असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 23 Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 23

23

शुक्ला जी के पुत्र के असामयिक निधन के बाद श्री मती ष्शुक्ला ने सब छोड़ छाड़ दिया था । वे एक लम्बी यात्रा पर निकलना चाहती थी, उन्होने एक टेवल एजेन्ट के माध्यम से अपनी यात्रा का प्रारूप हिमालय की तरफ का बनाया । सौभाग्य से टेवल एजेन्ट ने एक अच्छी मिनी बस से यह यात्रा एक महिला समूह के साथ तय कर दी । बस में कुल दस महिलाएॅं थी । बाकी स्टाफ आदि थे । इस यात्रा में श्री मती ष्शुक्ला ने अपनी इच्छाओं पर पुनर्विचार किया । उसे एक पूर्व में पढ़ी पुस्तक भी याद आई, जिसमे अरबपति नायक सब कुछ कुछ बेच - बाच कर हिमालय चला गया था । वापसी पर वह दुनिया को ष्शान्ति का सन्देश देने विश्व भ्रमण पर निकल गया । मगर उसकी ष्शान्ति की आवाज आंतकवाद के धमाको में डूब गई और एक दिन वो वापस अपने धर लौट आया कुछ दिनों बाद उस सन्त का अवसान हो गया । श्री मती ष्शुक्ला ने कुछ अधूरी इच्छाएॅं तो पूरी करली थी और कुछ बाकी थी ।

जीवन के बारे में वो जितना सोचती, उतना ही उसे अधूरापन लगता । जीवन को सांचे या बन्धी बन्धायी लीक पर चलाना उसे मुश्किल लग रहा था ।

यात्रा प्रारम्भ हुई । एक प्राथमिक परिचय हुआ । सभी प्रोढ़ वय की महिलाएं थी केवल दो कालेज स्तर की कन्याएॅं थी । श्री मती ष्शुक्ला को समूह - लीडर बना दिया गया । उसे अपने लायक काम भी मिल गया था । श्री मती ष्शुक्ला ने सर्व प्रथम अपने समूह को अपनी आप बीति सुनाई्र । सभी उसके दुख से दुखी हुए । मगर श्री मती ष्शुक्ला बोल पड़ी

‘ जीवन तो चलने का नाम है । जीवन नहीं है । पानी है । वेग है । प्रकृति है । ’

हमें मिल जुल कर अच्छी - बुरी सभी बातों को सहन करना पड़ता है । आईये अगले पड़ाव पर चलते है।

यात्रा फिर ष्शुरू हुई ।

तुम्हारी क्या कथा हैं ?बच्चियों ं श्री मती ष्शुक्ला ने दोनो बच्चियों से यात्रा की वापस ष्शुरूआत पर पूछ ही लिया । वैसे उसे लग रहा था कि बच्चियां नहीं किशोरियां है, युवतियां है ओर चेहरे और आंखेा में जमाने का दर्द भरा हुआ है ।

कुछ देर बस में चुप्पी छाई रहीं । केवल इंजन की आवाज बोलती रही । लड़कियांे के जेहन में समन्दर तैर रहे थे । लहरे उठ रही थी । वो चुप थी मगर बोल रही थी । इस अजीब खामोशी के बर्फ को तोडा़ उम्र में कुछ बड़ी लड़की ने -आन्टी हम दोनो विदेयाो में पली बढ़ी है । वहॉं की सभ्यता - संस्कृति में जो कुछ होता है हमने भी वही सब देखा और भोगा है । हमारे मॉं बाप ने हमें अपने देश की जमीन,जड़े, देखने भेजा है । हम खुश है । कि कभी हमारे पूर्वज भी इस देश के बाशिंदे थे । आंटी हमारे दादाजी फलोरिडा चले गये । वहीं बस गये । पिताजी का जन्म भी वहीं हुआ, फिर हम आये । हमारी मॉं का देहान्त हो गया । पिताजी ने दूसरी ष्शादी कर ली । उससे उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ । बस हम दो बहने । धीरे धीरे पिताजी बूढ़े होते गये । नई मां चली गई नया धर बसाने । पिताजी हिन्दुस्तान लौटना चाहते थे मगर आना मुश्किल था ।

