वसूली Deepak sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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वसूली

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“मालूम है?” मेरी मौसी की देवरानी मेरी दादी के कान में फुसफुसाई, “तुम्हारी बहू अब कस्बापुर वापस न आएगी.”

मेरे कान खड़े हो लिए.

“मखौल न कर,” दादी ने उसकी पीठ पर धौल जमाया, “आएगी क्यों नहीं?”

माँ को घर छोड़े हुए तीन हफ़्तों से ऊपर हो चले थे. मौसी की बीमारी ने जब मौसी को बस्तीपुर से लखनऊ के अस्पताल जा पहुँचाया था तो मौसा माँ को अपने संग लखनऊ लिवा ले गए थे और जब लखनऊ में चौथे रोज़ मौसी ख़त्म हुई थीं तो मौसा माँ को लखनऊ से सीधे बस्तीपुर ले गए थे, यहाँ वापस न लाए थे.

“अब वह अपनी मरी बहन के घर में उसकी जगह लेगी,” मौसी की देवरानी गिलविलाई, “मेरे जेठ ने उसके बाप के संग अपनी गुटबंदी मुकम्मिल कर ली है. दस हजार रूपया उसके हाथ में पकड़ाया है और उसकी लड़की उससे ख़रीद ली है.”

“वाह!” दादी ने अपने हाथ नचाए, “ब्याह के बाद औरत अपनी ससुराल की जायदाद बन जाती है. अपने बाप की मिल्कियत नहीं रहती. उसे वह लाख बेच ले, मगर वह हमारी चीज़ है, हमारी रहेगी.”

“वे सब पिछली बातें थीं. अब नया ज़माना है. तलाक के लिए सरकार ने नई अदालतें खोल दी हैं. उनमें से किसी एक कमरे में मेरे जेठ उसे ले जाएँगे, उसके नाम से   तलाक का मुक़दमा दायर करवाएँगे और उस पर लगा आपका ठप्पा छुड़ा लेंगे.”

“उस चींटी की यह मजाल!” मेरे दादा और मेरे पिता के घर लौटने पर मेरी दादी ने जब बात छेड़ी तो मेरे पिता लाल-पीले होने लगे, “एक बार वह मेरे हाथ लग जाए अब. फिर मैं उसे नहीं छोडूँगा. ऐसी गर्दन मरोडूँगा कि उसकी टैं बोल जाएगी.”

“बेकार झमेला मोल न लो,” मेरे दादा अपना मुँह मेरे पिता के पास ले गए, “उसे यहाँ किसी तरह फुसलाकर वापस ले आएँगे और फिर किसी रात गाड़ी के नीचे सरकाकर कटवा देंगे.....”

मेरे दादा रेलवे के डाक घर में तारबाबू रहे और हम रेलवे स्टेशन के एक कोने में बने क्वार्टरों में रहते थे. कस्बापुर में रेलवे जंक्शन बड़ा था और वहाँ एक साथ कई-कई गाड़ियाँ देर रात में रुका करतीं.

“उसे फुसलाने का काम आप हमें सौंपिए,” दादी ने मुझे अपनी गोद में दबोच लिया, “दादी और पोता एक साथ बस्तीपुर जाएँगे और उसे अपने संग लिपटाकर यहाँ लिवा लाएँगे.”

अगले दिन कस्बापुर से सुबह आठ बजे दादी ने मेरे साथ हावड़ा मेल पकड़ी और ग्यारह बजकर बीस मिनट पर हम बस्तीपुर स्टेशन पहुँच गए.

स्टेशन से मौसा के घर पहुँचने में हमें आधा घण्टा और लग गया. रिक्शा तो दूर की बात थी, दादी तो ताँगे पर भी कम ही बैठतीं. खुद भी खूब पैदल चलतीं और दूसरों को भी खूब पैदल चलातीं. दादी के साथ आने-जाने में इसीलिए माँ और मैं बहुत कतराते.

“क्या बात है?” दादी को देखकर मौसा ने अपने हाथ का काम रोक लिया.

मौसा लकड़ी की चिराई का काम करते थे और उनका आरा उनके घर की ड्योढ़ी में ही लगा था.

“हम विमला रानी को लेने आए हैं,” दादी मुक़ाबले पर उतर आईं.

“आपने बेवजह सफ़र की बेआरामी उठाई,” मौसा ने न जाने कैसे अपनी आवाज़ में शहद घोल लिया, नहीं तो मौसा मीठी ज़ुबान न रखते थे, ख़ास कर मौसी के संग तो वे जब भी ज़ुबान खोलते रहे कड़ुवा ही बोलते, “इधर लड़कियों का मामला है. आप तो जानती हैं, थोड़ी-सी बेपरवाही हो गई तो उम्र-भर के लिए.....”

