आंसुओं के रिश्ते Amita Neerav द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आंसुओं के रिश्ते

डॉ. अमिता नीरव

‘हमारे बीच अब कुछ भी नहीं रहा...।’ – सपाट चेहरे और चुराती नज़रों से उसने संयुक्ता से कहा। अवाक् और आहत संयुक्ता की आँखों में आँसू आए तो लेकिन फिर पता नहीं कहाँ चले गए...। उसने गहरी नज़र से उसे देखा, लेकिन उसने संयुक्ता की तरफ पलट कर नहीं देखा और सामने की तरफ देखते हुए स्टीयरिंग, ब्रेक और गियर सब कुछ संभालता रहा। संयुक्ता के भीतर से संयुक्ता चीखने को थी ‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी’ लेकिन जैसी कि उसकी आदत हो गई है, चीखने वाली संयुक्ता का मुँह दबा दिया। ‘तू नहीं रह सकती है, वो तो रह सकता है ना... फिर तेरे रह पाने और न रह पाने से उसे लेना-देना भी क्या है? कौन है तू’ जबसे उसने कहा है कि तुम रोती बहुत हो... संयुक्ता के आँसू सूख ही गए हैं। परत-परत जमा हो रहे हैं। लावे से बनती चट्टानों की तरह... और लावा भीतर खौलता ही रहता है, जलाता ही रहता है उसे... लेकिन बाहर नहीं आता है तो नहीं ही आता है।

बहुत से सवाल उसके भीतर उठे थे। ‘साथ चलने का फैसला तो हम दोनों का था, छोड़ देने का फैसला तुम अकेले कैसे ले सकते हो...? क्या हुआ उन सारे वादों और दावों का, जो तुमने मुझसे किए थे? क्या हुआ प्यार का, जो तुम्हार दावा था कि जीवन भर का है...’ लेकिन पूछे किससे?  सवाल भी तो उसी से किए जाते हैं, जिससे कोई रिश्ता हो, चाहे नफ़रत का ही हो। जब कुछ बचा ही नहीं है तो फिर सवालों का मतलब भी क्या है? संयुक्ता ने बहुत आहत और पीड़ा से उसकी तरफ नज़र भर देखा था... ‘गाड़ी यहीं रोक दो।’ – भरे गले और फँसे हुए शब्दों से कहा। ‘नहीं, घर छोड़ देता हूँ।’ – फिर से उसने संयुक्ता की ओर बिना देखे ही कहा था।

‘नहीं, जब सब खत्म है तो फिर अभी... यहीं खत्म हो जाने दो...’ – उमड़ आई थी संयुक्ता, लेकिन रूक गए थे आँसू। कोई वादा नहीं था... बस वो झिड़की थी। उसके रोने का अपमान कि उसका रोना घुटन बन गया था, उसके भीतर, जमा होते रहते हैं आँसू और ठोस हो रहे हैं। गाड़ी रूक गई थी। संयुक्ता के उतरते ही गाड़ी चली गई... जहाँ वह उतरी वो चौराहा था। गहरी पीड़ा के पल में भी जाने कैसे हँसी आ गई थी... कातर हँसी, ‘यहाँ भी चौराहा, जिंदगी भी सैडिस्ट हो गई है।’  उसे याद नहीं वो उस चौराहे की पुलिया पर कितनी देर तक बैठी रही और वहाँ बैठकर उसने क्या किया, सिवाय इसके कि उससे रोया नहीं गया। न जाने क्या-क्या उमड़ा था, ये भी कि कैसे भावनाएँ जिंदगी मुहाल कर दिया करती है। कैसे किसी एक के न रहने पर जिंदगी सज़ा हो जाती है...। कई सवाल भी थे कि प्यार क्या स्लेट पर लिखा हुआ नाम है, जो अभी था, अभी नहीं है। क्या वाकई प्यार जैसा कुछ होता भी है या सब कुछ बस लेन-देन है। बस खून के रिश्ते ही प्यार को पाल सकते हैं, क्योंकि बस यहीं मजबूरी हुआ करती है। बाकी सब जगह तो जरा-सी असुविधा हुई कि सब खत्म किया जा सकता है। लेकिन अब किसी भी चीज़ का कोई मतलब नहीं है, कोई अर्थ नहीं है, सब कुछ अर्थहीन है, बेकार... व्यर्थ।

