सुधा जब से किट्टी पार्टी से लौटी है तभी से चुप है। जैसे कुछ सोच रही है। हाँ, सोच तो रही है वह। आज जो बातें किट्टी में हुई। वे बातें उसे थोडा आंदोलित कर रही है। कभी -कभी वह खुद अपने आप पर ही झुंझला जाती है कि वह दूसरी औरतों की तरह बेबाक क्यूँ नहीं है। क्यूँ नहीं वह उनकी बचकानी बातों का समर्थन कर खिलखिला कर हंसती। आज तो बहुत गम्भीर विषय था तो भी बातों का स्तर कितना हल्का था।
बात दामिनी को ले कर चली थी। दामिनी के साथ जो हादसा हुआ और किस तरह सभी के मनों को झिंझोड़ गया था। जितना शोर मचा था, वह सिर्फ मिडिया में ही था। बहुत कम लोग थे जिन्होंने दामिनी से सहानुभूति दिखाई हो। क्या उसके बाद ऐसे हादसे नहीं हुए !
सारिका के यह कहने पर कि बॉय फ्रेंड के साथ कु -समय जायेगी तो यही होगा ! सुधा से रहा नहीं गया और बोल पड़ी कि यह भी क्या बात हुई अगर वह उस समय अपने किसी परिजन के साथ होती तो या अगर घर में कोई बीमार हो जाता और उसे अचानक अकेली ही घर से निकलना पड़ता तो ! क्या जो कुछ उसके साथ हुआ वह जायज था। हम सभ्य समाज में रहते हैं। किसी जंगल में तो नहीं कि भेड़िया आएगा और खा जायेगा ! क्या उन लोगों के अपने परिवार की कोई लड़की होती तो क्या वे सब यह करते ? इस पर भी कई मतभेद उभरे। लेकिन सभी का एक मत कि देर रात ऐसे घर से निकलना नासमझी ही है। जब तक हालत सुधरते नहीं। खुद की सावधानी भी जरुरी होती है।
खुद सावधान रहना चाहिए। इस बात को तो सुधा भी मानती है। वह बचपन में ही माँ से सुनती हुई आयी थी कि अपनी सावधानी से हमेशा बचाव रहता है। माँ रात को सोने से पहले घर के सारे कुंडे -चिटकनिया और परदे के पीछे हमेशा झाँक कर देखती और सावधानी का वाक्य दोहरा देती थी। जब वह होस्टल गयी तो भी माँ ने यही वाक्य दोहराया और यह भी सलाह दे डाली कि किसी से भी ज्यादा दोस्ती ना करो ना ही बैर रखो। माँ की यह सलाह उसके गाँठ बांध ली और अभी भी तक अमल करती है इस बात पर। तभी तो वह सभी से एक सामान व्यवहार कर पाती है।
सुधा सोच रही थी कि हादसे तो कभी भी हो सकते हैं। रात का होना कोई जरुरी तो नहीं। यह तो बुरा वक्त होता है जो किसी का आना नहीं चाहिए। वक्त अगर दामिनी का खराब था तो वक्त उन दरिंदो का भी अच्छा नहीं था। तभी तो उनसे यह वारदात हुई। बुरे वक्त और अच्छे वक्त के बीच एक पल ही होता है जो इंसान पर हावी हो जाता है।
ऐसा ही एक पल सुधा की जिंदगी में आया भी था। अगर वह स्वविवेक से काम न लेती तो...! इससे आगे वह सोच नहीं पाती और सिहर जाती है। हालंकि इस घटना को 26 वर्ष से भी अधिक हो चुका था।
26 साल पहले जब वह होस्टल में थी तब उसके ताऊ जी भी वहीँ शहर में ही रहते थे। दो-चार दिन के अवकाश में अक्सर उनके घर चली जाया करती थी। एक बार तीन छुट्टियाँ एक साथ पड़ रही थी तो उसने ताउजी के घर जाने की सोची। वार्डन से छुट्टी की आज्ञा ले कर हॉस्टल से बाहर आ गई। रिक्शा की तलाश करने लगी। उसको भीड़ से परेशानी और घुटन होती है तो वह सिटी बस से परहेज़ ही करती थी। एक रिक्शा मिला और 7 रुपयों में तय करके बैठ गई। कुछ दूर जाने पर उसे लगा कि रिक्शा वाला गलत रास्ते पर जा रहा है । उसे रास्ता मालूम था। उसने रिक्शे वाले को टोका भी कि वह गलत जा रहा है। वह बोला कि ये शॉर्ट -कट है।
