मूर्ति का रहस्य 1
बाल उपन्यास
रामगोपाल भावुक
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एक
पुराने किलांे और महलों के बारे में कई तरह की अफवाहें प्रचलित हैं, ऐसी ही एक इमारत का रोचक और रहस्यपूर्ण किस्सा आज हम आपको सुनाते हैं। ..तो हो जाइये तैयार किस्सा सुनने के लिये !
ग्वालियर जिले में हरसी से भितरवार जाने वाली सड़क पर ग्राम सालवई नाम की एक छोटी सी बस्ती है। बस्ती से एक किलोमीटर की दूरी पर ऊंची पहाड़ी के शिखर पर प्राचीन और जीर्णशीर्ण सा एक किला दिखता है। यही किला सालवई के प्रसिद्ध किले के रूप में विख्यात है।
गाँव के फौजी नूर मोहम्मद का किशोर उमर का बेटा रमजान बड़ा हिम्मती और सयाना है, उसे बूढ़ों-पुरानों के बीच बैठ कर उनकी बातें और गप्पें सुनने का शौक है। उसके दूसरे दोस्त टेलीविजन देखने में मगन रहते हैं, लेकिन रमजान या तो बूढे़-पुरानों से बहस करता रहता है, या फिर विज्ञान की कोई पहेली हल करने में भिढ़ा रहता है। वैसे रमजान को सबसे ज्यादा अच्छा तब लगता था जब गाँव के पुराने उस्ताद जमील चच्चा उसे और चन्द्रावती को उर्दू पढ़ाते-पढ़ाते अचानक पुराने खजानों के संकेत देने वाले शिलालेखों व बीजकों की अटपटी भाषा और अजब-अनूठे संकेतों के बारे में बातें करते थे । जमील चच्चा ने बताया था कि ’बीजक‘ का अर्थ होता है- किसी खजाने को गाड़ते वक्त उसके निर्माता द्वारा पत्थर,धातु या ताड़ वृक्ष की छाल पर लिख कर सीधी भाषा में या घुमाफिरा के उस खजाने के बारे में विवरण देना । इन बीजकों में कभी कभी तो खजाने का नक्शा भी बना होता है। साल भर पहले रमजान को उस दिन बड़ा दुःख हुआ था, जिस दिन जमील चच्चा का इंतकाल हुआ, लेकिन उसे इस बात का फख्र्र है कि वह पूरे तीन साल तक जमील चच्चा का शिष्य बन कर उनसे तमाम बातें सीखता रहा है।
उस दिन अजुद्धी कक्का के यहाँ गाँव के अनेक बूढ़े एकत्रित थे कि चेतराम दादा ने किले की बात दे निकाली। अजुद्धी कक्का बोले-‘‘बचपन से मैं सुनता आया हूूँ कि इस किले के बारे में कई बातें कही जाती हैं, ...कोई कहता है कि किले में रात को महाराजा बदनसिंह के भूत का दरबार लगता है, जिसमें प्रेतिनी नर्तकियाँ नाचती हैं, ...कोई्र कहता है किले के किसी कोने में सालवई के भूतपूर्व महाराजा का सोने-चांदी के जेवरों और हीरा-मोती जैसे कीमती रत्नों-जवाहरातों सेे ठसाठस भरा खजाना छिपा है। मरघट और कब्रिस्तान में बैठ कर पूजा और सिद्धि करने वाले इस क्षेत्र के अनेक तांत्रिक, ओझा और सयाने कई बार रात-बिरात इस खजाने को खोजने के लिए यहाँ आये हैं।’’
रमजान ने पूछा-‘‘ दादा, ये ओझा लोग खजाना कैसे खोजते हैं?’’
