भाग-६
सफ़र ख़त्म हुआ कार कोठी में प्रवेश कर रही थी पर ये दोनो ही सफ़र के और लम्बा होने की दुआ माँग रहे थे।
मन के परवाज़ बड़े सशक्त होते हैं वह हर उस जगह तक बिना किसी रोक-टोक के पहुँच जाते हैं जहाँ तक वह जाना चाहते हैं।
इस वक्त एम.के. और सुलोचना कार में बैठे हुए ही अपने मन के परवाज़ की उड़ान भर रहे थे।
तभी कार रुक गई और उन दोनों की उँगलिया एक दूसरे की गिरफ़्त से अलग हो गईं एक दूसरे का एहसास अपनी उँगलियों में बसाए हुए।
कार से उतरते ही सामने शशिधर बाबू खड़े थे उन्होंने गर्मजोशी से सबका स्वागत करते हुए कहा-
“हो गई ख़रीदारी पूरी या अभी और कुछ बाक़ी है बहू?”
मणि ने जवाब देते हुए कहा-
“बाबा वो तो दादा थे तो हो भी गई ख़रीददारी नहीं तो सुलोचना तो बस दो रंग ले कर ही वापस आ जाती।”
“हें तारपोरे तूमी कि कोरचो ओ खाने?”
शशिधर ने मणि को टोकते हुए थोड़ी नाराज़गी दिखाई तब सुलोचना ने अपने ससुर की बात का जवाब दिया-
“बाबा मणि ते एक टु काथा बोलते पारे न एक टु ओ रंग ओरा के भालो लागे न।”
सुलोचना की बात सुन कर शशीधर ज़ोर से हँसे और बोले-
“कुछ भी सलेक्ट करने में न बहू आमी बाप छेले एक दम बोका।”
यह बात सुन जहाँ सुलोचना चुप कर गई वहीं एम.के. मणि और शशीधर ठहाका लगाने लगे।
शशिधर ने एम.के. से कहा-
“जाओ तुम लोग खाना खा लो मैं तो खा चुका आज खाने में वो स्वाद नहीं है ,जो सुलोचना की रसोई में होता है पर फिर भी पेट तो भरना ही था।”
मणि बोला।
“क्या बाबा आप भी खोखून काकू कब से खाना बाबा रहें हैं और कितना स्वादिष्ट!” कुसुम मुखर्जी बाहर आ गईं और बोली-
“अरे सब यहीं खड़े बात करते रहोगे क्या चलो डिनर टेबल तुम सब का वेट कर रही है।”
एम.के. बोला-
“मामी मुझे आज भूख नहीं है मेरा पेट बहुत भरा हुआ है मैं बस सोना चाह रहा हूँ मुझे नींद आ रही है।”
मणि में तुरंत ही कहा-
“हाँ माँ दादा को तो रास्ते में ही बहुत नींद आ रही थी तब मैंने इन्हें पीछे बिठाया और खुद जा कर आगे बैठा।”
एम.के.ने बड़ी चपलता से बात को लपक लिया और बोला-
“मामी मैं तो सोने जा रहा हूँ पर आप मेरी सलेक्ट की हुई साड़ियाँ ज़रूर देखिएगा पसंद आए तो आप की शॉपिंग के लिए भी यह अमेरिका रिटर्न एट योर सर्विस।”
कुसुम ने उसे आड़े हाथों लेते हुए कहा-
“जब मैं शॉपिंग कर रही थी तब तुम क्या सोते थे?”
“तो अब और कर लो एम.के. करवा देगा।”
शशिधर ने कहा और कुसुम की नाक पकड़ कर हिला दी।
“धुत्त”
कह कर कुसुम ने शशिधर को झिटक दिया।
मणि बोला-
“तुम सब बात करो मुझे तो भूख लगी है। दादा खायेगा नहीं तो मैं तो चला डिनर करने।”
मणि के भीतर जाते ही एम.के. वापस जाने लगा तो सुलोचना बोली-
“कुछ खा लो दादा फिर जाना।”
एम.के.ने सुलोचना को भरपूर निगाहों से देखा और धीरे से बोला।
“खाना खाने के लिए हाथ धोना पड़ेगा और मैं अपना हाथ धोना नहीं चाहता।”
अपने हाथ अपने होंठो पर लगता हुआ एम.के. वहाँ से चल पड़ा। सुलोचना भी अपने सिहरते बदन के साथ अपने हाथ को अपने माथे पर लगा भीतर चली गई और बिना खाए हुए ही अपने कमरे में जा लाए हुए सामान को सहेजने में लग गई।
ग़रीबी समाज का ऐसा अभिशाप है कि वह यदि चली भी जाए तो अपनी छाप नहीं छोड़ती तभी स्पर्श के सुख को भूल सुलोचना साड़ी और गहने संभालने के सुख से खुद को वंचित नहीं कर पा रही थी।
अपनी साड़ियों से भरी वाडरोब को एक नज़र देख उसे अपनी अमीरी का एहसास हुआ। वह अपनी नाइटी ले बाथरूम की तरफ़ बढ़ चली। चेंज करने के बाद सामने लगे आईने में खुद को निहारने लगी जैसे ही उसने मुँह धोने के लिए अपना हाथ नल के आगे बढ़ाया उसे लगा शीशे में एम.के. दादा खड़े कह रहें हैं-
“मैं तो अपना हाथ नहीं धोने वाला।”
उसने भी अपना हाथ पानी से पीछे खींच लिया और अपने गालों से फिराती हुई अपनी माँग तक ले गई तभी बहुत तेज़ी से उसने अपना हाथ वापस खींच लिया और उसमें लग गए सिंदूर को देख वह अपने इर्द-गिर्द बन रहे रेशमी जाल से एक झटके में वापस आ अपनी हथेली पानी के नीचे कर दी।
उधर एम.के.अपने बिस्तर पर लेटा अपने हाथ को बार-बार चूम रहा था वह चाह कर भी सुलोचना के रूप के तिलिस्म से बाहर न आ पा रहा था अपनी हाथ की लकीरों में वह सुलोचना को तलाश रहा था।
आँख बंद करते ही उसे हँसती हुई सुलोचना दिखाई देती तो कभी उसे उसके बदन की ख़ुशबू बेचैन कर देती पूरी रात उसकी करवट लेते हुए गुजरी।
सूरज की चमकती किरणें एम.के.की खिड़की पर आ दस्तक देने लगी तो उसने उनिंदी आँखो से उन्हें देखा और तकिया मुँह पर रख करवट बदल ली और पास पड़ी गाव तकिया को अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया रात भर न सो पाने की वजह से वह इस वक्त नींद की गिरफ़्त में जकड़ाता जा रहा था।
सुलोचना की आँख खुली तो उसकी नज़र शांत चित्त सोए मणि के मुखड़े पर पड़ी और उसे लगा जैसे कोई देवता अभी-अभी अपने सुख की झोली पृथ्वी पर ख़ाली कर के आया हो और आ कर चैन की नींद सो गया हो।
वह उसके इस अबोध मुख को चूम लेना चाह रही थी किंतु वह उसके इस निद्रा सुख में ख़लल भी नहीं डालना चाह रही थी।
वह बहुत धीरे से उसके मुखड़े के पास गई और उसके भीने पसीने की महक से अपनी नासिका को तृप्त कर वापस अपनी जगह लौट आई।
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