रत्नावली 5 ramgopal bhavuk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रत्नावली 5

पाँच

सोच के जागरण से मनुष्य में सहनशक्ति बढ़ जाती है। हर दर्द का प्रारम्भ असहनीय होता है। धीरे-धीरे वह दर्द सहनीय बनता जाता है। दर्द से सहनशक्ति तो बढ़़ती ही है इसके साथ आदमी में अनन्त आत्मविश्वास भी बढ़़़ता जाता है। जीवन के प्रति आस्थायें गहरी हो जाती हैं। यों सोचकर पण्डित दीनबन्धु पाठक कुछ दिनों से निश्चिंत रहने लगे थे। शनैःशनैः चिन्तन ने असहनीय पीड़ा को सहनीय बना दिया था।

रत्ना इन परिस्थतियों में मुस्कराना सीख रही थी। वह जान गयी थी, अब उसकी मुस्कराहट ही समाज के सामने शान से जीने का काम करेगी। यों अपनी बेवसी को छुपाया जा सकता है।........... और जीने का आनन्द लिया जा सकता है। इस स्थिति से पाठक जी परिचित हो गये थे। इसलिए धीरे-धीरे रत्ना के प्रति निश्चिन्त होते जा रहे थे। रत्ना का पुत्र तारापति धीरे-धीरे समझदार होता जा रहा था। रत्ना सारे दिन उसी के क्रियाकलापों को देखकर पति के चले जाने के दुःख को भूलने का प्रयास कर रही थी।

पाठक जी की भौजी केशरबाई, पुत्र गंगेश्वर के व्यवहार से क्षुब्ध रहती थीं क्योंकि वह बहन की उतनी चिन्ता नहीं करता जितनी उसे करना चाहिए। घर के सभी लोगों ने लम्बे समय से खुलकर बातें न की थी। पौर में पाठक जी बैठे हुये थे। केशरबाई अन्दर से निकलकर पौर में आ गयी। गंगेश्वर भी वहाँ आ गया। रत्ना तारापति को लेकर वहॉं आ गयी। शान्ती पौर के दरवाजे के सहारे बातों का आनन्द लेने हर बार की तरह खड़ी हो गयी। केशरबाई बोली ‘मुझे तो लालाजी उस दिन की याद नहीं भूलती, जब तुलसी पालकी में बैठकर यहॉंँ आया था।‘

पाठक जी बोले-‘वह तो रामा भैया और गणपति के पिता श्री द्वारिकाप्रसाद उपाध्याय की मुझसे मित्रता थी। शुरु-शुरु में तुलसी जब काशी से चित्रकूट पहुँचे तो रामाभैया और द्वारिकाप्रसाद उपाध्याय उन दिनों चित्रकूट में ही थे। ये तुलसी की प्रतिभा से इतने प्रभावित हुये कि इन्हें यहाँ ले आये । इन्हें यहाँ अपने उस राजापुर गाँव की याद ताजा हो उठी। वहाँ सरयू का किनारा और यहाँ यमुना का , इनका यहाँ मन रम गया। इनके यहाँ यमुना किनारे रहने की व्यवस्था करदी गयी। बाद में इन्होंने हनुमान मन्दिर की स्थापना करादी। चित्रकूट के निकट होने के कारण यह स्थल उनकी कर्मभूमि बन गया। तुलसी ,रामाभैया और गणपति के पिता श्री की बात को टाल नहीं पाते थे, इसीलिए भी यह सम्बन्ध जुड़ गया।‘

गंगेश्वर ने अपना क्रोध उॅंडेला-‘बडे़ विद्वान बने फिरते थे। दो कौड़ी की अकल तो है नहीं। अरे! बाबा बैरागी ही बनना था तो शादी रचाने क्यों बैठ गये।‘

रत्ना ने कोई जवाब देना उचित नहीं समझा, वह निर्विकल्प भाव से सब कुछ चुपचाप सुनती रही। काकी केशरबाई ने बात आगे बढ़ाई-‘जो भाग्य में था सो हो गया। ऐसा पण्डित न देखा न सुना। बारात भी कैसी सजी थी ? ऐसी बारात इस महेबा गाँवमें न कभी आयी है न आयेगी।‘

