परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज 1
एक अजनबी जो अपना सा लगा
परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज
.
रामगोपाल भावुक
सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर
जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110
मो0 9425715707, , 8770554097
शिव स्तुति
अथ् श्री गणेशाय नमः।
ऊँ नारायणाय परमेश्वराय
विंदेश्वराय नमः शिवाय।
हरि हराय दिगम्बराय
वटेश्वराय नमः शिवाय।
नित्याय शुद्धाय निरन्जनाय
भस्मांगराय नमः शिवाय।
रिद्धेश्वराय सिद्धेश्वराय
धूमेश्वराय नमः शिवाय।
सर्वेश्वराय गुरुवेश्वराय
तस्मै देवाय नमः शिवाय।
स्वामी हरिओम तीर्थ
माँ अम्बे की स्तुति
हे कल्याणी, हे रुद्रणी, शिवाशम्भवी, जगदम्वे,
माँ मातंगी, हे मीनाक्षी, हे कामाक्षी, हे अम्बे।
हे नारायणी, हे कात्यानी, हे पदमाक्षी, हे दुर्गे,
उमा माहेश्वरी, हे त्रिपुरेश्वरी, हे जगदेश्वरी, हे अम्बे।।
एक व्यक्तित्व जिस पर लोगों की दृष्टि अनायास ठहरी है, उन्हें इस नगर में लोग अक्सर संदेह की दृष्टि से देखते रहे हैं। किसी ने उन्हें जासूस कहा तो किसी ने कुछ। अन्य, जो जिस रंग का व्यक्ति था उसने उसी रूप में उन्हें अनुभव किया। इस छोटे से नगर में साधू जैसी किसी की ऐसी बेशभूषा देखने को नहीं मिलती थी। इससे लगता था यह महापुरुष दुनियाँ से हट कर जीने में विश्वास रखता हैं। बेशभूषा की तरह इनका सोच भी बैसा ही दुनियाँ से हटकर था।
दूसरी बार उनसे मेरी मुलाकात नरेन्द्र उत्सुक जी के यहाँ एक कवि गोष्ठी में हुई थी। नरेन्द्र उत्सुक जी उन के प्रशंसको में से थे। वहाँ पहली बार स्वामी मामा जी की रचना सुनी थी। उनका मधुर स्वर आज भी मेरे कानों में गूँजता रहता है। उस दिन लग रहा था-सधे सरगम के स्वर से कोई साधक अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहा है।
कब तक प्रतिमायें पूजोगे,
खुद प्रतिमा बनते जाते हो,
पाषाण खण्ड पर तन मन धन,
क्यों व्यर्थ लुटाते जाते हो।।
प्रतिमा प्रतीक है भावों का,
कुछ अर्थ छुपे उन भावों में,
प्रतिमा लगती नित नई नई,
पर भाव भूलते जाते हो।।
जब भाव नहीं कोई अर्थ नहीं,
किसका प्रतीक प्रतिमा कैसी?
गंूगी बहरी निर्जीव देह,
क्यों रोज सजाते जाते हो।।
गान्धी गौतम बुत बने खड़े
बुत राम कृष्ण की जोड़ी है,
जहाँ हृदय अधर कंपन विहीन,
क्यों पाठ सुनाते जाते हो।।
कितने बुत पहले लगे यहाँ,
कितनी प्रतिमायें भंग हुई,
पाषाण खण्ड कभी बोले हैं?
