अब और नहीं... Neelima Tikku द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अब और नहीं...

अब और नहीं...

कड़ाके की ठंड में चारों ओर घना कोहरा छाया हुआ था। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। ऐसे में उसकी मज़बूरी को समझता हुआ वृद्ध रिक्शा चालक धीरे-धीरे उसे गंतव्य की ओर ले जा रहा था। उसकी आँखें नम हो आयीं, कितनी मेहनत करते हैं ये लोग। धुएँ के गुबार उड़ाते टैक्सी-ऑटो चालकों से ये साईकिल रिक्शा चलाने वाले मेहनतकश लोग उसे ज़्यादा अच्छे लगते हैं। यूँ शिकायत उन्हें किसी से भी नहीं है, सब अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। ठंड से अकड़े हाथों में थर्मस और नाश्ते का टिफिन थामें, रिक्शे से उतर कर वह अस्पताल में दाखिल हुईं। अन्दर पैर रखने की जगह नहीं थी। फ़र्श पर गद्दे बिछाये क़तार में मरीज़ और उनके रिश्तेदार सिकुड़े हुए बैठे थे। किसी तरह जगह बनाती वह एक बार तो लिफ्ट के सामने पहुँच कर ठिठक गई थी। तभी पास खडे व्यक्ति की उपहास भरी नज़रों से बचती. हाँफतीकाँपती सीढ़ियाँ चढ़ने लगी थी। सोचा सरकारी अस्पताल में मरीज़ को लिफ्ट में प्रवेश मिल जाये वही बहुत है। शायद आम आदमी के लिए लिफ्ट का प्रयोग पूरी तरह से वर्जित है। तीसरी मंजिल पर पहुँच कर उसने वार्ड में प्रवेश किया। अंदर निढाल पड़ी उस लड़की को देखकर वो अपनी सारी थकान भूल गई। उसे उठाकर नाश्ता कराया फिर मनुहार करके उसे गर्म-गर्म दूध पिलाने लगी। ऐसा करते हुए उसे एक अनोखी तृप्ति का अहसास हो रहा था। पास खड़ी लड़की की माँ उसके व्यवहार से गद्गद् हो रही थी,

"आशा जी आपका ये एहसान मैं कभी नहीं भूलूँगी। आप हम माँ-बेटी के लिए एक फ़रिश्ता बन कर आयी हैं। आपने हमारे लिए दिन-रात एक कर दिया। सच कहूँ तो एक माँ होकर भी मैं इसके लिए इतना नहीं कर सकती थी। मैं तो बस ना जाने कैसे हिम्मत करके इसे यहाँ तक ले आयी.... बाकी सब कुछ आपने ही संभाला है। डॉ. नीरा बत्रा जी ने मेरी बेटी की इतने दिनों से जो समझाइश की है उसी की वजह से वो आज हालात का सामना करने के लायक हुई है। आपकी वज़ह से मेरी बेटी बच गई।"

वह खोयी-खोयी सी बड़बड़ा रही थी, “बहन जो हिम्मत आपने दिखायी है वो कितनी महिलाएँ जुटा पाती हैं ? वर्षों पहले उस औरत ने ऐसी ही हिम्मत दिखायी होती तो आज उसकी बेटी भी....बच जाती।"

"किसकी बात कर रही हैं आप?"

उसका बड़बड़ाना जारी था, "थी एक औरत, साथ ही एक लापरवाह माँ भी, उसकी बेटी के चारों ओर गिद्ध मंडरा रहे थे, जिन्हें देखकर भी वो अनदेखा कर गई।"

पास खड़ी औरत सहम गई थी, "क्या कह रही हैं आप!?" अब कहाँ हैं वो औरत?

"कहाँ है!?.... उससे बात करती आशा मानों पिछले जन्म की स्मृतियों में चली गयी थी। ये वो समय था जब सुरसति जिन्दा थी। गाय को चारा खिलाती सुरसति ने हल्की सी आहट होने पर पीछे मुड़कर देखा तो बेटी कमली दबे पांव घर में घुसती नज़र आयी कुछ अटपटा सा लगा रोज़ तो उसकी चहकती आवाज़ दूर से ही सुनायी दे जाती है। दादी उस पर छीजती रहती है, "लड़की है लड़की की तरह रहा कर पढ़ाई करके आ रही है, कोई तीर नहीं मार रही।" वह बेपरवाह सी माँ का आँचल पकड़कर उसके पीछे छिप जाती थी और वो उसे प्यार से गले लगा लेती। सास चिढ़ जाती थीं, "ज़्यादा लाड़ ना लड़ा सुरसति पराई लड़की से, इसे दूसरे घर जाना है। वह डर कर कहती, "मैं परायी नहीं हूँ।मेरा घर है ये।"

दादी चिढ़चिढ़ाती, "अरे नहीं है तो एक दिन हो जायेगी, कौन सारी जिंदगी हमारी छाती पर चढ़कर मूंग दलेगी।" उस समय घर में पति-जेठ में से कोई भी होता तो वो अपनी माँ की हाँ में हाँ मिलाता सुरसति को डपट देता लेकिन उस दिन उसकी ननद पीहर आयी हुई थी। बुआ को देखकर कमली खिल जाती है वो उसे बहुत प्यार जो करती है। कमली में उसे अपना बचपन दिखाई पड़ता है। ज़माना बहुत बदल गया है। कमली को कम से कम पढ़ने का अवसर तो मिल रहा है, उसे तो जल्लाद भाइयों ने विद्यालय की शक्ल भी ना देखने दी। आठ कक्षा पास सुरसति भाभी को जब तब पढ़ी लिखी गंवार, कहकर भाई अपनी खीज़ उतारते रहते थे लेकिन वो भाभी से बहुत स्नेह रखती थी। भाभी ने घर पर ही उसे अक्षर ज्ञान जो कराया था। शब्द जोड़-जोड़ कर थोड़ा बहुत जो पढ़ पाती थी वो उसकी प्यारी भाभी सुरसति की ही देन है। लेकिन आज वह कमली के व्यवहार से हैरान हो गई थी। हमेशा की तरह वो उनके गले नहीं लगी ना ही उनसे मिलने का उत्साह दिखाया। धीरे से प्रणाम बुआ कह कर वो अपने कमरे में चली गई, उसके पीछे-पीछे सुरसति भी भीतर चली गयी थी।"

