परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज - 8 रामगोपाल तिवारी द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज - 8

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज 8

दिनांक 7.11.12 को मैं पुनः चित्रकूट से लौट रहा था। महाराज जी सांय सात बजे फोन मिला, तिवाडी जी हरीहर जी चले गये। मुझे इस की कतई सम्भावना नहीं थी। आधात सा लगा। तीन माह के अन्दर गुरुदेव को यह तीसरा झटका था। किन्तु वे यह कहने में पूरी तरह सामान्य लग रहे थे। प्रभू की लीलायें हैं कब कौन सी लीली करना है यह तो वे ही जाने। चिर सत्य को कौन नकार सकता है।

पं0 हरीहर स्वामी जी महाराज जी के सबसे छोटे भ्राता हैं। छोटे होने के कारण सबसे प्यारे भी रहे हैं। इकहरा बदन ,छरहरा शरीर ,मन मोहक व्यक्तित्व जिसे देखते ही रहें।वे एक श्रेष्ठ कवि भी थे। उनसे मुझे उनकी रचनायें सुनने का अवसर मिला है। गहरे चिन्तक एवं श्रेष्ठ साधक रहे हैं। भिवानी, हरियाण ही उनका कार्य क्षेत्र रहा है। वहाँ उनके अनेक शिष्य साधना में लगे हैं। वे सभी साधनारत है। वे जीवन भर उनको साधनादकेलिये प्रेरित करते रहे।

स्वामी जी ने गीता का पद्य अनुवाद भी किया है। जिसका उपयोग मैं अपनी नित्य पूजा में करता हूँ। मेरे इष्ट गौरी बाबा ने कहा है कि कोई पूजा न कर पाओ तो गीता के छठवे अध्याय का पाठ कर लिया करो। तभी से मैं स्वामी जी की इस कुति का पाठ कर रहा हूँ। मै जब भी पाठ करता हूँ, स्वामीजी का स्मरण अवश्य आ ही जाता है। यही उनके प्रति मेरी सच्ची श्रद्धान्जलि है।

गुरुदेव की संकल्प शक्ति

गुरुदेव की सम्पूर्ण कहानी में उनके वाह्य जीवन के वारे में ही बातें कहता रहा हूँ। उनकी साधना पद्धति, उनकी अनुभूतियों के वारे में मेरी जानकारी शून्य ही रही है। उनकी संकल्प शक्ति वारे में जो कुछ भाषित होता रहा है उसके वारे में कुछ कहने का प्रयास कर रहा हूँ। गुरुदेव इस दुस्साहस के लिये क्षमा करेंगे।

गुरुदेव जब भी किसी को याद करने लगते, मैंने देखा है, उसी समय उसका फोन आजाता अथवा वह स्वयं उपस्थित होजाता। गुरुदेव एक ही शब्द कहते, मैं अभी अभी अपकी ही याद कर रहा था। कभी कभी वे किसी की चर्चा कर रहे होते और उसी समय उसके फोन की घन्टी बनजे लगती। वे फोन उठाते हुये कहते- मैं इस समय तुम्हारी ही चर्चा कर रहा हूँ। ऐसे संयोग मैंने उनकी संकल्प शक्ति के अनेक वार अनुभव किये हैं। वे जब जिसे याद करते हैं , तत्क्षण प्रतिउत्तर मिल जाता है।

इस समय योगेन्द्र विज्ञानी जी के शब्द याद आ रहे हैं-‘जब मन आत्मा के सन्निकट होता है तो मन के संकल्प फलीभूत होते हैं। यह स्वाभाविक बात है।’ मैं महसूस कर रहा हूँ- गुरुदेव की संकल्प शक्ति चमत्कारित है।वे हमारें मन को दर्पण की तरह पढ़ लेते हैं। मैं उन्हें सत् सत् वार प्रणाम करता हूँ।

