असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 12 Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 12

12

दिल्ली का बहादुरशाह जफर मार्ग। भव्य अट्टालिकाएंे। इन भवनांे मंे प्रिंट मीडिया के दफ्तर। इन दफ्तरांें मंे बड़े-बड़े सम्पादक। पत्रकार। लेखक। दिल्ली के बुद्धिजीवी। देशभर के बुद्धिजीवी यहां पर चक्कर लगाते रहते है। थोड़ी दूर पर ही दरियागंज, पुरानी दिल्ली। जामामस्जिद। लाल किला। कश्मीरी गेट। दिल्ली के क्या कहने। हर व्यक्ति दिल्ली मंे बसना चाहता है। हर फूल दिल्लीमुखी। दिल्ली को ही ओढ़ना, बिछाना चाहता है। कनाट प्लेस दिल्ली का दिल। चाणक्यपुरी दिल्ली का राजनयिक परिसर। राष्ट्रपति भवन। प्रधानमंत्री कार्यालय। नार्थ ब्लाक। साउथ ब्लाक। केन्द्रीय सचिवालय। पार्टियांे के दफ्तर। पूरे देश की नब्ज पहचानती है दिल्ली। चपरासी की दिल्ली, दिल्ली के चपरासी तक। मंत्री की दिल्ली, दिल्ली के मंत्री तक। साहित्यकार की दिल्ली साहित्य अकादमी। कलाकार की दिल्ली, ललित कला अकादमी। संगीतकार की दिल्ली, संगीत नाटक अकादमी। सब व्यस्त। सब अस्त। सब अस्त-व्यस्त। भागम-भाग। एक के पीछे एक। अब मेट्रो रेल मंे भागती दिल्ली। मशहूर और मारूफ दिल्ली। कई बार बसी। कई बार उजड़ी दिल्ली। खाण्डवप्रथ से इन्द्रप्रस्थ। अंग्रेजांे की दिल्ली। बाहदुशाह जफर की दिल्ली। मेरी आपकी सबकी दिल्ली। दिल्ली दिल है भारत का। कुछ के लिए काला है यह दिल मगर दिल्ली का दिल दरिया है...।

इसी दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर एक नये खुले खबरिया चैनल के दफ्तर मंे तेजी से अविनाश जा रहा है। उसे इस सीमंेट कंकरीट के जंगल मंे आदमी का वजूद कहीं नजर नहीं आ रहा था। चारांे तरफ लोग कबूतरों की तरह भरे पड़े थे और फ्लैटांे मंे ठंुसे पड़े थे। वो इस भीड़ मंे था। भीड़ का एक हिस्सा। मगर भीड़ से अलग दिखने के प्रयास मंे भी लगा हुआ था।

अविनाश अपनी सहयोगी ऋतु से मुखातिब था।

‘आज की ताजा खबर।’

‘यही की सब ठीक-ठाक है। तुम्हारा न्यूज कैपसूल जारी है।’

‘और वो मंत्री के भ्रष्टाचार वाला मामला।’

‘आजकल भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है।’

‘लेकिन ये तो बहुत बड़ा मामला है।’

‘अविनाश भाई हर मामला बड़ा है और वैसे भी इस मंत्री कोे भ्रष्ट कहना उसका अपमान है। वे तो भ्रष्टांे मंे श्रेष्ठ है। बल्कि श्रेष्ठतम है।’ ऋतु ने अपना गुबार निकाला।

अविनाश चुप रहा। बोलने को था ही क्या।

‘सुना है सेठजी आजकल कोई नया चैनल लांच करने वाले हैं।’

‘हो सकता है, हमंे तो अपना काम करना है।’

‘हां अपना-अपना काम खत्म करो और घर जाओ वैसे भी इस नई तकनोलोजी मंे मानव का वजूद ही कहां है। हम सब मशीनंे हैं। मशीन की तरह अपना काम करो और यदि एक पुर्जा बेकार है तो उसे बदल दो।’