"ये क्या हरकत की री तूने बुआ से ढंग से बात भी नहीं की वो क्या सोचती होंगी" कहती कमली की ओर देखती वो चौंक गईं थी। बारह साल की मासूस बेटी भय से पीली पड़ी हुई थी। स्कूल से घर तक का रास्ता बड़ी मुश्किल से कटा था उसका। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उसने आज कोई उछल कूद नहीं की ऐसा कुछ नहीं किया जिससे उसे इतनी चोट लग जाये।फिर ये सब कैसे हुआ। घबराते हुए उसके मुँह से अस्फुट स्वर में निकला, "माँ देखो तो मेरे कपड़ों पर कैसे दाग लग गये, मैं कहीं गिरी नहीं, कहीं चोट नहीं लगी.....।"

ओह उसने स्थिति को समझा, बेटी का ऋतुचक्र शुरू हो गया है, वह उसे प्यार से समझाने लगी, "बेटी इसमें घबराने की कोई बात नहीं है ये तो प्रकृति का नियम है हर लड़की के साथ ऐसा होता है।" डरी-सहमी कमली की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। ये प्रकृति का कैसा अजीब नियम है । माँ उसे प्यार से समझाती रही काफी देर बाद नहा धोकर असहज सी वह बाहर आयी तो बुआ ने उसे खाने की थाली पकड़ा दी। जैसे-तैसे खाना खाकर वह वापिस अपने कमरे में चली गई। जब भी बुआ आती है, कमली के साथ ही सोती है। उसकी मनःस्थिति को समझती बुआ उसे स्नेह से सहलाने लगी। बुआ का नेह स्पर्श पाकर ना जाने उसे क्या हुआ कि वो फूट-फूट कर रोने लगी। उस रात बुआ के साथ बात करते हुए उसने अपनी बालसुलभ जिज्ञासाओं का पिटारा खोल दिया और बुआ भी धीमे-धीमे उनका समाधान करने लगी। कमली अब भी बेहद असहज थी। अचानक उसने पूछा, बुआ क्या दोनों बड़े भाईयों के साथ भी ऐसा होता है ?" उसकी बात सुनकर बुआ पर हँसी का दौरा सा पड़ गया था। बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी पर काबू पाकर बोली, "नहीं पगली, ऐसा सिर्फ लड़कियों के साथ ही होता है।" बुआ की बात सुनकर वह रूआँसी हो उठी थी। ये क्या बात हुई, ऐसा गंदा काम सिर्फ लड़कियों के साथ ही क्यों होता है।" अब बुआ गम्भीर हो उठी थी, "बेटी ये प्रकृति का नियम है। ये गंदा काम नहीं है । ये एक लड़की के स्वस्थ होने की निशानी है। अब से उसे हर महिने में चार-पाँच दिन इसी के साथ निकालने पड़ेंगे। शुरू-शुरू में दिक्कत आयेगी फिर आदत पड़ जायेगी। माँ ने भी कुछ ऐसा ही कहा था उस का मन ना जाने कैसा-कैसा होने लगा था। बुआ उसे समझाती रही और वह हैरानी से सुनती रही। लड़कियों से इन चार-पाँच दिनों में घर में रसोई का कोई काम नहीं करवाते हैं ताकि थोड़ा आराम मिल जाये। बस तू अपनी साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखना। रात में एक-दो बार उसे उठना पड़ा। बुआ ने उसकी मदद कर दी थी। दूसरे दिन उसे देर तक सोती देखकर पिता बुआ पर बरस रहे थे।'

"रात भर बैठकर उस से क्या खुसर-पुसर कर रही थी। इतनी देर कर दी उठने में, पाठशाला जाने के लिए भी तैयार नहीं हुई।"

विवाह से पहले ननद अपने पिता और भाइयों से बहुत डरती थी लेकिन अब स्थिति अलग थी। मालदार होने के साथ ही ऊँचे रसूख वाले ससुराल के बड़े बेटे की बह थी। ससराल में उसकी बहत इज्ज़त थी सो अब वो भाइयों की दबंगई सहन नहीं करती थी। "क्या हुआ मैं कौन रोज़-रोज़ आपके घर आती हूँ ? माँ के अलावा कमली ही है जिसका प्यार मुझे खींच लाता है। तुम कहो तो यहाँ आना बंद कर दूं। मैं चार दिन के लिए आयी हूँ और जब तक मैं यहाँ हूँ, वह पाठशाला नहीं जायेगी।"

पैसे वाली बहन, चार पैसे दे ही जाती है। कुछ लेने की आस नहीं रखती। दुःख-सुख में परले गाँव का सरपंच इसका जेठ ही उनके काम आता है। सो भाई नरम पड गये थे, "अरे बुरा मत मान, तेरा घर तो बस गया, इसे पराये घर जाना है सो लक्खन तो हमें ही सिखाने पड़ेंगे ना? तू चार दिन की बात कर रही है, मैं तो कहता हूँ लड़की जात पढ़कर क्या निहाल करेगी। इसकी माँ ने पढ़-लिख कर क्या निहाल कर दिया।काम तो घर और खेत में ही करना है। तेरी भाभी को समझा ये बात, कि इससे ज़्यादा दोनों लड़कों की पढ़ाई पर ध्यान देवें, वहीं काम आयेंगे हमारे। इसका क्या है चार दिन बाद पराये घर चली जायेगी।"

बुआ बड़बड़ाने लगी, "भैया तुम्हारी यही कूड़मगज़ी इस घर को ले डूबेगी। लड़की को तो तुम इंसान ही नहीं समझते हो। तुमने अगर मुझे पढ़ाया होता तो आज मैं अपने गाँव की सरपंच होती..." भाई को बहिन की ये बात पसंद नहीं आयी थी। आदमी ही सरपंच बना शोभा देवे है, औरतें घर संभाले । डोर-डंगर संभालें। जिसका काम उसी को साजे । लेकिन बहन के सामने वह चुप्पी साधे रहा।