दिनांक 28.8.14 समय 11.34 पर महाराज जी का मेरे मोवाइल पर यह संदेश मिला-

हर रोज जब भी समय मिले सिर्फ पाँच मिनिट आँखें बन्द करके खुद से पूछना तुम कौन हो और कहाँ हो । तुम ये शरीर नहीं हो,ये तो घर है जिसमें तुम रहते हो, तुम एक शाश्वत सत्य हो मिथ्या नहीं। कभी उदास मत हो।

इसके बाद दिनांक 10.9.2014 को यह संदेश मिला-

सभी नाम उसी के हैं, सभी रूप उसी के है, सभी घाम उसी के हैं, सभी काम उसी के हैं। जरूरत श्रद्धा और विश्वास की है उपासना के तरीके बेशक भिन्न हो।

15.9.14 को समय 10.12 बजे भी एक संदेश मिला-

‘ रामराघव रामराघव रामराघव रक्ष माम् । कृष्णकेशव कृष्णकेशव कृष्णकेशव कृष्ण यदुपति पाहिमाम्।

उन संदेशों को क्रम से पचाने का प्रयास कर रहा हूँ। वे चाहते हैं कैसे भी उनके शिष्यों का कल्याण हो।

दिनांक 31.12.14 को भी यह संदेश मिला-‘विसंगतियों को अलविदा ,नयीं उपलब्धियों का स्वागत और आभार, प्रभू सदाँ कृपावन्त रहें। नारायण हरि।

दिनांक 7.1.15 को भी गुरुदेव का संदेश मिला-आध्यात्म नितान्त व्यक्तिगत ब्षिय है। इसे समझने के लिये अपने अहंकार का तुरन्त त्याग करके किसी गुरू की शरण में जाना पड़ेगा। उनके समक्ष पहुँचते ही मन अपनी चंचलताओं का त्याग करके शान्त होजाये। उनसे मार्ग दर्शन के लिये याचना करनी चाहिये। 10.37 ए0एम0 1.1.15

दो तीन वर्ष तक रचना अपना अस्तित्व बचाने के लिये जहाँ की तहाँ थमी रही। दिनांक 17.4.17 को महाराज जी के पास मैं गया था । वे बोले -‘ तुम्हारी रचना में एक कमी रह गई है।’

मैंने कहा-‘ आदेश करें।

महाराज जी बोले-‘ इसमें मेरे द्वारा गुनगुनाये भजन कहीं नहीं दिख रहे हैं।’ मुझे महाराज जी की बात भा गई। एक दिन महाराज जी की डायरी में से कुछ रचनाओं के फोटो प्रति गुरुदेव की कृपा से उपलब्ध हो गई है। महाराज जी से इस भजन को मैंने अनेक वार मधुर स्वर में गुन गुनाते सुना है-