गंगेश्वर उस दिन की याद में खो गया, जिस दिन वह रत्ना को लिवा कर लाया था। इधर काका उसकी पत्नी शान्ती को मैके से लिवाकर लाने वाले थे। उस दिन मुझे भी घर लौटने की जल्दी पड़ी थी। वहॉं जीजाजी न मिले तो माँॅं की बीमारी का बहाना बना दिया। बेचारी रत्नावली अपनी काकी को अगाध प्यार करती है। पति घर न थे तो तत्काल यहॉँ चली आयी। मुझे क्या पता था कि मेरा यह बहाना इतना बडा अनर्थ खड़ा कर देगा।

गंगेश्वर की माँने उसे सोचते हुये देखकर पूछा-‘गंगे क्या सोच रहा है?‘

उसने प्रश्न सुनकर उत्तर दिया-‘कुछ नहीं। यों ही सोच रहा था कि रत्ना ने ऐसी कौन सी गाली दे दी जिससे महाराज ज्ञानी बन गये। मुझे तो लगता है माँवे ज्ञानी मानी कुछ नहीं बने, ढोंगी बाबा बनेंगे। लोगों को अंधेरे का डर दिखाकर ठगेंगे।‘

पाठक जी को भतीजे की इस बात पर क्रोध आ गया। बोले ‘बेटा, ऐसा नहीं है वह।‘

गंगेश्वर काका की बात समझ गया कि वह बुरा मान गये हैं। यही सोचकर बोला-‘वह कोई संसारी आदमी नहीं है। अरे! समाज की भी कोई मर्यादा होती है। आदमी को उनका निर्वाह तो करना ही चाहिए कि नहीं।‘

केशरबाई ने अपना निर्णय सुनाया-‘आप लोग कुछ भी कहें सुनें, उसे तो जाना था ,सो चला गया। कहीं आनन्द की छन रही होगी। इधर चिन्ता में मर रहे हैं तो हम लोग।‘

गंगेश्वर ने फिर उपना क्रोध उॅंडेला-‘लगता है ये महाशय भी महावीर या बुद्ध की तरह कोई धर्म चलायेंगे।‘

पाठक जी ने अपने भतीजे को डाँट पिलाई-‘आजकल तुम बहुत बाचाल होते जा रहे हो। स्वतंत्रता का यह अर्थ तो नहीं है कि सिर पर सवार हो जाओ। तुम क्या समझते हो उसे ? उसने ऐसा किया है तो वह कुछ न कुछ करके अवश्य दिखायेगा। देख लेना।‘

केशरबाई समझ गयी, देवर जी नाराज हो गये हैं। उन्हें शान्त करने के लिए बोली-‘इन लोगों को बोलने का तो बिल्कुल ही सऊर नहीं है। वैसे गंगेश्वर का क्रोध भी बाजिव है। उसे भी बहन की चिन्ता सताती है।‘

पाठक जी भौजाई के मुँह नहीं लगते थे। उनकी बात सुनकर वे ठण्डे पड़ गये। और उठकर गाँव की चौपाल पर बैठने के लिए चले गये। गंगेश्वर की माँ काम में लग गयी। शान्ती रसोई घर में प्रवेश कर गयी। गंगेश्वर और रत्ना ही वहाँ रह गये। गंगेश्वर ने पुनः बात उठा दी, बोला-‘रत्ना, काका को तुम्हारे कबीर वाली बातें अच्छी नहीं लगती थीं। वे सोचते- तुम्हारा तुलसी से विवाह होने से तुम सुधर जाओगी। तुलसी जैसा विद्वान ही तुम्हारे विचारों को बदल पायेगा।‘

रत्नावली यह बात भाई के मुँह से सुनकर बोली-‘भैया इस तरह किसी पर कोई भी विचार थोपा नहीं जा सकता। मैं जानती हूँ, उनसे वैचारिक टकराहट तो हो ही जाती थी, लेकिन मैंने अपनी बात भी उन पर कभी थोपना नहीं चाही। वे ही अपनी बातें मुझसे स्वीकार कराना चाहते थे। लेकिन मुझे जो अनुचित लगा, उसे मैंने कभी नहीं स्वीकारा।

गंगेश्वर ने बहन को डॉंटा-‘तो अब चैन से हो। अब बनाये रखो अपने सिद्धांत अपने पास। उन्हें तो अपने ही विचार रूचिकर लगते थे और लगते रहेंगे।‘

उत्तर में रत्ना क्रोध व्यक्त करते हुये बोली-‘तो भैया नारी को पुरुष की विचारधारा में ढल जाना चाहिए और नारी की सच्चाई भी पुरुषों द्वारा नकारी जाना चाहिए। यही आपके समाज का न्याय है।‘