ननद अपने घर चली गयी थी। दो माह व्यतीत हो गये थे। कमली यह सोचकर खुश थी कि दो महीने से उसके साथ वैसा कुछ नहीं हुआ लेकिन सुरसति चिंतित हो उठी थी। आखिर एक-दिन कस्बे की एक मात्र डिस्पेंसरी में डाक्टरनी जी के यहाँ उसे ले गई। दुबली-पतली कमली का चैकअप करती वो कह रही थीं। 'शुरूआत में कई बार ऐसा हो जाता है तुम चिंता मत करो इसे हरी पत्तेदार सब्जियाँ पालक, बथुआ, मेथी, फली-बैंगन खिलाओ। तुम्हारे यहाँ तो गाय है। इसे दूध-दही दिया करो. देखो कैसी पीली पडी हई है।"डाक्टरनी की बात सनकर सरसति मन ही मन सोचने लगी। घर के मर्दो से कुछ बचे तो बच्ची के मुँह में जाये। रात को सुरसति पति से कह रही थी, "डॉक्टरनी जी कह रही थी कि कमली में खून की कमी है उसे हरी पत्तेदार सब्जियाँ और दूध-दही दिया करो।" खेतों से थकाहारा आया पति आग बबूला हो उठा था, "जब से ये लड़की पैदा हुई है तेरी ये डाक्टरनी इसी गांव में जमी हुई है। गांव वालों की सेवा करूंगी, कहकर कही दूसरी जगह तबादला नहीं करवाती। ब्याह किया नहीं तो कोई बाल बच्चा भी नहीं है इसके, लेकिन दूसरों के बच्चों में भी अपनी बिना मांगी सलाह थोपती रहती है। पहली बात तो इसने लड़की का प्रसव करवाया। तब इसके डर से हम कुछ नहीं बोले, फिर बचपन में इसका ब्याह नहीं होने दिया। तब शादी पक्की हो जाती तो अब गौना करके इसके ससुराल भेज देते। अपने आप ससुराल वाले जो खिलाना होता वो खिलाते। हमारी जान छूट जाती। तू डाक्टरनी की बकवास सुनना छोड़ और दोनों बेटों की तरफ ध्यान दे उनका हट्टाकट्टा रहना ज़्यादा ज़रूरी है।"

सुरसति हैरानी से पति नाम के इस ज़ालिम बाप को देख रही थी। उसकी बात गांस की तरह उसके सीने में धंस गई थी। पत्नी की तीखी नज़रों से हरखू और उबल गया, "यूँ आँखें निकाल कर क्या देख रही है। खेतों से थकाहारा आया हूँ, चल पैर दबा दे। लड़की को पाल पोसकर इतना बड़ा कर दिया ये क्या कम है। अब बड़ी हो गई है इसे अगले घर भेजने की जुगत लगा रहा हूँ।" सुरसति हौले से गिड़गिड़ाई, "पढ़ने में इतनी होशियार है, पढ़ने दो इसे, अभी उम्र ही कितनी है। कच्ची उम्र में विवाह करके उसे मुसीबत में क्यों डालना चाहते हो।"

हरखू क्रोध से आग-बबूला हो उठा, "कोई छोटी नहीं रही अब। नत्थू को बोलकर इसके लिए लड़का तलाश करवाता हूँ। दोनों बेटों को पढ़ाना ज़्यादा ज़रूरी है। तुझे कित्ती बार कहा कि इसकी पढ़ाई छुड़वा कर घर के काम काज में जोत के रख।कल से इसका पढ़ने जाना बंद।"

पिता की बात सुनकर भाईयों के लिए दूध गर्म करती कमली की आँखों से टपटप आँसू बहने लगे। पिता की देखा-देखी दोनों भाई भी जब-तब उस पर रौब झाडने लगे थे। उस दिन भी जब वह उन्हें दूध के गिलास पकड़ा रही थी छोटा भाई अपनी भड़ास निकालने लगा, "बड़ी आयी कक्षा में प्रथम आने वाली, चुपचाप घर बैठ और घर के काम-काज कर, पढ़ाई हम लड़कों को करनी है समझी?" दूध बहुत तेज़ गर्म था, आँसुओं से धुंधली हो आयी आँखों से पूरी तरह दिखा नहीं और भाई को दूध पकड़ाने से पहले ही गिलास बीच में ही हाथ से छूटकर उसी के ऊपर गिर गया। तेज़ गर्म दूध से उसकी जांघों और पैरों पर फफोले पड़ गये। उसकी चीख सुनकर सुरसति भागी चली आयी। दर्द और जलन से तड़फड़ाती अपनी बेटी को गोद में उठाए वह पागलों की तरह जो भागी तो सीधी डॉक्टरनी की क्लीनिक पर ही जाकर रूकी। दरवाज़ा कलुआ ने खोला था। कलुआ के आगे पीछे कोई ना था, वह डॉक्टरनी जी के घर पर काम करने के साथ ही डिस्पेंसरी के छोटे-छोटे कामों में भी उनकी मदद कर दिया करता था।

कमली को दर्द से तड़पते देखकर भी उसका दिल नहीं पसीजा था, “क्या हुआ, अभी देखने का टेम खत्म हो गया है सुबह आना, कहता वो दरवाज़ा बंद करने लगा लेकिन सुरसति बेटी को गोद में उठाए हाँफती-काँपती दरवाज़े के बीच में खड़ी हो गई थी, "नहीं डाक्टरनी जी को बुलाओ कहना सुरसति आयी है।"

"तुम कौनसी लाट साहब हो? वो थक गई हैं ऊपर आराम कर रही हैं । होहल्ला सुनकर डाक्टर सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आ गयीं थीं। उन्हें देखते ही चौंकी अरे सुरसति क्या हुआ कमली को? कलुआ को फटकार लगाती डाक्टरनी ने तुरन्त दर्द से तड़पती बच्ची को मलहम लगाते हुए सुरसति से कहा, "तुम बच्ची की तरफ से इतनी लापरवाह कैसे हो जाती हो सुरसति? दूध दे रही थी इसे, तो थोड़ा ठंडा करके देना चाहिए था गर्म गिलास पकड़ा दिया तो पकड़ नहीं सकी बिचारी...''

