बात उस समय की है जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान एक था। उस समय धर्म को सिर्फ किताबो में पढ़ा जाता था। सभी लोग हँसी खुशी रहते थे। सभी त्योहार मिल जुल कर मनाते थे। फिर चाहे वो ईद हो या दीवाली। ईर्ष्या का तो कोई नाम भी नहीं जानता था। हर कोई एक दूसरे की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे।
ऐसा ही एक छोटा सा गांव हमारा भी था। जिसका नाम था धुद्दी जिला फरीदकोट (वर्तमान पाकिस्तान)।
हमारा गांव बहुत ही प्यार था। हमारे गांव में आधे घर मुसलमानों के थे और आधे घर हिंदुओं के थे। ये बात है सन 1946 की जब मेरी उम्र 11 साल की थी। मेरे घर मे 4 लोग थे। मेरे पापा सरदार जसविंदर सिंह, मेरी माता तारो देवी, मेरी बहन सिमरत और मैं हरविंदर सिंह। हमारे साथ वाला घर हमारे चाचा जी का था। उनका नाम था सरदार कंवल सिंह। हम सब मिल जुल कर रहते थे। कोई भी त्योहार हो सबसे पहले मेरी मम्मी दरवाजे को सजाती। आंगन में रंगोली बनाती थी। हमारे आंगन में नल के पास अमरूद का पेड़ था। मैं और मेरे दोस्त पेड़ के नीचे कंचे खेलते थे। हम पढ़ने के लिए स्कूल में 2 किलोमीटर दूर दूसरे गांव में जाते थे। मैं, मेरा दोस्त अर्जन, असलम भी जाते थे। हम छुट्टी वाले दिन खेतो में खेलने जाते थे। हमारे खेत बहुत बड़े थे। उसमे अधिक्तर गेहूं, नील, बाजरा और मक्का बोते थे। सब कुछ बहुत अच्छी तरह चल रहा था। बस लोगो को इंतज़ार था तो बस आज़ादी का। एक बार हमारे गांव से थोड़ी आगे अंग्रजो का कैम्प लगा। वो हमसे पूछने लगे कि ये ज़मीने किसकी है। क्या वो ये ज़मीन बेचना चाहेँगे। सरकार उन्हें दोगुने पैसे देगी। लेकिन हमारे गांव के लोगो ने जमीन नहीं बची। उनका मानना था कि जिस्म जमीन के कारण आज वो इतने शक्ति शैली और बड़े हुए है। आखिरकार उस मातृभूमि को वो कैसे बेच सकते हैं।
धीरे धीरे अंग्रेजो को हिंदुस्तान से भगाने के लिए गांधी जी ने आंदोलन तेज कर दिया। सन 1947 मार्च में एक देश विरोधी अवधारणा फैलने लगी। जीने हमेशा प्रेम प्यार से साथ रहे लोगो के बीच फूट डाल दी। अब जिस भी जगह सुनो बस एक ही आवाज आती 'ले के रहेंगे पाकिस्तान'। इस नारे को आसानी से किसी भी बाज़र में सुना जा सकता था। कुछ महीने ऐसे ही बीत गए। धीरे धीरे दंगे तेज़ होने लगे। अगस्त के महीने में कुछ अफवाहों ने जन्म लिया। लोग कहने लगे कि लाहौर से आगे के सभी गांव पाकिस्तान में आएंगे।
