पुरानी फाँक Deepak sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पुरानी फाँक

पुरानी फाँक

सुबह मेरी नींद एक नये नज़ारे ने तोड़ी है.....

कस्बापुर के गोलघर की गोल खिड़की पर मैं खड़ी हूँ.....

सामने मेरे पिता का घर धुआँ छोड़ रहा है..... धुआँ धुहँ......

काला और घना.....

मेरी नज़र सड़क पर उतरती है......

सड़क झाग लरजा रही है..... मुँहामुँह…..

नींद टूटने पर यही सोचती हूँ, उस झाग से पहले रही किस हिंस्र आग को बेदम करने कैसे दमकल आए रहे होंगे..... हुँआहुँह.....

सोचते समय दूर देश, अपने कस्बापुर का वह दिन मेरे दिमाग़ में कौंध जाता है.....

“चलें क्या?” गोलघर के मालिक के बीमार बेटे सुहास का काम निपटाते ही मंजू दीदी मुझे उसके कमरे की गोल खिड़की छोड़ देने का संकेत देती हैं.

“चलिए,” झट से मैं मंजू दीदी की बगल में जा खड़ी होती हूँ. वे मेरी नहीं मेरी सौतेली माँ की बहन हैं और मेरी छोटी-सी चूक कभी भी महाविपदा का रूप ग्रहण कर सकती है..... हालाँकि उस खिड़की पर खड़े रहना मुझे बहुत भाता है. वहाँ से सड़क पार रहा वह दुमंजिला मकान साफ़ दिखाई दे जाता है जिसकी दूसरी मंजिल के दो कमरे मेरे पिता ने किराये पर ले रखे हैं. ऊपर की खुली छत के प्रयोग की आज्ञा समेत. अपनी दूधमुँही बच्ची को अपनी छाती से चिपकाए घर के कामकाज में व्यस्त मेरी सौतेली माँ इस खिड़की से बहुत भिन्न लगती हैं- एकदम सामान्य और निरीह. उसके ठीक विपरीत अपनी मृत माँ मुझे जब-जब दिखाई देती हैं, वह हँस रही होती हैं या अपने हाथ नचाकर मेरी सौतेली माँ को कोई आदेश दे रही होती हैं.....

“आप बताइए, सिस्टर,” सुहास मंजू दीदी को अपने पास आने का निमन्त्रण देता है, “आपकी यह बिल्लौरी कहती है, मेरी खिड़की से उसे भविष्य भी उतना ही साफ़ दिखाई देता है जितना कि अतीत. यह सम्भव है क्या?”

“मुझे वर्तमान से थोड़ी फुरसत मिले तो मैं भी अतीत या भविष्य की तरफ़ ध्यान दूँ.” मंजू दीदी को सुहास का मुझसे हेलमेल तनिक पसन्द नहीं, “जिन लोगों के पास फुरसत-ही-फुरसत है, वही निराली झाँकियाँ देखें......”

“फुरसत की बात मैं नहीं जानता,” सुहास हँस पड़ा है, “लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ, वर्तमान से आगे या पीछे पहुँचना असम्भव है और इसीलिए आपकी बिल्लौरी को अपने वर्त्तमान में पूरी तरह सरक आना चाहिए.....”

“बुद्धि तो इसी बात में है.” मंजू दीदी मुझे घूरती हैं.

“तुम्हें अपने वर्तमान को अनुभवों से भर लेना चाहिए.” सुहास मेरी ओर देखकर मुस्कराता है, “चूँकि तुम्हारे पास नये अनुभवों की कमी है, इसलिए तुम आने वाले अनुभवों का मनगढ़न्त पूर्व धारण करती हो या फिर बीत चुके अनुभवों का पुनर्धारण. तुम्हें केवल अपने वर्तमान को भरना चाहिए.”