‘सेठजी के नये चैनल मंे क्या-क्या होगा।’

‘शायद पूर्ण रूप से मनोरंजन। विदेशी फिल्मंे। इसे एडल्ट चैनल कहो तो बेहतर होगा।’

‘एडल्ट चैनल।’

ये तो बिल्कुल नया नाम है।

‘नया है लेकिन जब छोटे-छोटे कस्बांे मंे ऐसे कार्यक्रम चल रहे है तो एक बड़े चैनल को चलाने मंे क्या परेशानी है।’

‘परेशानी तो जनता या सरकार को होगी।’

‘सरकार तो हमारे सेठजी की जेब मंे रहती है। साल भर बाद चुनाव आने वाले है। चुनावांे मंे आजकल इलेक्ट्रोनिक मीडिया का बड़ा महत्व है।’

‘है लेकिन प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता ज्यादा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उम्र बहुत कम है। प्रिंट मीडिया कम से कम चौबीस घन्टे तो जिंदा रहता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो बस देखा, दिखाया और खत्म।’

‘सुनो। तुम्हंे कल का एक किस्सा सुनाती हूं।’

‘जरूर। जरा ये काम देख लूं।’

अविनाश ने अपना काम जल्दी खत्म किया। ऋतु ने कहा।

‘कल मैं एक काम से एक ऑपरेशन के सिलसिले मंे एक स्थानीय निकाय के कार्यालय मंे गई। मैंने अपनी पहचान छुपा कर काम कराने की कोशिश की।’ अफसर ने कहा।

‘मैडम अभी तो देश की हालत ये है कि यदि महात्मा गांधी भी काम कराने के लिए आये तो बिना लिये-दिये कुछ नहीं होगा।’

अविनाश उस अफसर की बात मुझे छू गई।

‘क्या व्यवस्था वास्तव मंे इतनी बिगड़ी गई है, और क्या हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे है।’

‘शायद तुम ठीक कह रही हो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे है।’ अविनाश बोला।

ऋतु अपने काम मंे व्यस्त हो गई। अविनाश वापस शीघ्र जाना चाहता था।

लगभग हर खबरिया चैनल पर एक जैसा राग अलापा जा रहा था। सब कुछ एक जैसा। सब कुछ व्यवस्था के विरूद्ध लेकिन चैनल के स्वार्थों के अनुकूल।

जिन उद्धेश्यांे तथा एथिक्स की कसमंे खाई जाती है वो कहां है। कहां है।

अविनाश खुद को कोई जवाब नहीं दे सका।

काश महत्वाकांक्षा की इस अंधी दौड मंे वो शामिल नहीं होता। मगर इस मकड़जाल मंे घुसना जितना मुश्किल था, निकलना उससे भी ज्यादा मुश्किल। अन्धेरे मंे उजाले की एक किरण के रूप मंे कभी-कभी वो साहित्य की ओर लौटने की सोचता मगर अब बहुत देर हो चुकी थी। अविनाश मनमसोस कर रह गया। इन भव्य भवनांे के पीछे की गन्दी जिन्दगी की सड़ान्ध से उसे उबकाई आती। मगर अब तो यह उसका जीवन था क्यांेकि घर था। परिवार था। बच्चे थे। आवश्यकताएंे थी। किश्तंे थी। फ्लेट था। कार थी। और किश्ते देने के लिए जमीर की नहीं खबरांे को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी। उसे याद आया एक प्रसिद्ध चैनल का मुख्य कार्यकारी मर गया तो चैनल ने उसकी मृत्यु का समाचार तक नहीं दिया। एक अन्य चैनल के संवाददाता की पिटाई के दृश्य राजनैतिक दवाब के कारण तुरन्त हटा लिये गये। एक महिला पत्रकार के यौन शौषण के मामले को दबा दिया गया। चैनलांे की आपसी स्पर्धा मंे व्यक्ति का वजूद खो सा गया है।

