The Author राज कुमार कांदु फॉलो Current Read इंसानियत - एक धर्म - 25 By राज कुमार कांदु हिंदी फिक्शन कहानी Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books ग्रीन मेन “शंकर चाचा, ज़ल्दी से दरवाज़ा खोलिए!” बाहर से कोई इंसान के चिल... नफ़रत-ए-इश्क - 7 अग्निहोत्री हाउसविराट तूफान की तेजी से गाड़ी ड्राइव कर 30 मि... स्मृतियों का सत्य किशोर काका जल्दी-जल्दी अपनी चाय की लारी का सामान समेट रहे थे... मुनस्यारी( उत्तराखण्ड) यात्रा-२ मुनस्यारी( उत्तराखण्ड) यात्रा-२मुनस्यारी से लौटते हुये हिमाल... आई कैन सी यू - 41 अब तक हम ने पढ़ा की शादी शुदा जोड़े लूसी के मायके आए थे जहां... श्रेणी लघुकथा आध्यात्मिक कथा फिक्शन कहानी प्रेरक कथा क्लासिक कहानियां बाल कथाएँ हास्य कथाएं पत्रिका कविता यात्रा विशेष महिला विशेष नाटक प्रेम कथाएँ जासूसी कहानी सामाजिक कहानियां रोमांचक कहानियाँ मानवीय विज्ञान मनोविज्ञान स्वास्थ्य जीवनी पकाने की विधि पत्र डरावनी कहानी फिल्म समीक्षा पौराणिक कथा पुस्तक समीक्षाएं थ्रिलर कल्पित-विज्ञान व्यापार खेल जानवरों ज्योतिष शास्त्र विज्ञान कुछ भी क्राइम कहानी उपन्यास राज कुमार कांदु द्वारा हिंदी फिक्शन कहानी कुल प्रकरण : 49 शेयर करे इंसानियत - एक धर्म - 25 (3) 1.7k 6.1k 1 और फिर काफी उहापोह के बाद मुनीर ने फैसला कर लिया और शबनम से मुखातिब होते हुए बोला ” तुम बेवजह चिंता कर रही हो बेगम ! तुम्हारे होते हुए भला मुझे क्या होने लगा ? अब तुम तो जानती ही हो मैं जिस विभाग में हूं उसमें खतरों से दो चार तो होना ही पड़ता है । बस यूं ही एक वाकया हो गया था , यहीं पास में ही , तो सोचे चलो लगे हाथ अपनी बेगम से मिल आते हैं । ”अब शबनम भला क्या कहती ? लेकिन मुनीर की बात सुनकर वह संतुष्ट नहीं हुई थी । उसके कानों में मुनीर के कहे शब्द अभी भी मानो गूंज रहे थे ‘ …..हम थोड़े परेशान जरूर हैं , लेकिन गलती हमारी नहीं है । ‘ उसके नन्हें से दिमाग में विचारों के अंधड़ ने डेरा जमा लिया था लेकिन खुद को सहज दिखाते हुए उसने हाथ में थमी हुई गिलास लेकर अंदर की तरफ बढ़ते हुए बोली ” आप हाथ मुंह धो लीजिये तब तक मैं फटाफट दो रोटियां सेंक देती हूं । आप बीच रास्ते से ही इस तरफ आ गए हो तो खाना तो खाये नहीं होंगे । सालन बचा है बस पांच मिनट में गरमागरम खाना तैयार । कह कर वह रसोई में पहुंच गई लेकिन उसके दिमाग में उठे रहे विचारों के थपेड़े अभी तक शांत नहीं हुए थे ‘ ऐसा क्या वाकया हो गया जिसके लिए मुनीर के लबों पर खुद ब खुद सफाई देने वाले अल्फाज आ गए । ऐसा तो बस एक ही सूरत में होता है जब किसी से कोई गुनाह हो गया हो और वह उसे छिपाने की कोशिश करे । लेकिन गुनाह ? और मुनीर के हाथों ? ‘ तभी उसके अवचेतन मन ने सरगोशी की ‘ शबनम ! क्या सोच रही है तू ? अपने शौहर पर शक कर रही है । उस शौहर पर जो तुम्हारी और बच्चों की अच्छी जिंदगी के लिए खुद को खतरों में डालने से नहीं हिचकता अपनी नौकरी के दरम्यान । जिंदगी के अधिकांश लम्हे उसे तन्हाई में ही बिताने पड़ते हैं । क्यों ? बारह वर्षों में उससे कोई खता नहीं हुई । अच्छे स्वभाव की वजह से वह आज भी सबका प्रिय है अपने गांव में फिर उससे कोई खता हो कैसे सकती है ? ‘ लेकिन उसके दिमाग ने उसे चेताया ‘ शबनम ! तुम भी किसकी बात पर ध्यान दे रही हो । आज भावनाओं से नहीं दिमाग का इस्तेमाल करके जीने का जमाना है और अगर दिमाग का इस्तेमाल करो तो फिर यह बात साफ है कि कुछ तो हुआ है ऐसा जो मुनीर तुम्हें नहीं बताना चाहता । वह जरूर तुमसे कुछ छिपा रहा है । ‘ तवे पर रोटी पलटती हुई शबनम बुदबुदाई ‘ सचमुच ! मुझे भी ऐसा ही लग रहा है जैसे वो कोई बात है जो मुझे बताना नहीं चाहते । आखिर ऐसी क्या बात हो गयी ? कैसे पता करूँ ? या अल्लाह ! इस मुसीबत से निजात दिला दे मेरे मौला ! ‘सब्जी गरम करके थाली में परोसते हुए वह गांव के पीर बाबा से मन्नतें मांगे जा रही थी ” या गाजी पीर बाबा ! या मौला ! मेरे शौहर से अगर कोई खता हो गयी हो तो उन्हें राहत अता फरमा मेरे मौला । उनके गुनाहों को माफ कर बाबा । जुमेरात को तेरी मजार पर मलूदा और सिन्नी चढ़ाऊंगी । ”हाथ में खाने की थाली लिए शबनम ने कमरे में प्रवेश किया ।