“वर्तमान?” घबराकर मैं अपनी आँखें मंजू दीदी के चेहरे पर गड़ा लेती हूँ. मेरा वर्तमान? खिड़की के उस तरफ़ एक भीषण रणक्षेत्र? और इस तरफ़ एक तलाकशुदा छब्बीस वर्षीय रईसजादे के साथ एक कच्चा रिश्ता? दोनों तरफ़ एक ढीठ अँधेरा?

“चलें?” मंजू दीदी समापक मुद्रा से अपने हाथ का झोला मेरी ओर बढ़ा देती हैं. मैं उसे तत्काल अपनी बाँहों में ला सँभालती हूँ. उनके झोले में लम्बे दस्तानों और ब्लडप्रेशर कफ़ के अतिरिक्त स्टेथोस्कोप भी रहता है. वे सरकारी अस्पताल में सीनियर नर्स हैं और अपने ख़ाली समय में सुहास के पास कई सप्ताह से आ रही हैं. अपनी सहायता के लिए वे मुझे भी अपने साथ रखती हैं.

“कल यह बिल्लौरी गोलघर नहीं जाएगी.” मंजू दीदी आते ही बहन के सामने घोषणा करती हैं, “वहाँ मेरा काम बँटाने के बजाय मेरा ध्यान बँटा देती है.....”

“कहाँ?” मैं तत्काल प्रतिवाद करती हूँ, “बिस्तर मैं बदलती हूँ. स्पंज मैं तैयार करती हूँ. तौलिए मैं भिगोती हूँ, मैं निचोड़ती हूँ.....”

सुहास का काम करना मुझे भाता है. वैसे उसकी पलुयूरिसी अब अपने उतार पर है. उसके फेफड़ों को आड़ देने वाली उसकी पलुअर कैविटी, झिल्लीदार कोटरिका, में जमा हो चुके बहाव को निकालने के लिए जो कैथीटर ट्यूब, नाल-शलाका, उसकी छाती में फिट कर दी गयी थी, उसे अब हटाया जा चुका है. उसकी छाती और गरदन का दर्द भी लगभग लोप हो रहा है. उसकी साँस की तेज़ी और क्रेकल ध्वनि मन्द पड़ रही है और बुखार भी अब नहीं चढ़ रहा.

“समझ ले!” मेरी सौतेली माँ मुझसे जब भी कोई बात कहती हैं तो इन्हीं दो शब्दों से शुरू करती हैं, “मंजू का कहा-बेकहा जिस दिन भी करेगी उस दिन तेरा एक टाइम का खाना बन्द.....”

“मैं उनका कहा हमेशा सुनती हूँ.” सोलह वर्ष की अपनी इस आयु में मुझे भूख़ बहुत लगती है, “आगे भी सुनती रहूँगी.”

“ठीक है.” मंजू दीदी अपनी बहन की गोदी में खेल रही उनकी बच्ची को मेरे कन्धे से ला चिपकाती है, “इसे थोड़ा टहला ला. छत पर ताज़ी हवा खिला ला.”

माँ से अलग किए जाने पर आठ माह की बच्ची ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है.

“मेरे पास खेलेगी?” मेरी सौतेली माँ उसकी ओर हाथ बढ़ाती हैं. अपनी बेटी को वे बहुत प्यार करती हैं.

“अब छोड़िए भी.” मंजू दीदी उन्हें घुड़क देती हैं, “कुछ पल तो चैन की साँस ले लिया करें.....”

“समझ ले,” मेरी सौतेली माँ अपने हाथ लौटा ले जाती हैं, “इसे अपने कन्धे से तूने छिन भर के लिए भी अलग किया तो मुझसे बुरा कोई न होगा.”

उनकी आवाज़ में धमकी है.

बच्ची और ज़ोर से रोने लगती है. उसके साथ मैं छत पर आ जाती हूँ.

उसे चुप कराने के मैंने अपने ही तरीक़े ख़ोज रखे हैं.

कभी मैं उसे ऊपर उछालती हूँ तो वह अपने से खुली हवा में अपने को अकेली पाकर चुप हो जाती है..... या फिर उसके साथ-साथ जब मैं भी अपना गला फाड़कर रोने का नाटक करती हूँ तो वह मेरी ऊँची आवाज़ से डरकर अपना रोना बन्द कर दिया करती है, लेकिन उस दिन मेरे ये दोनों कौशल नाक़ाम रहते हैं......