अरे मन काहे कुगत करे,

मुड़ मुड़ जायेविषयन में उलझे, तोहे न समझ पड़े।

खुद भटके मोहे भटकावे,कैसो जुल्म करे,

सबरे जतन कर हार थक्यो में, अजहुँ न चेत करे।

बरबार विषयन में भटके, तिनको ही ध्यान करे,

कुछ तो सोच अरे जड़ मूरख, क्यूँबिन आई मरे।

कोरो ज्ञान बघारे जग में, नाना ढ़ोंग करे,

बहुरुपये सां साँग रचाये, नित नये रूप धरे

जिन विषयन में रस तू खोजत वे सब विष के भरे,

गुरु चरणन से अमृत निकसत काहे न पान करे।

इसी तरह उनका एक यह गीत भी हमारे मन को झंकृत कर सकता है-

राम को बुलाओ, मेरे श्याम को बुलाओ,

श्याम को बुलाओ, घनश्याम को बुलाओ,

जगत का झूठा जाल,झूठे यह प्रपंच भारी,

तोड़े नहीं टूटे बन्धन, भारी यह विपदा आई,

रो रो में बुलाओ मेरे, राम को बुलाओ कोई।

राम को बुलाओ, घनश्याम को बुलाओ।।

मनुआ तड़प रहा, अंखियाँ तरस गई,

चैन पड़त नहीं, अग्नि धधक रही,

ऐसे में बुलाओ , मेरे राम को बुलाओ कोई।

राम को बुलाओ, घनश्याम को बुलाओ।।

डगमग डगमग डोले नैया, गहन अंधेरा छाया,

राह न सूझे कोई, जरजर मेरी काया,

ऐसे में बुलाओ मेरे, राम को बुलाओ कोई।

राम को बुलाओ, घनश्याम को बुलाओ।।

सबरो श्रंगार भयो,डोलिया तैयार भई,

द्वारे बराती ढाडे, अब कुछ देर नहीं,

ऐसे में बुलाओ मेरे, राम को बुलाओ कोई।

राम को बुलाओ, घनश्याम को बुलाओ।।

बाजने बाजन लागे, ले डोलिया कहार आये,

अब कैसें धीर धरूँ,कहाँ मेरे राम ठाड़े,

ऐसे में बुलाओ मेरे, राम को बुलाओ कोई।

राम को बुलाओ, घनश्याम को बुलाओ।।

गृरुदेव शिवोम् तीर्थ जी महाराज जी का एक यह गीत इन दिनों महाराज जी गुन गुनाया करते हैं। इसे आप भी गुनगुनाकर देखें-

मैं प्रेम में पूजा भूल गई, कछु याद भी मुझको ना ही रहा।

कब क्या करना कुछ क्या कहना, कुछ होश भी मुझको नाही रहा।।

पुस्तक का अब कुछ काम नहीं, नहीं तर्क वितर्क से कुछ लेना।

अब शिष्टाचार भी गौण हुआ, है काम किसी से ना ही रहा।।

प्रभु आये मेरे घर मांही,सत्कार भी करना भूल गई।

मैं प्रेम मगन ऐसी होई, आवो बैठो भी ना ही रहा।।

न जगत से लेना कुछ बाकी , है देना मुझको याद नहीं।

अब क्या है लेना क्या देना,लेना देना मन ना ही रहा।।

प्रभु छोड़ो अब खैचातानी, चल प्रेम नगर में वास करें।

यह जगत‘शिवोम् तो छूट गया, अब भेगों में रस ना ही राहा।।

गृरुदेव शिवोम् तीर्थ जी महाराज जी का एक यह गीत भी इन दिनों महाराज जी गुन गुनाया करते हैं। इसे भी आप गुनगुनाकर देखें-

तुम को छोड़ कहाँ मैं जाऊं,

तेरे सम है दूजा नाहीं, कैसे दूजा ध्याऊं।

दूजे के दुःख दुःखी जो होवे, ऐसा है कोई नाहीं,

अपना दःुखड़ किसके आगे जाकर उसे सुनाऊं।

अपने सुख में जग है लागा,दूजे का दुःख नाहीं,

ऐसे जग को कह कर बिरथ, अपना भ्रम गॅवाऊं।

त्ुमही एक हो मेरे अपने,, है दूजा को नाहीं,

एक भरोसा तेरा प्रभुजी, तुम पै ही कह पाऊं।

त्ुाम हाक अन्तर्यामी ऐसे, अन्तर की जानत हो,

अपने मुख से काहे बोलूं, कैसे मैं कह पाऊं।

‘तीर्थ शिवोम्’ सुनो भगवन्ता, तुम सौं आस लगी है,

चाहे मारो चाहे तारो, तुम पै ही मैं आऊं।

गुरुदेव शिवोम् तीर्थ जी महाराज जी का एक यह गीत भी इन दिनों महाराज जी गुन गुनाते सुना हैं। इसे भी आप गुनगुनाकर देखें-