क्यों अर्ध चढ़ाते जाते हो।।
ईसा मोहम्मद नानक रहीम,
अब अक्षर बने किताबों में
पीढ़ी तुमको धिक्कारेगी ,
क्यों सत्य भूलते जाते हो।।
सुखदेव गुरु आजाद भगत,
अब बीते कल के किस्से हैं,
इतिहास हसेगा कल तुम पर,
क्यों कन्टक बोते जाते हो।।
अब अर्थ अर्थ में समा रहा,
बिन अर्थ किसी का अर्थ नहीं,
मानव मस्तिष्क में अर्थ घुसा,
सब अर्थ भूलते जाते हो।।
उत्पीड़न शोषण दमन चक्र,
जहाँ मानव भाग्य सिसकता हो।
क्या होगा इन प्रतिमाओं से,
जो रोज बढ़ाते जाते हो।।
भूखी प्यासी मासूम नजर,
है लगी तुम्हारे चेहरों पर ,
तुम बुद्ध बने अधिकारों के,
दायित्व भूलते जाते हो।।
हे युग निर्माता ध्यान धरो,
मत तम की चादर गहराओ ,
कल जग तुमको धिक्कारेगा,
क्यों राह भूलते जाते हो।।
प्रतिमा से भूख नहीं मिटती,
नहीं सबल राष्ट्र है हुआ कभी,
वसुधा के जर-जर बेटों पर,
क्यों बोझ लादते जाते हो।।
लाहड़ी सुभाष विस्मिल पान्ड़े,
मौजूद करोड़ो लाल यहाँ,
धरती कभी वाँझ नहीं होती,
क्यों तथ्य भूलते जाते हो।। 23.,1,11982
इस रचना ने मुझे स्वामी जी के व्यक्तित्व के बारे में सोचने के लिये विवश कर दिया। प्रतिमाओं के बारे में मैं भी सोचता रहा हूँ- आधार के बिना मन टिकता नहीं है इसलिये प्रतिमायें मन को टिकाने के लिये आधार तो हो सकती हैं किन्तु ये लक्ष्य नहीं हैं। जो इन्हें केबल भौतिक उपलब्धियों के लिये ही लक्ष्य बना लेते हैं वे जीवन भर भटकते रहते हैं। कब तक प्रतिमायें पूजोगे, भटकाव से रोकने के लिये सचेत करना है।
इस रचना को उनके मुखारविन्द से अनेको बार सुना है। हर बार नये-नये भाव निकले हैं। इस रचना को कैनेडा से प्रकाशित पत्रिका हिन्दी चेतना ने सम्मान पूर्वक प्रकाशित किया है।
मुझे खूब याद है, महाराजजी उन दिनों इस नगर के प्रसिद्ध शराब बिक्र्रेता मनीराम शिवहरे के मकान में किराये से रहते थे। जब- जब मैं इनसे मिलने गया हूँ ,मुझे शराब की दुकान के बगल से निकलकर जाना पड़ा है। वहाँ से निकलना हरबार मुझे खटका है। यह सोचते हुये निकला हूँ कि स्वामी जी को भी रहने को कहाँ जगह मिली है! नरेन्द्र उत्सुकजी स्वामीजी के यहाँ अक्सर जाते रहते थे। जब मैं पहली बार मित्र नरेन्द्र उत्सुकजी के साथ कमरे में पहुँचा, स्वामीजी आराम से कमरे में बिछी चटाई पर बिराजमान थे। मुस्कराकर उन्होंने हमारा स्वागत किया। मैंने इधर- उधर दृष्टि घुमाई, समझ गया, यह एक साघक का साधना कक्ष है। बातों- बातों में मेरे अपने स्वास्थ्य को लेकर ह्म्योपैथिक दवाओं की बात चल निकली। मैंने कहा-‘‘ आप को ह्म्योपैथी में रुचि हैं। मेरे पास एक किताब ह्म्योपैथी से सम्बन्धित जाने कहाँ से आगई है । मैं उसे आपको दे जाउँगा, शायद आप उसका उपयोग कर सकें। दूसरे दिन मैं वह किताब उन्हें दे आया था। बाद में पता चला स्वामीजी गरीब मरीजों की सेवा में ह्म्योपैथी का उपयोग करते हैं। ह्म्योपैथी में उनका विश्वास आज भी यथावत बना हुआ है।
मुझे याद आ रहा है, सन्यास लेने से पूर्व एक बार महाराज जी ने अपने घर पर एक कवि गोष्ठी रखी थी। इन दिनों वे रेल्वे स्टेशन डबरा के सामने गली नम्बर तीन, शिव का्ॅलोनी में कुटी बनाकर उसमें रहते थे। नगर के सभी कवियों को उसमें आमंत्रित किया गया था। इस नगर में ऐसी सफल गोष्ठी शायद फिर कभी नहीं हुई है। रातभर चाय नास्ते के साथ स्तरीय गोष्ठी चलती रही। कभी-कभी उस गोष्ठी की रचनायें आज भी मुखरित हो उठतीं हैं।
