प्रेमम पिंजरम - 2 Srishtichouhan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेमम पिंजरम - 2

8 जनवरी 1946,

पॉलंपल्लाई , मधुराई

9:45 , रात्रि का समय,


प्रिय डायरी ,


ठंड का कोहरा और भी घना हो चुका था, अब पेड़ों में पत्तें ना बचे थे, सब नंगे हो चुके थे, अब हरियाली ऐसे हो गई थी कि मानो ईद का चांद, हल्की सी झलक ही दिख जाया करती थी, आज की सुबह बेहद रेशमी और शुभ समाचार वाली थी, बेहद खुशनुमा और रोमांच से भरी, मैंने किसी को यह बताने के लिए नहीं कहा कि मै आज कौन सी बड़ी चीज़ को भूल रही हूं पर मुझे याद ही नहीं आया, मिशनरी स्कूल में मेरी स्कूली शिक्षा बहुत ही शानदार अनुभवों में से एक थी, लेकिन फिर भी मैं जेन आइरे और रेबेका जैसे उपन्यास पढ़ना चाहती थी, इसलिए आज एक महीने के बाद मुझे मौका मिला मेरी डायरी लिखने के लिए, हमेशा की तरह, मैं अपनी डायरी में कुछ भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी, पाट्टी कोलाम की रंगोली की तैयारी कर रही थी, चावल सुखा रही थी, जबकि पट्टन माला और कुछ पूजा सामग्री की व्यवस्था करने के लिए व्यस्त थे, पोंगल एक सप्ताह के भीतर आ रहा था, वापस इस महीने की तेरहवीं तारीख को पड़ रहा था, शायद रविवार को, और आज सुबह सुबह ही मीनू ने मुझे अपने कंबल से बाहर खींच लिया था, मैं कंबल से बाहर नहीं निकलना चाहती थी, अपने घर के उन ठंडे फर्श पर अपने गर्म पैर रखने के लिए बिल्कुल भी सहमत नहीं थी, लेकिन किसी तरह, वह मुझे अपने कम्बल से बाहर निकल पाने में कामयाब रही। मुझे अपने बिस्तर से नीचे ले जाने और उन ठंडे फर्श पर कदम रखने के लिए उसने मुझे मजबूर कर ही दिया,



कड़ाके की ठंड लग रही थी और मैं ठंड से कांप रही थी, मैंने उसे स्नान करके आने के लिए मनाया और गर्म स्नान करने के बाद और विभूति लगाने के बाद, और मेरे लंबे काले बालों की दो लम्बी चोटियां बनाने के बाद, मैंने अपने हल्के बैगनी कलर के हाथ से बुने हुए नए स्वेटर ब्लाउस पहने यह पॉल्लंपल्लाई में आजकल चलन में है जब से मैडम विक्टोरिया यहां अपने हेरिटेज कॉटेज में पंद्रह दिन रुकने आई थी, कई बड़े और मध्यम वर्ग की लड़कियां उनके इस पहनावे से इतनी प्रभावित हुई कि सबने एक साथ रंगास्वामी वो दर्जी जो हर तरह के कपड़े सिलने में माहिर था और जो क़िस्म क़िस्म के ऊनी कपड़े भी बुनता था के पास उन्हीं मैडम के स्वेटर ब्लाउस के डिजाइन लिए पहुंच गई उन शौकीन बाज लड़कियों में मै और मीनू भी थे हमारा कस्बा पॉलंपल्लई तो अंग्रेज़ी रहन सहन से बहुत ज्यादा ही प्रभावित हो चुका है क्योंकि यहां कोर्ट भी था और खासे गोरे अंग्रेजों ने यहां के मनोहर प्राकृतिक सुंदरता से दिल हारकर यहां पर कई ज़मीन लेली थी, उनमें से एक मैडम विक्टोरिया भी है जिनकी एक बड़ी बेटी जेनिफर हमारे ही हम उम्र की है,कस्बे के कई लड़के उसपर मरते है, उसकी आंखें सागर के गहरे नीले रंग वाली चमकदार आंखें है, जो भी उन आंखों में देखता है वो उसके प्रेम में बावरा हो जाता है, उसकी वो अंग्रेज़ी गोरी चमड़ी और जो वो विदेशी लंबे गाउन पहनते है न वो अंग्रेज़ी औरतें, वो पहन कर वो एकदम कीमती ऊंची ऐड़ी वाली बुट पहन कर जब भी मैडम विक्टोरिया के साथ अपनी गहरी नीली मोटर से बाहर निकलती है और गोदावरी नदी के किनारे बने उनके हेरिटेज कॉटेज में जाने को होती है, तो कई लोगो के दिल की धड़कने तेज गति से धड़कने लगती है, बांके बावरे उसकी एक झलक ही पाने को कॉटेज के पास एक सबसे बड़े बरगद के पेड़ो में चढ़कर उसकी निहारती पलकों के झपकने का इंतजार करते रहते है, इन सब चीज़ों से कस्बे की बाकी लड़कियों के दिल पसीज कर जलन से भर उठते है, खास कर मीनू उस जेनिफर को बहुत गाली देती है , क्योंकि श्रीनिवासन जेनिफर पर लट्टू था,