सेठांे, बनियांे, उद्योगपतियांे, अफसरांे, नेताआंे और पार्टियांे के मीडिया मैनेजरांे की आंख का इशारा समझने वाला चैनल और पत्रकार ही जिंदा रह सकता है। वैसे भी एक नेता ने स्पष्ट कहा ‘मीडिया इज कम्पलीटली मैनेजेबल।’ और वास्तव मंे यही स्थिति है मीडिया ही नहीं सब कुछ मैनेजेबल है। सत्ता, संगठन, सरकार, समाज, पार्टी, सब कुछ। खरीदने की ताकत होनी चाहिये बस।

अविनाश सोच-सोच कर परेशान होता रहा। ऋतु काफी लाई। अविनाश और ऋतु काफी पीने लगे।

‘यशोधरा कैसी है ?’

‘वो एकदम ठीक है। तुम्हंे याद करती है।’

‘कभी आऊंगी। फुरसत निकाल कर।’

‘बच्चा कैसा है।’

‘वो भी एकदम ठीक है। अब तो खड़ा होकर चलने लग गया है।’

‘चलो यशोधरा का टाइमपास हो जाता होगा।’

‘हां ये तो ठीक है। कभी-कभी सोचता हूं उसने काम-काज छोड़ दिया अच्छा किया।’

‘अब अच्छा क्या और बुरा क्या।’ ऋतु बोली।

‘फिर भी तुम भी तो छोड़ना चाहती हो।’

‘इतना आसान है क्या छोड़ना। घर वाले तो सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी समझते है मुझे। डालर बहू न सही रूपया बहू तो हूं न मै...।

‘हां...हां...क्या बात है।’

चलो कुछ काम करते है।

 

ये ठण्ड के दिन। ठण्डे, उदास और बासी दिन। इन दिनांे सूरज भी अफसर हो जाता है। सुबह देर से आता है और शाम को जल्दी चला जाता है। बादल, हवा, वर्षा, शीत लहर सब एक के बाद एक आते चले जाते है। सर्दी अमीरांे की और गर्मी गरीबांे की। सर्दी मंे ओढ़ना, बिछाना भी एक समस्या। खाने-पीने के मजे भी केवल अमीरांे के। सरदी के दिन। कब कौन चला जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। ठण्ड के दिन। ताव के दिन। सूरज और धूप को तलाशने के दिन। दिन सरकता है और दिल दरकता है। बड़े-बूढ़े सूरज की धूप के साथ सरकते रहते है। धीरे-धीरे जिन्दगी धूप के बावजूद, ठण्डी, बेजान और बेस्वाद हो जाती है।

ऐसे ही ठण्डे दिनांे मंे अविनाश को आदेश मिला कि कवरेज के लिए राजस्थान के एक गांव मंे जाना है। वो हवाई यात्रा से जाना चाहता था, मगर अफसोस निकटतम हवाई अड्डा काफी दूर था। सेठजी ने ट्रेन से जाने के आदेश दिये। अविनाश को मानने पड़े। अविनाश ने साथी टीम को भी अपने साथ ही प्रथम ए.सी. मंे बिठा लिया। इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार होने के नाते इतना हक तो उनका बनता ही था। वैसे भी टेªेन इस ठण्ड मंे बिल्कुल खाली थी। ट्रेन एक जगह रूकी। अविनाश ने चाय के लिए बाहर देखा कुछ नहीं सूझा। तभी चाय-चाय की आवाजंे लगाता एक वेटर अन्दर ही आ गया। सभी चाय की चुस्कियांे मंे लगे थे कि वेटर ने बताया।

‘सर आप लोग मीडिया से है, इसलिए बताता हूं, इस ट्रेन मंे कुछ गड़बड़ है।’

‘क्या गड़बड़ है।’