हिंदुस्तान को दो हिस्सों में बांट दिया गया है। लोगो ने इन अफवाहों की और ध्यान नहीं दिया। 14 अगस्त रात 2 बजे रेडियों पर ये खबर मिली कि देश आजाद हो गया है। सभी लोगो मे खुशी की लहर थी। थोड़ी देर बाद एक खबर और मिली कि भारत को दो हिस्सों में बांट दिया गया है। हिन्दुओ के लिए हिंदुस्तान और मुसलमानों के लिए पाकिस्तान। जितनी जल्दी हो सके अपनी अपनी जगह पहुंच जाएं। ये खबर सुनकर पूरे गांव में अफरा तफरी मच गई। हर कोई बस जाने के लिए तैयार होने लगा। जो भी जरूरत का सामान था उसे लेकर हम भी अपनी घोड़ा गाड़ी में बैठ गए। मां ने मेरी जेब मे एक काग़ज़ रखा और मेरे कान में कुछ कहा। उसके बाद हम अपने घर की चाबी असलम की अम्मी को देकर वहाँ से अलविदा ली। असलम की अम्मी की आंखों में आंसू थे। बहुत सालो से साथ रहे और एक दूसरे के सुख दुख में काम आए और आज अचानक से इस जगह को छोड़ कर, सारे रिश्ते नाते तोड़ कर जाना किसी अंगारों पर चलने से कम नहीं था। बहुत हिम्मत करने के बाद हमने वहां से विदा ली।
हम अमृतसर की और चल दिये। हमारे साथ साथ सभी हिन्दू भाई भी हमारे पीछे चल पड़े। पापा ने कहा कि जितने ज्यादा लोग होंगे उतनी ही हिम्मत रहेगी। हम उसी रात वहां से चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद देखा सूरज उगने लगा था। धीरे धीरे दिन भी चढ़ गया।
हमने कुछ दूर से एक आदमी को आते देखा। उसने हमें बताया की आज अमृतसर से लाहौर आने वाली रेलगाड़ी में जो लोग थे उनका कत्लेआम कर दिया गया। आप लोग ध्यान से और जितनी जल्दी हो सके सरहद पार कर लें। हम बस ये सोच रहे थे कि बस जल्दी से जल्दी सरहद पर पहुंच जाएं। लेकिन भगवान को कुछ और ही मंजूर था। हमने कुछ लोगो की आवाज़ सुनी जो नारे लगा रहे थे कि 'ले के रहेंगे बदला'। ऐसी आवाज़ सुनकर सभी डरने लगे और थोड़ी देर बाद देखा तो कुछ लोग हमारी तरफ भागते हुए आ रहे थे और उनके हाथ में तलवार और डंडे भी थे। उन्हें देखते ही सारे लोग इधर उधर भागने लगे। कुछ लोग दौड़कर खेत में छुप गए और कुछ लोग झाड़ियों में छुप गए। मैं और मेरी बहन झाड़ियों में चुप गए और मेरे मम्मी पापा खेत मे छुप गए। हमने देखा उन लोगो ने हमपर हमला कर दिया। उन लोगों ने हमारे कुछ साथियों को जान से मार डाला। मैं और मेरी बहन वहां से भागने में कामयाब रहें। लेकिन हमारे मम्मी और पापा अभी भी वहीं थे। हम थोड़ी दूर तक भागे और जब हमें लगा कि हम उन लोगो से बच गए हैं तो हमने अपने मम्मी पापा का इंतज़ार किया। लेकिन कई घंटे इंतज़ार करने के बाद भी हमारे माता पिता का कोई पता नहीं था। हम दोनों वहां वापिस गए तो देखा कि मम्मी पापा वह भी नहीं थे। फिर मैंने अपनी जेब से मम्मी की दी हुई चिट्ठी निकाली। उसमे लिखा था।
बेटा हरविंदर, हालात बेकाबू हो चुके है। अगर रास्ते मे हमे कुछ भी हो जाता है तो तुम अपनी बहन को लेकर वहां से चले जाओगे और सीरत का ध्यान रखना।