अब तुम पूछोगे कि यह श्रीनिवासन कौन है, तो मै यह बता दू कि यह लड़का यहां के नए रेंजर साहब का इकलौता बेटा है, वो लोग इसी साल कांचीपुरम से तबादले के बाद पाॅलंपल्लाई आए है, मीनम्मा और उसकी पहली मुलाक़ात तब हुई थी जब हम पट्टन के नारियल के बगीचे में गए थे, उस वक़्त पट्टन ने हमे सारे कच्चे नारियाल के मालगुजारी के हिसाब का काम दिया था, तो बस मजदूरों को उनकी मेहनत अदायगी और नारियलों की बैल गाडियों में लोडिंग के लिए हम वहां गए थे, तभी श्रीनिवासन वहां आ गया था, दरअसल वह ताड़ के पेड़ के बाग में अपने पिताजी के कहने पर इन्वेस्टिगेशन करने को जा रहा था, पर उसे गलती से किसी ने हमारे नारियाल के पेड़ का पता दे दिया, और पहली नजर में ही मिन्नामा को उससे लगाव होगया , और अब जब मिन्नम्मा को पता चला कि श्रीनिवासन मन ही मन जेनिफर पर लट्टू है तो उसी सिलसिले में मुझसे मिलने आज ही सुबह वह मेरे घर आ गई, और मुझसे अकेले में बात करने के लिए वह अब मुझे काफी के बागान में लिए जा रही है,

मै घर से अब उसके साथ निकलने को तैयार थी, अपने रास्ते का टोह लेने के बाद और अपनी नई स्वेटर ब्लाउस को पहनने के बाद, मैंने पाटी को झूले के पास पाया, जो कांसे के दीये साफ़ कर रही थी, उसकी आँखों ने हमारी ओर देखा, अब हम डर गए,


" निन कल इरुवरम इंके पोकिरिरल? ( तुम दोनों कहा जा रही हो?) " पट्टी ने आंखों को तरेरते हुए हमे टोका,


मै एकदम से ठिठक कर रुक गई, मीनाम्मा ने पाट्टी को देख कर कहा , " यह पाट्टी ना सच में दरोगा से भी ज्यादा कठीन सवाल कर देती है!" उसने ऐसा कह कर मुझे पीछे से चिमटी काटी,

" आह!" मेरे मुंह से चीख निकल पड़ी, पाट्टी ने डर कर मुझसे पूछा, " एन्ना नतांतातू एल्लाम करिया? ( क्या हुआ, सब ठीक तो है ना?" और फिर पाट्टी ने घुरकर मिनम्मा को देखा,

" क्या रे ! मीनू, देवयानी तुझे पोंगल की तैयारियां नहीं करवाती जो तू शुब्बू को भी अपने साथ समय बर्बाद करने को लेकर जा रही है, इतनी सुबह सुबह?" मिन्नमा और मेरी पाट्टी ऐसे थे जैसे दो दिशाएं एक उत्तर तो दूसरा दक्षिण, कभी पटता ही नहीं था दोनों में,


, हम दोनों के पसीने छूट रहे थे, बहाना तो कुछ बनाना ही था, तभी मैंने पट्टन को देखा, वो अभी तमिल अख़बार पढ़ रहे थे,