यों महाराज की छवि मेरे चित्त में बैठती चली गई। महाराजजी की एक इस रचना ने मेरे चित्त को अधिक प्रभावित किया है-
रुको,जरा अर्थी रोको, मैं श्रद्धा सुमन चढ़ालूँ ,
नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,
यह मरी नहीं है ,अमर होगई।।
सुकुमारी यह उस बस्ती की, जहाँ निश्छल स्नेह बरसता है,
माँ के श्वांसों की उष्णा से, शिशु पलता और पनपता है,
सर्दी गर्मी और वर्षा में, जहाँ बचपन बेसुध फिरता है,
जेठ अषाढ़ की गर्मी में, जहाँ तन में शीरा पकता है,
माटी गारा का उबटन चढ़, सुरमई सा रंग निखरता है,
रूखे सूखे टुकड़ों में पल, गदराया जिस्म महकता है,
अधकचरे रैन बसेरों में, टूटी फूटी खपरेलों में,
सतरंगी पैबन्द लगे, चिथड़ों में यौवन खिलता है,
भादों में खमीरी देह लिये, आँचल में पूस थिरकता है,
ऋतुराज की आहट पातेही, तन्हाई में रूप सँबरता है,
यह लोकतंत्र की बेटी है, मस्तक पर तिलक लगालूँ ,
नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,
यह मरी नहीं है, अमर होगई।।
भौजी के नूपुर की रुनझुन, नन्हीं की पायल की छुनछुन,
झोली में मुन्ने की कुनकुन, बहना की चूड़ी की झुनझुन,
धनलोभी भँवरों की गुनगुन,अम्मा की खाँसी की खुनखुन,
बापू की हारी साँसें मिल, जहाँ एक ताल में बजती हैं,
लाचारी की कथरी ओढ़े, सरिता नयनों से झरती हैं,
सखियों की हँसी ठिठोली में,बोहरे की मीठी बोली में,
मजबूरी का गहना पहने,जहाँ षोडश बाला ठगती हैं,
बिन व्याहे पिया की दुल्हन बन, क्बाँरी मांगे जहाँ रचती हैं,
जहाँ सत्य सनातन सिर धुनते, नैतिकता आहें भरती हैं,
जहाँ मानव के अधिकारों की, नित नई चितायें जलतीं हैं,
यह समाजबााद की बेटी है, मैं चूनर जरा उढ़ालूँ,
नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,
यह मरी नहीं है, अमर होगई।।
आड़े तिरछे गलियारों में,वीणा सी मधुर झनकार लिये,
चंचल चपला सी चमक चमक,
तन में सागर का ज्बार लिये,
बिखरे गेसू अधखुली पलक, उर में सपनों का हार लिये,
डगमग डगमग पग धरे कहीं, खुद के यौवन का भार लिये,
भटके बौराई हिरनी सी, गूँगे मन का उदगार लिये,
ओंटी बिजया सी मादकता, केेार गुलाबी सुरुर लिये,
मृगमद सी अंग से गंध उड़े, झूमे रम्भा सी उभार लिये,
पोरी पोरी में रस छलके, और नयन उनींदा खुमार लिये,
अल्हड़ यौवन बाँकी चितवन, अधरों पे सुखद मुस्कान लिये,
भोलापन जहाँ थिरकता हो, झिलमिल चूनर की ओट किये,
यह धरनीधर की बेटी है, मैं राखी जरा बँधा लूँ,
नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,
यह मरी नहीं है, अमर होगई।।
इसके दादा परदादा ने संसद का भवन बनायाथा,
खुद की तरुणई रगड़ रगड़, इसका पत्थर चमकाया था,
मेंहदी रची हथेली पर,छालों से रिसते छन छनकर,
विखरा था इत्र हिना इतना?
पीड़ से बोझिल मन होकर,मृगनैनी का काजल घुलकर,
था मुश्की इत्र वहा कितना?
जेठी तपी दुपहरी में, अषाढ़ी झुलसी लपटों में,
इसकी सीढ़ी दर सीढ़ी में, कितनी पीढ़ी कुर्वान हुईं,
अपने तन का दोहन करके, कितनी जानें बेजान हुईं,
कितने लालांे की लाली पी, इसकी दीबारें लाल हुईं,
गुंबज़ पर चढ़ा तिरंगा जब, जननी यहाँ की निहाल हुई,
यह प्रजातंत्र की बेटी है, चरणों में शीस नवालूँ,
नहीं वक्त हँसेगा, जग कोसेगा, कुमकुम तिलक लगालूँ ,
यह मरी नहीं है, अमर होगई!