चेतराम दादा बोले-‘‘एक अंधविश्वास है कि एक खास तरह का काजल लगा देने से जमीन के नीचे गड़ा खजाना दीखने लगता है, इस विश्वास की वजह से काजल-बिन्दी लगाकर इलाके के कई तांत्रिक खजाना देखने की कोशिश कर अपना भाग्य आजमा चुके हैं । लेकिन हर बार वे निराश ही यहाँ से लौटे हैं।‘‘
’’ कक्का, आप अंदाजा लगाओ कि इस किले में खजाना कहाँ होगा?’’ रमजान ने अजुद्धी कक्का से पूछा तो उन्होंने सोचे बिना कह डाला-’’इस किले मेंएक अन्धा कुंआ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसी अन्ध कुए में राजपरिवार ने संकट के समय अपना सोना-चाँदी डाल दिया था। तो कुछ लोग कहते हैं कि महाराजा के निवास के लिए बनाए गए महल के शयनकक्ष में ही एक तहखाना बना कर खजाना गाड़ा गया है, जबकि कुछ लोग इन सारी बातों की हँसी उड़ाते हुए कहते हैं कि सब बेकार की बकबास है, इन छोटे-मोटे राजाओं के पास इतना धन कहाँ से आया कि वे अपने शान-सौकत के खर्चे में से बचाकर उसे गाड़ सकें।’’
इसके बाद उस गोष्ठी में सम्मिलित लोगों ने गप्प हाँकना चालू कर दिया, कोई कहता था कि उसने कई बार अपने कानों से किले में से आती घुंघरूओं की आवाज सुनी है तो किसी ने बताया कि किले के अंदर वाले मंदिर में एक रात जब वह अगरबत्ती लगाने गया तो लौटते मेें कोई उसके पीछे लग गया, बड़ी मुश्किल से उससे पीछा छूटा। रमजान इस तरह की बातें अपने गाँव के कई लोगों से पहले भी सुन चुका था ।
देर रात को वह गप्प गोष्ठी समाप्त हुई, तो रमजान को घर लौटते वक्त जमील चच्चा याद आ रहे थे।
जमील चच्चा बताया करते थे कि पहले के जमाने में राजा और दूसरे धनवान लोग यदि अपनी औलादों को नालायक समझते थे तो अपनी जीवनभर की कमाई सोने-चाँदी और रत्न-जवाहरात के रूप में खजाना बना कर किसी जगह गाड़ देते थे और अपने परिवार के किसी व्यक्ति को बीजक लिख कर दे जाते थे। उस धनवान की संतानों में से जो आदमी योग्य होता था और बीजक पढ़ना जानता था वह खजाना पा जाता था, ऐसे खजानों से न तो भूत-चुढ़ैल का कोई वास्ता है, न किसी तंत्र-मंत्र का, यह तो सीधा-सादा होशियारी और बौद्धिकता का इम्तहान होता था। अपनी बात के सबूत में जमील चच्चा के पास ऐसी बहुत सी चीजें थीं जो खजाना खोजने में माहिर, उनके पिता उन्हें सोंप गये थे।
जमील चच्चा के पास जाने किस गाँव में मिला तांबे का एक बीजक था, जिस पर लिखा था-’ कारी गैया धोरो सांड़, ताके नीचे धन की बाढ़‘। जमील चच्चा बताते थे कि इस बीजक का शब्दार्थ तो यह था कि जिस जगह काली गाय और सफेद सांड़ बैठा हो उस जगह भारी धन गढ़ा है। लोग सालों ऐसेे मौके ढूढ़ते रहे जब ऐसे जानवर बैठे नजर आयें, लेकिन धन नहीं निकाल पाये। आखिर में धन मिला तो गाँव के मंदिर की मरम्मत के वक्त उस आँगन में, जहां शंकरजी .की प्रतिमा के सामने उनके नंदी की मूर्ति थी और ठीक उसकी बगल में श्रीकृष्णजी की प्रतिमा के सामने उनकी प्रिय गाय की काली प्रतिमा रखी थी।
इसी तरह बगल के गाँव में मिले एक चांदी के बीजक पर जमील चच्चा ने यह लिखा पाया -’पीपर की छांह में बर की जटायें, ढूढ़ सको तो सोने की घटायें ।‘ इस बीजक के आधार पर भी कोई खजाना बरसों तक नहीं खोजा जा सका, और फिर एक दिन वह खजाना अकस्मात ही अहाते की दीवार की नींव खोदते वक्त उस जगह मिला जहाँ से गाँव का सबसे पुराना पीपल का वृक्ष बाईस फिट दूर था, यानि कि पन्द्रह हाथ दूर। पीपल का पेड़ गाँव के बाहर शमशान में अकेला खड़ा था और बुजुर्ग लोग बताते थे कि बहुत पहले पीपल से पचास हाथ दूर बरगद का एक वृक्ष था, जो अब गिर चुका है, खजाना इन दोनों के बीच में गड़ा हुआ मिला ।
