उस लिफाफे को खोल नहीं पा रहा था. एक अनजान भय ने मुझे कस कर जकड़ लिया था.

खत में कुछ सामान्य सी बातें थीं और यह सूचना कि उसने मेरे अकाउन्ट में काफी बड़ी रकम ट्रान्सफर कर दी है. मैं किससे कहता कि हमें पैसों की आवष्यकता नहीं है, यदि है, तो सिर्फ उसकी स्नेहिल ऊश्मा की. क्या खत में लिपटा कर वह थोड़ी सी ऊश्मा नहीं भेज सकता था ?

पत्नी ने वह खत पढ़ कर उसे चुपचाप एक ओर सरका दिया. इन दिनों उसके घुटनों की षिकायत बढ़ती ही जा रही है. कहती वह कुछ नहीं, पर मैं उसे पढ़ सकता हूँ. उसने एक एक झुर्री एक एक व्यथा खरीद कर अर्जित की है और मैं उसकी हर टीस का गवाह रहा हूँ. कभी उसकी आँखों में सपने तैरा करते थे, आज वहाँ सूनापन तैरा करता है. पता नहीं कब कब में उसने मुझ से भी एक अघोशित सी दूरी बना ली है. पहले की तरह अब वह मुझसे कुछ नहीं कहती, बस, चुपचाप अपनी सूनी आँखों से न जाने क्या तलाषती रहती है.

पर यह भी हो सकता है कि दूरी उसने नहीं, अनजाने में मैंने बना ली हो, जो उसे घर पर अकेला छोड़ कर यहाँ पुराने किले के खण्डहरों में आ बैठता हूँ. मुझे याद नहीं कि कभी उसने मुझे यहाँ आने से मना किया हो. बल्कि जब यहाँ आए कई दिन हो जाते हैं, तब वह स्वयं ही मुझे यहाँ भेज देती है. वह जानती है मेरा कोई दोस्त नहीं, और यदि कोई हैं तो वे अपने अपने घरों में सिमट कर रह गए हैं. सभी के अपने अपने दुख दर्द हैं जिन्हें वे उम्र के दिसम्बर में बाँटना चाहते भी नहीं. समय है कि जिसे चुपचाप किसी तरह काटना ही पड़ता है, न तो अब हमें उससे कोई उम्मीद है और न ही उसे हमसे.

मैं उठ खड़ा होता हूँ और किले की बाउन्ड्री पर आ जाता हूँ. यह स्थान कुछ ऊँचाई पर है और नीचे सड़कांे पर बहता टेªफिक किसी बड़े स्क्रीन पर फिल्म सा भागता रहता है. बाउन्ड्री पर कुछ गिलहरियाँ अठखेलियाँ कर रही हैं, मुझसे बेखबर, जैसे मेरा होना कोई माइने नहीं रखता हो. जैसे मेरा वहाँ होना ठीक वैसा ही हो, जैसे खण्डहर के दूसरे पत्थर. पर मैं भागते दौड़ते टेªफिक में खो सा जाता हूँ. चैराहे पर सिग्नल की लाइटें बार बार अपने रंग बदलती रहती हैं, एक रेला रुकता है, तो दूसरा चल पड़ता है.

यही तो जिन्दगी में होता है. हम रुक गए तो क्या हुआ, संकेत और देवयानी तो भाग रहे हैं ! पता नहीं उन्हें कहाँ पहुँचना है ! कहीं पहुँचना भी है कि नहीं. कहीं उनकी दौड़ अन्धी दौड़ तो नहीं ! हमें इन प्रष्नों के उत्तर नहीं मालूम, केवल यह मालूम है कि इस दौड़ में वे बहुत आगे निकल गए हैं और हम बहुत पीछे छूट गए हैं.

 

 

उसे बुखार तब आया, जब मैं किले में था. बुखार ने थर्मामीटर का पारा 104 से भी आगे धकेल दिया था. मैं जल्दी से उसे बुखार की एक गोली देकर बिस्तर पर लिटा देता हूँ और डाॅक्टर को लेने भागता हूँ, जैसे कि घर की सूनी दीवारें उसका ध्यान रख ही लेंगी.