यह रचना सम्भव है ,मेरी तरह आपके अन्दर के भी सुसुप्त पड़े तारों को झंकृत करदे। इस रचना को मैंने अनेक बार पढ़ा है। हर बार नये नये भाव उद्घृत हुये हैं। इसकी पीड़ा ही मुझे बिद्रोह की ओर खीचकर लेगई है। इसने ही मेरी राष्ट्रीय भावना को स्थाई रुप दे दिया है।
उन दिनों राजा साहब मगरौरा इस नगर में एक साहित्यकार के रूपमें भी प्रतिष्ठित थे। सन्1982 में होली का पर्व था। होली मिलन के लिये मैं ,सुरेश पान्डे सरस,एवं नरेन्द्र उत्सुक तीनों ही स्वामी जी के यहाँ जा पहुँचे। उन्हें अपने साथ लेकर हम चारों मगरोरा वाले राजा साहब के यहाँ मिलने पहुँच गये। नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति गाजीपुर निवासी श्री रमाशंकर राय जी पहले से ही मौजूद थे। कवि गोष्ठी चल रही थी। हम सब यथास्थान बैठ गये। जब स्वामीजी का रचना पाठ के लिये नाम लिया गया तो उन्होंने यह रचना पढ़ी-
जब जब पहुँचा द्वार तुम्हारे, लौटा नई चेतना लेकर,
बिखरे स्वप्न सँबारे तुमने, प्रतिपल नई चेतना देकर,
क्या तेरा उपकार नहीं ये?
फिर कैसे कहदूँ प्यार नहीं है!
यूँ तो कितने घट देखे पर मन की क्षुधा न बुझने पाई,
सुरभि, सुश्मा मिलीं अनेकों, ममता कहीं न लखने पाई,
ममता बिन समता हो कैसी,थी बात तनिक पर समझ न आई,
जो भी आया प्यार लुटाने, लौटा वही वेदना देकर,
बिखरे स्वप्न सँबारे तुमने, प्रतिपल नई चेतना देकर,
क्या तेरा उपकार नहीं ये?
फिर कैसे कहदूँ प्यार नहीं है!
पगपग किया भरोसा जग का, पर स्थयित्व न मिलने पाया,
क्षणिक देख मुस्कान बढ़ा मैं, कहीं अपनत्व न दिखने पाया,
मृगतृष्णा के पीछे-पीछे, जीवन जैसी निधि लुटाकर,
जब-जब पहुँचा द्वार तुम्हारे, लौटा नई प्रेरणा लेकर,
बिखरे स्वप्न सँबारे तुमने, प्रतिपल नई चेतना देकर,
क्या तेरा उपकार नहीं ये?
फिर कैसे कहदूँ प्यार नहीं है!
16.2.82
इसमें स्वामीजी के मधुर स्वर ने समा बाँध दिया। होली का सारा वातावरण संगीतमय होगया। सभी श्रोता इनके स्वर और रचना की भूरि- भूरि प्रशंसा कर रहे थे। ऐसी रही उनकी काव्य दुनियाँ।
महाराज जी की रचनायें ‘स्वामी मामा’ के नाम से अखबारों में प्रकाशित होती रही हैं। व्यवस्था की शल्य क्रिया करती उनकी यह रचना-जो बहुत समय पश्चात स्वतंत्रता सेनानी दाँते जी के निवास पर सुनने को मिली ।
साँप घर में पल रहे हैं।
कालिमा देखो क्षितिज पर आज छाती जारही है,
हर जगह पृथ्वी पे सुर्खी आज वढ़ती जारही है।
कालिमा देखो..............
धू-धू करके हर दिशा में आज लपटें उठ रहीं हैं,
हर गली चौराहे उन्मत आज अस्मत लुट रही है,
नस्ले इन्साँ किस कदर गुमराह होती जा रही है।
कालिमा देखो.............