जमील चच्चा के पास ताड़ की छाल यानी ताड़पत्तर पर लिखे कई बीजक थे, जिनमें लिखी बातों की जमील चच्चा तरह-तरह से व्याख्या किया करते थे। इनमें से कुछ खजाने मिल चुके थे जबकि कुछ अभी भी नहीं खोजे जा सके थे। किले के खजाने के बारे में जमील चच्चा के पास कोई बीजक नहीं था, लेकिन उन्हें विश्वास है कि वहाँ अगर खजाना है तो कोई बीजक जरूर मिलेगा। रमजान ने देखा था कि प्रायः वे पुराने इतिहास ग्रंथों को पढ़ने में मशगूल रहते, या फिर वे उन पुजारी कैलाशनारायण से किले के बारे में छोटी-छोटी बातें पूछते रहते जो पूजा करने रोज ही किले में जाया करते थे।
रमजान और चन्द्रावती को आधी-अधूरी उर्दू और थोड़ी बहुत बीजकों की व्याख्या सिखा कर उनके उस्ताद जमील चच्चा ने अचानक आँखें मूंद लीं तो गाँव में सबको दुःख हुआ था। जाने कैसे गाँव के लोग जान गये थे कि जमील चच्चा ने अपने दोनों चेलों को खजानों के बीजकों की गूढ़ भाषा भी सिखाई है। उस्ताद के जाने के दुख में उस दिन रमजान को अपने गाँव के किले के खजाने का रहस्या छिपा रह जाने का भी गम हुआ था। वह खूब रोया अपने गुरू की मौत पर। वैसे भी वह बिना माँ का बेटा था और गुरू ने उसे खूब प्यार दिया था।
रमजान को तो यह भी याद नहीं है कब उसकी माँ नजमा का इन्तकाल हुआ था। चाचा वसीर खान और चाची आमना प्रायः कहती हैं- ‘‘बेटा रमजान तुम्हारी अम्मीजान बहुत प्यारी थीं, वे सबके आंखों का तारा थीं। उनके इन्तकाल के बाद ही तुम्हारे पिता नूर मोहम्मद फौज भर्ती हो गये थे। ’’
जब-जब उसके अब्बाजान छुट्टी में घर आते हैं उसे बहुत प्यार करते हैं। वे इस किले के इतिहास के बारे में नई-नई बातें सुनाते हैं। रमजान ने उस दिन गाँव के बुजुर्गों की सभा में किले का जिकर सुना तो उसका मन हुआ कि वह किले में बनी दरगाह पर अगरबत्ती लगाने तो रोज जाता है और वहीं से चुपचाप नीचे लौट आता है लेकिन किले की तरफ कभी नहीं जाता, क्यों न एक दिन दोस्तों के साथ किले में घूमने क्यों न चला जाये ! यही सोचते हुए रमजान अगले दिन झरबेरी के बेर खाने के बहाने से अपने हम उम्र किशोर दोस्तों के साथ किले की पहाड़ी पर जा पहुँचा। वे लोग खेल-खेल में बेर तोडते़ खातेे किले के मुख्य दरवाजे पर पहुँच गये।
सिंहद्वार पर पहुँच कर सभी-मित्र घर लौटने का मन बना रहे थे कि रमजान मित्रों से कुछ कहे बिना किले के दरवाजे में घुस गया और हाथी-घोड़ों को बनाए गए चक्करदार रास्ते पर चलने के बजाए सीधे ऊपर पहुँचने वाली सीढ़ियों पर चढ़ने लगा। राजेन्द्र और सुरेन्द्र ने उसका अनुकरण किया तो बाकी सब भी उन सीढ़ियों पर चढ़ने लगे ।
किले के ऊपर पहुँच कर उन्होंने देखा कि खूब बड़े मैदान में रंग-बिरंगे काँचों से जड़ी खिड़कियों वाला महल पत्थर की कंगूरेदार जालियों से घिरा हुआ बड़ा खूबसूरत और भव्य दिख रहा है, फिर भी ध्वस्त हो रहे राजमहल के खण्डहर अपने विगत वैभव का बखान कर रहे थे ।
किले का वैभव देखकर दर्शक के रूप में पहुँचे हर आदमी को विश्वास होजाता है कि खजाने की बात सत्य है और फिर दर्शक का चित्त खजाने के लिये व्याकुल हो उठता है। रमजान और उसके साथियों के मन में भी यही भाव आये ।