‘ और तुम्हारे ष्शादी विवाह । एक सह यात्रीणी ने पूछा ’

‘ आन्टी ! वहॉ पर ये सब बेकार की बाते है । सह - जीवन । रोज बदलते बाय फ्रेण्ड व गर्ल फ्रेण्ड । खाना,पीना, एश......। मौज मस्ती ।

‘ हॉं भाई तुम्हारे तो मजे ही मजे । एक हम है कि एक ही के सहारे जीवन ही नहीं सात जनम काटने का वादा करते है । ’

‘ हिन्दुस्तान के बाद कहॉं जाओगी । ’

‘ आन्टी यह देश बहुत प्यारा है यहॉं के लोग भी अच्छे है । इच्छा तो ये हो रही है कि यही ष्शादी करके घर बसा लूॅ । यहीं रह जाउंू । छोटी लड़की ने चहकते हुए कहा ।

ल्ेकिन क्या यह इतना आसान है । बड़ी लड़की ने कहा । पापा वहां अकेले है ।

वे तो ठीक है ........मगर ओर हम कर भी क्या सकते है ।

‘ वैसे तुम कितनी पढ़ी लिखी हो । ’

ळम ने एम. बी. ए. किया है । नौकरी भी की थी । मगर पापा का काम संभाल ने के लिए सब छोड़ छाड़ दिया फिर घूमने फिरने निकल गई ।

बस हरिद्वार से आगे बढ़ रही थी । ऋिसिकेश के किनारे लग गई थी । श्री मती ष्शुक्ला ने आपरेटर को कह कर बस रूकवाई । सभी ने गंगा स्नान किया । ष्शाम को हरिद्वार में आरती के दर्शन किये । तभी रात में श्री मती ष्शुक्ला ने अपने पास लेटी महीला से उसकी जीवन - यात्रा के बारे में पूछा ।

महिला चुपचाप रही । आंखों में पानी आंचल में दूध की कहानी फिर दोहराई गई । बच्चे उसे वृन्दावन में छोड़ गये थे । मन नही लगा । यात्रा पर निकल पड़ी । रात में श्री मती ष्शुक्ला ने एक उदास गीत छेड दिया । सभी उसी में समवेत स्वरों में गाने लगी ।

जीवन की यात्रा और यात्रा का जीवन कब क्या मोड़ ल ेले कोई नहीं जानता ।

दूसरे दिन सुबह नाश्ते के बाद यात्रा फिर ष्शुरू हुइ्र ।

एक अन्य महिला ने श्री मती ष्शुक्ला की मौन सहमति के साथ अपनी कहानी बयान की ।

दुख, अपमान, अवसाद, कप्ट,मार - पीट, गाली - गलोच और घृणा से भरपूर जीवन की यह कहानी एक पूर्व पत्रकार की थी । पिता की मरजी के खिलाफ ष्शादी, ष्शादी के बाद पति का अन्यत्र प्रेम .........। दुख ........अपमान ......। सब सहते सहते इस किनारे आ लगी ।

पाठको । यह सब असुन्दर । अशिव है लेकिन एक सच्चाई है जिसे हर कदम पर यथार्थ के धरातल पर देखा जाना चाहिये । अखबार में पढ़कर या समाचारों में देखकर भूल जाना अलग बात है और वास्तव में भोकना अलग बात है ।

व्यक्ति के जीवन में यात्रा चलती रहती है । किसी देश के जीवन में पच्चीस वर्प ज्यादा नहीं होते मगर व्यक्ति के जीवन में पच्चीस वर्प बहुत होते है ।