सुरसति ने मौन साध लिया था। सच सुनकर डॉक्टर डांट लगाती। डॉक्टर समझी कि बेटी की हालत देखकर वो घबरा गई है, अब उन्होंने कलुआ को घूरा, "रात-बिरात कोई रोगी आता है तो समझ लेना चाहिए कि मामला गम्भीर ही होगा। बच्ची दर्द से तड़प रही है और तुम उसे दरवाज़े से ही भगा देना चाहते थे। सुबह तक तो उसकी हालत बहुत खराब हो जाती।" कलुआ भी सिर हिलाता चुपचाप खड़ा रहा। कुछ दिनों तक कमली की ड्रेसिंग होती रही। तुरन्त इलाज होने से कमली ठीक होने लगी थी। अक्सर सुरसति और कमली की कलुआ से बातचीत होने लगी थी। अब डॉक्टरनी की अनुपस्थिति में कई बार उन्हें जुकाम-बुखार की दवाई कलुआ ही दे देता था। कलुआ की हमदर्दी पाकर मासूम कमली अपने पिता और भाइयों के खराब व्यवहार के बारे में भी उसे बताती रहती थी जिसे सुनकर कलुआ उन्हें राक्षस बताता कमली को पुचकारता रहता।

एक दिन माँ द्वारा बनाये कैर के आचार की शीशी लेकर वह डॉक्टरनी जी को देने जा रही थी कि रास्ते में उसके पैर में एक काँटा चुभ गया। एक पैर को घसीटती वह क्लीनिक जा पहुँची। कलुआ ने बताया कि डॉक्टरनी जी शहर गई हुई हैं। आचार की शीशी उसे थमा वो घर आने के लिए मुड़ी ही थी कि कलुआ की आवाज़ से उसके कदम रुक गये थे।

"अरी पैर काहे घिसट के चल रही है, क्या हुआ?"

"पैर में कांटा चुभ गया है।"

"इतनी सी बात है, ला मैं निकल देता हूँ।"कांटे की चुभन से परेशान कमली ने अपना पांव आधा उठा दिया। कलुआ उसका पैर सहलाते हुए बोला, "बहुत बारीक फांस है ऐसे नहीं निकलेगी अंदर चल मैं छोटी चिमटी लेकर आता हूँ। अन्दर बैठी कमली के पैर की फाँस निकालते कलुआ के भीतर का शैतान जाग उठा था और उसके बाद क्लीनिक के कमरे में अपने आपको कलुआ की जकड़ से छुड़ाने की हरसम्भव कोशिश करती कमली असहनीय दर्द से छटपटाती रही। अपने कुत्सित इरादे में कामयाब होने के बाद कलुआ ने उसके मुंह पर चिपकाये टेप को निकालते हुए धमकाया, "ख़बरदार किसी को बताया तो, तुझे पता है ना तेरा बाप कितना राक्षस है तुझे जान से मार देगा।" कलुआ तो उसी समय वहाँ से अपना सामान बाँधकर भाग छूटा था। डरी-सहमी, दर्द से छटपटाती वह किसी तरह छिपते छिपाते अपने घर जा पहुँची। उस दिन उसके पड़ोस में रतजगा था सो सभी घरवाले पड़ौसी की मदद के लिए गए हुए थे। वह जाकर अपने बिस्तर पर लुढ़क गयी थी। शाम को घर आयी माँ] उसे कराहते देखकर कुछ और ही समझ बैठी, "चलो शुकर है, मैं तो तेरी यूँही चिन्ता कर रही थी। बेटी इसमें थोड़ा बहुत दर्द तो होता ही है। अच्छी लड़कियाँ इस दर्द को चुपचाप सह लेती हैं। ये नई बात नहीं है हर महीने का चक्कर है। अब पड़ोस में होने वाले जगराते में तू नहीं जा सकेगी सो तू घर पर ही आराम कर।" शरीर के साथ-साथ मन से घायल, डरी-सहमी वह दम साधे चुपचाप पड़ी रही। उस हादसे से वो उबर नहीं पायी ना ही माँ से कुछ कह सकी थी। माँ ने अगर पिता को बता दिया तो उसकी जान की खैर नहीं रहेगी। अपने साथ हुए इस खौफ़नाक हादसे के बाद से उसकी मानसिक स्थिति डांवाडोल हो गई थी। लड़कों को देखकर ही डर जाती थी। अब ना वो भाइयों से ज़्यादा बात करती ना ही चाचा-ताऊ और पिता से । पाठशाला जाना भी बंद कर दिया था। माँ ने उसे बहुत समझाया कि माहवारी से तो सब लड़कियों को गुजरना पड़ता है। साथ ही सभी काम भी करने पड़ते हैं। पढ़ना-लिखना लड़की के लिए बहुत ज़रूरी है लेकिन वो टस से मस नहीं हुई। उसके पढ़ाई छोड़ देने से माँ बहुत दुखी हुई, वहीं बुआ भी हैरान थी लेकिन हरखू बहुत खुश था कि कमली पढ़ाई-लिखाई जैसी फ़ालतू चीज़ों में समय बरबाद करने की बजाय घर के कामों में हाथ बंटाने लगी है। हर समय बकर-बकर करने वाली बेटी संस्कारवान लड़कियों की तरह चुप रह कर कुल की मर्यादा का पालन कर रही है। रो-धोकर पास होने वाले उसके भाई भी ये सोच कर बहुत खुश हुए कि कमली के परीक्षा में अच्छे अंक लाने पर उसकी माँ कम नम्बर लाने पर उन्हें डांट-फटकार लगाती रही है वह अब बंद हो जायेगी। कमली के चेहरे का दर्द किसी को दिखाई नहीं दे रहा था। सब की यही सोच थी कि लड़की जात है, घर में बैठी रोटियाँ तोड़ रही है उसे भला क्या दुःख होगा लेकिन एक दिन जब दादी ने सुरसति से कहा, "बहू ये कमली पढ़ाई-लिखाई नहीं कर रही। घर में हरदम मनहूस सूरत लिए घूमती रहती है। खाली बैठी रोटियाँ ही तोड़ रही है, उसका विवाह कर इसे ससुराल भेजने की जुगत लगा, विवाह का नाम सुनते ही कमली भय से पीली पड़ गई थी, उसे वो दुर्घटना याद हो आई थी, उस दिन जब वो दर्द से बिलबिला रही थी तब हिंसक जानवर बना कलुआ कह रहा था, इतना क्यूंचीख रही है। शादी के बाद यही सब तो करेगा तेरा पति, वो भी रोज़-रोज़ । तब भी क्या ऐसे ही चिल्लायेगी। मासम कमली के लिए विवाह का अर्थ अच्छे कपडे पहनना, सजना, संवरना मात्र ही था, उसकी कोमल भावनाएं आहत हुईं थीं। उस अमानुषिक अत्याचार के बारे में सोचकर ही उसकी रूह कांप गयी थी। विवाह का ऐसा वीभत्स रूप देख-सोच वह थर-थर कांपने लगी थी। माँ के आँचल से चिपकती वह रो दी थी, "माँ मैं विवाह कभी नहीं करूँगी, तुम कहोगी तो मैं अभी और पढ़ाई करूँगी; विद्यालय जाऊँगी।" उसने फिर से विद्यालय जाना शुरू कर दिया था। सुरसति उस दिन बहुत खुश हुई थी। बेटी पढ़ लिख जायेगी तो उसकी जिंदगी संवर जायेगी। दिन पर दिन मुझाती बेटी को देख चिंतित सुरसति सबसे छिपाकर उसे दूध दिया करती उसकी रोटियों पर ढेर सारा घी चुपड़ती तो कभी सबसे छिपाकर उसकी सब्जी की कटोरी में घी डाल देती लेकिन अब जैसे कमली को कुछ पचता ही नहीं था दूध को देखकर भी उबकाई सी आती। सुरसति बड़बड़ाती, "बचपन से कभी दूध मुँह नहीं लगाया इसलिए तझे इसे पीने की आदत नहीं रही लेकिन बेटी इसे दवाई समझ कर पी लिया कर । बेटी के मना करने पर भी एक दिन उसने गिलास भर कर दूध उसे पिला दिया था। दूसरे ही पल उसने उलटी कर सारा दूध बाहर निकाल दिया था। उसी समय हरखू ने घर में प्रवेश किया। उलटी के रूप में बाहर निकले दूध को देखकर उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं थीं, "तो ये कांड कर रही हो तुम माँबेटी। मेरे मना करने के बाद भी तूने इसे वापिस विद्यालय भेजना शुरू कर दिया और अब सबसे छिपाकर इसे दूध पिला रही हैं। शर्म नहीं आती तुझे बेटों का हक मारते हुए।" कमली की घिग्घी बंध गई थी और सुरसति की आँखें गंगा-जमुना बरसाने लगीं थीं।