सुरेन्द्र ने अपने मन की बात कही - ‘‘यार रमजान, यदि यहाँ का खजाना अपने हाथ लग जाये फिर तो जीवन भर कुछ करने की जरूरत नहीं है ।’’
‘‘देख सुरेन्द्र, मुझे ऐसा धन नहीं चाहिये ।’’ रमजान ने मना किया ।
‘‘भई, तुम ठहरे त्यागी महात्मा और पहुँचे हुये फकीर ?’’ सुरेन्द्र ने रमजान पर व्यंग कसा ।
‘‘तुम्हारे अब्बाजान फौज में है, वे ढेर सारे पैसे कमाकर भेजते रहते हैं। शायद इसी वजह से तुम्हें ऐसे-वैसे पैसे की जरूरत नहीं है ।’’ राजेन्द्र बोला ।
‘‘देख राजेन्द्र पैसे की जरूरत तो सभी को होती है लेकिन मुझे मेहनत से कमाया पैसा ही चाहिए।’’ रमजान ने मित्रों को सुनाते हुए कहा ।
बातें करते हुये वे राजमहल के बगल से निकल कर किले के दक्षिण पूर्व के कोने में बने उस चर्चित अन्धे कुयें के पास जा पहुँचे ।
कुए की जगत से सट कर खड़े हो रमजान और उसके मित्र पंजों के बल उचककर उसमें झाँकने लगे। कुंए में पानी बहुत नीचे था, लेकिन नीचे तली में दूर चमक रही थी काई की मोटी परत ।
सुरेन्द्र ने झुक कर दोनों हाथों के बल एक बड़ा सा पत्थर उठाया और उसे कंुये में फेंकने के लिए उठाते हुए मित्रों से कहा- ‘‘तुम सब लोग, पत्थर के तली में पहुँचने पर वहाँ की ध्वनि सुनने का प्रयास करना ।’’
सब किशोर एकचित्त होकर उस ध्वनि को सुनने का प्रयास करने लगे । पत्थर तेजी से तली में जा पहुँचा और पानी के ऊपर बुलबुले आ गये ।
किसी को कोई ध्वनि नहीं सुनाई पड़ी ।
‘‘इस कुंए में खजाना बजाना कुछ नहीं है । सब मन गढ़न्त बातें हैं ।’’ रमजान के मुँह से शब्द निकले ।
रमजान से सहमत किशोर किले के ऊपर बनी दरगाह पर सलाम करते हुये वापस लौट पड़े और घर आकर किला और खजाना भूल गये ।
कई दिन बीत गए।
बरसात का मौसम था लेकिन श्रावण का महीना सूखा निकल गया।
किले की पहाड़ी पर झाड़ियों का जंगल था। गाँव के लोग दैनिक कार्यों से निवृत्त होने के लिये पता नहीं कब से इस पहाड़ी का उपयोग करते चले आ रहे थे।
उस दिन गाँव के पचपन वर्षीय एक बुजुर्ग सुम्मेरा दाऊ दिशा मैदान के लिये वहाँ पहुँचे तो देखा कि कोई व्यक्ति अस्त-व्यस्त हालत में किले की दीवार के नीचे झाड़ियों की ओट में लेेटा है।
डरते-डरते धड़कते दिल से वह उसके पास गया तो उसे लगा कि अरे ! यह तो बिल्कुल ही नहीं हिलडुल रहा है । कहीं यह मर तो नहीं गया? यह सोचकर वह बिना निवृत्त हुए वहाँ से लौट पडा।
गाँव में आकर सुम्मेरा ने कई लोगों से चर्चा की ‘‘किले के नीचे लाश पड़ी है ।’’
यह खबर गाँव में तेज गति से फैल गई ।
गाँव के लोग पुलिस से डरते थे, वे मानते थे कि खाने-पीने के लालच में पुलिस जाने किस पर केस लाद देगी। गाँव के चौकीदार नन्दराम को जो पहले सूचना देगा, चौकीदार थाने पहुँचकर पहले उसी का नाम लेगा। यों वह पुलिस की पूछताछ के घेरे में आ जायेगा ।
...लेकिन रमजान के चाचा वसीर खान ने इस बात की परवाह नहीं की । उन्हांेने जैसे ही यह बात सुनी, वे चौकीदार के घर पर जा पहुँचे ।
वसीर खान गाँव के मेहनती किसान हैं। वे मिडिल तक पढ़े-लिखे हैं। इनके भाई नूर मोहम्मद सेना में हैं। उनके बोलचाल और व्यवहार में निडरता और इत्मीनान झलकता है। जैसे ही उन्हें, अपने घर के दरवाजे पर निश्चिंत होकर दतौन करने बैठा हुआ चौकीदार दिखा, वे उससे व्यंग्य में बोले, ‘‘क्यों दरोगा जी चैन से दातौन कर रहे हो। कुछ पता भी ह,ै क्या हुआ है इस गाँव में ?’’