मौसा की बात मैंने न सुनी. मैं माँ को देखना चाहता था, जल्दी-बहुत जल्दी.

मैं घर की तरफ़ दौड़ लिया. मौसा के घर से मैं अच्छी तरह वाक़िफ़ था, माँ मुझे अक्सर यहाँ लाती रही थीं. ड्योढ़ी पार करते ही एक छोटा बरामदा पड़ता था. बरामदे का एक दरवाज़ा पंखे वाले कमरे में खुलता था और दूसरा भंडार में. रसोई भंडार के आगे पड़ती थी और पाखाना ऊपर छत पर था.

मौसी की दोनों लड़कियों के साथ माँ भंडार में बैठी थीं.

मौसी की बड़ी लड़की के हाथ में नेल पॉलिश थी और छोटी लड़की के हाथ में माँ का एक पैर. माँ का दूसरा पैर और उन दोनों लड़कियों के पैर गुलाबी नेल पॉलिश से चमक रहे थे.

मुझे देखते ही माँ ने अपना पैर अपनी साड़ी में छुपा लिया.

उधर घर में माँ कभी ऐसी न दिखी थीं, निखरी-निखरी और सँवरी-सँवरी. माँ का चेहरा भी पहले से बहुत बदल गया था. माँ की आँखें पहले से छोटी लग रही थीं और गाल पहले से बहुत ऊँची और चर्बीदार. माँ की पुरानी ठुड्डी के नीचे एक दूसरी नई ठुड्डी उग रही थी.

“कुंती,” मौसा ने छोटी लड़की को बरामदे से आवाज़ दी, “दौड़कर हलवाई से गरम जलेबी तो पकड़ ला. जब तक पार्वती चाय बना लेगी.”

“अपने होश मत खो, विमला रानी,” माँ से अपने चरण स्पर्श करा रही दादी अपने पुराने मिजाज में बहकने लगीं, “होश मत खो. चल, अब बहुत हो गया. अब घर चल. तेरे बिना वहाँ पूरा घर हाल-बेहाल हुआ जाता है.”

“मुझे पाखाना लगा है,” मैंने माँ की तरफ़ देखा.

आठ साल की अपनी उस उम्र में पाखाने के लिए माँ की मदद लेने का मुझे अभ्यास था.

माँ फ़ौरन मेरे साथ सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं.

“बता, तू मुझे कुछ बताएगा क्या?” छत का एकांत पाते ही माँ अधीर हो उठीं.

“दादी के साथ तुम वहाँ मत जाना,” मैंने कहा, “वे लोग तुम्हें रात को गाड़ी के नीचे सरका कर कटवा देंगे.”

उधर घर पर भी माँ और मैं ‘हम’ रहे और दादी, दादा और मेरे पिता ‘वे लोग’.

“तू सच कह रहा है?” माँ हँसने लगीं.

“हाँ.” मैंने सिर हिलाया.

“अच्छी बात है. मैं तेरे साथ नहीं जाऊँगी.”

“मैं भी वहाँ नहीं जाऊँगा,” मैंने कहा, “तुम्हारे पास यहाँ रहूँगा.”

माँ के बिना उस घर में रहना मेरे लिए बहुत मुश्किल था. माँ की सारी दौड़-भाग अब मेरे ऊपर आन पड़ी थी और मुझे एक पल का चैन न था. चूँकि मेरे पिता घर की बगल में बनी पुलिस चौकी में दारोगा रहे, सो घर में उनकी आवाजाही बराबर लगी रहती. कभी वे अपनी पान की डिबिया भरवाने आते तो कभी चाय-नाश्ता लेने और कई बार तो वे यों ही बेमतलब घंटे, दो घंटे सुस्ताने के लिए ही चले आते. हर बार अब मुझी को दौड़ कर उनका सामना करना पड़ता. उनकी चीज़ें उन्हें सौंपते समय या उनके जूते खोलते या पहनाते समय उनकी बदमिजाजी का स्वाद चखना पड़ता. भाजी बनने से दादी बड़ी होशियारी से हर बार बच निकलतीं. कभी रसोई में जा छिपतीं तो कभी पड़ोसिन के घर शरण ढूँढ लेतीं.

“मैं तुझे यहाँ बुलाऊँगी, ज़रूर बुलाऊँगी,” माँ ने मेरा हाथ झुलाया, “मगर अभी नहीं. बाद में.”

मानो माँ ने मुझे चलती रेलगाड़ी से नीचे गिरा दिया.

मैं रोने लगा.

“तू घबरा मत,” माँ ने मेरा हाथ दोबारा झुलाना चाहा, “मैं रोज़ तेरी ख़ैर मनाऊँगी.”