"आप देखो कमली कितनी दुबली हो गई है। ढंग से कुछ खाती-पीती नहीं आज सुबह से इसने कुछ नहीं खाया इसीलिए इसे दूध दिया था।" पत्नी की बात सुनकर हरखू ने उसे फटकारा,

"तीन महिने से पाठशाला नहीं जा रही थी तेरी बेटी। अब वापिस पढ़ाई शुरू की है महारानी ने। हर समय पढ़ने में लगी रहती है। खाना क्यों नहीं खाती। किसने मना किया है। तेरा झूठ सुन-सुनकर मेरे कान पक गये हैं। अगर ये खाना नहीं खाती तो क्या हवा-पानी पीकर जी रही है और बिना कुछ खाए-पीए ही इसका इतना पेट निकल आया है। तीन महिने से तो घर पर ही थी, तुझे क्या पता चुपचाप चरती रहती होगी।इसे कम मत समझ तू।"

पति की निष्ठुरता से आहत सुरसति का ध्यान कमली के पेट की ओर गया तो वो एक पल को हैरान रह गई। लड़की का चेहरा तो सूख गया है, लेकिन पेट सच में निकल आया है। जरूर इसे कोई पेट की बीमारी हो गई, तभी इससे ठीक से कुछ खाया-पिया नहीं जा रहा है। डॉक्टरनी को दिखाऊँगी, सोचती वो अपने काम में लग गई कुछ दिन और निकल गये यही देर उसके जी का जंजाल बन गयी थी। जिस दिन बेटी को लेकर वो डॉक्टर की क्लीनिक पर पहुँची तो हैरान रह गई। डॉक्टरनी जी का सारा सामान बंधा हुआ था। उनकी बदली दूसरी जगह हो गई थी। कमली की बीमारी का सुनकर वो चिंतित हो उठीं, कहीं इसके लिवर में कोई खराबी तो नहीं है। यही सोचकर उसे लिटाकर उसकी जाँच करने लगीं। अचानक ही उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं थीं।सुरसति को कोने में ले जाकर बोली, "इसके तो तीन महिने से ज़्यादा का गर्भ है।" सुनकर वह सन्न रह गई। "हाँ तीन महिने से इसे ऋतुस्राव नही हुआ, लेकिन आपने ही तो कहा था कि शुरू में ऐसा होता रहता है, इसलिए मैंने इतना ध्यान नहीं दिया....पर ऐसा नहीं हो सकता, आप ध्यान से देखो।" इधर डॉक्टर कमली को पुचकार रही थी, "बेटी तेरे साथ कभी किसी ने कुछ गलत काम किया था क्या?" डर के मारे कमली की घिग्घी बंध गई थी। उसने रोते-रोते उस दिन की सारी घटना बता दी। उसे क्या पता था कि कलुआ ने उसके साथ जो गंदा काम किया था, उसका ये परिणाम निकलेगा। उसकी बात सुनकर डॉक्टर की समझ में आ गया था कि उसके उन दिनों शहर जाने के बाद पीछे से कलुआ बिना कुछ कहे सुने क्यों ग़ायब हो गया था। अपनी बेटी को कोसती सुरसति अपना सिर पीटने लगी थी। अपने आदमी का विकराल रूप उसकी आँखों के सामने मंडराने लगा था। बेटी के जन्म के समय इस डॉक्टरनी की वजह से ही उसमें हिम्मत आ गई थी और तब उसने अपने आदमी का विरोध कर बेटी को बचाया था। आज अचानक ये गांव छोड़कर जा रही है। इसी की क्लीनिक पर कलुआ ने उसकी बेटी की इज़्ज़त तार-तार कर दी। उसका पति अब उसे किसी हाल में जिंदा नहीं छोड़ेगा। तभी डॉक्टर ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए थे, "सुरसति इस तरह अपना सिर पीटने या बच्ची को कोसने से क्या होगा। इस बिचारी को तो पता ही नहीं है कि इसके साथ क्या हुआ है ?"

