घर की मुर्गी दाल बराबर - 1 S Sinha द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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घर की मुर्गी दाल बराबर - 1

भाग 1


अक्सर सुनने या देखने में आता है कि अपने घर की प्रतिभा को समुचित मान्यता नहीं मिलती है ....

कहानी - घर की मुर्गी दाल बराबर

सुदीप जमशेदपुर के एक प्राइवेट कंपनी में क्लर्क था . उसकी नौकरी स्थायी नहीं थी .कंपनी बीच बीच में उसे कुछ दिनों के लिए बैठा देती थी ताकि उसको रेगुलर स्टाफ का हक़ नहीं मिले . वहीँ बिष्टुपुर में एक छोटे से घर में किराए पर अकेला रहता था .उसके माता पिता दोनों इस दुनिया में नहीं थे .सुदीप की प्रारम्भिक शिक्षा पटना के मीठापुर स्थित दयानंद विद्यालय से हुई थी .इस स्कूल से वह बहुत प्रभावित था .इस स्कूल के मुख्य भवन पर कंक्रीट के बड़े बड़े हिंदी और अंग्रेजी अक्षरों में लिखा है “ सादा जीवन उच्च विचार , मानव जीवन का श्रृंगार , PLAIN LIVING HIGH THINKING “ . बाद में जमशेदपुर के बिष्टुपुर के ‘ के .एम .पी .एम. स्कूल’ से पढ़ाई कर उसी शहर के कॉपरेटिव कॉलेज से हिंदी में ऑनर्स के साथ स्नातक तक की पढ़ाई की थी .


बिष्टुपुर में सुदीप का घर रीगल सिनेमा के समीप था , बस दो मिनट का पैदल रास्ता था . रीगल हॉल के सामने ही रीगल ग्राउंड , खेल का मैदान था .शाम को यहाँ अक्सर फुटबॉल मैच होता था , जमशेदपुर स्थित दर्जनों कंपनियों और फुटबॉल क्लब्स की टीमों के बीच .उसकी पसंदीदा टीम तो कोई भी नहीं थी , पर टाइम पास के लिए आ जाता था .अक्सर वह मॉर्निंग वाक करने यहाँ आता था , दो तीन चक्कर मैदान का लगाता था.फिर घास पर बैठ कर थोड़ा आराम करने के बाद घर लौटता. यहीं पर कभी कभी उसकी मुलाक़ात नंदा से होती थी .वह भी मॉर्निंग वाक के लिए आती थी .वह टाटा स्टील के इंटरकॉम एक्सचेंज में काम करती थी . शुरू शुरू में तो बस हाय , हेलो , गुड मॉर्निंग और ‘ क्या हाल है ‘ ही होता था .


सुदीप अक्सर टिस्को कैंटीन में खाने या कुछ स्नैक्स या मिठाईयां लेने जाता था .वहां ये चीजें बाजार की तुलना में सस्ती होती थीं .कैंटीन में भी नंदा और सुदीप का आमना सामना होता .कभी साथ बैठ कर चाय नाश्ता भी होता .सुदीप का रहन सहन बहुत साधारण था .उसको हिंदी में लिखने पढ़ने का शौक़ था .यदा कदा उसकी रचनाएं स्थानीय समाचार पत्रों में छपती थीं . लिखने के अतिरिक्त सुदीप को कुछ पेंटिंग का भी शौक़ था .नंदा के माता पिता किसी दंगे में मारे गए थे. सुदीप और नंदा दोनों ही एक दूसरे के अकेलेपन के साथी होते .देखते देखते दोनों एक दूसरे के बहुत करीब आ गए और दोनों एक दूसरे की पसंद बन गए .


कुछ महीने बाद सुदीप ने नंदा के सामने शादी का प्रस्ताव रखा .नंदा को कोई आपत्ति नहीं थी .पर शादी के ठीक एक सप्ताह पहले सुदीप की नौकरी जाती रही .तब उसने नंदा से कहा “ हमलोगों को शादी कुछ दिनों के लिए टालनी होगी , जब मुझे नौकरी मिलेगी तब हम शादी कर लेंगे .”


नंदा बोली “ इसमें घबराने की बात नहीं है .मैं नौकरी में हूँ न , तब तक हम एक की नौकरी से गुजारा कर लेंगे .”


“ ऐसा करना मुझे कुछ ठीक नहीं लगता .”