मैं क्या खोलूॅ तेरे आगे बतियाँ।

जो जो दुखः सहे हैमैंने, लिख लिख भेजूॅ पतियाँ।

तेरे बिन कुछ सूझत नाहीं, तुमरे ही मन जाये,

नींद न नयनन, भूख न लागत,जागत निकलत रतियाँ।

सग मतवाले जगत सुखों के, पी का ध्यान किसे ना,

तुमरी बात करूँ जिस आगे, करत व्यर्थ की बतियाँ।

प्रेमी -भोगी साथ निभे ना, मेल न कहीं मिलत है,

जब मन होता बहुत व्यथित है, तुम को लिखती पतियाँ।

‘तीर्थ शिवोम्’ मैं पायें लागूं, अपने पास बुलालो,

मैं तो पड़प तड़प रह जाऊं, सोचत रहती बतियाँ।

अब मैं महाराज जी के लधु भ्राता हरिहर स्वामी जी का एक भजन गुन गुना रहा हूँ। आप भी मेरे साथ इस भजन को गुन गुनाकर देखें-‘

शऊरे सजदा नहीं है मुझको, बस तेरे दर पे मैं आ गया हूँ,

सर पे गुनाहों का रख बोझ भारी, गुनाहों से तोबा कर आ गया हूँ।

खाई है ठोकर, दर दर की मैंने, अब हार तेरे दर आ गया हूँ,

ठुकरा न देना, मुझको ऐ मालिक, खा खा के ठोकर तंग आगया हूँ।

उम्र गुजारी है, सजदे किये ना, अल्लाह रहमकर तडघ़्पा गया हूँ,

दे दे सहारा अब हरिहर को मौला, दुनियाँ से तरी घबरा गया हूँ।

अब मैं महाराज जी के मुखार विन्द से सुने इन दो भजानों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। इन्हें भी आप गुन गुनाकर देखें-

ऐसो रतन मैं पायो सतगुरुऐसो रतन मैं पायो।

छुनन छुनन छन मनवा नाचे, ऐसो साज न बजायो।।

अंग अंग सब फडकन लागे, अद्भुत नाच नचायो।

कण कण में सब स्वर गूँजन लागे, ऐसो राग सुनायो।।

लोग कहें बौरा गयो यह तो, मैं कहूँ जग भरमायो।

तन की सुधबुद्ध कैसे राखूँ, जग ही सब विसरायो।।

काशी गयो,अजुध्या भटको, सबरे ठौर कर आयो।

गली गली के पाथर पूजे, फिरो यूँही भरमायो।।

खोजत फिरो जगत के माँहीं, पर कहूँ दीख न पायो।

मेरो साँई अन्तर माँहीं,नयन मूँद दर्शायो।।

नयन मूँद चौबारे चढ़ गयो, ऐसो दृश्य दिखायो।

सद्गुरु ऐसी किरपा कीनी, क्षण में ही अलख लखायो।।

इसी तरह महाराज जी के मुखार विन्द से सुना एक भजन यह भी-

यह मन मानत नाहीं, प्रभु जी यह मन मानत नाहीं,

इतउत फिरेजगत में उलझे,सोचत समझत नाहीं।।

कैसे कहूँ बहुत समझाऊं, पकड़ पवकड़ कर लाऊं,

या की बात कहूँ ही प्रभु जी,लाख याहे बरजाऊं,

मोरे जतन सब व्यर्थ भये अब, पर यह चेतत नाहीं।।

लाख चौरासी भटक भटक कर, यह नर जीवन पायो,

सवरी काट दई विषयन में, अब भी है भरमायो,

कौन उपाय करूँ अब गुरुवर, सूझ पड़त कछु नाहीं।।

यह कृति मैंने गुरु सेवा समझ कर संकलित की है। यों तो जब से महाराज जी डबरा में आये थे तभी से इस महापुरुष की मुझ पर कृपा रही है। मेरी भूलने की आदत के बाबजूद जो कुछ याद रहा है ,उन बातों को ही इस में स्थान मिल पाया है। अनेक बातें कहने से छूटी हैं ंया कुछ बातें विस्तार पा गईं है ,उन सब बातों में मेरा ही दोष है इसके लिये परम पूज्य गुरुदेव तथा आप सबसे क्षमा प्रार्थी हूँ।