एक ही माँ के लाड़लों में आज गोली चल रही है,
हर जगह इन्सानियत की आज होली जल रही है,
बागियों की दुंदभी हर ओर बजती जारही है।
कालिमा देखो.............
लूटकर बस्ती की दौलत पारसा अब बन रहे जो,
पोंछ कर सिन्दूर अगणित आज योद्धा तन रहे जो,
अब उन्हीं की शोर्य गाथा आज लिखी जारही है।
कालिमा देखो............
मान मर्यादा को तज शासक समर्पण कर रहे है,
न्याय से होकर विमुख शासन समर्थन कर रहे हैं,
भाल पर इतिहास के कॉलोंच पुतती जारही है।
कालिमा देखो............
वन अभावों का धनी दिनरात मानव गल रहा है,
क्रूर पंजों में कसा विश्वास आहें भर रहा है,
खुद की परछाँई भयानक आज बनती जारही है।
कालिमा देखो............
राष्ट्र को बनकर हकीकी धूर्त लम्पट ठग रहे हैं,
नीद में सोय प्रहरी साँप घर में पल रहे हैं,
संतति बगुलों की दिन- दिन आज बढ़ती जारही है।
कालिमा देखो............
इसी तरह महाराज जी की इस रचना ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया है।
वेदना श्रंगार करती...........
दर्द जब उठता है दिल में,बोल गीतों के निकलते,
वेदना श्रंगार करती ,भाव गीतों में निखरते।।
गूँजती चारों दिशायें ,थरथरा उठता गगन,
आह भरती हर कली ,ले पीड़ से बोझिल नयन,
प्रीत घुँघरू बाँध नाचे, राग गीतों से निकलते।।
वेदना श्रंगार करती..........
चाह भटके ज्यों बटोही, मार्ग भूले राह चलते,
स्वप्न में खोकर स्नेही, नींद ठिठके साँझ ढ़लते,
घाव लावा से पिंघलते, श्रोत गीतों से निकलते।।
वेदना श्रंगार करती..........
दूर साहिल पे कहीं, जब आहटें कदमों की सुनतीं,
दूरियाँ घटतीं है दिल में , मंजिलें आसान दिखतीं,
टूटती साँसें सहमती, स्वप्न माँझी के सिहरते।।
वेदना श्रंगार करती..........
खा थपेड़े वक्त के मन,नीड़ के पंछी सा लौटे,
गहन कोहरे में ठिठकते,ज्यों दिवाकर आँख खोले,
साज बजते एक स्वर में, मौत के साये सिमटते।।
वेदना श्रंगार करती..........
स्वामी मामा
डबरा
महाराज जी स्वामी मामा के नाम से लम्बे समय तक लेखन करते रहे हैं। उनकी रचनाओं की थाह मापते नहीं बनती। वे शुरू से ही गहरे सागर से रहे हैं।
महाराज जी ने कृपा करके एक बार अपनी इन रचनाओं की फोटो प्रति मुझे देदी थी। मुझे इस रचना के लेखन में इनका उपयोग आवश्यक लग रहा है। मैंने उनकी अनुमति के बगैर इनका उपयोग कर डाला है। निश्चय ही मैं पाप का भागीदार हूँ। इस हेतु जो दण्ड मिले वह मुझे सहर्ष स्वीकार है। यह सोचकर ही यह एक रचना यहाँ और प्रस्तुत है-
कठिन नहीं कुछ ,बड़ा सरल है.......