पता नहीं वह कैसे घर पहुँची थी, लेकिन घर से जो संयुक्ता निकली थी, लौट कर वह फिर नहीं आई थी, जो आई थी, वह तो कोई और थी। वो संयुक्ता वहीं छूट गई थी, उसी चौराहे पर... हमेशा के लिए उससे जुदा हो गई थी, खो गई थी, उस ख़ामोश आँधी में गुम हो गई थी।

माँ को लग रहा था कि संयुक्ता बदल गई है। चुप-चुप रहती है, कुछ कहो तो न तो सवाल करती है, न जवाब देती है। बेहद शांत हो गई है, इतनी कि उसके भीतर की उथल-पुथल की ध्वनि साफ सुनाई पड़ने लगी है। लगा तो पापा को भी था, लेकिन माँ आखिरकार माँ होती है। एक-दो बार उन्होंने उससे पूछा भी था ‘कोई परेशानी है बेटा!’

‘नहीं, कोई परेशानी नहीं है।’-कहकर संयुक्ता कमरे से बाहर हो गई थी। माँ ने शायद पूर्वा से भी बात की थी। पूर्वा का फोन आया था उस दिन संयुक्ता के पास।

‘तूने कुछ नया काम किया है, यदि नहीं किया है तो करना शुरू कर दे। हमारे क्लब में इस बार से एक कलाकार को बुलाया जा रहा है और उसके काम की एक्जिबिशन लगाई जाएगी। सोचती हूँ शुरुआत तुझसे ही हो तो।’

‘अरे नहीं दी, अभी तो कुछ काम नया है ही नहीं और करने का मूड भी नहीं बन रहा है। इस बार तो किसी और को बुला लो तुम लोग, अगले साल देखेंगे।’- संयुक्ता जानती है कि साल भर बहुत दूर है। अभी तो टाल ही सकती है।

‘पी-एच. डी. के काम का क्या हुआ! अब कर डाल जल्दी-जल्दी।’ – पूर्वा उसे ट्रेक पर लाने की कोशिश कर रही थी।

‘हाँ, कर रही हूँ।’- जवाब तो आया था कि क्या करना है कुछ भी करके, लेकिन ये जवाब बात को खींचकर लंबा कर देगा और वो उस असुविधाजनक जगह पर जा खड़ी हो जाएगी, जहाँ से उसके ढ़हने का खतरा है। और इस चोट के बाद उसे खुद ही संभलना है... चाहे कितना ही वक्त लगे, चाहे कितनी ही तकलीफ़ हो।

माँ को नज़र आ रहा था, संयुक्ता खिलखिलाना भूल गई है। उसकी बातें खत्म हो गई है, न वो तर्क करती है और न ही बहस। वो प्रतिकार भी नहीं करती है। पहले कैसे हर दिन फरमाईश किया करती थी, आजकल कुछ भी नहीं करती है, किसी चीज़ का विरोध भी नहीं करती है। अब उसी दिन माँ ने उससे बहुत डरते-डरते कहा था कि सीमा आंटी की दोस्त का बेटा उससे मिलना चाहता है। संयुक्ता ने सिर झुकाए-झुकाए ही कह दिया ‘ठीक है।’ माँ को समझ ही नहीं आया कि वो खुश है या फिर दुखी। दो सालों से लगातार कह रही है कि अब शादी के बारे में सोचना चाहिए तो संयुक्ता ने कभी सीधे मुँह बात नहीं की। और अब कितनी आसानी से उसने ठीक है... कह दिया। जिंदगी में ऐसे मौके भी आते हैं, जब मनचाहा हो जाने के बाद भी दुख हुआ करता है। माँ किचन में जाकर बहुत रोई थी... शायद संयुक्ता के आँसू भी, लेकिन संयुक्ता ऐसी चुप्पा हो गई थी कि कहती-खुलती ही नहीं थी।

माँ से रहा नहीं गया था... रो ही पड़ी थी उसके सामने। उसने पूछा भी था ‘क्या हुआ माँ?’