अपनी अनभिज्ञता में सिर हिलाते हुये चौकीदार ने उत्तर दिया - ‘‘नहीं चचा, कुछ पता नहीं है, ऐसा क्या हुआ ? मैं तो रातभर जागकर गाँव की परिक्रमा लगाता रहा। अभी अभी चार बजे आकर सोया हूँ। इसीलिये देर से जाग पाया।’’
वसीर खान जान गये - ये कामचोर जुआरियों के चक्कर में, गाँव की फेरी लगाता है जिससे कुछ धन्धा पानी हो सके। चोर...कहीं...का। गाँव में जो कुछ हो रहा है इसे सब पता रहता है किन्तु अनजान बन रहा है। वे बोले, ‘‘बरखुरदार हम ये क्या सुन रहे हैं ? किले की बुर्ज के नीचे किसी की लाश पड़ी है !’’
‘‘ ये क्या कहते हो चचा ?’’ चौकीदार चौंका ।
‘‘अरे ! चचा तो इस गाँव की चिन्ता में सूखते रहते हैं। तुम्हीं जाकर देख लो जाने किस की हत्या हो गई।’’
यह सुन गाँव के कोटवार नन्दराम उर्फ नन्दू ने हाथ के लोटे में से पानी के एक दो घूंट जल्दी-जल्दी गट-गट कर कुल्ला करते हुए बेरहमी से जमीन पर थूके और लोटा जमीन पर लुढ़का कर घर से निकल पड़ा।
चौकीदार के जाते ही आसपास के घरों से लोग निकल कर वसीर खान के पास आकर खड़े गये । रघुनाथ बोला, ‘‘चचा किस की लाश पड़ी है ?’’
‘‘जाने किस की है ? चलकर देखते हैं ।’’
‘‘वहाँ चलकर क्या करेंगे ? पुलिस आयेगी पूछताछ करेगी। गवाह बनना पड़ेगा और एक परेशानी मोल लो, अपना काम धन्धा छोड़ो। कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाओ।’’ काशीराम कड़ेरे ने चलने में अपनी असमर्थता प्रगट की।
वसीर खान क्रोध में गुर्राते हुए बोले, ‘‘तुम्हारा सोच बड़ा घटिया है। ऐसा कभी इस गाँव में हुआ है कि कहीं कोई हादसा हो जाये और गाँव के लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें।’’
‘‘चचा हम तो पुलिस के चक्कर से डरते है ?‘‘ रघुनाथ ने डरे हुए सा अपना चेहरा बना कर कहा। ‘‘डरपोक कहीं का, चल मेरे साथ । मैं हूँ ना ।’’ वसीर खान ने उसे दम दिलासा दी ।
उनके दिलासा देने पर वे सब उनके साथ चल पड़े। जब वहाँ पहुँचे तो देखा कि अभी भी किले की बुर्ज के नीचे औंधे मुँह लाश पड़ी है ।
इन्हें पहुँचा देखकर, गाँव के कुछ और लोग भी आ गये। कई बच्चे भी वहाँ आ खड़े हुये, जिनमें रमजान भी था। सब एक-दूसरे से काना-फूसी कर पूछ रहे थे, ‘‘यह लाश किसकी है ?’’ झुण्ड में से किसी ने कहा, ‘‘शायद यह रमुआ की लाश है, कल ष्शाम को यह अपनी गाय को ढूँढते हुए किले के अन्दर गया था और रात घर नहीं लौटा ।’’
गाँव में झाड़-फूँक का काम करने वाले रामचरन ओझा भीड़ में खड़े थे, उन्होने घोषणा कर दी, ‘‘इस किले में भूतों का डेरा है । उन्होंने ही रमुआ की बलि ले ली है।
वसीर खान उसकी बात पर तुनक कर बोले, ‘‘क्या बिना सिर-पैर की बातें करते हो ? ये भूत-वूत कुछ नहीं होते ।’’