‘वो तो मैं अभी निश्चित रूप से नहीं कह सकता मगर...।’ वेटर का वाक्य अधूरा ही रह गया। एक तेज धमाका हुआ। अविनाश के कोच से दूर इन्जन के पास वाले कोच के परखचे उड़ गये थे, अपना राजस्थान का पूर्व निर्धारित काम छोड़कर अविनाश की टीम ने इस धमाके को कवर करना शुरू किया।

वे घटना स्थल पर पहँुचने वाले पहले पत्रकार थे। मोबाइल के जरिये उन्हांेने तेजी से सूचनाएंे अपने कार्यालय मंे देनी शुरू की।

ठण्डी रात। अन्धकार के बावजूद अविनाश की टीम ने शानदार काम किया। वे लगातार देश-दुनिया को इस दुर्घटना की जानकारी देने मंे लगे रहे।

मगर जल्दी ही मीडिया के भारी भरकम लवाजमंे आ गये। प्रशासन पुलिस ने सब संभाल लिया। सरकारी मीडिया की सूचनाएंे सही मान ली गई। कितने मरे। कितने घायल हुए। इस मामले मंे अविनाश की टीम के आंकडांे को कयास बताया गया। असली आंकड़े छुपाये गये। लाशांे को चुपचाप इधर-उधर कर दिया गया। घायलांे को जल्दी से जल्दी अस्पतालांे से छुट्टी देने के प्रयास किये गये। वे लोग चाहकर भी हकीकत नहीं बता सके। उनकी बतायी बातांे को हकीकत से दूर माना गया। कलक्टर ने साफ कहा।

‘वहीं दिखाईये जो हम कहते है।’

ए.सी.पी. एक कदम आगे बोले ?

‘वही लिखिये जो हम कहते है। हम बोलते है। अपनी मन-मर्जी की बकवास मत छापिये, मत लिखिये, मत दिखाईये।’

‘क्या सब कुछ गलत ही है। सही कुछ भी नहीं है।’ और ऊंचे अधिकारियांे के विचार और भी ऊंचे थे, वे पत्रकारांे से बच-बच कर चल रहे थे।

‘आखिर इस विस्फोट का कारण क्या था।’

‘कारण पता चलते ही सबसे पहले आपको सूचित करंेगे। फिलहाल आप हटिये और हमंे हमारा काम करने दीजिये।’ एस.पी. बोले।

‘हम भी तो हमारा ही काम कर रहे है।’ अविनाश ने कहा।

‘आपका तो बस एक ही काम है। हमंे उलझाना...।’

अविनाश और साथी पत्रकार क्या बोलते। तभी विस्फोट की जिम्मेदारी एक आतंकवादी संगठन ने ले ली। अविनाश ने यह खबर मीडिया को दी।

मगर आतंकवाद के समाचारांे के दौरान ही अविनाश को एक ओर समाचार मिला। उसके घर पर भी आतंकी हमला हुआ था। मगर शुक्र है यशोधरा-बच्चा सुरक्षित थे। वो सोचने लगा।

‘क्या सब कुछ खतरे मंे है ? क्या सब कुछ गलत हाथांे मंे है ? क्या कुछ भी ठीक-ठाक नहीं है ? क्या मानवता यूं ही कराहती रहंेगी ? निर्दोष मारे जाते रहंेगे। क्या यही प्रजातन्त्र, स्वतन्त्रता का असली चेहरा है ?‘ अविनाश की आंखांे के सामने अंधकार छा गया। वो वापस दिल्ली जाना चाहता था। उसने ऋतु से बात की। ऋतु ने आफिस मंे सब ठीक-ठाक कर उसे और उसकी टीम को वापस बुला लिया। राजस्थान के गांव का कवरेज इस बार नहीं हो सका, अवनिाश को इस बात का दुःख था। मगर दुःखी होने से क्या हो जाता है। अविनाश ने एक माह की छुट्टी मांगी, दस दिन की मिली। वो पत्नी और बच्चे को लेकर वापस अपने कस्बे में लौट आया। शान्ति, सुकून की तलाश मंे।