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अब वापस कस्बें में लौट कर आते है जहॉं पर टूटी सड़के, गन्दा पानी,बन्द बिजली, खराब स्वास्थ, नये मल्टीफेक्स, टटपूजिये नेता, भावी समाज हमारा इन्तजार कर रहा है ।

समाज में बदलाव, हवा - पानी में बदलाव, राजनीति में बदलाव,जातियों और समूहो में बदलाव, जैसे कि बदलाव ही जीवन है । बदलाव में भटकाव । व्यक्ति भाग रहा है । मगर क्या दिशा सही है ? या उसका लक्ष्य क्या है । उसके लिए श्रेप्ठ क्या है । वह भी उसे नहीं मालूम । वह दूसरों को श्रेप्ठ की सलाह देता है, मगर उसे खुद नही मालूम कि उसके लिए तथा दूसरो के लिए श्रेप्ठ क्या है ? वह स्वयं को श्रेप्ठ समझता है । दूसरो को हीन समझता है, मगर उसके अन्दर हीन - भावना है जिसे वह नहीं पहचान पाता । हीनता और श्रेप्ठता के बीच झूझता आज का आदमी सरपट दौड़ रहा है । पिछले वर्पो में देश में आंतक वाद ने बड़ी तेजी से पांव पसारे । राजीवजी की जान ले लि । इसके पहले श्री मती गान्धी की नृशसं हत्या हो गई थी और इसके पहले महात्मा गान्धी को मौत के घाट उतार दिया गया था ।

महत्वपूर्ण व्यक्ति भी असुरक्षित । अविश्वसनीयता का एक वातावरण । सब एक दूसरे से डरे डरे । खौफ खाये हुए । विश्वास की डोर टूट गई । अविश्वास, असुरक्षा, आंतक, अन्धा युग सब पर हावी - भारी हो गया ।

ऐसे समय में कस्बे की राजनीति में घृणा पसर गई । सम्प्रदायवाद हावी हो गया । जीवन के मूल्यों में तेजी से हृास हो रहा है । मानव मूल्य कहीं खो गये है । मानवता ढूंढे नहीं मिलती । राजनीति की रोटी सब को चाहिये । विकास के नाम पर काम काम के नाम पर विकास । दोनो के नाम पर वोट सब कुछ राजनीतिमय । घरों तक में हिंसा और राजनीति । महिला सशक्ती करण के नाम पर कुछ का कुछ .......। सब कुछ । .......कुछ भी नहीं । तन्दूर में जलती लड़की ....। हर कोख में मरती लड़की । मातृ - शिशु मृत्युदर में वृद्धि । कोई सुनवाई नहीं । ऐसी स्थिति में कोई किसी को क्या दोप दे । ष्शेयर बाजार में उछाल .....गिरावट । नौकरियों में कटौती । कम्पनियों तक की विश्वसनीयता समाप्त । कल तक जो नौकरी पर था उसे ष्शाम को पिंक स्लिप । या घर पर नोटिस । कहीं कोई स्थायित्व .....ठहराव नही । हर तरफ अनिश्चितता का माहौल ।

कोई चाहकर भी कुछ नही कर सकता । सरकार भी असमर्थ । कम्पनियां भी असफल । बाजार की सिट्टी पिट्टी कब गुम हो जाये कोई नहीं जानता । कब अच्छा भला खाता पीता परिवार किसी ष्शेयर किसी बाजार, किसी बैंक की भेटं चढ़ जाये, कब कोई भ्रूण हत्या हो जाये । कब कोई ड़ाक्टर, किसी की किडनी निकाल दे । कब कोई आतंकी बम फट जाये । कब कोई बुरा समाचार आ जाये ं कब कोई सरकार गिर जाये, कब कोइ्र अफसर उूपर वालों की गलती से मारा जाये । कब कोई चपरासा नौकरी से हाथ धो बैठे । कोई नहीं जानता । कस्बा हो या गांव या ष्शहर या महानगर सब की स्थिति अत्यन्त विचित्र । अत्यन्त दयनीय । अत्यन्त निराशाजनक ।