" पट्टन ! वो आपको थिरुवर के बागान के काफी पसंद है ना?" मैंने दिमाग लगा कर कहा! क्या पता पट्टन हमारा साथ देदे, उम्मीद तो बेहद कम थी लेकिन पट्टन को आजकल काफी का कुछ ज्यादा ही चस्का चढ़ा हुआ था, और किस्मत से वो मना नहीं करेंगे, मुझे ऐसा लगता है


" हा कन्ना ! मुझे वो कॉफी बीन्स बहुत पसंद है, तुम कुछ ला सकती हो क्या, मीनू तुम शुभ्भूू को अपने काका के बागान लेकर जाना वहां , तुम लोग मेरे लिए कुछ काफी बीन्स लेकर आ जाना!" उन्होंने अख़बार का एक पन्ना पलटते हुए कहा,


" पर आरवीन ! एक हफ्ते में पोंगल आने को है, उसकी तैयारी कैसे पूरी होगी, ?" पा ट्टी ने चावल को डिब्बे में भरते हुए कहा,


" फिक्र मत करो, पोंगल एक हफ्ते बाद है, तुम सोचती और घबराती बहुत हो , निर्मला! अमितियिय इरी (शांत रहो)" बस फिर क्या , पट्टी ने मुंह सिकोड़ लिया, और फिर रसोईघर में चली गई,

पट्टन ने हम लोगों को इशारा किया की जाओ, और मैंने पट्टन को धन्यवाद देते हुए घर से निकल गई, निकलते ही मै और मीनू थिरूवर के बागान के तरफ भागे, भागते भागते हम हाफ रहे थे, और फिर हम एक पेड़ के छाव पर रुक गए,


" मीनू यही रुकते है थोड़ी देर, मै बहुत थक गई हूं! " मै हाफ्ते हुए स्वर में बोल पड़ी, उसने सर हा में हिलाया और दोनों इक्कट्ठे वहीं पेड़ के नीचे बैठ गए,


" तो अब बागान जाने का मतलब नहीं है, " मैंने धीरे से उसके कानो में कहा, उसने अपने पसीने से लतपथ अपने चेहरे को अपनी चुनरी से पोंछा,


" कैसे नहीं है, क्या आर्वीन पट्टन के लिए तुम्हे वो कॉफी बीन्स नहीं लाने?" मीनू ने कहा और अपने पैरों पर पड़े चांदी के पायल झनकारने लगी, उसकी पायल नई लग रही थी,


" वाह! मीनू तुमने यह नई पायल कब ली?" मैंने उसके पायलों पर नजर डालते हुए पूछा, मेरे पैरो में पुराने पतले पायल पड़े थे,


" वो रमेश चित्रप्पन (काका) हैदराबाद से लेकर आए है, असली हैदराबादी है! खरा चांदी!" उसने इठलाते हुए मुझसे कहा और मैंने हा में सर हिला दिया, कुछ देर तक हम दोनों ने ही कुछ नहीं बोला, फिर एका एक मीनू ने अपनी चुप्पी तोड़ी,


" तुझे क्या लगता है कि यह देसी लड़के विदेशी लड़कीयों पर इतने जल्दी लट्टू क्यों हो जाते है , जबकि अगर गोरे साहब लोगो के बारे में बात करे तो वो लोग भारतीय लड़कियों को अट्ठन्नी भर की औकात का नहीं समझते !" मीनू ने अपने पैरो को हिलाते हुए बड़ी गहरी चिंता में डूबते हुए कहा,


" मुझे गोरे लोगो के बारे में ज्यादा कुछ बातें पता नहीं है, और मुझे उनके खयालात और हमारे भारतीय आदमियों के सोच के बारे में फर्क नहीं पता, मुझे सिर्फ माधवन के बारे में खयाल आता है, वो लंदन से कब लौटेगा, यह सोचने में तो मेरा सारा दिन चला जाता है!" मैंने अतीत के झरोखों में गुम होते हुए कहा,