‘इससे पहले जब तुझसे शादी की बात की, तू भड़क जाया करती थी। आज बिना किसी तर्क, विवाद, प्रतिवाद के तूने हाँ कह दिया... क्यों बेटा?’ – माँ ने उसे कुरेदा था।

‘अरे... तू ही तो कहती रही है कि बेटा अब शादी के बारे में सोच। आखिर मेरी भी शादी की उम्र तो हो ही गई है ना...!’- उसने बहुत उदास और फीकी-सी हँसी में माँ से कहा था। माँ की कोशिश बेकार हो गई थी। उसने सिरे पर ही ढक्कन लगा दिया था।

आखिरकार निर्वेद से मिली थी संयुक्ता। उसने जिंदगी को जैसी वह आएगी, वैसे ही ग्रहण करने की ठान ली थी। माँ-पापा की पसंद पर बिना प्रतिवाद किए शादी के लिए ‘हाँ’ कर दी थी। निर्वेद की माँ बहुत बीमार थीं और इसलिए वह बेटे की शादी जल्दी करना चाहती थी। निर्वेद को संयुक्ता की सौम्यता भा गई थी। संयुक्ता ने तो उसे ठीक से देखा भी नहीं था। वो कुछ चाहने, पसंद करने, हाँ और ना करने की सरहद से बाहर पहुँच चुकी थी। महीने भर में ही संयुक्ता की शादी निर्वेद से हो गई थी। निर्वेद तो संयुक्ता को जान-समझ ही नहीं पाया था और संयुक्ता को तो जैसे कुछ जानने-समझने की जरूरत ही नहीं थी। वो अब भी सुन्न ही थी...। उस दिन के बाद पहली बार अपनी विदाई पर रोई थी... इतने आँसू जो इन कुछ सालों में जमा हुए थे, उसके भीतर। तय किया उसने कि बस... इसके बाद नहीं रोना है, चाहे जो हो...। इस घुटन को जमा होते रहना है, उस विस्फोट के लिए, जिसके बाद कुछ भी न बचे शायद... ।

शुरुआत में निर्वेद को लगा था कि शायद नए घर, नए परिवेश और नए लोगों के बीच एडजस्ट करने की प्रोसेस में संयुक्ता संकोच कर रही है। लेकिन जब बहुत एकांतिक पलों में हो रही चुहल में भी उसकी प्रतिक्रिया उदास और बेजान लगने लगी तो उसे लगा कि कुछ ऐसा है जो गहरा है... कोई गहरी चोट या फिर दुख। 12 साल की उम्र से माँ के साथ रह रहा है, पिता के जाने के बाद माँ के करीब और करीब आता गया और माँ उसकी समझ की दुनिया का विस्तार होती चली गई। उसने बहुत करीब से माँ के सुख-दुख, एकाकीपन, पीड़ा और प्यार सब कुछ देख और समझ चुका है, उसने जाना है कि माँ भी इंसान ही होती है। तमाम भावनाओं और जिम्मेदारियों के बावजूद उसका दिल है, उसकी ख़्वाहिशें है, अरमान और सपने हैं। जाने कैसे उसमें बहुत धैर्य आ गया है, वो बहुत धैर्य से संयुक्ता के संभलने और खुलने का इंतजार करने लगा...। यूँ देखा जाए तो ऐसा कुछ भी नहीं था उन दोनों के बीच जिसे असामान्य माना जाए। मगर माँ सब देख लेती है, माँ ने निर्वेद से पूछा भी था ‘कोई परेशानी तो नहीं है न तुम दोनों के बीच...!’ वह समझ नहीं पाया था क्या कहे माँ से। न संयुक्ता ने कुछ अनयुजवल किया न कहा। आते ही माँ की पूरी दिनचर्या में ढल गई। पत्नियाँ जितना और जैसा करती है, संयुक्ता उससे ज्यादा ही करती है। आठ महीने हो चले थे शादी को, अब तक कभी ऐसा हुआ ही नहीं कि दोनों के बीच किसी बात पर बहस हुई हो। संयुक्ता ने उससे कोई ख़्वाहिश शेयर नहीं की न ही किसी तरह की कभी कोई माँग ही की। कुछ ऐसा हुआ ही नहीं जिसके बारे में बात की जा सके, लेकिन फिर भी कुछ है जो सहज नहीं है। माँ ने निर्वेद से कहा कि मैं कुछ दिनों के लिए दीदी के पास चली जाती हूँ, तुम कहीं बाहर चले जाओ और कुछ दिन साथ रहो... हो सकता है संयुक्ता सहज हो जाए।