मगर नहीं अन्धों के इस युग में भी रोशनी की किरण कहीं न कहीं है । वो राजनीति हो या साहित्य या कला या संस्कृति । सब तरफ से अन्धकार में भी उजासा आता है ।

श्री मती ष्शुक्ला यात्रा करके आ गई थी । कस्बे के अपने मकान में उदास बैठी यात्रा की यादे ताजा कर रही थी ।

उसे बार बार पुराने अच्छे दिन याद आ रहे थे । ष्शुक्ला जी के वर्चस्व के दिन । अपने पुत्र के बचपन के दिन । खुद की नौकरी के दिन । सब चले गये । उसे अकेला छोड़ कर ।

मगर अपनी कुछ छोटी छोटी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ष्शुक्लाइन जीवित थी । उसने एक पियानो खरीद लिया था । सुबह ष्शाम उस पर रियाज करती थी । पास के स्कूल के बच्चों को इन्टरवेल में देखती थी। हॅंसते - खिलखिलाते बच्चें । दौड़ते बच्चें । मुस्कराते बच्चें । अपने नन्हें हाथें से टिफिन खोलकर खाते बच्चें । कपड़े गन्दे करते बच्चे । ऐक दूसरे से लड़ते बच्चें । लड़कर मिल जाते बच्चें । गाते - नाचते बच्चें । कभी कभी वह स्कूल के अन्दर रिसेस में चली जाती । किसी बच्चें को खाना खाने में मदद करती । उसे खुशी मिलती । उस खुशी के सहारे उसका दिन कट जाता ।

स्कूली बच्चों की जीवन चर्या उसे प्रेरणा देती । वह बच्चों की सहायता के लिए स्कूल जाती । स्वंय सेवीसंस्था के माध्यम से बच्चों के दोपहर का भेाजन बनवाती । बंटवाती । मगर कभी कभी खाने की गुणवत्ता से परेशान हो जाती । चावलों में इल्लियां, गेहूॅं सड़ा हुआ, सब्जी पुरानी बासी मगर ऐसा कभी कभार ही होता । सामान्यतया दोपहा का खाना बच्चेां में बंटवाने में उसे मजा आता । सुख मिलता । संतोप, मिलता । आनन्द मिलता । आनन्द संतोप में वह अपना दुख भूल जाती ।

ष्शुक्लाईन ने अपने मकान में एक स्कूल अध्यापक - दम्पत्ति को रख लिया । इससे उसके सूने धर में रौनक हो गई । मगर पड़ोस के लोगों को ये सब कैसे सुहाता । पड़ोसियों ने पड़ोस - धर्म का निर्वाह करते हुए दम्पत्ति को भडकाने का ष्शुभ काम आरम्भ कर दिया । श्री मती ष्शुक्ला के बरसों पुराने किस्से उन्हे सुनाये जाने लगे । बेचारे अध्यापक दम्पत्ति जल्दी ही किनारा कर गये ।

श्री मती ष्शुक्ला फिर अकेली रह गई ।

उसे फिर जीवन की नीरसता की याद आई । मगर जीवन को तो जीना ही है ।

 

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कस्बे का एक पार्क । पार्क की बेंच पर लिखा था -