इस चिट्ठी को पढ़ने के बाद मेरी आँखों मे आसूं आ गए थे। मेरी बहन ने जब मुझसे पूछा कि मम्मी पापा कहा गए तो उसको देने के लिए मेरा पास कोई जवाब नहीं था। मैं सीरत को लेकर वहां से सरहद की और चल पड़ा। मुझे ये पता था कि मम्मी पापा अभी जिंदा है लेलिन कहाँ है ये नहीं पता था। करीब 7-8 घंटे चलने के बाद हमने सरहद पार कर ली। लेकिन इसके आगे कहाँ जाना है ये हमे नहीं पता था। कुछ दिन तक हम रिफ्यूजी केम्प में रहे। केम्प में 1 दिन में एक बार खाना मिलता था। उसमें भी ये था,जो भीड़ में से हाथ बाहर निकाल कर खाना का पैकेट पकड़ ले तो सही नहीं तो भूखे ही सोना पढ़ता था। करीब पंद्रह दिन रिफ्यूजी केम्प में रहने पर, हम एक हफ्ता भूखे रहे और फिर मैंने सोचा कि हम यहां से चले जायेंगे। मुझे अभी भी अपने मम्मी पापा की तलाश थी। अब हम अमृतसर में थे। लेकिन अभी भी हमारे पास सर छुपाने की जगह नहीं थी। हम कुछ दिन गुरुद्वारे में रहे। वहीं गुरुद्वारे में मैंने हमारे काफिले में आ रहे एक चाचा को देखा तो मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने मेरे मम्मी पापा को देख है तो उन्होंने बताया कि मेरे मम्मी पापा के साथ और भी कई लोग उनके साथ भागे लेकिन उन बेगैरत लोगो से नहीं बच पाएं। उस दिन मैंने खुद को बहुत ही अकेला महसूस किया। आज अपने मम्मी पापा से मिलने की आस मिट चुकी थी। मैं रोज़ वहीं दरवाजे के पास आकर खड़ा होता । मैंने वहां एक दादी को बैठे देखा। जो रोज़ वहां आती थी। वो रोज़ वहीं दरवाज़े के किनारे बैठकर घंटो किसी का इंतज़ार करती थी। एक दिन मैंने उनके पूछा तो उन्होंने बताया कि वो भी लाहौर रहती थी लेकिन उनका एक घर अमृतसर में भी था। लाहौर में उनके बेटे और बहू रहते थे। उन्ही को देखने वो यहां आती है। लेकिन पिछले कई दिन से उनका कोई पता नहीं हैं। दादी ने मुझसे पूछा कि तुम भी तो रोज़ यहां आते हो। तुम क्या करने आते हो। तब मैंने उन्हें अपनी कहानी बताई तो वो मुझे और सीरत को अपने घर ले गई। मैं, दादी और सीरत रोज़ गुरुद्वारे जाते और वहां दादी के बेटों के इंतज़ार करते। लेकिन उनका कोई पता नहीं चला। ऐसे ही धीरे धीरे समय गुज़रता रहा और छः साल बीत गए। अब मेरी उम्र 17 साल की थी। मैंने अब अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी और दादी की रहमत से मुझे नौकरी भी मिल गई थी। नौकरी करते करते कब समय बीत गया और मेरी सीरत शादी के लायक हो गई थी। मैंने दादी माँ आशीर्वाद लेकर सीरत का ब्याह करवा दिया। सीरत की शादी के कुछ दिन बाद दादी की तबियत खराब होने लगी और उन्होंने मुझे भी शादी करने को कहा। दादी के कहने पर मैंने भी शादी कर ली लगभग 6 महीने बाद दादी का भी देहांत हो गया। मैं आज फिर उसी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया था। जहाँ दादी ने मेरे सर पर हाथ रख था। मैं आज फिर अनाथ हो गया था। अब दादी को गुज़रे दस साल हो चुके थे। मेरे साथ काम करने वाले एक बुजुर्ग चाचा जिनका नाम रहमत था। वो कुछ दिन के लिए पाकिस्तान जा रहे थे। तब मैंने उनसे पूछा कि क्या कोई भी पाकिस्तान जा सकता है। तो उन्होंने कहा हाँ मियां कोई भी वीज़ा लेकर पाकिस्तान जा सकता है। तभी मेरे मन भी पाकिस्तान जाने की बात आई। मैंने बहुत कोशिश की कि मेरा पाकिस्तान का वीजा लग जाये। लेकिन मुझे हर बार निराशा का सामना करना। रहमत चाचा जिस दिन पाकिस्तान जा रहे थे। मैं उनसे मिलने उनके घर गया और उनसे पूछा कि क्या वो मेरे लिए पकिस्तान से कुछ तस्वीरे कैमरे में कैद करके ला सकते है। उन्होंने हामी भरते हुए कहा, क्यों नहीं जरूर मियाँ।
