अब उन्हें ट्रेन के उस डिब्बे में घुसने की योजना बनानी थी. उनके पास यह तो पक्की जानकारी थी की दो डिब्बों के ज़रिये रुपियों को ले जाया जाने वाला है. उसमे से एक में पुलिसवाले रहेंगे और एक डिब्बे को रुपियों से भरे बक्से रखकर सील कर दिया जाएगा. पर इस डिब्बे में घुसा कैसे जाये! ये बड़ा प्रश्न था. ट्रेन का वह डिब्बा सील होगा. और वह सील्ड डिब्बे में दाखिल होने के लिए उन लोगों के पास दो ही विकल्प रह जाते थे; एक तो डिब्बे का सील और लोक तोड़कर अन्दर दाखिल हुआ जाए या फिर डिब्बे में छेद करके अन्दर प्रवेश किया जाए. और ये दोनों विकल्पों में से एक भी कार्य प्लेटफोर्म पर रहकर तो बिलकुल हो ही नहीं सकते थे. इसलिए अब उन्हें यह कार्य चलती ट्रेन में ही अंजाम देना था. पर ऐसे में डिब्बे का सील और लोक तोड़ने का एक विकल्प ख़त्म हो जाता था. और सिर्फ डिब्बे में छेद कर के अन्दर दाखिल होने का विकल्प ही रह जाता था, वो भी छत से! क्यूंकि चलती ट्रेन में डिब्बे के बगल में छेद करना तो बिलकुल भी संभव नहीं था. पर छत पर चढ़कर उसमे छेद करना भी मौत से मुकाबला करने बराबर काम था. क्यूंकि छत पर तो हजारो वाल्ट से लदे बिजली के तार ज़रा सी देर में खून चूस लेने के लिए तेहनात रहते है! मतलब दूसरा विकल्प भी ख़त्म!
पर तभी उन्हें ख़याल आता है की सेलम से लेकर वृद्धाचेलम स्टेशन तक तो पटरियों पर बिजली की व्यवस्था है ही नहीं! मतलब वृद्धाचेलम स्टेशन तक ट्रेन को डीज़ल इंजन के सहारे यात्रा करनी है! यही मौका है जब वे ट्रेन के डिब्बे की छत में छेद करके अन्दर दाखिल हो सकते थे. पर यहाँ भी उनके सामने बड़ी समस्या खड़ी थी. ट्रेन के प्लेटफोर्म पर रहते लोगों और पुलिस वालों की नज़रों से बचकर ट्रेन के डिब्बे की छत पर चढ़ना संभव नहीं था. और वो भी उसी डिब्बे की छत पर! जिस पर अनेक पुलिस वाले अपनी बाज़ नजरें गड़ाए बैठे होंगे! और चलती ट्रेन में डिब्बे की छत पर चढ़ने का दुशशाहस करना तो मौत को दावत देने के बराबर था! पर कुछ तो करना ही था. और उनके शैतानी दिमाग ने कोई बीच वाला तरीका खोज निकाला.
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प्लेटफोर्म पर रहते ट्रेन की छत पर चढ़ा नहीं जा सकता था. अरे! ऐसी हालत में तो उस डिब्बे को छुआ भी नहीं जा सकता था जो पुलिस वालों की बाज़ नज़रों में था! अब उन्हें यह कार्य ट्रेन के प्लेटफोर्म छोड़ने के बाद ही करना था. पर चलती ट्रेन को बीच मार्ग में रोकना और उसकी छत पर चढ़ना भी मुश्किल था. क्यूंकि ऐसे में पुलिस की गोलियों को उनके बदन के चीथड़े उड़ा देने में देर नहीं लगने वाली थी. वक्त भी तो उनके पास काफी कम था, क्यूंकि ट्रेन को सेलम से वृद्धाचेलम तक की दूरी तै करने में तीन घंटे लगते थे, जो इतने बड़े काण्ड को अंजाम देने के लिए पर्याप्त नहीं थे. ऐसे में कोई नया तरीका निकालना था, जिससे कम वक्त में इस बड़े काण्ड को अंजाम तक पहुंचाया जा सके.