यूँ तो संयुक्ता ने सोचना-विचारना, चाहना-होना, ख़्वाहिश और उम्मीद करना सब कुछ छोड़ दिया था, लेकिन मन है, कभी-कभी अपनी सीमारेखा से बाहर कदम रख ही देता है। वह सोचती है कि प्यार क्या है? कैद हो जाना या फिर कैद कर लेना... अधिकार कर लेना या फिर अधिकार पा लेना...। मजबूर हो जाना या मजबूर कर देना, जो मजबूर हो जाता है, वह शासित भी होने लगता है, जैसे कि सामंती व्यवस्था में हुआ करता था...। क्या ये भी सामंती प्रवृत्ति का डायल्यूटेड वर्जन नहीं है...! एक-दूसरे के हिसाब से, एक-दूसरे की पसंद पर चलना-रहना-होना...। या फिर महज आदत... जो भी हो, अच्छा-बुरा बस उसके होने की अपेक्षा... वही आदत। और आदत का क्या है? शुरुआत में आदत को छोड़ने में मुश्किलें होती है, आखिर तो छूट ही जाती है। सोचते-सोचते जब वह गहरे फँसने लगती है तब वह तेज़-तेज़ टहलने लगती है... क्योंकि ये उसे उस चट्टान की तरफ ले जाता है, जहाँ उसका बिखर जाना अवश्यंभावी है। आखिर उसे आसरे के लिए कुछ तो चाहिए ही ना... चाहे इसी तरह के कुछ अजीबो-गरीब तर्क...। वो बार-बार खुद को उस निष्कर्ष तक ठेल कर ले जाती है कि प्यार कुछ है ही नहीं बस इंसान की सद्भावना है, आज किसी के लिए है तो कल किसी और के लिए। शायद इसीलिए दिल टूटा करते हैं।

आखिर निर्वेद और संयुक्ता निकल ही पड़े थे। संयुक्ता ने पूछा भी था ‘क्या जरूरत है बाहर जाने की?’ वो निर्वेद से जितना बच सकती थी, बचना चाहती थी। लेकिन उसने भी संयुक्ता की इस बात का जवाब नहीं दिया था, बस मीठे से मुस्कुरा दिया था। अपने पूरे टूर के दौरान निर्वेद मुक्त था, लेकिन देख रहा था कि संयुक्ता अब भी उसी सख्ती से खुद को भींचे हुए थी। वो खुद ही दुकानों पर उसे ले जाकर चीजें पसंद करवाता था, वो वैसी ही निर्विकार, निस्संग और निर्लिप्त बनी हुई थी, निर्वेद कभी-कभी यकीन ही नहीं कर पाता कि उसकी उम्र में कोई इस तरह से हो भी सकता है। वो उस जगह की आखिरी शाम थी... हर शाम की तरह यूँ ही मॉल रोड पर टहल रहे थे। पूनम चौक पर भीड़ लगी हुई थी, पास जाकर देखा तो जमीन पर ढोलक लिए हुए एक 45-47 साल का व्यक्ति गा रहा था। दोनों वहीं जाकर खड़े हो गए... उसने अगले गाने के लिए पॉज़ लिया हुआ था। माथे पर आए पसीन को पास ही पड़े रूमाल से पोंछा और आलाप लिया था। हालाँकि उसका आलाप अनगढ़ था, लेकिन गले में दर्द था। ताल मिलाते हुए उसने गाना शुरू किया था ‘आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया, आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया... के मेरे दिल पे पड़ा था कोई ग़म का साया...’। निर्वेद ने संयुक्ता की तरफ देखा तो उसे लगा कि उसके चेहरे के भाव बदल रहे हैं। भावनाओं का हल्का सेंक मिलने से जमा हुआ कुछ नर्म होने लगा है। ‘मैंने भी सोच लिया, साथ निभाने के लिए, दूर तक आऊँगी मैं, तुमको मनाने के लिए, दिल ने अहसान जताया तो मुझे याद आया’ तक पहुँचते-पहुँचते तो संयुक्ता की आँखों में आँसू उतर आए थे। उसने अनजाने ही निर्वेद का हाथ पकड़ा और उस भीड़ से निकल आई... आँसू... नहीं, लेकिन इतने कड़े बंधन के बावजूद सीने में फँसा हुआ अतीत निकलना चाह रहा था।

रोज़ शाम को निर्वेद उस ठेले पर जाकर स्वीट कॉर्न का कप लेता था। हर बार उसने संयुक्ता से भी पूछा, लेकिन वो हर बार मना कर देती। उस ठेले वाले से एक तरह की दोस्ती हो गई थी निर्वेद की। निर्वेद ने वहाँ पहुँच कर कहा कि ‘चलो भाई आज आखिरी बार अपनी पसंद का फ्लैवर खिला दो।’

‘क्यों, साहब जा रहे हैं क्या?’

