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सुनहरा बटुआ

सुनहरा बटुआ

उन से पहले उनका सामान अन्दर आया था.....

दो कुलियों के साथ एक बड़ा सूटकेस, वी.आई.पी..... एक मीडियम स्काय बैग जिस के हत्थे पर लगे लेबल हल ही में किसी हवाई यात्रा की सूचना दे रहे थे.....

एक लंबी प्लास्टिक टोकरी जिस की जाली के बीच की खाली जगहों से अमरीकन या ऑस्ट्रेलियन सेब और नाशपाती और बिसलेरी की पानी की बोतलें देखी जा सकती थीं.....

फिर एक स्त्री आयी थी.....

अपना एक हाथ अपने कंधे से झूल रहे अपने सुनहरे बटुए पर टिकाए और दूसरे हाथ में एक हलका रुमाल सँम्भाले.....

‘पंद्रह और सत्रह नम्बर कहाँ पड़ेंगे?’ स्त्री ने पूछा|

‘यहीं..... दरवाजे से एकदम पहले,’ किसी एक कुली ने कहा.....

‘असल में पहले यह कोच भी ए.सी. वन का हिस्सा रहा,’ दूसरा कुली बोला, ‘फिर जब ए.सी. टू में भीड़ बढ़ने लगी तो इसे काटकर ए.सी. टू में बदल दिया गया|’

‘क्या बात है?’ वे अब आये थे|

आला कमान!

रोष और झुंझलाहट से संपूर्ण तथा संग्रथित!

‘ये अपनी सीट की बाबत पूछ रही थी|’ स्त्री की बजाए किसी एक कुली ने उत्तर दिया|

‘अब भी पूछ रही थी?’ खट से वे गुर्राए| ‘कल भी यही पूछ रही थी| परसों भी यही पूछ रही थी| पिछले दस दिनों से यही पूछ रही है.....’

‘सामान हम ने टिका दिया है, साहब,’ एक कुली बोला| ‘हमारी मेहनत हमें दे दी जाए| इधर अम्बाला में यह हावड़ा मेल बस कुल जमा दो मिनट ही रूकती है.....’

‘बेशक,’ पचास का एक नोट उन्होंने कुलियों की तरफ बढ़ा दिया|

‘यह पन्द्रह और सत्रह नम्बर मैं ने एडजस्ट कर दिए हैं, सर,’ गाड़ी के गतिमान होते ही टी.टी.ई. उन के पास पहुँच लिया, ‘हमारी बड़ी बिटिया की शादी अगले सप्ताह पड़ रही है, सर! उस के मनोरथ भी कुछ दे दिया जाए|’

‘अम्बाला से सहारनपुर तक ही तो जा रहे हैं,’ वे ठठाए| ‘अदनवाटिका नहीं| फिर तुम से कोई टिकट भी नहीं मांग रहे| पंद्रह और सत्रह यों भी खाली ही जातीं..... खाली जा ही रही थीं..... नहीं क्या?’

‘जी सर.....’ टी.टी.ई. थोड़ा झेंप गया| ‘फिर भी हमारा थोड़ा ध्यान रख लिया जाए| दो हजार तो दे ही दिया जाए|’ उन्होंने पहले अपनी रिवॉल्वर अपनी पेटी से अलग की, फिर अपना बटुआ बाहर निकाला.....

‘ठीक है,’ पाँच पाँच सौ के चार नोट उन्होंने टी.टी.ई. की हथेली पर गिन दिए|

“थैंक यू सर.....’ टी.टी.ई. ने कहा| ‘अटैन्डेन्ट उधर सोने के लिए निकल गया है| आप के बिस्तर उसे खोज कर आप को पहुँचाए देता हूँ|’

‘बिस्तर के लिए अब किसी को जगाइए नहीं’ वे उदार हो लिए| ‘हमने अच्छा गर्म कपड़ा पहन रखा है| तिस पर इधर एयर कन्डीशनिंग है, ठंड महसूस नहीं हो रही|’

बाहर शुरू जनवरी की बर्फ़ीली रात अपनी पराकाष्ठा पर रही|

‘जैसी आपकी आज्ञा सर’ दुष्करण की समूची रकम अब उसकी हो गयी थी|

‘पानी’, अपने ब्रीफ केस के कुछ नंबर घुमा कर उन्होंने उस में से एक बोतल निकाल ली| स्त्री ने प्लास्टिक की टोकरी में रखी एक थरमस में से ढक्कन के नीचे छिपे गिलास में थरमस का पानी उंडेल दिया|

पानी गर्म था.....

‘आप ब्रांडी लेंगे?’ बोतल के कुछ अंश उन्होंने थरमस के ढक्कन में मिला दिए| टी.टी.ई. की निर्धारित सीट ठीक उन के सामने पड़ रही थी|

‘आप लीजिए, सर’ टी.टी.ई. ने लार टपकायी.....

‘मैं भी ले लूँगा.....’ उन्होंने थरमस के ढक्कन में ब्रांडी की मात्रा बढ़ा दी|

‘लीजिए|’ ढक्कन उन्होंने टी.टी.ई. की ओर बढ़ाया|

एक बड़े घूँट के साथ टी.टी.ई. ने वह ढक्कन खाली कर दिया|

‘और लीजिए|’ थरमस और बोतल उन्होंने टी.टी.ई. को सुपुर्द कर दी, ‘नैपोलियन ब्रांडी है, आप को शीत से दूर रखेगी.....’