“ क्यों ठीक नहीं लगेगा ? आखिर शादी के बाद तो तुम्हारा और मेरा कुछ नहीं रह जाता , सब हमारा कहलाता कि नहीं ? तो अभी जो कुछ मेरा है वह शादी के बाद हमारा होगा यानि हम दोनों का सिर्फ मेरा नहीं .शादी टालने का कोई सवाल नहीं है .”


दोनों ने सादे समारोह में शादी कर ली , शादी में दोनों के बस कुछ गिने चुने दोस्त आये थे .अब दोनों नंदा के क़्वार्टर में एक साथ रहने लगे थे .कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक ठाक चला .ज्यों ज्यों बेकारी के दिन बढ़ते सुदीप की निराशा बढ़ती जाती , उसे नौकरी मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी .नंदा बार बार उसे समझाती और प्रोत्साहन देती .वह बोलती ‘ मैं हूँ न ? तुम्हें चिंता करने की जरुरत नहीं है .दुनिया में जीने के लिए सिर्फ नौकरी ही एकमात्र साधन नहीं है .तुम अब अपना मन और समय लिखने पढ़ने में लगाओ .फिर उससे भी मन ऊब जाये तो बीच बीच में पेंटिंग किया करो .”


“ मेरे लिखने से और पेंटिंग करने से घर का खर्च तो नहीं चलने वाला है .कल को हमारे बच्चे होंगे , उन्हें अच्छी शिक्षा देनी होगी .तुम जानती हो आजकल स्कूल कॉलेज की पढ़ाई कितनी महंगी है .”


“ मैं तुम्हें खुशखबरी देने ही वाली थी , मैं उम्मीद से हूँ .मतलब तुम पापा बनने वाले हो .”


सुदीप यह सुन कर बहुत खुश हुआ और नंदा को अपनी बाँहों में ले कर कहा “ बहुत ख़ुशी की बात है .पर जिम्मेवारियां भी बढ़ जाएंगी और पता नहीं बिना जॉब के मैं कितना योगदान दे पाऊंगा .”


“ फिर वही निराशा वाली बात .जो भी होगा अच्छा होगा , डोंट वरी . तुम मुझे अपनी रचनाएं और पेंटिंग्स दिखाओ . तुमने थोड़ा ही दिखाया है .मैं इस वीकेंड में सब देखूंगी और पढूंगी .फिर कोई रास्ता निकल ही जायेगा .”


अगले एक महीने में नंदा ने सुदीप की कुछ रचनाएं पढ़ीं , कुछ पेंटिंग्स भी देखी . कुछ रचनाओं को छांट कर अलग एक फाइल बनाया .नंदा को वे रचनाएं काफी अच्छी लगीं .उसने सुदीप से कहा “ इन्हें घर में रख कर क्या करोगे ? इन्हें लेकर किसी प्रकाशक के यहाँ चलते हैं .रांची में कुछ प्रकाशक हैं .उनसे बात कर के देखा जाये , उनकी क्या राय है .अगर कुछ खर्च करने पर कोई इसे छापने को तैयार होता है तब हम कुछ सोच सकते हैं .”


अपनी नौकरी के दौरान एक काम सुदीप ने अच्छा किया था .पहले वह रचनाएं अपनी हस्तलिपि में डाक से भेजा करता था .अस्वीकृत रचनाएँ वापस पाने के लिए अलग से टिकट लगा लिफाफा भेजना होता था .ज्यादातर रचनाएं अस्वीकृत हो वापस आती थीं , इस तरह उसके काफी पैसे व्यर्थ जाते .उसने कुछ पैसे बचा कर एक लैप टॉप ले लिया था और अब वह रचनाएँ ईमेल से भेजता था . इसमें समय और पैसे दोनों की बचत होती थी .


एक दिन सुदीप और नंदा दोनों रांची गए .पहले प्रकाशक के यहाँ से उन्हें निराशा ही मिली .दूसरे प्रकाशक के यहाँ नंदा की एक सहेली आशा मिल गयी .वह बोली “ तू कितने दिनों बाद मिली है नंदा ? बोल क्या हाल है और यहाँ कैसे आना हुआ ? “


नंदा ने पहले सुदीप का परिचय कराया और फिर अपने आने का कारण बताया .तब आशा बोली “ अच्छा तो जीजाजी छुपे रुस्तम निकले लेखक और पेंटर टू इन वन .पर अभी तो हमारा सेठ कलकत्ता गया है , रात में लौटेगा . तुमलोग आज रांची में रुक जाओ , कल मैं सेठ से बात करा दूंगी .”

क्रमशः