तभी मेरी निगाह सुहास की गोल खिड़की पर पड़ती है.

सुहास अपनी खिड़की पर खड़ा हमें निहार रहा है.

“उधर वह राजकुमार खड़ा है.” बच्ची का ध्यान मैं सुहास की ओर बँटाना चाहती हूँ, “उसका घर देखो. अपने व्यास से ऊँचा है. गोल है. जाओगी वहाँ?” मैं मुँडेर पर जा पहुँचती हूँ.

उसका हाथ पकड़कर मैंने सुहास की दिशा में अपना हाथ लहराया है.

जवाब में सुहास भी अपना हाथ लहरा रहा है.

“जाओगी वहाँ?” बच्ची की दोनों बगलों को अपने हाथों में थामकर मैं उसे सुहास की दिशा में लहरा देती हूँ.

तभी मेरी निगाह उस पतंग पर जा टिकती है जो बच्ची से आ टकरायी है.....

पतंग की डोर से उसे बचाने के लिए मैं पतंग पर झपटती हूँ. बच्ची मेरे हाथ से फ़िसल ली है.....

पतंग जिस फुर्ती से आयी रही, उसी फुर्ती से लोप भी हो लेती है.

मानो वह केवल उस बच्ची को मेरे हाथों से अलग करने के वास्ते ही आयी हो!

मेरे हाथ ख़ाली हैं अब. बच्ची नीचे सड़क पर गिर गयी है.

एक दहल मेरे कलेजे में आन दाख़िल हुई है..... मैं अब भूखी मर जाऊँगी, मेरी सौतेली माँ अपनी बेटी को मेरे हाथों गँवाने की मुझे बहुत बड़ी सजा देगी. क्यों न मैं नीचे कूद पडूँ? ज़्यादा से ज़्यादा पैर की दो-एक हड्डी ही तो टूटेंगी, पलस्तर चढ़ेगा भी तो उतर भी जाएगा......

छत से मैं सड़क पर फाँदती हूँ.

लेकिन खुली हवा मुझसे टकराते ही मुझे अपने कब्ज़े में ले लेती है.....

मेरी देह को कलाबाजियाँ खिलाती हुई वह हवा सड़क पर पहले मेरा सिर उतारती है.....

धब-धब! फिर धम्म से मेरी कुहनियाँ और मेरे घुटने..... चरम पीड़ा की उस स्थिति में भी मेरे कान उस खलबली का पीछा करते हैं जिसके तहत अजनबी आवाज़ों को चीरती हुई मेरी सौतेली माँ चीख़ रही है, “मेरी बच्ची को बचाओ. मेरी बच्ची को, बच्ची को बचाओ.....”

घायल बच्ची के साथ मुझे भी पास के एक डॉक्टर के क्लीनिक पर पहुँचाया जा रहा है, एक मोटरकार में लिटाकर.....

मेरे पिता भी उस भीड़ में आ शामिल हुए हैं और पूछ रहे हैं, “क्या हुआ?”

“क्या बताऊँ क्या हुआ?” मेरी सौतेली माँ विलाप कर रही हैं, “आपकी बेटी ने मेरी बच्ची की जान ले ली.....”

“मुझसे भयंकर भूल हुई,” मंजू दीदी कहती हैं, “जानती थी मैं, बिल्लौरी यह लड़की चुड़ैल है, फिर भी इसके हाथ अपनी बच्ची सुपुर्द कर दी......”

“कब?” मेरे पिता अपने अनिश्चित स्वर में पूछते हैं.