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पैसों से भरे बक्सों वाला ट्रेन का डिब्बा ट्रेन की शुरू में पहले क्रम पर इंजन के बिलकुल पीछे था. मतलब वह प्लेटफोर्म की शुरू में था. प्लेटफोर्म को छोड़कर जब ट्रेन ने अपना प्रवास शुरू किया तो इस डिब्बे ने सबसे पहले प्लेटफोर्म को छोड़ा. ट्रेन की गति अभी भी बहुत कम ही थी. क्यूंकि इतनी बड़ी ट्रेन को गति प्राप्त करने में काफी वक्त लग जाता है. जैसे ही ट्रेन धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी, इंजन के पीछे वाला रुपियों से भरा डिब्बा भी आगे बढ़ने लगा. अभी भी ट्रेन की गति बहुत धीमी ही थी. जैसे ही डिब्बा प्लेटफोर्म से इतना आगे निकला, कि प्लेटफोर्म पर खड़े लोगों एवं पुलिस वालों की नज़रों से बचा जा सके, पांचो लूटेरे दोड़ते हुए ट्रेन के उस डिब्बे की खिड़की में लगे सलाखों पर लटक गए. और फिर धीरे धीरे डिब्बे की छत पर जा पहुंचे. वे अपने साथ डिब्बे की छत में छेद करने के लिए गेसक़तर भी लाये हुए थे. यह कार्य इतना आसान नहीं था! इसमें प्राण जाने का पूरा पूरा जोखिम रहता था.
ऊपर पहुँचने के बाद उनका कार्य थोड़ा आसान हो गया था. यहाँ वे साथ लाये हुए गेस कटर की मदद से ट्रेन के डिब्बे की छत पर पूरा एक आदमी आसानी से अन्दर बाहर हो सके इतना बड़ा छेद करने लगे. इस दौरान वे सब हाथो में दस्ताने पहने हुए थे, जिससे की उनके फिंगर प्रिंट न छूट जाए. और वे अपने जूतों के निशान भी मिटाते रहे जिससे उनका कोई ठोस सुराग पुलिस के हाथ न लग पाए. पर यह कार्य उन लोगों के लिए आसान नहीं रहा और वक्त ज्यादा ज़ाया हो गया. इस उपद्रव के दौरान उनके भूमि स्थित साथी से भी वे लगातार संपर्क बनाए हुए थे और उन्हें नियमित रूप से आगे क्या करना है की सुचना प्राप्त होती रहती थी.
अब उनके पास वक्त बहुत थोड़ा रह गया था. इसलिए जल्दी जल्दी में दो बन्दे उस छेद से डिब्बे में अन्दर दाखिल हुए और चार बक्सों से पांचसो, हजार एवं सो - सो के बण्डल निकाल कर उनको अपनी पहनी हुई लुंगी में गठरी बांधकर ऊपर छत पर बैठे हुए अपने अन्य साथियों के पास पहुंचा दिया. पर वे अभी तो कुल तीनसो बयालीस करोड़ रुपियों में से सिर्फ पांच करोड़ और अठत्तर लाख रुपये ही निकाल सके थे, कि भूमि स्थित उनके सूत्रधार से सुचना मिली की अब जो भी हाथ लगा है, जल्दी से लेकर भाग निकलो.
वक्त ख़त्म हो चूका था. वृद्धाचेलम स्टेशन नजदीक आ पहुंचा था. उन लोगों को कोई देख ले उससे पहले अब उन्हें चलती ट्रेन से ही भाग निकलना था. दोनों लूतेरे जल्दी में ऊपर आ पहुंचे. ट्रेन अब अपनी रफ़्तार कम करने लगी थी. सबसे पहले रुपियों की गठरियों एवं साथ लाये हुए अन्य साधनों को ज़ाड़ियों में फेंक दिया गया जहां उसके अन्य भूमि स्थित साथी उठाने के लिए तत्पर थे. और पांचो लूटेरे फिर से खिड़की में लगे सलाखों के सहारे लटकने लगे. जैसे ही ट्रेन की गति इतनी कम हुई की सलामत तरीके से कूदा जा सके, पांचो लूटेरे खिड़की से कूद कर भाग निकले. भागे तो ऐसे भागे! की दुनिया की नज़रों और ख़ास करके पुलिस की नज़रों से तो बिलकुल ओजल ही हो गए. पर वे भारत की डकैती के इतिहास में एक अनोखा प्रकरण दर्ज करते गए थे.
इस लेख में वर्णवित घटना लेखक की कल्पना एवं अनुमान पर आधारित है और वास्तविकता इससे कुछ अलग भी हो सकती है. कृप्या पाठक अपने विवेक का इस्तेमाल करें. इसमें बताए गए अपराधियों के नाम न्यूज़पेपर से लिए गए हैं.
समाप्त.