सुरसति डॉक्टर के पैरों में गिर गई थीं, “आप इसका गर्भ गिरा दो नहीं तो लड़की की जान की खैर नहीं है। मेरे घरवाले इसे मार डालेंगे।"

हालात को समझती चिंतित डॉक्टर उसे समझा रही थीं, "बच्ची बहुत कमज़ोर है, खून की कमी है, इसके शरीर में और अब काफी समय निकल गया है अब गर्भ गिराने से इसकी जान को ख़तरा है। इस छोटी जगह में आपात स्थिति के लिए पूरे साधन भी नही हैं। इसका गर्भपात करने पर मेरी जेल जाने की नौबत भी आ सकती है। मुझे नौकरी से भी हाथ धोना पड़ सकता है। तुम्हारा पति वैसे ही मुझसे चिढ़ता है। सारा दोष मुझ पर मढ देगा। शरुआती समय में पता चल जाता तो मैं कुछ मदद कर सकती थी। अब कुछ नहीं कर सकती, अब तो जो फैसला लेना हो अपने घर पर जाकर शांति से सोच समझ कर लो।"

सुरसति सहम गई थी, "मैं क्या फ़ैसला लूँ डॉक्टरनी जी? हमारे घरों में औरतों के फैसले नहीं चलते, सभी निर्णय मर्द ही लेते हैं। घर के मर्दो के ख़िलाफ़ जाकर मैं बच्ची को पाठशाला भेज रही थी।कुँआरी बेटी माँ बनने जा रही है ये ख़बर किसी तक पहुँचने से पहले ही वो हम दोनों को मार डालेगा..."

"अरे ऐसे कैसे मार देगा सुरसति? कानून नाम की भी कोई चीज़ है या नहीं?" डॉक्टर बोल तो रही थी लेकिन एक औरत होने के नाते सुरसति के हालात का अंदाज़ा लगा मन ही मन काँप भी रही थी। सुरसति को तो जैसे डॉक्टर की बात सुनाई ही नहीं आ रही थी, वो अनर्गल प्रलाप करने लगी।

"इसके पैदा होने पर मेरे पति ने इसे ख़त्म करने का जो इरादा किया था तब उसे मान लेती तो आज ये दिन नहीं देखना पड़ता, तब ये नन्हीं सी थी। अब इसके साथ एक नन्हीं जान और है। अब क्या होगा, कुछ पता नहीं।" सारी बातें सुनती कमली पीपल के पत्ते की तरह काँप रही थी।डॉक्टर ने उसे झिड़का, “मासूम बेटी के सामने ऐसी बात करते हुए तुम्हें शर्म आनी चाहिए। एक औरत होकर अपनी बेटी का बुरा सोच रही हो। मैंने तुम्हें पहले भी समझाया था इस हादसे में इसका कोई दोष नहीं है।"

"समाज तो हर हाल में लड़की को ही दोषी मानता है डॉक्टरनी जी। इसका दोष यही है कि इसने मुझे इस बारे में नहीं बताया। एक लड़की को अपने साथ घटी अच्छी-बुरी हर घटना के बारे में अपनी माँ को तो बताना ही चाहिए ना। इसने मुझे बताया होता तो आज ये दिन ना देखना पड़ता। गलती मेरी भी है। उस दिन इसकी खराब हालत को देखकर भी मैंने अनदेखा कर दिया। पड़ोस में जगराता था सो ईश्वर की सेवा के काम में लगे हुए थे। मैं तो यही समझी की ऋतुचक्र शुरू होने से इसकी हालत खराब हो रही है।"

डॉक्टरनी से ही एक आशा की किरण बँधी थी लेकिन उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए थे। थर-थर काँपती सुरसति को पति को सब कुछ बताना ही पड़ा था। उस दिन घर में देवर-जेठ नहीं होते तो कमली का मौत के मुँह में जाना निश्चित था। हरखू ने तो उसका गला दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। देवर-जेठ ने उसे छुड़ाया था। घर के सभी मर्दो की गुप्तमंत्रणा हुई थी जिसमें यही तय हुआ था कि कलुआ को ढूँढ़कर सजा दिलवाने से घर की रही-सही इज़्ज़त भी मिट्टी में मिल जायेगी। एक डॉक्टरनी इस राज़ को जानती थी लेकिन वो भी गांव छोड़कर जा चुकी थी। घर में जिस तरह से सब मर्दों ने चुप्पी साध ली थी। सुरसति किसी अनजानी आशंका से आतंकित हो गई थी। इसी बीच अचानक एक दिन सुरसति के ससुर की तबियत बहुत ख़राब हो गई थी उन्हें इलाज के लिए शहर ले जाया गया। वहाँ जाकर पता चला कि उनकी बीमारी लाइलाज़ हो चुकी है। वो कुछ दिनों के मेहमान हैं। डॉक्टर ने जवाब दे दिया तो उन्हें वापिस गाँव ही ले आए थे। पूरा घर उनकी सेवा में लगा हुआ था। खटिया पर लेटे ससुर ने अब मरने से पहले कमली का ब्याह करने की इच्छा जताई।वो दिन-रात बेटों से एक ही बात कहते तुरत-फुरत लड़का देखा जाने लगा। अचानक उत्पन्न हुई इन परिस्थितियों में कमली और सुरसति से भला कौन कुछ पूछता। सुरसति पर तो मानों पहाड़ टूट पड़ा था। कमली से दुगनी उम्र के युवक से उसका विवाह तय कर दिया गया। चट मंगनी पट शादी हो गई। विवाह के नाम से दहशत में पीली पड़ी कमली विदाई के समय माँ से लिपट कर दहाड़े मार कर रोयी थी। उसके कातर रूदन से सभी मेहमानों के दिल दहल गये थे। कमली का विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ था। गाँव वालों की वाह-वाही लूटता हरखू का परिवार गर्व से ऐंठा रहा। सुरसति आतंकित सी सब देखती रही। विवाह के एक सप्ताह बाद ही ससराल से कमली की सर्पदंश से हई मृत्यु की ख़बर पाकर वो बौर्रा गई थी। कमली का सारा शरीर नीला पड़ा हुआ था। दाह संस्कार में घर के सभी लोग शामिल हुए थे। बेटी की दशा देखकर सुरसति का मन हाहाकार कर रहा था।हरखू घड़ियाली आँसू बहा रहा था।