फिर डाॅक्टर के आने, उसके एग्जामिन करने, इन्जेक्षन लगाने और बाजार से दवाइयाँ लाने तक का समय उस टेªफिक की तरह तेजी से गुजर जाता है, जिसे थोड़ी देर पहले मैंने किले से देखा था. किसी बड़े सेल्युलाइड के पर्दे पर भागते दृष्य सा. अब वह बड़ा पर्दा एक छोटे से ब्लेक एण्ड व्हाइट टीवी में बदल गया है, जिसके स्क्रीन पर मेरी पत्नी बुखार में तपती हुई लेटी हुई है. कमरे का रुका हुआ अँधेरा मानो स्वयं भयभीत सा हमें देख रहा है.

मैं उस पर बर्फ में भीगी ठण्डी पट्टियाँ बदल रहा हूँ, कभी माथे पर, कभी गले पर तो कभी पीठ और कन्धों पर. मुझे यह देख कर आष्चर्य होता है कि जितनी सलवटें उसके चेहरे और गले पर हैं उतनी उसकी पीठ और कन्धों पर नहीं, जैसे उम्र ने उसके षरीर के कुछ ही हिस्सों को ही छूआ हो. क्या ऐसा हो सकता है कि चेहरा बूढ़ा हो जाए और बाकी षरीर बूढ़ा होने की प्रतीक्षा करता रहे !

देर रात गए पत्नी को नींद आती है. मैं ध्यान से उसेे देखता हूँ. लगता है, जैसे पहली बार देख रहा हूँ. कितना बदल गई है ! पिछली बार कब उसे गौर से देखा था, यह याद करने पर भी याद नहीं आता. उसके चेहरे पर उसका मृत अतीत मानो कफ़न में लिपटा पड़ा हुआ है. ठाठें मारती, उफनती, साफ़ षफ़्फ़ाक नदी अब एक उदास परनाले में बदल चुकी है.

सहसा मैं चैंक जाता हूँ. कहीं मैं अपना ही प्रतिरूप तो नहीं देख रहा ! यह महज़ इत्तफाक है कि वह बीमार पड़ गई है, वरना मैं भी तो पड़ सकता था ! भूमिकाएँ बदल लेने से स्थितियों में ज़रा भी अन्तर नहीं पड़ने वाला. क्षण भर के लिए मुझे भ्रम होता है, जैसे बीमार वह नहीं, मैं होऊँ.

मैं उठने को होता हूँ कि मुझे लगता है, जैसे किसी गिलगिली सी चीज ने मुझे पकड़ लिया हो. यह पत्नी का हाथ है, जिसने मेरा हाथ पकड़ रखा है. वह जाग रही है. उसका सोना भ्रम था. दरअसल सो मैं रहा था. मेरा जागना भ्रम था. पत्नी की निरीह आँखें मुझ पर लगी हैं. डरो मत, वह कहती है, मैं मरूँगी नहीं. मुझे सिर्फ तेज बुखार है. मैं फिर उसके पास बैठ जाता हूँ, यन्त्रचलित सा, जैसे महज़ उसके पास बैठ कर उसे उसके दुःख से बाहर खींच लाऊँगा. कुछ पल वह मुझे लगातार देखती रहती है, फिर उसका बुखार में तपता हुआ स्वर बाहर आता है, सुनो, उसकी चिट्ठी आई है क्या ? चिट्ठी ? किसकी चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ? कोई हमें चिट्ठी क्यों लिखेगा ? क्या तुम नहीं जानती कि हम बीता हुआ वह कल हैं, जिसे दफनाया जाना  षेश है !

किन्तु पत्नी को यह सब कह पाना संभव नहीं हो पाता. हो सकता है, वह यह सब समझती हो. या फिर समझ कर भी नहीं समझने का बहाना करती हो ! जैसे कि मैं करता रहता हूँ. मैं भी यह मानने का बहाना करता हूँ कि कहीं कोई है, जिसे हमारी परवाह है. जो कभी हमारे अकेलेपन को बाँटेगा. जो अकाउन्ट में पैसे ट्रान्सफर करने का तमाचा़ नहीं मारेगा...... पर क्या सचमुच ऐसी कोई दुनिया है ? रात के इस नीरव अँधेरे में किसी दूसरी दुनिया का अस्तित्व एक सपने सा लगता है.