अविनाश वापस उस लक-दक शहर मंे नहीं जाना चाहता था। लक-दक, चमकती नौकरी के अन्दर का अन्धकार उसे वापस जाने से रोक रहा था। वो अपने पुराने प्रिंट मीडिया मंे आने को आतुर था। इन्टरनेट से भी उसका मोह भंग हो चुका था। मगर प्रिंट मीडिया मंे नये लड़के-लड़कियांे की बहार थी। वो डिग्रीधारी थे। होशियार थे। स्मार्ट थे। व्यवस्था के नट बोल्ट को कसना और ढीला करना जानते थे। अविनाश ने फिलहाल कुछ कालम लिखना शुरू किये। एक फीचर एजेन्सी शुरू की, मगर बात नहीं बनी। उदासी के इस दौर मंे पत्नी और बच्चंे का ही सहारा था।

 

कोरपोरेट मंे करप्शन एक बड़ी बीमारी के रूप मंे उभर कर सामने आ रहा था। निजि क्षेत्र मंे रोज नई कम्पनियां, रोज नये शेयर, रोज नये बाजार और इन सबके बीच तेजी से उभरता नवधनाढ्य वर्ग, कम्पनियांे के पंजीकरण के नये क्षितिज, नये आंकड़े बन गये। शेयर बाजार कहां से कहां पहुंच गया।

इतनी तेजी से बढ़ा शेयर बाजार कि सेन्सेक्स को समझने मंे ही आम आदमी को परेशानी होने लगी। कोरपोरेट घरानांे की यारी-दुश्मनी के किस्से अखबारांे मंे, पत्रिकाआंे मंे तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया मंे उछलने लगे। इस दाल मंे कुछ काला है यह मुहावरा पुराना पड़ गया, अब तो दाल ही काली है। कोरपोरेट घरानांे मंे आपसी स्पर्धा, घृणा मंे बदल गई। हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने को आतुर। सफलता ही सब कुछ। कुछ बड़े मगरमच्छ जो पुश्तांे से कारपोरेट दुनियां पर राज कर रहे थे, पीछे खिसक गये और पहली पीढ़ी के बहुत बड़े नये कारेपोरेट विकसित हो गये। नैतिकता, ईमानदारी, स्वच्छता, जनता के प्रति प्रतिबद्धता आदि शब्दांे को हटाकर व्यापारिक लाभ, शुद्ध लाभ, की और ही नजरंे गड़ा दी गई।

एक व्यापारिक घराने ने दूसरे घराने मंे लड़ाई करवा दी। भाईयांे मंे मनमुटाव इतना बढ़ गया कि एक भाई ने दूसरे को बेदखल कर दिया। भाई ने मां का सहारा लिया और हिस्सेदारी के लिए परिवार के गुरू की शरण ली।

अपनी कम्पनी और ज्यादा ऊंची करने के लिए एक व्यापारिक घराने ने दूसरे की फेक्ट्री पर छापा डलवाया। ताले डलवाये। शेयर बाजार से सब शेयर खरीद लिए। दूसरा घराना घबराया नहीं सीधा वित्तमंत्री के पास गया। वित्तमंत्री ने पहले घराने पर आयकर, सर्विसकर, एक्साइज आदि के ऐसे फंदे डलवाये कि घराने की महिलाएं तक जेल हो आई।

वैसे भी वित्तमंत्री का सीधा-सादा जवाब होता है ये सब विदेशी ताकते करवा रही है। आतंकवादयिांे का पैसा शेयर बाजार मंे लग रहा है। हम स्थिति पर नजर रखे हुए है। हम कठोर कार्यवाही करंेगे। नियमांे का पालन सख्ती से किया जायेगा। आदि जुमलंे हर समय हवा मंे तथा अखबारांे मंे उछलते रहते हैं।

