ट्रेन डकैती! भाग 3 harshad solanki द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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ट्रेन डकैती! भाग 3

रेलवे पुलिस और क्राइम ब्रांच के अधिकारी पुरे दो साल तक इस केस में अपनी खोपड़ी खपाते रहे पर हाथ कुछ नहीं लग रहा था. आखिर में अमेरिका की नासा की मदद मांगी गई. नासा ने भी भारतीय पुलिस को इस डकैती की घटना को सुल्जाने में पूरी सहायता की और पुरे ट्रेन मार्ग की डकैती के दिन की सारी तस्वीरे उपलब्ध करवाई. तस्वीरों के अभ्यास से पता चला की यह लूट की घटना को सैलम से वृद्धाचेलम के बीच ही अंजाम दिया गया है. जिस डिब्बे में छेद किया गया था उस डिब्बे की छत पर पांच लोगों की धुंधली तस्वीर भी प्राप्त हुई. पर तस्वीर में दिखने वाले ये लूटेरे कौन है; किसी का कोई पता नहीं चल रहा था.
आखिरकार जांचकर्ताओं ने इस पुरे रेलवे मार्ग पर पड़ने वाले मोबाइल टावर पर उस समय के दौरान सक्रीय रहे मोबाइल नंबर की पड़ताल शुरू की. इस वक्त के दौरान इन मोबाइल टावरों पर हजारो नम्बर सक्रिय थे. जिसमे से कुछ सो नंबर गतिमान थे मतलब वे ट्रेन के साथ ही चल रहे थे. अर्थान्त वे सारे नंबर ट्रेन में सवार यात्रियों के थे. पर इन सभी मोबाइल नंबरों में से कुछ नंबरों पर ही बात हो रही थी. पर इसमें से भी संदिग्ध रूप से सिर्फ ग्यारह नंबर अत्यधिक सक्रीय रहे. इन ग्यारह नंबरों पर बार बार और कई बार आपस में भी बातचीत हो रही थी. इन नंबरों की और ज्यादा जांच पड़ताल की गई तो पता चला की इन नंबरों में से कुछ नंबर सेलम स्टेशन से ही आपसी संपर्क में थे और सेलम से ट्रेन चलने के पहले भी इन नंबरों पर आपस में बार बार बात हो रही थी. इन्ही ग्यारह मोबाइल नंबरों और उसके मालिकों की अब खबर लेनी थी. जांच में पता चला की ये सभी नंबर मध्यप्रदेश के एक ही स्थान के हैं. आगे की जांच में लूटेरों का कोई सुराग पाने के लिए या वे जिस वाहन में सवार होकर भागे होंगे उस वाहन का पता लगाने के लिए पुलिस ने सेलम और वेल्लुपुरम जिल्लों के सभी हाइवे रोड, टोल प्लाज़ा पॉइंट और उसके आसपास के सीसी टीवी फूटेज खंगाल डाले.
आखिर दो लोगों की मध्यप्रदेश से गिरफ्तारी की गई. जिसमे दिनेश परदी और रोहन परदी सामिल हैं, जो दोनों मध्यप्रदेश के रतनाम जिल्ले के हैं. इसके अलावा इस सारे काण्ड का लीडर मोहार सिंग अन्य अपराधो में लिप्त होने की वजह से गुना की केन्द्रीय जेल में बंध है. बाकि के लोग अभी भी लापता हैं. जिनकी पुलिस को आज भी तलास है.
इन सब लोगों का एक संगठित ग्रुप था, जिनका मुख्य कार्य चोरी और लूट की घटनाओं को अंजाम देना ही था. पर वे मजदूरी एवं खिलोने, कटलरी, हस्तकला का सामान, इत्यादि बेचने वाले छोटे व्यापारी बनकर देश के भिन्न भिन्न स्थान पर प्रवास करते थे और अस्थायी केम्प या ज़ोंपडी बनाकर निवास करते थे. वे बड़ी खूबी से अपने टार्गेट को चुनते थे. फिर उसकी रेकी करते थे और इस तरह अंत में उनका पूरा प्लान तैयार होता था. आखिर पूरी तैयारी के साथ टार्गेट पर धावा बोलते थे. पुलिस को आज भी बाकि के लूटेरों एवं उन लोगों तक रुपियों के नोटों के ट्रांसपोर्टेशन की सटीक खबर पहुंचाने वालों की तलाश है.
******************
यह सारी घटना को कुछ इस तरह से अंजाम दिया गया होगा.
लूटेरों के पास रुपियों की हेरफेर की पूरी पूरी जानकारी आ पहुंची थी. किस ट्रेन में यह रुपियों को ले जाया जाने वाला है; किस दिन ले जाया जाने वाला है; किस डिब्बे में रुपियों को रखा जाने वाला है और किस डिब्बे में पुलिस वाले रहेंगे; किस डिब्बे को रुपियों से भरे बक्से रखकर सील कर दिया जायेगा; इत्यादि इत्यादि छोटी से छोटी जानकारी सूत्रधार ने उनके पास पहुंचा दी थी. अब लूटेरों का काम उस डिब्बे में घुसकर डाका डालना था. पर ये कोई आसान काम नहीं था. अगर वे इस कार्य में सफल हो जाते है तो वे भारत के डकैती के इतिहास में एक अनोखा प्रकरण दर्ज करा जाने वाले थे. यह डकैती भारत के इतिहास की सबसे साहसपूर्ण डकैती बन कर रह जाने वाली थी.
अब उन्हें ट्रेन के उस डिब्बे में घुसने की योजना बनानी थी. उनके पास यह तो पक्की जानकारी थी की दो डिब्बों के ज़रिये रुपियों को ले जाया जाने वाला है. उसमे से एक में पुलिसवाले रहेंगे और एक डिब्बे को रुपियों से भरे बक्से रखकर सील कर दिया जाएगा. पर इस डिब्बे में घुसा कैसे जाये! ये बड़ा प्रश्न था. ट्रेन का वह डिब्बा सील होगा. और वह सील्ड डिब्बे में दाखिल होने के लिए उन लोगों के पास दो ही विकल्प रह जाते थे; एक तो डिब्बे का सील और लोक तोड़कर अन्दर दाखिल हुआ जाए या फिर डिब्बे में छेद करके अन्दर प्रवेश किया जाए. और ये दोनों विकल्पों में से एक भी कार्य प्लेटफोर्म पर रहकर तो बिलकुल हो ही नहीं सकते थे. इसलिए अब उन्हें यह कार्य चलती ट्रेन में ही अंजाम देना था. पर ऐसे में डिब्बे का सील और लोक तोड़ने का एक विकल्प ख़त्म हो जाता था. और सिर्फ डिब्बे में छेद कर के अन्दर दाखिल होने का विकल्प ही रह जाता था, वो भी छत से! क्यूंकि चलती ट्रेन में डिब्बे के बगल में छेद करना तो बिलकुल भी संभव नहीं था. पर छत पर चढ़कर उसमे छेद करना भी मौत से मुकाबला करने बराबर काम था. क्यूंकि छत पर तो हजारो वाल्ट से लदे बिजली के तार ज़रा सी देर में खून चूस लेने के लिए तेहनात रहते है! मतलब दूसरा विकल्प भी ख़त्म!
क्रमशः