ये भी कोई बड़ी बात है और उन्हें विदा करके मैं बजी घर आ गया। मैं हर दिन बस यहीं सोचता कि मेरा गांव कैसा होगा। मेरे दोस्त कैसे होंगे, मेरा घर कैसा होगा। कुछ दिनों के बाद जब रहमत चाचा घर वापिस आये तो मैं फिर उनसे मिलने गया। आज मैं बहुत उत्साहित था। आज मुझे अपनी जन्मभूमि को बहुत साल बाद देखने का मौका मिलने वाला था। जब मैं उनके घर पहुंचा तो मैंने उनसे पूछा
मैं - चाचा आप खैरियत से तो है।
चाचा- हाँ, बेटा बिल्कुल चुस्त दुरुस्त और हूं भी क्यों ना अपनी मिट्टी से मिलकर आया हूँ।
मैं- हाँ चाचा बिल्कुल। चाचा वो तस्वीरे लाएं हो ना।
चाचा- हाँ बेटा ये रही लो, देख लो।
मैंने चाचा का शुक्रिया किया और घर चला आया।
घर जाकर जब उन तस्वीरों को देखा तो एक बार फिर वही यादें ताज़ा होने लगी जिसे कभी भुलाने की कोशिश करता था। अब मेरा मन और भी ज्यादा उत्साहित हो गया था। अगले ही दिन मैंने फिर से पाकिस्तान के वीज़ा के लिये दफ्तर में कागज़ात जमा किये। इस बार वाहेगुरु ने मेरी सुन ली और मेरा वीज़ा आ गया। मैं अगले दिन ही पाकिस्तान के लिए रवाना हो गया। हवाई जहाज से उतरते ही सबसे पहले मैंने उस जन्म भूमि को स्पर्श किया और उस पवित्र मिट्टी को अपने माथे से लगाया जिसमे मेरे माता पिता का खून मिला हुआ था। मैं आगे बढ़ा और एयरपोर्ट के बाहर से गाड़ी बुक करी। अभी सुबह के 10 बजे थे। हम तुरन्त ही फरीदकोट के लिए रवाना हो गया। जब वहां जाकर देखा तो बहुत कुछ बदल गया था। नए लोग नए मकान। लेकिन गांव के बाहर आज भी वहीं पुरानी सथ जिसके पीछे पीपल और बरगद के पेड़ लेग हुए थे। जिनके नीचे अक्सर गांव के बुज़ुर्ग लोगो का जमघट लगा होता था। थोड़ी आगे चलने के बाद मुझे मेरे घर देखने को मिला। वही पुराना दरवाजा जिसको मम्मी ने दीवाली पर सजाया था। वही पुराना अमरूद का पेड़। बहुत कुछ बदला भी हुआ था। लेकिन कुछ चीज़ों ने ही यादों को ताजा कर दिया। फिर मैंने असलम के घर का रुख किया। वहां जाकर पता चला कि जिनका ये घर था वो यहां से बेच कर चले गए है।