महाराज जी का चिन्तन तो बहुत वृहद है। चलते -चलते गुरुदेव से उनके चिन्तन के कुछ पर्ण मिले हैं उन्हें भी आत्मसात करने का प्रयास करें-

हमारी इच्छाओं और लालसाओं का कोई अंत नहीं है। वह असीमित है। और उन्हें ही पूरा करने के लिये वार वार जन्म लेना पड़ता है। यदि इच्छाओं पर अंकुश लग जाये तो फिर इस चक्र से सहज ही मुक्ति मिल जायेगी किन्तु ऐसा सम्भव बन नहीं पाता क्योंकि प्रत्येक इच्छा पूर्ति से पहले दूसरी कई इच्छाओं को जन्म दे देती है और यह क्रम वढ़ता ही जाता है। मृत्यु प्यशर््न्त इच्छाओं का सिल सिला जारी रहता है। अन्ततः हमारी यह देह छूटने से पहले हमारी देह का निर्माण हो जाता है। एक केद से छूटते ही हमें उससे भी अधिक सुद्रढ़ जेल की सलाखों में उाल दिया जाता है।ं हमारा प्रत्येक वर्तमान जनम पिछले जनम से अधिक और वर्तमान जनम से अगला जनम अधिक बन्धन युक्त होता है। आप जरा गम्भीरता पूर्वक सोचकर देखें। हमें किन किन उलझनों का जीवन में सामना करना पड़ता है। कैसी कैसी विपदाओं और लज्जाजनक परिास्थितियों से जूझना पड़ता है। पूरे जीवन में शायद ही कभी शान्ति और सुख की नींद आइ होगी। हाँ वेशम और कृतघू व्यक्ति की बात प्रथक है। किन्तु अन्य विवके इस बात को शील व्यक्ति भली भॉति स्वीकार करेगा कि सुख के पल खोजते खोजते सुख तो नहीं मिला स्वयम् ही इस ष्शरीर को छोड़का चल दिये।ऐसा इस लिये हुआ कि मार्ग और प्रयास सही नहीं थे। जिनमें सुख खोजा वह तो दुःख के वृ क्ष थे उनमें सुख का फल कैसे मिलता। जहाँ सुख मिलता है उस दिशा से तो सदैव बचते रहे। और इसका पता तब लगा जब मृत्यु के दूत आ पहुँचे। फिर न वैभव काम आता है न नाते रिस्तेदार भाई बन्धु कुटुम्व, कवीला ओहदा, अधिकार सब धरे रह जाते हैं। इसलिये समय रहते हमें इसका प्रबन्धकर लेना चाहिए पीछे पश्चाताप न हो।

इसी प्रकार दूसरे पर्ण में-

भगवान प्रेम स्वरूप ह। प्रेम ही सच्ची साधना है। मनुष्य का मुख्य कार्य है जीव की सेवा करना। सारा जीवन सेवा में ही व्यतीत होना चाहिये, साथ यह भी याद रखना चाहिये कि सेवा के वदले किसी से प्रतिदान लेना याउसकी सेवा उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूप ले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूप ले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूप ले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम 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जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते है उपकार समझकर की जा रही है यह भावना भी मन में आने न पाये, तभी वह सेवा का रूपले पायेगी। सेवा करना कर्तव्य है, इससे परम पिता परमेश्वर चित्त की शुद्धि कर देते हैं। मनुष्य मात्र ईश्वर का अंश होता है।उसकी सेवा ईश्वर की सेवा है यह कभी नहीं भूलना चाहिये। ऊँ विश्व रूपाय परमात्मने नमः। दिनांक 21.4.17 00000

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