पैंसठ साल के देहाती रामचरन ओझा को अपनी बात कटती दिखी तो बोला, ‘‘खान साब आप अभी ऐसे किसी चक्कर में फँसे नहीं हो इसीलिए ऐसी बातें कर रहे हो ।’’
‘‘ओझा जी इन बातों को छोड़ें, पहले यह सोचें कि पुलिस को इस बात की सूचना कैसे पहुँचे ?’’ वसीरखान ने अपनी चिन्ता से उसे अवगत कराया ।
‘‘चौकीदार नन्दू अपनी खटारा सायकल से पुलिस को सूचना करने डबरा थाने चला गया है।’’लापरवाही दिखाते हुए रामचरन ओझा बोला ।
‘‘देखिए, कोई भी लाश के पास में न जाए। शायद पुलिस खोजी-कुत्ते लेकर आयेगी। इसलिए हम सबका दूर रहना जरूरी है, ताकि सबकी गंध आपस में मिले नहीं। इस बात का पता चलना ही चाहिए कि इसकी हत्या कैसे और क्यों हुई है ?’’ वसीर खान ने सूचित किया ।
‘‘क्या पता किले की दीवार से इसने कूदकर आत्महत्या की हो ?’’ वसीर खान के पास खड़े पैंतालीस वर्षीय काशीराम कड़ेरे ने सन्देह व्यक्त किया ।
‘‘यह आत्महत्या क्यों करेगा ?’’ रामचरण ओझा ने उसकी बात का खण्डन किया ।
‘‘अरे ! इस पर अपने गाँव के सेठ बैजनाथ का अधिक कर्ज चढ़ गया है। बात न्यायालय तक जा पहुँची है। सुना है इसका कुर्की वारंट निकल गया है। क्या पता इसीलिये इसने आत्महत्या की हो?’’ काशीराम कड़ेरे ने उत्तर दिया।
‘‘कोई चाहे कुछ कहे, मुझे तो लगता है इसे भूतों ने ही मार कर नीचे फेंक दिया है।’’ रामचरन ओझा ने अपनी ओझाई के कारण अपनी बात पर जोर दिया ।
वसीर खान को उसकी यह बात सहन नहीं हुई। वे मूर्खों के मुँह नहीं लगना चाहते थे। इसीलिए वे कुछ उत्तर दिए बिना लोगों के दूसरे झुण्ड की ओर बढ़ गए ।
इसी समय सड़क पर पुलिस की जीप आती दिखी। भीड़ में से कुछ लोग दिशा मैदान जाने के बहाने वहाँ से खिसकने लगे।
...और वसीरखान जैसे कुछ लोग ही वहाँ रह गये।
पुलिस की जीप पहाड़ी की ढलान के नीचे आकर रूकी। ड्रायवर की बगल वाली सीट से मूँछे ऐंठते दरोगा उतरा। तत्परता दिखाते जीप के पीछे के दरवाजे से चार जवान कूदे और उन्होंने बात की बात में लाश के चारों ओर घेरा बन्दी कर दी ।
वे बड़ी देर तक तफ्तीश करते रहे। दो जवान किले के दरवाजे से ऊपर बुर्ज पर पहुँच गए। एक ने पत्थर का एक टुकड़ा नीचे गिराया। पत्थर उस लाश के पास आकर गिरा। पुलिस ने निश्चय कर लिया- इसने किले से कूद कर आत्महत्या की है ।
लाश को सीधा किया तो लोगों का अनुमान सही निकला, वह रमुआ ही था ।
रमुआ की घरवाली को खबर लगी। वह रोते-चीखते वहाँ आ पहुँची, उसके साथ रमुआ के दो छोटे भाई भी थे ।
दरोगा ने मूँछे ऐंठते हुए कहा, ‘‘इसकी मृत्यु कैसे हुई ? इसकी सही सही जानकारी तो पोस्टमार्टम के बाद ही मिलेगी। जल्दी में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता।‘‘
पुलिस वह लाश पोस्टमार्टम के लिए लेकर चली गई। लोगों ने राहत की साँस ली। रमुआ के घर के लोग उसकी लाश लेने गाँव के सेठ बैजनाथ का टेªक्टर लेकर शहर चल पड़े। वशीर खान उनके साथ थे।