जब उनका नया पता पूछा तो उन्होंने बताया कि वो अब यहां से चार गली पीछे मकान नम्बर चौदह में रहते है। मैं असलम से वहां मिलने गया तो देखा। जो मैंने वह देखा उस बात पर मुझे बिल्कुल भी यकीन नहीं हुआ। मैं अपने आप को कोसने लगा कि मैं यहां पहले क्यों नही आ गया। मैंने असलम के घर अपने मम्मी पापा को देखा। मुझे बिल्कुल भी यकीन नहीं हो रहा था। मैं भागकर उनके पैरों में गिर गया। मेरी बदनसीबी थी कि उन्होंने मुझे पहचाना नहीं और मुझसे पूछने लगे कि मैं को हूँ। इससे पहले तुम्हे यह नहीं देखा। जब मैंने अपना नाम बताया तो मम्मी ने मुझे गले लगा लिया और हम दोनों रोने लगे। इतनी देर में असलम भी वहां आ गया। जब मैंने असलम को देखा तो इस लगा कि कोई फरिश्ता मेरे सामने आ गया हो। मैंने असलम से पूछा कि मम्मी पापा यहां कैसे तो उसने मुझे पूरी बात बताई।
असलम
दिन 15 अगस्त 1947, जब तुम्हारे ऊपर हमला हुआ तो, तुम दोनों वहां से भाग गए लेकिन चाचा और चाची को उन लोगो ने बहुत मारा। जिससे वो घायल हो गए। खुदा का शुकर था कि वहाँ से कुछ अच्छी नियत के लोग गुज़र रहे थे। उन्होंने इन दोनों को उठा कर इनकी मरहम पट्टी की, जब चाचा को होश आया तो वे चाची को लेकर मेरे घर आ गए। अम्मी ने उन दोनों को हमारे घर मे छुपा लिया। जिससे इन दोनों की जान बची।
अम्मी ने जब चाची से पूछा कि बच्चे कहा है तो उन्होंने बताया कि जब हमारे ऊपर हमला हुआ तो वो दोनों कहा गए पता ही नहीं चला। शायद वो उनसे बचने के लिए वहां से भाग गए। चाचा और चाची भी यहां से जाना चाहते थे लेकिन अम्मी ने उन्हें रोक लिया। चाची आज भी बस यहीं अरदास करती है की।मेरे बच्चे जहां भी हो खुश हो।
आज का दिन
यस ब सुनकर मेरी तो आंखे भर आईं। बस मुझे अपने मम्मी पापा को वहाँ से अपने घर लेकर आना था। मैंने पाकिस्तान की हिंदुस्तान एम्बेसी में अर्जी डाली की मेरे माता पिता 1947 में मुझसे बिछड़ गए थे। तो मैं उनको अपने घर ले जाना चाहता हूं। तकरीबन 2 साल कोशिश करने के बाद हिंदुस्तान सरकार ने मुझे ये इज़ाज़त दे दी कि मैं उन्हें अपने साथ ला सकता हूँ। जब मैं उन्हें लेने पाकिस्तान पहुंचा तो असलम ने उन्हें जाने नहीं दिया वो कहने लगा कि मेरे सर पे इन्ही का हाथ है और आज तू इन्हें लेकर जा रहा है। मैंने उससे कहा कि तूने तो इतने साल इनका आशीर्वाद लिया। अब कुछ साल मुझे भी इनकी सेवा करने दे। और जब भी तूझे इनसे मिलने का मन करें तो घर आजा ना।
बहुत जिद्द करके मैं उन्हें अपने साथ हिंदुस्तान लव आया। जब मां ने सीरत को देखा तो उनकी आंखें भर आई। दोनो बहुत रोये और काफी देर तक गले मिले। मैं उन दोनो को जब घर लेकर आया तो मैंने उनको दादी की तस्वीर भी दिखाई और बताया कि यहीं थी जिन्होंने हमे सहारा दिया और पाल पोस कर इतना बड़ा किया। यहीं थी हमारे मां और बाप। जो भी सीखा इन्हीं से सीखा।
अब हुमस ब लोग एक साथ एक ही घर में रहते है। मम्मी मैं और मेरी पत्नी और पापा। हम सब मिल जुल कर रहते है। मैं और मेरी पत्नी सवनित मम्मी-पापा की बहुत सेवा करते है। दो बार तो असलम भी हमसे मिलने आ चुका है। अब मुझे किसी भी बात का कोई गम नहीं।
किसी ने सही कहा है अंत भला तो सब भला।
माता पिता की हमेशा सेवा करनी चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए