बिटिया के नाम पाती... - 6 - एक पाती मेरी अभिलाषा के नाम Dr. Vandana Gupta द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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बिटिया के नाम पाती... - 6 - एक पाती मेरी अभिलाषा के नाम

मेरी प्यारी अभिलाषा

तुम मुझे बहुत अज़ीज़ हो, शायद खुद से भी ज्यादा... और इसीलिए तुम्हें अब तक दिल में महफूज़ रखा है। तुम्हें पाने की ज़िद में खुद को खो दिया है मैंने... और शायद इसीलिए उम्र की आधी सदी गुजरने के बाद मिर्ज़ा ग़ालिब याद आ रहे हैं...

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...

इन पंक्तियों से तुम समझ ही गई होंगी कि मेरी ज़िंदगी में तुम्हारी अहमियत क्या है? जबसे होश संभाला घर की महिलाओं को परिवार के दायित्वों और परिजनों के सपनों के लिए खुद की इच्छाओं को धुआँ करते देखा। एक ज़िद मन में गहरे पैठ चुकी थी कि जो मैं चाहूँ, वह मैं क्यों नहीं कर सकती? छोटी छोटी बातों में खुश रहने की आदत ज़िन्दगी को कितना आसान बना देती है, यह जानते हुए भी मैं अक्सर बड़ी खुशियों की तलाश में उन्हें पूरी तरह जी न सकी। एक बात से खुश होकर फिर दुःखी होने का बहाना ढूँढने लगती थी। एक ख्वाहिश जन्म लेती, आँखों में ख़्वाब पलने लगता, कभी पूरा होता, कभी अधूरा रह जाता। इस अधूरेपन के साथ ही ज़िन्दगी जीने का मज़ा भी है, यदि कोई ख़्वाब या ख्वाहिश न हो तो ज़िन्दगी ठहर सी जाती है। बस इसीलिए कदम दर कदम नयी ख्वाहिशें, नये ख़्वाब ज़िन्दगी के चार्म को बरकरार रखते रहे।

मेरी सखी मेरी ख्वाहिश तुम तो जानती हो न कि बचपने की ज़िद का कोई ठोस आधार तो होता नहीं, ज़िद भी वहीं ठहरती है, जहाँ उसके पूरे होने की उम्मीद हो। ज़िद ने कब विद्रोह की शक्ल अख्तियार कर ली, मैं जान भी न पाई। ज़िन्दगी तब उत्सव लगती, जब मेरा सुर घरवालों के सुर से मिल जाता, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं हो सकता न... तुमने ज़िद करना सिखाया लेकिन इतनी भी नहीं कि सुर न मिलने पर नयी तान छेड़ूँ। ऐसे समय पर ज़िन्दगी का संगीत खामोश हो जाया करता है। डायरी के पन्ने काले-नीले होने लगते, कहीं-कहीं नम भी... लेकिन मेरे दिल की गहन पर्तों के नीचे तुम्हारा वजूद न मिटने दिया। वैसे तो ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जी, लेकिन शर्तों में लचीलापन रखा।

आज जो भी हूँ, जहाँ भी हूँ... खुश हूँ, लेकिन एक कसक भी है... सृष्टि में नर और नारी की संरचना प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में अहम है। दोनों के कर्तव्य भिन्न हैं और परिवार रूपी संस्था के लिए जरूरी भी... किन्तु त्याग की अपेक्षा हमेशा नारी से ही क्यों की जाती है? यदि निर्णय लेने का अधिकार उसे दिया जाए, तो वह स्वयं भी त्याग ही चुनेगी, लेकिन उसे यह अधिकार क्यों नहीं है? तुम मेरी अभिलाषा हो, तुम्हें कविता के रूप में शायद बेहतर व्यक्त कर सकूँ... तुम खुद को पढ़ो मेरी नज़र से...

काश

यूँ ही साथ चलते-चलते
एक दिन तुमने कहा..
रुको..!
पर मैं चलती रही
तुमने कहा..
चलो..!
और मैं रुक गयी
तुमने इसे अपनी अवहेलना समझा,
और तुम नाराज हो गए
काश..! तुम समझ पाते
कि
यह तिरस्कार नहीं था
तुम्हारे प्रति,
यह तो तुम्हारी नजर में
खुद की अहमियत,
खुद की इच्छा,
और खुद का वजूद,
साबित करने का
एक प्रयास था मेरा...
काश..! तुम समझ पाते
बस तुमने एक बार
सिर्फ एक बार कहा होता
कि..
"जो तुम चाहो.."
फिर शायद
शिकायत का मौका नहीं मिलता
कभी भी..
कहीं भी..
और
किसी को भी...

तो मेरी प्रिय अभिलाषा आज मैंने तुमसे अपने दिल की बात कही है। तुम सहमत हो न... मैं तुम्हें पूरा होते देखना चाहती हूँ... तमाम स्त्रियाँ उनके ख्वाबों के आसमान में उनकी ख़्वाहिशों का एक तारा टांक सकें... उस तारे की रोशनी इस धरती पर खुशियों का नया उजाला बिखेर देगी... उम्मीद का सूरज उगेगा और जरूर उगेगा... आसमान की लालिमा इस बात की द्योतक है...!

तुम्हारे पूर्ण होने की आशा में...
तुम्हारी- वन्दू

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक
(10/01/2021)