इससे पहले कि मैं उसे कोई उत्तर दे पाता, वह गहरी नींद में ग़ाफ़िल हो जाती है. उसकी हथेली मेरा हाथ का साथ छोड़ कर निढ़ाल सी एक ओर फिसल जाती है. मैं आहिस्ता से उसे कम्बल के नीचे ढक देता हूँ और चुपचाप वहीं रखे एक मुढ्ढ़े में घँस जाता हूँ.

एक सुबह संकेत का पड़ोस में फोन आता है. हमारे पास कभी फोन नहीं रहा. वह बता रहा है कि उसे एक बड़ा जम्प मिल गया है और जल्दी ही वे दोनों कनाडा चले जाएँगे. जाने से पहले एक बार हमसे मिलने आने की कोषिष करेगा. उसका उत्साह देखते ही बनता है. वह अपनी माँ के बारे में पूछता अवष्य है, पर मैं बीमारी का समाचार सुना कर उसकी खुषियों के आवेग को कम नहीं करना चाहता.

इस घटना का पत्नी पर असाधारण प्रभाव पड़ता है. वह न सिर्फ तेजी से ठीक होने लगती है, वरन्, दुखते घुटनों के बावजूद भी घर को ठीक ठाक करने में जुट जाती है. उसे पूरा विष्वास है कि वे दोनों जल्दी ही यहाँ आएँगे. उसकी रुकी हुई जिन्दगी मानो फिर से चल पड़ती है. उसे लगता है, जैसे कुछ महत्वपूर्ण घटने वाला है. कुछ ऐसा, जो जिन्दगी की धारा ही बदल कर रख देगा. मैं उसे काम करते हुए देखता रहता हूँ, कहता कुछ नहीं, बस, चुपचाप उसके विष्वास पर विष्वास करने का ढोंग किए बैठा रहता हूँ.

अब वह मुझे किले भी नहीं जाने देती. वह नहीं जानती कि किला मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा. वहाँ की चिड़ियाएँ अब भी पहले की तरह गोल वृत में उड़ा करती होंगी और बाउन्ड्री पर गिलहरियाँ उस जगह मेरा नहीं होना महसूस किया करती होंगी, जहाँ खड़ा होकर मैं नीचे सड़क पर भागते ट्रेफिक को फिल्म सा देखा करता था..... पर मैं यहाँ हूँ.... यहाँ..... घर पर.... जहाँ हम न आने वालों की प्रतीक्षा में टकटकी लगाए बैठे हुए हैं.

समय उसी तरह चुपचाप सरकता जा रहा है. बिना किसी आहट के. आहिस्ता आहिस्ता पत्नी का सारा उत्साह भी अपना दम तोड़ देता है. कोई घटना घटनी थी, जो घटने से रह गई है. पत्नी पहले की तरह अपने घुटनों को सहलाया करती है. दर्द से पीड़ित उसके चेहरे पर कुछ सलवटें और उभर आई हैं. यदि मैं किले पर जाना चाहूँ, तो षायद अब वह मुझे रोके भी नहीं. पर मैं ही नहीं जाता. घर की दीवारें हमें उसी तरह बीतते हुए देखती रहती हैं कि तभी कूरियर वाला एक पैकेट दे जाता है. मैं पत्नी की ओर आष्चर्य से देखता हूँ. संकेत ने क्या भेजा होगा ? काँपते हाथों से पार्सल खोलता हूँ. अन्दर हम दोनों के लिए दो मोबाइल हैं और छोटा सा खत भी. वे नहीं आ सकेंगे पर हम जब चाहें, उनसे बात कर सकते हैं.

दोनों मोबाइल हम दोनों के बीच वाली टेबिल पर रखे हुए हैं. उसका खत मोबाइलों के नीचे दबा हुआ हवा में फड़फड़ा रहा है. पर मैं मोबाइल और ख़त के बारे में नहीं सोच रहा हूँ. मैं संकेत और देवयानी के बारे में भी नहीं सोच रहा हूँ. मैं सोच रहा हूँ किले के उन परिन्दों के बारे में, जो बार बार उड़ते हैं और हमेषा वहीं आ बैठते हैं, किले की दीवारों के पुराने पत्थरों के बारे में, जो बस किसी तरह अपना होना बचाए हुए हैं.

पत्नी की दर्द भरी टीस सुनाई देती है. वह हमेषा की तरह अपने घुटने सहला रही है.

*****