“नहीं,” मैंने अपना हाथ खींच लिया, “मैं नहीं घबराता.”

छत से नीचे मैं अकेले उतरा.

सभी पंखे वाले कमरे में बैठे चाय पी रहे थे.

सामने जलेबी और मठरी रखी रहीं. मठरी माँ के हाथ की बनाई लग रही थीं. माँ मठरी बहुत अच्छी बनाती थीं.

“लो, तुम लो,” कुंती ने मेरी तरफ़ जलेबी बढ़ाई. कुंती मेरे साथ मेल का बर्ताव करती थी, पारबती नहीं.

पारबती मुझे देखते ही अपना मुँह फुला लेती थी. मुझे तब भी शक था, पारबती माँ को पसंद न करती थी. मेरा शक बाद में यक़ीन में तब्दील भी हुआ.

“नहीं, मुझे भूख़ नहीं है,” मैं दादी के पास जा खड़ा हुआ, “मैं अब घर जाऊँगा.”

“चलते हैं, अभी चलते हैं,” दादी ने एक जलेबी मुँह में रख ली- “विमला रानी के साथ चलेंगे. विमला रानी क्या अभी छत पर ही है?”

“नहीं,” सीढ़ियों से नीचे आ रही माँ ने आवाज़ दी, “मैं यहाँ हूँ.”

“मैंने बताया न विमला रानी आपके साथ अभी न जाएगी,” मौसा अब तुनक लिए, “इन लड़कियों को मैं अकेले न सँभाल पाऊँगा.”

“चलो,” मैंने दादी को झकझोरा, “उठो, घर चलो.”

“ले, तू थोड़ी मठरी ही खा ले,” माँ ने मठरी का एक टुकड़ा मेरे मुँह की तरफ़ बढ़ाया, “तुझे तो मठरी पसंद थी. नहीं?”

उधर घर में जब तक माँ रहीं, मैंने अपने हाथ से निवाला कभी न तोड़ा था.

“नहीं,” मैं अड़ गया, “मैं कुछ न खाऊँगा. मैं घर जाऊँगा.”

“ज़िद मत कर,” दादी ने मुझे त्यौरी दिखाई, “कस्बापुर के लिए हमारी गाड़ी तीन बजे से पहले नहीं जाएगी. तब तक हम कैसे जा सकते हैं?”

“मेरे साथ इधर तो आ,” जिस समय दादी पाखाने के लिए छत पर रहीं और मौसा अपने आरे पर, माँ मुझे अपनी गोदी में उठाकर भंडार में ले गईं.

कुंती और पार्वती पंखे वाले कमरे में सोई रहीं.

भंडार की कुण्डी अन्दर से चढ़ाकर माँ ने अपनी साड़ी के पल्लू में बँधी चाबियों का गुच्छा एक बक्से की तरफ़ तेज़ी से बढ़ाया और पलक झपकते ही एक बुकची से एक थैली निकाली.

थैली में कुछ गहने और चाँदी के सिक्के रहे.

माँ ने थैली एक रुमाल में खाली कर दी और रुमाल बाँधकर मेरी जेब में टिका दिया, “कोई पूछे तो कहना मठरी है.”

“नहीं,” मैंने रुमाल अपने जेब से निकाल कर बाहर फेंक दिया, “मैं न लूँगा.”

“माँ से नाराज़ हो?” माँ ने मेरी गाल चूम ली.

“नहीं,” मैं रोने लगा, “मौसा तुम्हें मारेंगे. बहुत मारेंगे.”

उधर घर में भी माँ को चीज़ें गायब करने की बुरी आदत रही. पकड़े जाने पर माँ माफ़ी माँगने लगतीं मगर मेरे पिता उन्हें जमकर पीटते, कभी अपने जूतों से तो कभी पुलिस रूल से.

“तेरे मौसा मेरे साथ बहुत नरम दिल हैं,” माँ थोड़ा लजा गईं, “मुझ पर कभी नहीं बिगड़ सकते. मुझ पर कभी न बिगड़ेंगे. तुम ख़ामोशी से इसे अपने साथ ले जाओ.”

“नहीं,” मैंने अपना हाथ अपनी जेब के साथ चिपका लिया, “मैं कुछ न लूँगा.”

वापसी पर माँ को हमारे साथ न देखकर मेरे दादा और मेरे पिता जैसे ही दादी पर खीझने को हुए, दादी ने हँसकर माँ के हाथों तैयार किया हुआ रुमाल अपने झोले से निकाल लिया.

रुमाल का माल देखकर उनके चेहरे पर रौनक खेल गई.