कारपोरेट घरानांे का एक और शौक है तीसरे पेज पर दिखाई देना। इस घटिया मगर आवश्यक कार्य हेतु कारपोरेट घराने अलग-अलग अखबारांे व चैनलांे के अन्दर अपने आदमी रखते है, उन्हंे भुगतान करते है और समय आने पर आवश्यकतानुसार उनका उपयोग प्रचार, प्रसार, प्रसिद्धि के लिए करते है। पेज तीन पर छपने वालेेे इन पार्टी समाचारांे मंे चित्र भी अधनंगे ही होते है। अच्छी पार्टी के लिए यही सबसे बड़ी बात होती है कि कितने खरबपति या उनके परिवार वाले इस पार्टी मंे आये।

ऐसी ही एक पार्टी मंे रात के तीन बजे एक आलीशान कार मंे नशे मंे धुत्त दो युवक आये और पार्टी मंे शामिल बारटेण्डर लड़की से शराब की मांग की।

‘साकी और पिलाओ।’

‘सर आप पहले ही ओवर है।’

‘ओह। शट आप। तुम्हारी ये हिम्मत। यार जरा इस लड़की की औकात तो देखो। मुझे मना कर रही है...मुझे।’

‘सर...आप... समझिये। बार बन्द हो चुका है।’

‘बन्द हो...चुका है तो खोल डालो। नहीं तो तुम्हारी खोपड़ी खोल डालंूगा।’

लड़की कुछ कहती तब तक नशे मंे चूर लड़के के पिस्तोल से गोली चली और लड़की वहीं ढेर हो गई।

पार्टी मंे भगदड़ मच गई। सब रईसजादे भग गये। कई दिनांे तक घर से बाहर नहीं निकले। बड़ा हो-हल्ला मचा। मगर चश्मदीद गवाह गायब हो गये। कोई आगे नहीं आया। पेज तीन पर सन्नाटा छा गया। कारपोरेट घराने चुप हो गये। मगर थोड़े ही दिनांे के बाद सब कुछ शान्त। वापस जीवन पटरी पर आ गया। लड़की की हत्या का मुकदमा मंथर गति से चलता रहा।

कारपोरेट घरानांे मंे सफलता के लिए ही होती है ये पार्टियां। शराब, शवाब, बिजनिस डील, बिजनिस लंच, बिजनिस डिनर, बिजनिस नाईट सब कुछ सब बिजनिस।

कारपोरेट घरानांे के सम्बन्ध सीधे राजनीति की दुनिया से होते है। राजनीतिक दलांे को चंदा, हेलीकॉप्टर, चार्टर हवाई जहाज चाहिये और कारपोरेट घरानांे को व्यापार की सुविधा। प्रगतिशील सरकारंे तक सेज, उद्योग, फेक्ट्री के नाम पर किसानांे की उपजाऊ जमीन इन्हंे देकर अपना समय काटती है, समय काटने के लिए कारपोरेट घराने एक दूसरे का गला तक काट देते है। सब कुछ व्यापार के नाम पर। काली लक्ष्मी, सफेद लक्ष्मी। व्यापारे वसति लक्ष्मी। जैसे बेद वाक्यांे से चलते है व्यापारिक घरानें।

सब कुछ निकृष्ट ही हो ऐसा नही है। वे समाज सेवा भी करते है तो व्यापारिक दृष्टिकोण के साथ। किसी मन्दिर का जीर्णोद्धार करके आसपास की जमीन पर कब्जा करना, ऑफिस खोलना, संस्थाएंे खोलना आदि।

नई पीढ़ी धनवान तो है ही...कुशल भी बहुत है। बड़ी तेजी से भारत के और स्वयं के नव निर्माण मंे लगी हुई है। यहां पर रिश्ते भी पैसे के हिसाब से बदलते है। बोर्डरूम मंे जाने के लिए बेड़रूम मंे जाना आवश्यक है। कानूने के पचड़े मंे फंसने पर सेठ किसी उपाध्यक्ष, किसी चेयनमैन, किसी डायरेक्टर, किसी मैनेजर, किसी लेखाधिकारी की गर्दन फंसा देता है, खुद नहीं फंसता।