"हमने तो बेटी को कभी बेटों से कम नहीं समझा, इतना दान-दहेज़ देकर विदा किया था पर उसके नसीब में सुख लिखा ही नहीं था। यही सोचकर संतोष करना पड़ेगा।" इधर सुरसति के देवर-जेठ फुसफुसा रहे थे, "हमारा रूपया-पैसा खर्च हुआ कोई बात नहीं। ससुराल जाकर मरी हमारी इज़्ज़त बच गई। अपने घर में जहर देकर मारते तो कुल पर दाग लग जाता। पिताजी ने बीमारी का बहाना बनाकर जो हमारा साथ दिया तो भैया इस कुलकलंकी से पीछा छूट गया वर्ना तो परिवार की ऐसी बदनामी होती कि गांव में रहना दूभर हो जाता। हमारे बच्चों के शादी-ब्याह नहीं होते।"

हैरानी की बात तो ये थी कि कमली को इतना प्यार करने वाली बुआ ने भी इस घटना का विरोध नहीं किया बल्कि उसके सरपंच जेठ ने सारा मामला रफा-दफ़ा करवाने में मदद की, आखिर ननद के ससुराल में उसकी इज़्ज़त जो दाव पर लगी हुई थी। सुरसति समझ गई थी कि उसके परिवार के पुरुषों ने लड़के से मिलकर ये षड्यन्त्र रचा था उसकी मासूम-निरीह बेटी को जहर देकर मार डाला था। गर्भवती बेटी की तड़प-तड़प कर हुई मौत की कल्पना से ही सुरसति सिहर गयी थी। चूंघट की ओट से उसने अपनी बेटी से दुगनी उम्र के जमाता को एक ओर खड़े होकर किसी युवक से बात करते हुए देखा और ना जाने किस भावना के वशीभूत होकर वह उसके पीछे जा खड़ी हुई । खम्भे की ओट से उसने सुना था वह कह रहा था, "दुख तो मुझे भी बहुत है, इसके जाने का, क्या बताऊँ, मुझे तो सात दिन का समय मिला था इन सात दिनों में मैंने भी जिंदगी का भरपूर मज़ा उठाया, बाकी तो जो तय हुआ था वही किया।" सुरसति के लिए अब कुछ भी सुनना शेष नहीं रहा था। विवाह के बाद बेटी पर हुए अमानुषिक अत्याचार तथाकथित जमाता की जुबानी अभी-अभी सुन चुकी थी। एक के बाद एक हृदय विदारक सच सुनती सुरसति के सब्र का बाँध टूट गया था। वह पागल होकर चीत्कार कर उठी, "मेरी कमली तू जिंदा रही तब भी तड़पती रही और अंत समय में भी तड़प-तड़प कर मरी। बेटी मैं इन गिद्धों को जिंदा नहीं छोड़ेंगी। एक झटके से बूंघट हटाकर उसने दामाद के रूप में खड़े उस राक्षस का कालर पकड़ लिया था, "जानवर-कमीने तुझे ज़रा भी दया नहीं आयी, एक छोटी मासूम बच्ची पर अत्याचार करते हुए।" वह सकपका गया लेकिन तभी हरखू और उसके भाई दौड़ते हुए आए और जबरन सुरसति को घसीटते हुए घर के अंदर ले गये, "क्या कर रही है क्यों खानदान पर कालिख पुतवाना चाहती है। मुश्किल से मामला रफा-दफा हुआ है।" सुरसति पागल सी चीख रही थी।

"ज़ालिमों तुम सबने मिलकर मेरी फूल सी बेटी को मार डाला। मैं तुम्हें नहीं छोड़ेंगी। तुम सबको जेल की सींखचों के भीतर पहुँचाऊँगी।" उसकी हरकत से बौखलाये घरवालों ने उसे हाथ-पैर बाँधकर घर के अंदर बंद कर दिया था, वो चीखती रही थी, "मेरी बच्ची को मार दिया, मुझे भी मार दो।" उसने खाना-पीना बंद कर दिया था। तंग आकर कुछ महिनों बाद हड्डियों का ढाँचा बनी सुरसति को रात के अंधेरे में शहर के मानसिक चिकित्सालय में भर्ती करवा कर परिजनों ने चैन की सांस ली थी। बेटी की असामयिक मौत से सुरसति पागल हो गई थी। इसी बात को गांव भर में प्रचारित किया गया और इस तरह उनके परिवार में सुरसति का अध्याय खत्म हो गया था।

शहर के मानसिक चिकित्सालय की प्रमुख डॉ. नीरा बत्रा ऐसी अनेक महिलाओं का इलाज़ करती हैं। जिन्हें परिवार वाले 'पागल' या मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित कर उनके अस्पताल में छोड़ जाते हैं। डॉ. बत्रा जानती हैं कि इनमें से अधिकांश महिलाएँ घरेलू-परिस्थितियों-साजिशों का शिकार बनकर असहाय हुई, अवसादग्रस्त स्थिति में यहाँ पहुँचायी जाती हैं। शारीरिक अत्याचार एवं मानसिक उत्पीडन इन महिलाओं की ऐसी स्थिति का ज़िम्मेदार होता है। परिवार जन अपने कुत्सित इरादो को पूरा करने के लिए इन महिलाओं को पागल करार कर, सिरे से खारिज़ कर यहाँ पटक जाते हैं। डॉ. बत्रा बेहद सुलझी हुई लोकप्रिय मानसिक चिकित्सक हैं। जो तन-मन से और आवश्यकता पड़ने पर धन से भी अपनी महिला मरीजों की सहायता करती हैं। सतायी हुई युवतियों को आश्रय देकर उनका वर्तमानभविष्य सुधारने वाले पड़ौस के 'नारी निकेतन' में भी अपनी निःशुल्क सेवायें देती हैं। निजी जिंदगी में एकल माँ के रूप में वह अपनी दोनों बेटियों के साथ बेहद खुश हैं। चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉ. पति के लाख समझाने पर भी उन्होंने गुपचुप तरीके से भ्रूण परीक्षण नहीं करवाया था।अपने नर्सिंग होम के भविष्य के लिए अगली पीढ़ी के रूप में लड़के की चाह रखने वाले पति ने जब उन्हें 'पागलों की डॉक्टर होकर पागलों की सरदार हो गई हो" कहना शुरू किया तो उन्हें भी लगा कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बीमार मानसिकता से ग्रस्त उनके पति उनसे अलग होने के बहाने ढूंढ़ रहे हैं और उन्होंने आए दिन के तनाव से बचने के लिए परस्पर सहमति से सम्बन्ध विच्छेद कर उन्हें आज़ाद कर देने का साहसी कदम उठाया था। ये और बात है कि उनके डॉ. पति ने जिस साधारण पढ़ी-लिखी युवती से दूसरा विवाह किया था उससे भी उनके पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ था। इस बात से बौखलाये उनके पति समाज में अपनी सफाई में यही कहते रहे कि, "नीरा से सम्बन्ध विच्छेद का कारण बेटियाँ नहीं थी बल्कि मानसिक रोगियों का इलाज करती नीरा खुद भी एबनार्मल व्यवहार करने लगी थी और मेरे जैसा नॉर्मल इंसान एक एबनार्मल इंसान के साथ कैसे रह सकता था।" नीरा उन की मानसिक स्थिति समझती है, उनकी बीमार मानसिकता से परिचित वह उनके वर्तमान हालात के प्रति भी सहानुभूति ही रखती है। डॉ. नीरा के इस बड़प्पन से उनके सर्किल में उनको बेहद सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