“सोने की यह कंठी और टिकली मिलकर डेढ़ तोला तो होगी ही,” दादी उनके संग-संग गहने जोखने लगीं, “और चाँदी की यह पाजेब और चूड़ियाँ आठ तोले की समझ लो..... फिर ये सात सिक्के हैं.”

“देखो,” दादा गहने समेटने लगे, “बाज़ार में इनका क्या दाम मिलता है?”

“न, इन्हें बेचिए नहीं,” दादी ने कहा, “चोट्टी ने यह सामान अपने घर वालों से छिपाकर दिया है. इसे बेचोगे तो वह आराकश इसे सुनार से बरामद करा लेगा.”

“इसे घर में रखेंगे तो क्या इनकी बरामदी न कराएगा?”

मेरे दादा ने रुमाल में गहने और सिक्के ज्यों के त्यों टिका दिए, “इन्हें ठिकाने लगाना मैं जानता हूँ.”

“अगली बात भी सुन लो,” दादी ने अपनी आवाज़ धीमी कर ली, “रुमाल मेरे हाथ में पकड़ाते हुए चोट्टी ने कहा क्या- बोली- बहन के घर का सारा कीमती सामान आपके हवाले कर रही हूँ. सिर्फ़ लड़के के वास्ते. तलाक के वक़्त लड़का मुझे मिल जाना चाहिए.”

“कोई स्टाम्प पेपर तो नहीं भर आई कहीं?” दादा हँसने लगे, “नकारने पर कचहरी तो न जाना पड़ेगा?”

“नहीं, नहीं,” दादी हँस दीं, “सोचा जाए तो तलाक में हमारा क्या नुकसान है? उस छिनाल को यहाँ लाने से अब कोई लाभ नहीं. उधर तलाक होगा तो इधर हम घर में नया बैंड बाजा लाएँगे. नए सिरे से लड़के की गृहस्थी जमा देंगे.”

“पिछला बरामदा तो फिर घेर ही लें,” मेरे पिता भी तरंग में बह लिए, “घर में एक फ़ालतू कमरा तो होना ही चाहिए.”

हमारे कई पड़ोसियों ने अपने जेब के रुपयों से दो कमरों वाले इन सरकारी क्वार्टरों में बने पिछले बरामदों को घेरकर कमरों की शक़्ल दे रखी थी. बल्कि माँ जब तक घर में रही थीं बरामदे को घेरने की ज़िद लगाए रही थीं.

“बहरहाल अभी तो इस सामान को ठिकाने लगाया जाए,” मेरे दादा ने रुमाल की तरफ़ इशारा किया, “इसे घर में रखना ख़तरे से ख़ाली नहीं.”

“मैं कहती हूँ इसे अभी इंदुबाला के पास छोड़ आओ. आज उसकी नाइट ड्यूटी है.”

“यह ठीक रहेगा,” मेरे पिता ने हामी भरी- इंदुबाला मेरी पाँचों बुआ लोगों में सबसे अच्छी रहीं; वे यहीं कस्बापुर के सरकारी अस्पताल में नर्स थीं और अपने परिवार में उनका अच्छा दबदबा था, “इंदुबाला दीदी यों भी समझदार हैं. वह इन्हें ठिकाने लगाएँगी तो खरीदने वाले सुनार को भी शक़ न होगा.”

उस रात आँख लगते ही एक अजीब नज़ारा मेरे सामने आया.

मौसा बुकची की ख़ाली थैली लिए माँ पर चिल्ला रहे थे. माँ अपने दाँत निपोड़ रही थीं, अपने कान खींच रही थीं, अपनी नाक रगड़ रही थीं, अपने हाथ जोड़ रही थीं, मगर हुलस रही पारबती माँ को ड्योढ़ी की तरफ़ घसीट ले गई थी. मौसा ने माँ को ड्योढ़ी की पैड़ी पर शहतीर की जगह लिटा दिया था और माँ के पहले हाथ काटे थे, फिर कान, फिर पैर और..... और फिर गर्दन.....

मेरी नींद दरवाज़े पर हुई एक तेज़ दस्तक ने खोली.

बस्तीपुर से मौसा अपना सामान उठाने आए थे- माँ के साथ.

“आपका सामान इंदुबाला बुआ के पास है,” दादी के नकारने से पहले ही मैंने  उगल दिया.

माँ को कस्बापुर रेलवे जंक्शन की गाड़ियों से बचा सकता था मगर मौसा के बस्तीपुर वाले आरे से नहीं.

अपने सामान की उगाही के बाद मौसा हमारे पास न लौटे. सीधे बस्तीपुर चले गए.

माँ अब यहीं हैं. पहले से ज़्यादा दुबकी और सिकुड़ी.

लेकिन मुझे चैन है.