" शुभ्भुु ! तू बस माधवन के गुण गाते जा, मुझे तो तुझे देख कर वो एक बंगाली लेखक है ना क्या नाम है उसका, वो जो बड़े बड़े उपन्यास लिखता है, उसी के एक उपन्यास की एक प्यार में खोई किरदार लगती है !" मीनू ने हसते हुए कहा, और मैंने उस लेखक के बारे में खयाल करना शुरू किया, रबीन्द्रनाथ लेकिन रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कभी ऐसा गमगीन उपन्यास नहीं लिखा, तो यह मीनू किस लेखक के बारे में बात कर रही है,



" कहीं तू शरातचंद्र के बारे में तो नहीं बोल रही, वैसे मै हिंदी उपन्यास पढ़ती नहीं, लेकिन उनका एक उपन्यास देवदास वैसा कुछ है , जिसमें नायिका का नाम पारो था!" मैंने कुछ देर सोचते हुए कहा, साहित्य में मेरे पट्टन को बेहद रुचि थी, और मै उनके ही प्रोत्साहन और बढ़ावे से मिशनरी स्कूल जाने को मान गई, अब बस मैट्रिक्स के बाद मुझे कॉलेज के लिए पट्टन ने सोचा है, जबकि अधितकर औरतें इतना पढ़ती नहीं है

पर हमारा समाज प्रगतिशील होते तो जा रहा है, ऐसा कह सकते है, मिला जुला है , लेकिन उत्तर भारत के जैसे यहां दबाव और वो घर के चार दिवारी वाली बातें नहीं होती, पढ़ना है तो पढ़ सकते है, घर में बैठ सकते है, या फिर शादी कर सकते है, कालेज की बात अभी दूर थी लेकिन थोड़ा बहुत तो पढ़ना मै भी चाहती थी, कुछ अंग्रेज़ी तौर तरीके अब हमारे समाज में भीतर घुस चुके थे, मेरे पट्टन कस्बे में नामदार व्यक्ति थे, कई गोरे हमारे यहां भी बैठने आ जाते थे, और पट्टन ने भी वाणिज्य की शिक्षा मद्रास से ली थी, वो पढ़े लिखे थे, पर

पाट्टी पढ़ नहीं पाई थी, हा पर कला और संस्कृति में वो पूरे कस्बे में जानी पहचानी जाती थी


" हा तू सही कहती है, वहीं देवदास , लेकिन शायद वो बंगला उपन्यास है, जो भी है लेकिन मुझे लगता है कि माधवन की वहां पर कोई गोरी मेम प्रेमिका बन ही चुकी होगी, बचपन में वो जरा मोटा था, पर अब का कुछ पता नहीं , उसे तो पता भी नहीं कि तू उसके प्रेम में कितनी पागल है, हर दिन डायरी में उसके नाम से इतना कुछ लिखती है, और सोच अपनी बचपन की सबसे प्यारी और करीबी इकलौती दोस्त को तक वो डायरी पढ़ने नहीं देती है, तू उससे सच में इतना प्यार करती है, मुझे तो तू सावित्री लगती है , और वो बोंधू सत्यवान, यमराज के पास से उसको छुड़वा लें आना!"

और उसने मुझे एक मुस्कान दी, मै भी हस पड़ी , कभी कभी मुझे उसकी बातें अजीब और अलग लगती है, मै अपने भाग्य को स्वीकार सकती हूं पर मीनू लड़ाकू है, वो देवयानी अथ्थाई से भी लड़ लेती है, कहती है कि शादी करेगी तो सिर्फ श्रीनिवासन से , नायर ब्राह्मण है हमारे बिरादरी का , लेकिन श्रीनिवासन को शायद अब तक कुछ भी अता पता नहीं है,


" अगर श्रीनिवासन नहीं माना तो?" एकाएक मैंने उससे पूछा और उस वक़्त उसका चेहरा बड़ा फूल गया था, क्या पता कि मीनू श्रीनिवासन को मना पाएगी भी कि नहीं , पर इतना पता है कि यह त्रिकोण वाला प्रेम बड़ा दिलचस्प था, वो जेनिफर को चाहता था, मीनू उसे और जेनिफर का पता नहीं, इं सब के बीच मै तुम्हारे आने का अब भी इंतज़ार कर रही हूं, देखो पोंगल आने में सिर्फ अब एक हफ्ता रह गया है, क्या तुम उससे पहले आ पाओगे ?