सत्यमेव जयते ।

किसी ने काट कर लिख दिया ।

असत्यमेव जयते ।

बेशर्म मेव जयते ।।

दूसरे किनारे पर लिखा था ।

अहिंसा परमो धर्म: ।

किसी ने काट कर लिख दिया ।

हिंसा परमो धर्म: ।

एक तरफ गान्धीजी की मूर्ति खड़ी थी और सब कुछ देख समझ रही थी । मगर मूक थी ।

मूर्ति चारों दिशाओं से आने वाली आहटों को सुन् समझ रही थीं । मगर कुछ भी करने में असमर्थ थी । मूर्ति के पास ही कल्लू का युवा बेटा भावी नेता अपने आपको चिन्तन में दिखा रहा था । उसे गान्धी, नेहरू, अम्बेडकर, और आजादी के पूर्व के दीवानों की कथाएॅं याद आ रही थी । उसने देखा कि एक पक्षी गान्धी जी की मूर्ति पर बैठ कर चिल्ला रहा था, मगर पार्क में चारों तरफ ष्शोर था । किसी का भी ध्यान पक्षी की आवाज की ओर नहीं गया । पक्षी चारों तरफ देखकर प्रकृति के सौन्दर्य को जी रहा था । कुछ ही देर में पक्षी फड़ फड़ाकर उड़ गया । कल्लू - पुत्र मानव और उसके आस -पास के परिवेश पर सोच रहा था । गरीबी, बेकारी, मजबूरी, मजलूमी, कहीं कोई सरोकार नहीं था ।

तकदीर, तदबीर और तकरीर के सहारे ही प्रगति की सीढ़िया चढ़ी जा सकती है वेा, महत्वाकांक्षा का मारा था । राजनीति में नया था, मगर जोश और जुनून था । उसे टिकट मिलने की पूरी संभावना थी ।

वह सोच रहा था, मनुप्य क्या है ? क्यों होता है नीच । क्यों करता है समझौते । मानव की आत्मा को देखो। खोल को हटाओ । एक दम नीचे कहीं आत्मा होती है । मगर आत्मा की आवाज कौन सुनता है । उसने राजनीति के कीचड़ में कमल भी देखा । कीचड़ भी देखा । संड़ान्ध भी देखी । गिर गिट भी देखे । रंग बदलते, खोल बदलते गिरगिट देखे । मगरमच्छ देखे । हाथी देखे ष्शेर की खाल में सियार देखे ओर ष्शहर में रंगे सियार देखे ।

क्या हमारे नेताओ ने आदमी में उग आई झूठी, निर्भम, मक्कार, स्वार्थी और व्यक्ति वादी सोच की कल्पना की थी । कहॉं है देश की प्रगति और फिक्र करने वाली निस्वार्थ पीढ़ी के लोग । सब कहॉं चले गये । समुद्र की लहरों की तरह नये, उंचे महत्वाकांक्षी लोग सब तरफ हावी हो गये । वो स्वयं श्ी तो उन्हीं में से एक हैं। उसे पुराने, बुजुर्ग, वयोवृद्ध नेताजी को पटकनी देने का काम सौंपा जा रहा है और वो मानसिक, ष्शारिरिक और आर्थिक रूप से स्वयं को इसके लिए तैयार कर रहा है ।

सब एक दूसरे को जानते है, मगर अजनवी है । सब अपरिचित । सब एक दूसरे का गला काटने को तत्पर । सब अनैतिक मगर सब स्वच्छ लिबासी । विलासी । व्यवसायी ।

अजीब विरोधाभास । अजीब अकर्मण्यता । सत्य अप्रिय, कठोर मगर यथार्थ । यथार्थ को समझने की कोशिश सत्य को सत्य, सुन्दर को सुन्दर और शिव को शिव बनाने का कोई प्रयास नहीं । सब कुछ गलत हाथेंा में । सब कुछ रेत की तरह मुठ्ठी से फिसलता हुआ ।

सर्वत्र अशान्ति । हाहाकार । चुनाव । सरकार । गठ बन्धन । गिरती सरकार । बचती सरकार । कल्लू को याद आया कल ही प्रान्तीय सरकार केवल इसलिए गिर गई की मुख्यमंत्री एक बलात्कारी मंत्री - पुत्र को सजा दिलाना चाहते थे । मंत्री ने पुत्र को बचाने के लिए सरकार ही हेाम कर दी । एक अन्य प्रदेश में सरकार एक जाति विरोध के धर्म स्थलों को बचाने के लिए होम कर दी गई । एक प्रान्तीय सरकार तो गठ बन्धन धर्म को भूल गई और स्वाहा हो गई । कल्लू -पुत्र सोच रहा था ये कब तक । कैसे । लेकिन उसे एक और चीज याद आई, इस देश की जनता राजा को नहीं सन्त, साधु, महात्मा को याद करती है । पूजा करती है । महात्मा गान्धी, जयप्रकाश नारायण का सम्मान राजाओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों, राप्टपतियों से ज्यादा है क्यों ?क्या जबाब दिया जा सकता है इस क्यों का ।