शायद वे निर्णय नहीं कर पा रहे हैं. इस समय उन्हें मेरे प्रति उबल रहे उन दो बहनों के क्रोध का पक्ष लेना चाहिए या अकेली, घायल अपनी बड़ी बेटी का. मेरे पिता को कोई भी असामान्य स्थिति हतबुद्धि कर दिया करती है और उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ता दूसरों को भौंचक. दो वर्ष पहले हुई मेरी माँ की मृत्यु के बाद अपनी दूसरी शादी रचाने में उन्होंने तनिक देरी नहीं की है और तब से मुझे उनसे विपरीत संकेत मिलने शुरू हो लिये हैं. एक ही समय पर अब वे कई रूप धारण करने लगे हैं. उनका एक रूप यदि नयी पत्नी से रसीले प्रेम का स्वाँग रचाता है और दूसरा मंजू दीदी से इश्क़बाज़ी करने का ढोंग तो तीसरा मुझ पर स्नेह उड़ेलने का दावेदार रहा करता है. लहरदार अपने हरेक रूप को स्थापित करने में वे इतने उलझे रहते हैं कि उनका ध्यान हमारी उत्तरकारी बाहरी प्रतिक्रिया के आगे कभी जाता ही नहीं है. उनका नाटक जहाँ मेरे अन्दर तीख़ा संक्षोभ जगाता है तो वहीं साझा लगा रही वे बहनें उनकी पीठ पीछे उनके दुस्साहसी अभिनय को आपस में बाँटा करती हैं. खींसे निकाल-निकालकर!

“अच्छी-भली मेरी बच्ची मेरी गोद में खेल रही थी.” मेरी सौतेली माँ चीख़ रही है, “हाय अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? अब यह खेल क्यों नहीं रही?”

“मुझे अफ़सोस है.” शायद यह आवाज़ डॉक्टर की है, “यह बच्ची निष्प्राण हो चुकी है. लेकिन आपकी बड़ी बेटी का केस ज़रूर गुंजाइश रखता है. इसे आप फ़ौरन अस्पताल ले जाइए. इतने लहू का बह जाना ठीक नहीं. इसके सिर और पैर दरक गये हैं.”

“सुहास!” मैं कराहती हूँ.....

छत से मुझे नीचे कूदते हुए उसने मुझे देखा होगा..... उसे याद होगा अभी कुछ ही समय पहले उसकी खिड़की में खड़ी होने पर मैंने उसे बताया था कि अभी-अभी मैंने अपने मकान की छत से अपने आपको नीचे गिरते हुए देखा है.....

“सुहास!” मैं फिर पुकारती हूँ.

इस भीड़ में क्या वह कहीं नहीं है?

कस्बापुर में एक ही अस्पताल है. मंजू दीदी वाला सरकारी अस्पताल.

मुझे अस्पताल मेरे पिता पहुँचाते हैं.

अस्पताल से उनका परिचय पुराना है. मेरी माँ ने कुल जमा छत्तीस साल की अपनी उम्र के आख़िरी दस दिन यहीं गुज़ारे थे, बुखार में. मंजू दीदी से मेरे पिता की भेंट भी इसी सिलसिले में हुई थी.

अस्पताल में उन दो बहनों की लानत-मलामत और अपनी भूख़-प्यास से भी ज़्यादा मुझे सुहास से बिछोह खलता है..... अपने स्कूल से छेंकाव खटकता है.

फिर एक दिन मेरे पिता मेरे स्कूल के बस्ते और मेरे निजी सामान के झोले के साथ मुझे अस्पताल से छुट्टी दिलाते हैं और सीधे लखनऊ की गाड़ी से मुझे यहाँ मेरे मामा के पास छोड़ जाते हैं.....

फलतः कस्बापुर मुझसे छूट गया है और मामी की टहलक़दमी शुरू हो गयी है..... ईश्वर की कृपा से उनके चार बेटे ही बेटे हैं, और फिर मुझसे बड़े भी. उन्हें टहलाने से इसलिए इधर बची हूँ.

एक बात और.....

इधर लखनऊ में मुझे कोई भी ‘बिल्लौरी’ नाम से नहीं पुकारता.....

मेरे पिता की तरह मुझे उषा ही के नाम से जानते-पहचानते हैं.