मृत्यु के क्षण दूर रहेंगे, तुम जरा मुस्कादो ,
कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,
कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।
गरल पिया है कितना मैंने, सभी पचा है इस जीवन में,
जानें कितनी प्यास छुपी है, अधर अभी भी सूखे ,मन में
मघु कलष है पास तुम्हारे,, कुछ बूँदें छलका दो,
कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,
कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।
विदेह नहीं हूँ दग्ध हृदय है, शाँत नहीं हूँ तप्त हृदय है,
सजल नहीं अब वाष्प बहुत है,शुष्क नहीं
मन सरल बहुत है,
स्पन्दन साफ सुनाई देगा, दूरी तनिक घटादो,
कुछ और जिन्दगी जी लूंगा मैं ,सहारा तनिक लगादो,
कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।
कंटक बहुत सहे हैं पग पग,दुर्गम और कटीले पथ पर,,
सीते रहे सदरी गैरों की,भूल गये बस खुद की चादर,
अर्न्तमन स्थायित्व ढ़ूँढ़ता, आशा दीप जला दो,
कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,
कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।
नित्य प्रति सूरज ढ़लने तक,कितने जीवन जी डाले हैं,
कड़वे, मीठे , तुर्ष ,कसैले,कितने अनुभव पी डाले हैं,
साधरण सी बात नहीं कुछ,थेड़ा गणित लगालो,
कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में,
सहारा तनिक लगादो,
कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।
हृदय पटल पर अंकित जो भी,
अक्षर बन प्रतिबिम्बत होता,
स्वतः निकलते भाव हृदय से,
समय सृजन जो कण कण करता,
अर्थ पूर्ण , मौन भाषा है, चिन्तन कर अपनालो,
कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,
कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।
शंकास्पद संकीर्ण भाव से,कठिन बहुत है अनुभव करना,
सद्भावी व्यक्तित्व तुम्हारा,सहज बहुत है अभिनय करना,
भ्रमित न हों,विश्वास जगाकर,, दिग्दर्शन दे डालो ,
कुछ और जिन्दगी जी लूंगा में, सहारा तनिक लगादो,
कठिन नहीं कुछ बड़ा सरल है।।
स्वामी मामा, डबरा
मेरी तरह आप भी इस रचना को अनेक बार पढ़ना चाहेंगे। हर बार नये-नये भावों से रु-ब-रु होते हुये नयी-नयी अनुभूतियों का अनुभव करेंगे।
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आँख के महत्व को सभी स्वीकारते हैं। किन्तु आँखों के महत्व को परिभाषित करने में महाराज जी ने अपनी तरह से जो बातें कहीं हैं वे हमारे जहन को उद्वेलित करने में समर्थ हैं। एक बार आप इस रचना को पढ़कर तो देखें, इसे आप जीवन भर नहीं भूल पायेंगे।
आँखें
यूँ तो इजहारे हकीकत के तरीके हैं बहुत,
आँख का अंदाजे बयाँ सबसे निराला है!
आँख में झरने छुपे हैं, आँख में मोती चमन,
आँख में सपने छुपे हैं, आँख में चैनो अमन,
आँख में मस्जिद शिवालय, आँख में गंगो जमुन,
आँख में काशी औ काबा, आँख में भक्ति भजन,
आँख में सागर सफीना, आँख में नीला गगन,
आँख में चारों दिशाऐं, आँख में इश्के वतन,
आँख में सामाँ बहुत हैं, आँख में सारे रतन,
आँख में अपने पराये, आँख में दैरो हरम,
आँख में नफरत मुहब्बत, आँख में रहमो करम,
आँख में गैरत मुरब्बत, आँख में जुल्मो सितम,
आँख में खुसियाँ हजारांे, आँख में सब रंजोगम,
आँख में मस्ती गजब की, आँख में रिस्ते जख्म,
आँख में चालो-चलन है, आँख में इन्साँ के ढंग,
आँख में किस्से जहाँ के, आँख में सारे भरम,
आँख में दौलत की गर्मी, आँख में गुर्बत छुपी,
आँख मे ंअस्मत व शौहरत,आँख में जिल्लत छुपी,
आँख में जहमत जहाँ की, आँख में हसरत छुपी,
आँख में जुल्मत हजारांे,आँख में रहमत छुपी,
आँख में मासूमियत है, आँख में फितरत छुपी,
