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तानाबाना - 22

22

अभी तक आप पढ रहे थे, मंगला और दुरगी की साहस, दृढता और सतीत्व की दास्तांन, अब बात चल रही थी धम्मो यानी धर्मशीला की जो धेवती है मंगला की, बेटी सुरसती की और बहु दुरगी की तो इन सबके गुण तो थोङे बहुत उसमें आने ही थे । इन सब गुणों को लेकर आगे बढी धर्मशीला । तेरह साल की अबोध उम्र में देस के विभाजन का दर्द झेला, गुङियों से खेलते खेलते बारह साल की नासमझ उम्र में सगाई हो गयी । भूख, गरीबी की मार देखी । पंद्रह साल की हुई तो शादी के बंधन में बंध गयी । बीस साल की उम्र तक पहुँचते पहुँचते दो गर्भपातों का दंश झेलना पङा । और अब टूटा तन, बिखरा मन लेकर नये सिरे से अपनी गृहस्थी सजाने फरीदकोट आ गयी ।

फरीदकोट में राजा के महल के पीछे वाली गली में एक कमरे का घर था जिसके आगे दो चारपाइयों का खुला आँगन था । विभाजन से पहले का समय होता तो वे बिना किराया दिए कहीं भी किसी के भी घर में मेहमान बन कर रह सकते थे पर यह आर्थिक तंगी और अविश्वास का दौर था । लोग गरीबी और भूख से जूझ रहे थे । रोजगार छिन गये थे । आजादी के दस साल बीत जाने पर भी लोग एक अदद छत और दो वक्त की रोटी के लिए संघर्षरत थे । चीजें रसोई से गायब हो गई थी । केवल अत्यावश्यक सामान ही मँगवाया जा सकता था । उसमें ही लोग संतुष्ट हो जाते । इस मकान का किराया था तीन रुपए और दो महीने का किराया बना छह रुपए जिसे मकानमालिक को जमा कराने के बाद पीछे बचे चौदह रुपयों में से दस रुपयों के चाची और माँ के कपङे आ गये । बाकी के चार रुपए रवि ने ईमानदारी से पत्नि के हाथ में रख दिए । अब इन चार रुपयों में ही सारा महीना निकालना था । थोङा बहुत घर गृहस्थी का सामान कुछ नकद कुछ उधार करके खरीदा गया । बरतनों में एक सगली, एक थाली और एक कङछी लाने से घर सज गया । ये लोग पहले थाली में दाल धोते और सगली में चढा देते । उसी थाली में आटा गूँथ लिया जाता । जब रोटी सिक जाती तो उसी थाली को धोकर रोटी – दाल डाल ली जाती । पहले एक जन खा लेता तो दूसरा माँज कर उसी में अपना भोजन परसता । सीधा सादा खाना जुटाना भी मुश्किल दिखाई दे रहा था । रवि सुबह ही दो रोटी खाकर निकल जाता तो शाम को ही लौटता । रात में दो रोटी का जुगाङ हो जाता तो त्योहार जैसा मन हो जाता । नहीं तो धर्मशीला ने माँ और नानी को व्रत करते देखा ही था । उसने भी सोमवार, वीरवार और पूर्णमाशी के उपवास करने शुरु कर दिए ।

एक दिन ललाइन उनके घर आईं, हालत देख बिना कुछ कहे सब समझ गयी । देखने को वहाँ था ही क्या ? सिर्फ तीन बरतन और ओढने बिछाने को दो चादरें जिनमें से एक नीचे बिछाई जाती और एक रात को ओढने के काम आती । दुपट्टे ओढने के काम आते और तौलिए के भी ।

उसने बङे प्यार से पूछा – “ बहु सारा दिन अकेली क्या करती रहती हो “ ?

“ कुछ नहीं ताई जी “।

“ कुछ काम धंधा आता है “ ?

“ जी जंपर , घाघरा सिलना, बुनाई करना, क्रोशिया से थालपोश बनाना आता है “ ।

“ अगर मैं ऊन ला दूँ तो थालपोश बना लेगी “ ?

“ जी बना दूँगी “

वह संकोच से भर गयी । घर न दूध था, न दही कि दूध पिला देती या लस्सी बना लेती । एक गिलास में पानी और गुङ की डली ही ले आई । ललाइन ने गुङ की डली में से थोङा सा गुङ तोङ बाकी गुङ वापिस कर दिया और पानी पी विदा हुई ।

अगले दिन ललाइन के भेजे सूत की लच्छियाँ और क्रोशिया आ गया । उसने सुंदर नमूने डाल कर मन लगाकर थालपोश पाँच दिन में तैयार कर दिया । ललाइन काम देखते ही खुश हो गयी । नकद दो रुपए दिए । धम्मो संकोच से पैसे पकङ न सकी तो वे तुरंत बाजार गयी । उसके लिए दो रुपए से एक थाली और चार कटोरी खरीद लाई । यह धर्मशीला की पहली कमाई थी । उसके बाद तो काम का ढेर लग गया । गली में से कोई स्वेटर बुनने को दे जाता तो कोई क्रोशिया के लिए । रवि के जाते ही हाथ में कोई न कोई काम पकङ कर बैठ जाती और उसके लौटते ही छिपाकर रख देती । जो पैसे आते, उससे कोई सामान खरीदा जाता ।

इससे भी बङा फायदा यह हुआ कि पङोस की लङकियाँ काम सीखने के लिए आने लगी । दोपहर में ये सब लङकियाँ हँसती - खिलखिलाती तो कमरे की उदास दीवारें भी मुस्कुरा उठती । चारों ओर रौनकें बिखर जाती । मेहनत का फल स्पष्ट दीखने लगा था । कमरे में दो चारपाई लग गयी थी जिनमें से एक दिन में टेढी खङी कर दी जाती । दूसरी पर बङे गुलाब के फूलों की कढाई वाली चादर बिछी रहती । सामने एक लकङी का फट्टा लगाकर उस पर चार कांसे के थाल सजे रहते । थालों के आगे चार पीतल के कङे वाले गिलास और उन पर चार पीतल की कटोरियाँ । बेजान और उदास घर की रंगत बदल गयी थी । नहीं बदला था तो रवि का बैरागी स्वभाव । वह जहाँ बैठता, ख्यालों में खो जाता । घर में आते सामान के स्रोत का अनुमान कुछ कुछ उसे भी था पर वह देख कर भी अनदेखा कर देता । न रोकता, न टोकता और न पूछता । कई बार जोश में वह कुछ दिखाना या बताना भी चाहती तो रवि का उपेक्षापूर्ण व्यवहार उसे उदास कर देता । धीरे धीरे पैसे जोङ कर उसने एक सिलाई मशीन भी खरीद ली । इसी क्रम में तीन साल बीत गये । घर में अब एक बच्चे की कमी महसूस होने लगी थी । रिश्तेदार और पङोसियों ने मजारों और तीर्थस्थानों की जानकारियाँ देनी शुरु कर दी और बुजुर्ग महिलाएँ कोई मन्नत मानने की सलाह देती और कोई कोई तो उसके हिस्से की मन्नत मान भी लेती । लोगों की यह बातें इन दोनों को अपने अजन्मे बच्चों की याद दिला जाती । और वे उदास हो जाते । यही उदासी उनकी सांझ थी । उनकी अपनी थी ।

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