मुनीर के भोजन करने के दौरान शबनम ने मुंह से एक शब्द भी नहीं बोला लेकिन वह उसके सामने बैठ कर बड़े ध्यान से उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रही थी । मुनीर भी जैसे उसकी मंशा को भांप चुका हो , चुपचाप भोजन करते हुए शबनम की तरफ से अपने आपको लापरवाह दिखाने की भरपूर चेष्टा कर रहा था और शायद वह कामयाब भी रहा था । लाख कोशिशों के बावजूद शबनम उसके चेहरे पर लिखी उसके दिल की इबारत पढ़ने में नाकामयाब रही थी ।भोजन करने के बाद रसोई घर में बनी हाथ धोने की जगह पर हाथ धोते हुए मुनीर ने शबनम की तरफ देखे बिना ही कहना शुरू किया ” बेगम ! हो सकता है मुझे सुबह बड़े सबेरे ही निकलना पड़े इसलिए मेरा बिस्तर यहीं दालान में ही लगा दो । मैं तुम्हें सुबह सुबह परेशान नहीं करना चाहता । ”” कैसी बातें कर रहे हैं आप ? शौहर की खिदमत करके कोई कनीज भला परेशान होती है क्या ? ” दालान में से जूठे बर्तन समेटते हुए शबनम ने हैरानी जताई थी ।अपने पहले ही प्रयास में असफल मुनीर शबनम को मनाने के दूसरे बहानों पर विचार करने लगा ।दरअसल मुनीर खुद को कमजोर महसूस कर रहा था । उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी शबनम से नजरें मिलाने की । उसे डर लग रहा था कहीं हकीकत उसकी जुबान पर न आ जाये उसके साथ रहने से । इसके अलावा वह कानून से भी डरा हुआ था । वह जानता था कि इस कांड में वह भी जिम्मेदार है अतः देर सवेर जांच की दिशा उसकी तरफ भी घूमेगी । जांच की दिशा उसकी तरफ घुमते ही वह संदेह के घेरे में होगा और फिर शुरू हो जाएगी उसकी तलाश । वह किसी भी कीमत पर गिरफ्तार नहीं होना चाहता था । वह चाहता था बाहर जो चाहे हो लेकिन उसकी सही खबर उसके बीवी बच्चों को भी न पता चले ।और इसीलिए उसने शबनम से सुबह जल्दी निकलने की बात कहकर उससे झूठ बोला ।” नहीं ! नहीं ! बेगम ! तुम यही मेरा बिस्तर लगा दो । मुझे अभी नींद भी नहीं आ रही है । ” कहकर एक तरह से उसने अपना फरमान ही सुना दिया था । विवश शबनम उसके हुक्म की तामील में लग गयी । अपनी योजना पर काम करते हुए मुनीर को आंशिक सफलता मिलने की खुशी हो रही थी ।गिरफ्तारी का भय उसे इस कदर सता रहा था कि बाहर रुक रुक कर कुत्तों के भौंकने से या हल्की आहट से भी वह सिहर उठता ।तरह तरह के सवालों से जूझती शबनम ने खामोशी से दालान में ही मुनीर के लिए बिस्तर लगा दिया था और नजदीक ही पड़े मेज पर एक जग में पीने का पानी ढंक कर रख दिया और फिर मुनीर से बोली ” मेज पर पीने का पानी रख दिया है । सुबह जाने से पहले आवाज दे दीजियेगा । चाय बना दूंगी । खुदा हाफिज । ” शबनम अपने कमरे में जा चुकी थी । मुनीर उसे जाते हुए देखता रहा और फिर बिस्तर पर पसर गया ।बिस्तर पर लेटे हुए मुनीर की आंखों के सामने से पुरा घटनाक्रम किसी चलचित्र की भांति गुजरने लगा । उस गाड़ी का रुकना , फिर जांच के बहाने उस गाड़ी को ही तहस नहस कर देना , फिर उस लड़की को झाड़ियों की तरफ घसीटना , उसका कातर स्वर में उनसे मिन्नतें करना , रोना बिलखना , फिर उस युवक का उसकी मदद के लिए दौड़ना और फिर मुनीर का वो जोरदार प्रहार उस युवक के सिर पर , उसका एक तेज चीख के साथ भहरा कर गिरना और फिर इसी के साथ याद आ गया असलम का वह रौद्र रूप । उसकी याद आते ही उसे असलम के नसीब से जलन सी होने लगी । ‘ उस वक्त असलम ने कितना सही कदम उठाया था । वह खुद ऐसा क्यों नहीं कर सका ? आखिर क्या बिगाड़ा था उस युवक और उस युवती ने उसका ? क्यों उस मक्कार थानेदार का उसने साथ दिया ? वह यह क्यों भूल गया था कि उसने वर्दी कानून की सेवा करने के लिए पहनी थी , किसी दरिंदे की सेवा करने के लिए नहीं ! ‘बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में खोया मुनीर अपनी भविष्य की योजना पर भी विचार करता रहा और फिर अपने मोबाइल में सुबह पांच बजे का अलार्म सेट कर दिया और फिर शनै शनै निंदिया रानी की आगोश में खोकर बेसुध हो गया । ‹ पिछला प्रकरणइंसानियत - एक धर्म - 24 › अगला प्रकरण इंसानियत - एक धर्म - 26 Download Our App