पोस्टमार्टम के बाद परिवार के लोगों को लाश मिली। वे उसे ट्रैक्टर ट्रॉली से गाँव ले आये । देर रात रमुआ का दाह संस्कार हो पाया ।
वसीर खान उसके अंतिम संस्कार के बाद ही घर लौट पाये ।
रमजान का घर तो वसीर खान चचा की बाखर में ही है। उसकी अम्मीजान नजमा का इन्तकाल बचपन में ही हो गया। अब्बाजान नूर मोहम्मद उसी समय से फौज में हैं। उन्होंने रमजान को वसीर खान के भरोसे छोड़ रखा है। वसीर खान की पत्नी आमना के तीन लड़कियाँ ही हैं। वे रमजान को बेटे की तरह पाल रही है। जैसे ही वसीर खान के आने की आहट मिली वे पति से बोलीं - ‘‘रमुआ का क्रिया करम निपट गया।’’
‘‘हाँ निपट तो गया।’’ वसीर खान ने मायूसी में उत्तर दिया ।
‘‘आपके रमजान मियाँ अभी जाग रहे हैं।’’ आमना ने कहा।
वशीरखान ने रमजान के पास जाकर पूछा-‘‘कहो, बरखुरदार तुम अभी सोये क्यों नहीं हो? ...हमारी यह समझ मेंनहीं आया तुम किले की पहाड़ी पर क्या लेने गये थे ।’’
‘‘दूसरे बच्चे गये, तो मैं भी उनके संग लग गया। चचाजान मुझे तो यह हत्या का केस लगता है?‘‘ रमजान ने मन में उमड़ रहा विचार व्यक्त किया।
‘‘वरखुरदार तुम तो अभी से सी.आई.डी. बनने लगे। अरे ! पहले हाई स्कूल की परीक्षा अव्वल अंकों से उत्तीर्ण तो कर लो फिर सी.आई.डी. बनने के सपने देखना।’’
‘‘देखना चचा मैं सी.आई.डी. बनकर ही रहूँगा।’’
‘‘अरे ! वाह इतना इत्मीनान है तुम्हें अपने पर ?
‘‘जी, चचा हजूर, आखिर मैं भी फौजी बाप की औलाद हूँ।
‘‘अभी तुम बहुत छोटे हो । पहले पढ़ने लिखने पर ध्यान दो, समझे...।’’
‘‘जी...।’’ यह कहते हुए रमजान अपने बिस्तर पर चल आया ।
दिन बीतने लगे।
रमुआ की हत्या से सम्पूर्ण गाँव आतंकित हो गया।
गाँव के लोग शाम होते ही अपने-अपने घरों में घुस जाते। दरवाजा बन्द कर लेते। अब कोई किले की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। कभी-कभी लोग अपने पशुओं को खोजने मजबूरी में पहाड़ी पर चढ़ते, तो भय से काँपने लगते। अब तो लोगों ने उस पहाड़ी पर दैनिक कार्यों से निवृत्त होने, जाना छोड़ दिया।
किले के बारे में फिर से रोज-रोज नई बातें सुनाई पड़ने लगी। पहले की तरह कोई कहता, ‘‘किले में राजा बदनसिंह का भूत जाग गया है।’’
कोई कहता, ‘‘महाराज बदन सिंह के दरवार में भूतनियाँ नृत्य करती है जिनके घुँघरूओं की आवाजें रात के समय आसानी से सुनी जा सकती हैं।’’
कोई कहता, ‘‘बदनसिंह के भूत ने बलि लेना शुरू कर दी है, पता नहीं अगला नम्बर गाँव के किस आदमी का होगा?’’
कुछ रामचरन ओझा जैसे ताल ठोकते, ‘‘किसी को विश्वास न हो तो जाकर किले में देख ले।’’
वसीर खान जैसे लोगांे को इन बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन वे इन अफवाहों का उद्देश्य नहीं समझ पा रहे थे। --------