सुधा ने सोचा हो सकता है कि इसे ज्यादा मालूम है। लेकिन उसे फिर भी शक हुआ जा रहा था कि वह गलत जा रहा है। कई देर चलने के बाद वह एक पैट्रोल -पम्प के पास जा कर रुका और बोला कि शायद वह रास्ता भूल गया और पूछ कर आ रहा है। सुधा चुप कर बैठी रही। तभी कुछ आवाज़ें सुनायी दी तो उसने गरदन घुमाई। सामने यानि पैट्रोल -पम्प के पीछे की तरफ एक कमरे के आगे से दो आदमी उसको अपनी तरफ बुला रहे है। वह रिक्शे से उतरने को हुई। अचानक फिर दिमाग में एक विचार कोंध गया कि वह क्यूँ उतर रही है !कलेजा उछल कर गले में आ गया। लेकिन कस कर रिक्शा पकड़ लिया और गरदन घुमा कर बैठ गई।
थोड़ी ही देर में रिक्शा वाला आकर बोला कि वह खुद जा कर रास्ता पूछ ले। सुधा का हालाँकि कलेज़ा कांप रहा था फिर भी जबड़े भींच कर लगभग डांटते हुए बोली कि रास्ता उसे पता है। वह उसे ले जायेगी। रिक्शे वाला उसके तेवर देख कर सहम गया और रिक्शे पर बैठ कर बोला तो बताओ किधर ले चलूँ।
सुधा के ताऊजी पुलिस के बड़े अधिकारी थे। उसने उनका नाम लेते हुए कहाँ कि उसे पुलिस स्टेशन ले चले। वही से वह उनके घर जायेगी। जहाँ उसने जाना था वहाँ के थाने का नाम लिया। थोड़ी देर में ही वह पुलिस स्टेशन के सामने था। उसके ताऊजी पुलिस अधिकारी तो थे लेकिन वे वहाँ कार्यरत नहीं थे।
अब सुधा ने कहा कि रिक्शा आगे बढ़ाये और वह घर ही जायेगी। ऊपर से मज़बूत दिखने का ढोंग करती सुधा मन ही मन बहुत डर गयी थी। घर का रास्ता ही भूल गयी। सुबह 10 बजे की हॉस्टल से निकली सुधा को डर के साथ भूख भी सताने लगी थी। दोपहर के दो बजने को आये थे।
अब तो रिक्शे वाला भी चिढ़ गया था। बोला कि जब उसे घर का पता नहीं था तो वह आयी ही क्यूँ ? तभी उसे थोड़ी दूर पर ताऊजी के घर के आगे गार्ड्स दिखाई दिए। राहत की साँस सी आई और रिक्शा वही ले जाने को कह दिया। घर के आगे पहुँच कर उसने रिक्शा वाले को 7 रूपये देने चाहे तो वह रुहाँसा हो कर बोला मालूम भी है कितने घंटे हो गए हैं।
सुधा बोली ,"तेरी गलती ! मैं क्या करूँ तू गलत ले कर ही क्यूँ गया ! सामने गार्ड्स दिख रहे हैं क्या ? उनको बताऊँ तेरी हरकत , मैं तो ये सात रूपये भी नहीं देने वाली थी। चल जा यहाँ से। "
वह चुप करके रूपये ले कर चलता बना।
सुधा का मन था कि काश आज माँ सामने होती और गले लग कर सारा डर दूर कर लेती। बाद में ताईजी को बताया तो उन्होंने कहा भी कि उसे जाने क्यूँ दिया। उसकी शिकायत करनी थी। तब तो उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था और वह यह सोच ही नहीं पाई थी । तब ताईजी ने कहा कि जो बात हुई नहीं उस पर विचार मत करो और सोचो कि तुमने आज सात रुपयों में आधा शहर घूम लिया। दोनों हंस पड़ी इस बात पर।
सोचते -सोचते वह मुस्कुरा पड़ी। यह एक पल ही होता है जो इंसान को अच्छे या बुरे वक्त में धकेल देता है। फिर भी खुद की सावधानी जरुरी तो है ही।
उपासना सियाग