आँख में सारी हकीकत, आँख में किस्मत छुपी,
आँख में तर्जे बयाँ है,, आँख में कुदरत छुपी,
आँख में मजमून सारे, आँख में सारा जहन,
आँख में अर्श छुपा, बात बचपन की छुपी,
आँख में जर्फ छुपा, लाज कमसिन की छुपी,
आँख में तौर छुपा, हूक जोबन की छुपी,
आँख में दौर छुपा, टीस दुल्हन की छुपी,
आँख में फर्ज छुपा, आह बिरहन की छुपी,
आँख में राज छुपा, पीर जोगन की छुपी,
आँख में मदिरा की शोखी,आँख में दुनियाँ के रंग,
जाँ पे बन जाती है, आँख चढ़ जाये अगर,
जाँ पे बन जाती है, आँख जल जाये अगर,
जाँ पे बन जाती है, आँख झुक जाये अगर,
जाँ पे बन जाती है, आँख भर जाये अगर,
जाँ पे बन जाती है, आँख आ जाये अगर,
जाँ पे बन जाती है, आँख लड़ जाये अगर,
जाँ पे बन जाती है, आँख मिल जाये अगर,
आँख के तेवर बदलते सब बदल जाते हैं रंग,
स्वामी मामा
डबरा म0प्र0 475110
महाराज जी की ‘राष्ट्र को आव्हान’रचना भी इसी तरह की है। राष्ट्र के प्रति हमारे क्या कर्तव्य हैं,रचना स्व्यम् मुखरित हो उठी है-
‘राष्ट्र को आव्हान’
मातृभूमि के वीर सपूतो,माँ ने तुम्हें बुलाया है।
लुटा मिटा दो तन मन धन को, यह संदेश पठाया है।।
आपस में लड़ना छोड़ो अब, तुम्हें देख माँ विकल हो रही।
हृदय धधकता फटती छाती,आँखें उसकी सजल हो रहीं।।
तोड़ दयीं सब मर्यादायें,भुला रहे अपना अतीत।
दावानल की अग्नि में अब, झुलस रहे हैं अपने मीत।।
प्रजातंत्र का राज है कहते, लोकतंत्र का नारा है।
लोक कटा है,तत्रं प्रथक है,ऐसा हाल तुम्हारा है।।
हाहाकार, रूदन,क्रन्दन ओ,उत्पीड़न कुन्ठा का ज्वर।
सभी सहन है कैसे तुमको,डूब रहे तुम क्यों मझधार।।
तनी हुई है सबके सर पर,वह देखो नंगी तलवार।
समय गवाया पछताओगे,नहीं बचेगा कोई बार।।
भूल गये क्या उन वीरों को,भूल गये उनका वलिदान?
भूल गये गौरव गाथायें,भूल गये अपनों का ध्यान?
कैसे तुम हो राष्ट्र प्रहरी, कब तक तुम मदहोश रहोगे?
कैसे सहन तुम्हें हैं शोषण, कब तक यूँ खामोश रहोगे?
है नहीं शोभता वत्स तुम्हें, आजादी का उपहास करो।
कुर्सी ,धन ,वैभव की खातिर,अपनों का ही हृास करो।।
है सभी लाड़ले जननी को, क्यों विष के बीज उगाते हो।
सब नष्ट भ्रष्ट हो जाओगे, निज हाथों भाग्य मिटाते हो।।
क्या देख नहीं तुम रहे धरा पर,किसने सबको भरमाया है।
कोई और नहीं, यह दानव है, मानव का वेष बनाया है।।
पर अभी वक्त है चेत करो,दानवता नंगी नाच रही।
मानव का रक्त बचाना है, सन्देश तुम्हें भिजवाया है।।
आव्हान करती है तुमको,वीर धीर तुम हो महान।
कायरता को छोड़ उठो अब,कर दो सब कुछ तुम वलिदान।।
अभी समय है होश सभ्भालो,माँ अब तुमको रही पुकार।
‘क्रान्तिदूत’ बन बिगुल बजा दो,इसमें सबका है उद्धार।।
स्वामी मामा
डबरा म0प्र0 475110
महाराज जी ‘दीपिका’ रचना के माध्यम से अपना सन्देश हमें यों सुनाते हैं।
दीपिका
क्या करोगे दीपिका घर में जलाकर,
चाँद जब नभ से उतर कर आ गया है।
भावना कैसे दबी अब रह सकेगी,
जब तपन का ज्वार मन में आ गया है।।
कौन कहता स्वर्ग धरती से कहीं अन्यत्र है,
जब सुवासित मलय सा वातावरण सर्वत्र है।
रूप का श्रंगार अब पूरा हुआ,
जब दृगों में आज कोई छा गया है।।
आज सारा भ्रम हृदय का मिट चुका है,
अर्ध विकसित जो था पंकज खिल चुका है,
अब नेह का दीपक जला कर क्या करोगे,
जब स्नेह से आँगन प्रकाशित हो गया है।
युगों युगों से साध मन में पल रही थी,
अपनी परछाँईं स्वयं को छल रही थी,
अब विरह के गीत गाना व्यर्थ है,
जब स्वयं, बटोही द्वार तेरे आ गया है।।
स्वामी मामा
डबरा
महाराज जी ‘प्रीति के अच्छरों से’ हमें यों परिचित कराना चाहते हैं।
प्रीति के अक्षर.....