‘हाँ, भाई कल सुबह जा रहे हैं।’

उसने संयुक्ता की तरफ थोड़े संकोच से देखा, फिर बोला – ‘दीदी, आपने एक बार भी नहीं खाया, आज मैं आपको बनाकर देता हूँ, अपनी पसंद का फ्लैवर खाकर देखिए।’

कोई और दिन, कोई और मौका होता तो संयुक्ता इतनी रूखाई से इंकार कर देती कि सामने वाले ही हिम्मत ही पस्त हो जाती, लेकिन आज मामला कुछ और था। वो नर्म हो रही थी, बिना कुछ कहे बस मीठा-सा मुस्कुराई थी। उसने चाट मसाला कॉर्न बनाकर संयुक्ता को थमा दिया। खत्म हुआ तो उसने पूछा ‘कैसा लगा?’

‘अच्छा, बहुत अच्छा।’- निर्वेद ने पाया कि उसकी आवाज़ बदली हुई है, अंदाज़ भी। जब पैसे देने की बारी आई तो ठेले वाले ने कहा ‘नहीं, दीदी को तो मैंने खुद अपनी पसंद से खिलाया है। इतने दिनों से वो कुछ नहीं ले रही थीं, आज मैंने अपने मन से खिलाया है, पैसा की कोई बात है ही नहीं... पैसा क्या है...?’

उसकी ये बात सुनकर निर्वेद भीग गया था, शायद संयुक्ता भी...। दोनों लौट रहे थे, संयुक्ता पूरे रास्ते उलझते हुए आई थी। प्यार कुछ नहीं है, जो कुछ कॉर्न वाले ने किया, वो क्या था?  प्यार तो प्रतिदान माँगता है, उसे हमसे क्या मिलना है। हम तो कल लौट जाने वाले हैं... तो क्या प्यार से आगे की भी कोई चीज़ होती है? लेन-देन ही जिंदगी नहीं है, दो और दो चार से आगे की चीज़ है जिंदगी... प्यार और उससे आगे... वो जो कॉर्न वाले ने किया... तो यदि ये है तो... तो फिर प्यार भी है... ये जो इंसान मेरे साथ चल रहा है, उसका मुझसे क्या संबंध है? क्यों वो मेरी उदासीनता को ढो रहा है? उसने ऐसा धैर्य कैसे अख़्तियार कर रखा है? मतलब आज तक मैंने जो जाना था, वो सब रेत था, धूल था...! उमड़-उमड़ आई थी, होटल पहुँचकर वो बस ढह गई थी। सिसक-सिसक कर रोने लगी थी... वो सारे आँसू जो इन महीनों में जमा हो रहे गए थे, बह निकले। निर्वेद उसके करीब आकर लेट गया था। निर्वेद के सीने से लगकर वो बस फट पड़ी थी। टूटकर रोई थी... जो जमकर ठोस हुआ था, वो सब बहने लगा था। निर्वेद उसकी पीठ को सहलाते हुए, सब कुछ के बह कर सूख जाने का इंतजार कर रहा था।

उसके भीतर का अनुशासन पिघल कर बह निकला था। संयुक्ता निर्मल हो गई थी, सारा गंदलापन निकल गया... ‘कुछ, जानना चाहते हो?’- उसने ऐसे ही पड़े-पड़े निर्वेद से पूछा था।

‘|नहीं’-मुस्कुराया था, वह।

यूँ ही बहुत देर तक दोनों साथ थे। निर्वेद का मन भर आया था, उसे संयुक्ता के दुख का अहसास हो रहा था, साथ ही उसके वहाँ से खुद निकल आने पर स्नेह भी उमड़ा था। वो मुक्त और हल्का महसूस कर रहा था। गुनगुनाने लगा था, ‘आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया’ हमेशा की तरह शब्द भूल गया तो संयुक्ता ने उसे थाम लिया था ‘मैं भी क्या चीज़ हूँ खाया था कभी ज़ख्म कोई, दर्द अब जाके उठा चोट लगे देर हुई।’

निर्वेद को लगा कि आज उसने संयुक्ता को पाया है, आखिर कहीं उसने भी पढ़ा था कि ‘आँसुओं के रिश्ते गहरे होते हैं।’