जिस 'नारी निकेतन' में डॉ. नीरा अपनी निःशुल्क सेवायें दे रही हैं वहीं कुछ वर्षों से आशा भी काम कर रही है। नीरा ने ही उसे यहाँ काम दिलाया है। यहाँ आने वाली बच्चियों-महिलाओं की मदद कर रही आशा के कार्य के प्रति समर्पण व लगन ने उसे यहाँ सबकी चहेती बना दिया है । इन दिनों यहाँ एक केस आया हुआ है, अपने ही परिवार के सदस्य द्वारा यौन उत्पीडन से त्रस्त चौदह वर्षीय गर्भवती बच्ची का। जिसे उसकी विधवा माँ, ससुराल के दबंगों से बचाकर बड़ी हिम्मत के साथ यहाँ लेकर आयी है। लड़की और उसकी माँ की हालत देखकर आशा की आँखों में नमी के साथ चिंगारियाँ भड़क उठी हैं। नारी निकेतन के प्रयत्नों और आशा की भाग दौड़ से अपराधी जेल के सींखचों के अंदर है। माँ-बेटी को जान से मार देने की धमकी देने वाले परिवार को भी कोर्ट-पुलिस की तरफ से पाबंद कर दिया गया है। आशा पूरे तन-मन से इसी बच्ची और उसकी माँ का ख्याल रख रही है।

तभी अचानक उस लड़की को प्रसूति-दर्द उठने लगे और आशा चैतन्य हो उठी। कुछ ही देर में उसने एक बेटे को जन्म दिया लेकिन खून अधिक बह जाने की वज़ह से वो बेहोश हो गई थी। संयोग ही था कि आशा का ब्लड ग्रुप मैच कर गया और लड़की को बचा लिया गया। इतने दिनों की थकान और रक्त दान के बाद भी आशा आज प्रफुल्लित थी। नारी निकेतन में, अस्पताल से सकुशल लौटी बच्ची को देखकर उसकी माँ अब भी एक अनजाने भय से पीली पडी हई थी।

आधी रात का समय था भूख से बिलबिलाते छोटे बच्चे के लिए आशा रसोई से गुनगुना गर्म दूध लेकर कमरे में जा रही थी, बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर उसके कदम तेज़ हो गये थे। अन्दर का दृश्य देखकर वह हैरान रह गई थी। अंदर एक नकाबपोश एक हाथ से उस बच्चे को हाथ में उलटा लटकाये खड़ा था और दूसरे हाथ से उसकी माँ के गले में हाथ डाले उसका गला घोंटने का प्रयास कर रहा था।

वह चीख रहा था, "साली तुम माँ-बेटी की इतनी हिम्मत, मना करने के बाद भी औलाद को जन्म दिया और मेरे भाई को जेल पहुँचा दिया। मुझे चाहे फांसी हो जाये लेकिन मैं तुम में से एक को भी जिन्दा नहीं छोडूंगा।" नीचे ज़मीन पर बैठी शांता उस लड़के के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ा रही थी।

ये दृश्य देखकर आशा की आँखों से चिंगारियाँ फूटने लगी थी। पास ही बच्ची की नज़र उतारने के लिए रखा राई-नून मुट्ठी में भर वो एक झटके से उस लड़के की आँखों में डालती, उस पर पिल पड़ी थी। लड़के के हाथों से पकड़ ढीली होते ही बच्चे को संभालती शांता दरवाज़े की ओर भागती हुई शोर मचाने लगी और आशा पर तो मानो भूत सवार हो गया था। उसकी दुबली-पतली काया बिजली की फुर्ती से पास में रखे डण्डे से उस लड़के पर तब तक वार करती रही जब तक कि नारी निकेतन के चौकीदार व अन्य सदस्यों ने उसे खींचकर अलग नहीं किया। लड़का बेहोश होकर नीचे गिर गया था। डॉ. नीरा बत्रा के साथ ही पड़ौस के थाने से पुलिस भी आ पहुँची थी।

भय से पीली पड़ी लड़की की माँ कह रही थी, ये लोग मेरी बेटी को अब जिंदा नहीं छोड़ेंगे उसकी जान खतरे में है। आशा कि आँखों में चिंगारियाँ भरी हुई थीं, "कमली को कुछ नहीं होगा... मैं उसे गिद्धों के पंजों में नहीं जाने दूँगी..."

लड़की की माँ चौंककर उसे देख रही थी, "मेरी बेटी का नाम कमली नहीं बिमला है..."

सामने खड़ी डॉ. नीरा बत्रा, सुरसति की मनोदशा को भाँपती शांता को चुप रहने का इशारा कर रही थीं। आज बरसों बाद 'आशा' के सीने में दफन सुरसति फिर से जाग उठी थी।

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