‘नहीं सर,’ झूठा विरोध प्रकट करने के एकदम बाद टी.टी.ई. मदिरासक्ति में डूब लिया|

अपने खंड की सभी बत्तियाँ बुझा कर वे लेट लिए.....

सत्रह नम्बर पर.....

स्त्री पन्द्रह नम्बर पर लेट गयी|

अपनी मद्यधारा की अधबटाई के बीच टी.टी.ई. को दरवाजा खुलने की आवाज आयी तो वह उठ खड़ा हुआ..... तत्काल.....

‘आप चालू रहिए,’ दरवाजे पर वही थे| आला कमान.....

‘जी सर’ टी.टी.ई. ने उनकी आज्ञा स्वीकारी|

‘मेरी डायरी शायद उधर वॉश बेसिन के पास रह गयी है|’ उन्होंने स्त्री को आन जगाया|

‘उसे ले आओ.....’

स्त्री की पीठ जैसे ही दरवाजे पर दिखायी दी, वे फुरती से उठे और स्त्री के सुनहरे बटुए पर झपट पड़े|

बिना आधा पल गँवाए उन्होंने अपना ब्रीफ़ केस खोला| फिर बटुए के सभी वर्ण्य विषय उस में उलट कर उसे बंद कर दिया|

खाली सुनहरी बटुए के साथ वे दरवाजे से बाहर लपक लिए|

लौटे, तो खाली हाथ लौटे|

टी.टी.ई. अपनी निर्धारित सीट से फिर उठ खड़ा हुआ|

दरवाजे के पार कोई न था|

बाहर निकल कर टी.टी.ई. ने दोनों बाथरूम देखे| दोनों खाली थे|

घुप्प अँधेरे और तेज ठंड के बीच गाड़ी द्रुत गति से आगे बढ़ रही थी| आगे बढ़ती रही|

‘क्या है?’ वे भी दरवाजे से बाहर निकल आए|

‘वे कहाँ गयी?’ टी.टी.ई. ने पूछा.....

‘कौन?’

‘आप के साथ एक लेडी सवारी रही..... नहीं क्या?.....’

‘लेडी सवारी?’ वे हँसे, ‘या गुलाबी हाथी.....’

‘गुलाबी हाथी? माने.....?’

‘नेपोलियन की वजह से आप बहक रहे हैं..... मति भ्रम में, दृष्टिभ्रम में, श्रुतिभ्रम में, निर्मूल भ्रम में.....’

‘नहीं, सर.....’ टी.टी.ई. ने प्रतिवाद करना चाहा|

‘ड्यूटी के समय मदिरा सेवन की सज़ा जानते हैं?’

‘जी सर,’ टी.टी.ई. की बोलती बंद हो गयी|

दरवाजा पार कर वह अपनी निर्धारित सीट पर लौट आया|

जल्दी ही उसकी घबराहट नींद में बदल गई|

नींद उसकी टूटी तो उसने गाड़ी को खड़ी पाया| सामने नजर दौड़ाई तो पंद्रह और सत्रह उसे खाली मिली| सामान और थरमस भी गायब थे|

इस कथा योग की लुप्त कड़ी उसे अपनी वापसी यात्रा के दौरान प्राप्त हुई|

अम्बाला अभी बीस मिनट की दूरी पर था जब एक स्त्री-स्वर ने उसे पीछे से पुकारा, ‘आप की बड़ी बिटिया की शादी कब है?’

‘कौन बड़ी बिटिया?’ उस एक पल के लिए वह भूल गया था सीटों के ‘एडजस्टमेंट’ करते समय वह अकसर एक बड़ी बिटिया क पिता भी बन जाया करता था, जब कि संतान के नाम पर उस के पास मात्र दो बेटे रहे|

‘देखिए’ स्त्री ने कहा ‘अभी दो दिन पहले की बात है| इसी हावड़ा मेल में अम्बाला स्टेशन से एक दम्पत्ति बैठे थे| पंद्रह और सत्रह बर्थ वाले’

‘वे दोनों बर्थ उस दिन खाली गयी थीं| मेरे पास रिकॉर्ड है, पूरा रिकॉर्ड.....’ टी.टी.ई. मुकर गया|

‘आप याद करिए, पुरुष के पास एक रिवॉल्वर था और स्त्री के हाथ का बटुआ सुनहरी था|’

‘सोने की तरह चमकीला.....’

‘कतई नहीं,’ टी.टी.ई. फिर मुकर गया|

‘मैं नहीं मानती,’ स्त्री-स्वर ने एक पहचानी आकृति धारण कर ली, ‘एक लड़की की लाश इस रेलपथ पर मिलने की सूचना आज के अखबार में छपी है| कहें तो अखबार दिखाऊँ.....’

युवती ने अपने हाथ अपने बटुए की ओर बढ़ाए|

उसी स्त्री का बटुआ?

छिटक कर टी.टी.ई. उस आकृति से दूर जा खड़ा हुआ|

‘यह बटुआ आप के पास कैसे आया?’ टी.टी.ई. काँपने लगा|

‘यह मेरा है,’ आकृति की दिशा से हँसी फूट ली|

‘कौन हो आप?’ टी.टी.ई. की जीभ सूख चली|

‘गुलाबी हाथी,’ हँसी तेज हो गयी|

सुनहरे बटुए वाली वह स्त्री आज भी उस कोच में उस टी.टी.ई. को दिखायी दे जाती है| किंतु जब भी वह यह पता लगाने का प्रयास करता है कि उसके दूसरे हाथ में उसका रुमाल है या नहीं, वह अदृश्य हो लेती है|

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