एक घराने के व्यक्ति को कोर्ट ने सजा दी, मगर सजा काटी, एक गरीब मजूदर ने। हां सेठजी ने उस मजदूर के घर वालांे का पूरा ध्यान रखा। बाहर आने पर उसे काम दिया। रूपये दिये। आखिर वो सेठ के बजाय जेल मंे जो रहा था।

पेज तीन मंे ग्लेमर, गोली और गाली सब थे। बड़े शहरांे की यह बीमारी अब छोटे शहरांे, कस्बांे मंे आ गई थी। पार्टी देना-लेना एक सामाजिक आवश्यकता बन गयी थी। सम्बन्ध बनाना और सम्बन्धांे को केश करना और जो सम्बन्ध केश नहीं हो सके उन्हें क्रेश कर देना एक उच्चवर्गीय मानासिकता बन गई थी। समाज मंे सोशलाइट होना सम्मान की बात हो गई थी। सोसाइटी गर्ल, कारपोरेट घरानांे की आवश्यकता बन गई थी। वे कुछ नहीं करती मगर सब कुछ करती, उच्च वेतन पर रखी जाती। जनसम्पर्क तथा लाइजनिंग के कार्यों हेतु पेज तीन का महत्व निरन्तर बढ़ रहा था।

अविनाश नये स्थायी काम की तलाश मंे भटक रहा था। फिलहाल उसने यही काम पकड़ा। पेज तीन की पार्टियांे मंे घुसपैठ बनाना। समाचार बनाना। समाचार बिगाड़ना। फैशन मॉडलांे के सचित्र समाचारांे को लिखना। छपाना। छपे हुए को बड़े लोगांे को दिखाना और रोटी चलाना। समाचारांे की इस विकट दुनिया मंे आम आदमी की तलाश लगभग बेकार थी। कभी-कदा किसी ठण्ड से मरते हुए या अस्पताल मंे इलाज के लिए तड़पते हुए या रैन बसरे मंे कम्बलांे मंे छुपे हुए गरीब, गुरबांे, भिखारियांे के समाचार भी लगा दिये जाते। इधर एक नई विधा का विकास हुआ था। बड़े-बड़े चित्र छोटे-छोटे समचार। सचित्र। लड़कियां, महिलाआंे के नाचते गाते, गुनगुनाते फोटो। अर्धनग्न हो तो क्या कहने। पत्रकार। उपसम्पादक की बांछे खिल जाती। हर अखबार मंे चित्र ही चित्र। जो जगह बच जाती उसमंे समाचार के नाम पर नवधनाढ्य वर्ग की सूचनाएंे।

अविनाश ये सब करने लगा। पक्की नौकरी अखबार मंे वापस प्राप्त करना मुश्किल काम था। पेज तीन पर राजनेताआंे का भी बोलबाला था। उद्योगपतियांे का तो साम्राज्य था। कभी-कभी अफसर और अफसरांे की पत्नियांे, पुत्रियांे, प्रेमिकाआंे, सालियांे, महिला मित्रांे के भी दर्शन पाठकांे को हो जाते। पाठक धन्य हो जाते।

इस मारामारी मंे एथिक्स, पत्रकारिता के नैतिक मूल्य, जीवन व समाज की बातंे करना बेवकूफी समझी जाने लगी।

कभी-कभी सड़क, पानी, बिजली और स्वास्थ्य की स्थायी समस्याआंे पर लिख दिया जाता। पत्रकारांे और मालिकांे की कई पीढ़ियां, बिजली, पानी और सड़कांे पर गढ्ढांे के सहारे अपना जीवन-यापन कर रही थी। ये समस्याएं शाश्वत थीं और अविनाश जैसे लोगांे के लिए इन पर लिखना भी आवश्यक था। खुद का और समाचार पत्र तथा सेठजी का पेट जो भरना था।