गंगेश्वर रत्ना की बात को गुनने लगा। उसे मॉँ की आवाज सुन पड़ी-‘गंगे इन बातों को छोड़कर भोजन के लिए काका को बुला ला। अब निकले हैं तो जाने कब तक लौटं, वे जब तक भोजन नहीं करेंगे तब तक बहू घर में भूखी बैठी रहेगी। मैं भी भूखी मरती रहूँगी। यह उनकी जन्म-जिन्दगी की आदत बुढापे तक नहीं गयी। इनकी पत्नी भी दिन-दिन भर भूखें मरा करती थी।‘

गंगेश्वर उन्हें बुलाने के लिए निकल गया।

घर भर इन बात को मन ही मन गुनने में लगा था। गंगेश्वर के मन में अपनी पत्नी भावना के प्रति पश्चाताप चल रहा था। यदि काका मेरी पत्नी शान्ती को उसी दिन लिवाकर कर न आ रहे होते तो वह रत्ना को तुलसी की अनुपस्थिति में लेकर न आता।... शांति को भी लग रहा था- इसमें मेरा यही अपराध है कि काका मुझे यहाँ लेकर आने वाले थे। काश! यह संयोग न बनता।

केशरबाई का मन उसी दिन से उसे जाने किस-किस खोह में ढॅँूढ़ आता था। ‘रमता जोगी बहता पानी‘ वाली कहावत याद करके सोच लेती- उसे कहॉं खोजा जा सकता है। वे मिलकर एकबार तुलसी को समझाना चाहती थीं। फिर सोचतीं- समझाने से भी क्या फायदा ? वह लौटकर आने वाला तो हैं नहीं। मन की भरमना है सो चाहे जो सोचते रहो।

पण्डित दीनबन्धु पाठक गहराई से बातों पर विचार कर रहे थे- युवावस्था का जोश जरा देर से ठण्डा होता है। कभी यह जोश समाज की मर्यादाऔं को तोड़ता है और कभी उनका पुनर्गठन भी करने लगता है। मर्यादाओं का पौधा वासना के तीव्र प्रवाह को रोकने का प्रयास भर कर सकता है। लेकिन झरने के तीव्र प्रवाह की तरह बड़ी-बड़ी पर्वत श्रेणियों के हृदय को चीरकर बह भी निकलता है।

रत्नावली दर्शन की भाषा में सोच रही थी- यह क्या घटना घट गयी ? वासना और मर्यादा में युद्ध छिड़ गया। वासना ने मर्यादा को तोड़ना चाहा। मर्यादा ने अपनी सागर सी आन बनाये रखने के लिए, नीति और न्याय की बात कह कर उसमें रोड़े खडे़ किये। तब वासना ने वैराग्य का रूप धारण कर लिया। मुक्ति खोजने निकल पड़ा। अब बेचारी मर्यादा असहाय होकर सृष्टि के लिए तड़प रही है।

दीनबन्धु पाठक का चिन्तन थम नहीं रहा था- वह हैं कि जाने क्या-क्या सोचते रहते हैं। इस सारे कथानक में जो कुछ दोष है, उन्हीं का अपना है। रत्ना शुरू से ही विचित्र लड़की रही है। कबीर ने उसके मन को अधिक प्रभावित किया है। मैंने सोचा था-‘तुलसी जैसे विद्वान से विवाह कर देने से रत्ना के चिन्तन की धारा सनातन चिन्तन में बदल जायेगी। मुझे क्या पता था कि वैचारिक मेल- मिलाप ही न हो पायेगा। द्वन्द्व युद्ध छिड़ जायेगा। रत्ना अपने विचारों की इतनी पक्की होगी इसका मुझे थोड़ा भी एहसास होता तो वे उसका विवाह तुलसी से कभी न करते।............. पर होना यही था, ऐसी लड़की मैंने आज तक किसी की नहीं देखी। जाने कैसे ऊल-जलूल सोचती रहती है। इस कबीर ने सारे समाज को बिगाड. दिया। ससुरा जाने कैसा था कि हिन्दू मुसलमान दोनों ही उसे गालियाँ देते थे, किन्तु इन दोनों ही जातियों के लोग उसे मानते भी थे।‘

इसी उधेडबुन में पाठक दीनबन्धु गंगेश्वर के साथ घर आ गये।

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