कल्लू पुत्र महात्मा जी की मूर्ति से उठा । सूरज चढ़ रहा था । चारों तरफ उजासा था । सड़को पर कोलाहल था । ष्शहर जाग चुका था । भाग रहा था । दौड़ रहा था । कल्लू ने मन ही मन महात्मा जी से देश सेवा का आशीर्वाद लिया । क्या पता महात्मा जी ने क्या कहा, मगर कल्लू खुशी - खुशी एक ओर चल दिया ।

कल्लू पुत्र के मन में खुशी के लड्डू फूट रहे थे । टिकट मिलने की देर है । जीवन की समस्त लालसाएॅं पूरी हो जायेगी । परिसीमन का असली मजा आने वाला था । उसकी व्यस्तता बढने वाली थी । उसने पार्टी के घोपणापत्र पर ध्यान केद्रित किया । इसी के सहारे आगे चला जा सकता है । प्रजातन्त्र में यहीं तो सुख है राजा रंक और रंक राजा । मजदूर - किसान गरीब बेटा श्ी सत्ता के ष्शीर्प तक पहुॅंचने का प्रयास कर सकता है । सफल हो सकता है । मन में कहीं तृप्ति नहीं । कहीं संतोप नहीं । कहीं सुख नहीं बस श्ूख ही श्ूख रोटी की श्ूख । सत्ता की श्ूख । ष्शक्ति की श्ूख । सम्मान की श्ूख । कुरसी की श्ूख । राजनीति की श्ूख । विरोधी को धूल चटाने की श्ूख । प्यार की श्ूख । तन की श्ूख । मन की श्ूख । धन की श्ूख । बस श्ूख ओर श्ूखा व्यक्ति क्या पाप नहीं करता । संापिंन तो अपने बच्चों तक को खा जाती है । कुतिया श्ी अपने बच्चों को खा जाती है । और मानव समाज की तो चर्चा करना ही व्यर्थ है ।

इन वर्पों में देश -दुनिया ने बड़ा शरी सफर तय कर लिया है । समय बदल गया है । पंचशील, समाजवाद से चलकर खुली अर्थ व्यवस्था, तक आ गया है देश । पूरा विश्व एक गांव बन गया है और अपना गांव और गांववाले खेा गये है । कल्लू पुत्र रोज देखता था बड़े घरों के एक कोने में अपने लेपटाप पर कैनेडा, अमेरिका से अपने बच्चों से चेटिंग करते, विडियो क्राफेंसिंग करते लोग और अपने पड़ोस से अनजान लोग । एक ही बिल्ड़िगं में रहने वाले एक दूसरे को नहीं पहचानते । नहीं पहचानना चाहते । समय सर्प की तरह चलता है । निःशब्द । आकाश । हवा । पानी । मौसम सब बदलते रहते है । मानव श्ी बदलता रहता है । कल्लू पुत्र सड़क किनारे के काफी हाउस में आ गया । कभी यह गुलजार रहता था । बुद्धिजीवी, लेखक, कवि, आकाशवाणी, दूरदर्शन के कलाकार, शवी राजनेता सब आते थे, मगर धीरे धीरे ष्शहर के विस्तार के साथ साथ यहॉं की रौनक भी कम हो गई थी । कल्लू पुत्र ने एक डोसा व काफी ली । अखबार चाटें ओर धर की ओर चल पड़ा ।

 

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