प्रीति के अक्षर लिखे अब जायेंगे,
तो हृदय के कपट स्वतः खुल जायेंगे,
मूक रहना फिर कठिन होगा ,प्रिय,
रहस्य नयनों से सभी खुल जायेंगे,
प्रीति के अक्षर.....
तो हृदय के......
स्नेह के पथ पर ज्युँही,
आरूढ़ तुम हो जाओगी,
देख कर दर्पण, प्रिय
खुद से ही तुम शर्माओगी,
और अधूरे स्वप्न, तव
साकार फिर हो जायेंगे।
प्रीति के अक्षर.....
तो हृदय के......
स्पर्श पा वायू तुम्हारा,
गंधमय हो जायेगी,
पा प्रियतम को निकटतम,
खुद की सुध खो जयेगी,
स्नेह आलिंगन-मधुर पावन, प्रिये, लख,
शुष्क पल्लव भी हरे हो जायेगे।
प्रीति के अक्षर.....
तो हृदय के......
पा निमंत्रण स्नेह का
हर कली मुस्कायेगी,
पुष्प अधरों पर खिलेंगे,
हर तपन बुझ जरयेगी,
मन को समझाना कठिन होगा, प्रिय जब
तार चुनरी के सभी रंग जायेंगे।
प्रीति के अक्षर.....
तो हृदय के......
प्रस्फुटित होंगे अधर पर,
बोल गीतों के थिरकते,
नींद से बोझिल नयन,
थक जायेंगे जब राह तकते।
रोक पाना फिर कठिन होगा,प्रिय,
लाज के बन्धन सभी खुल जायेंगे।।
प्रीति के अक्षर.....
तो हृदय के......
स्वामी मामा
डबरा
कालचक्र कविता में महाराज जी ने समय की गति के स्वरूप को बड़े ही सुन्दर भावों में संजोया है।
कालचक्र
शून्य में राह तक रहा था,
चाहे अनचाहे, अचेतन में,
भूल बैठा था निज का भान।1।
खोया खोया सा, कहीं झाँक रहा था,
डूब गया था, शायद कुछ खोज रहा था,
पर क्या, कहाँ, कुछ भी नहीं ध्यान।2।
किन्तु, यह सच है मैं यहाँ न था,
शायद अंधकार में, कुछ सोच रहा था,
पर क्या, कुछ याद नहीं, सचमुच वेसुध था।3।
चौका, कुछ ठिठका, समाधी टूट गई,
धीरे धीरे , कुछ आहट पाकर अकस्मात,
जैसे नींद में था,आँख खुल गई।4।
शायद कोई पीछे पीछे, चुपके चुपके,
आ रहा है, पीछा कर रहा है,साये की तरह,
पर कौन , और क्यों?5।
ओह! तो तुम हो अतीत, लेकिन,
तुम तो इतने भयानक न थे,
नहीं नहीं ,भ्रम है, विचित्र क्रम है।6।
तो क्या तुम भविष्य हो?
नहीं नहीं , वह तो मधुर है,
सलौना है,सुनहरी है, सुन्दर है।7।
अच्छा तो तुम वर्तमान हो?,
शुष्क-चर्म, अस्ति-पिंजर,
आत्मा रहित ,चलते फिरते इंसान हो।8।
ओह! कितना भयानक रूप है,
न दुख है न सुख , न जीवन, न मृत्यु,
ठीक नर कंकाल का स्वरूप है।9।
नहीं ये भी नहीं, तो फिर कौन हो?
तो सुनो!
मानव न सहीं मानव की प्रतिछाया हूँ , मतदाता हूँ,
स्मृति हूँ, आशा हूँ, अहसास हूँ जीवित हूँ, इंसान हूँ,
चौको मत, मैं अतीत हूँ ,भविष्य हूँ, वर्तमान हूँ।10।