मंथन 6
छः
फाल्गुन का महीना बीत गया था। दिन बड़े होने लगे थे। अनाज कटकर खलिहानों में आ गया था। किसान लोग चैन की सांस ले रहे थे। गाँव के सभी लोगों में एक नई स्फूर्ति आ गई थी।
गाँव के किसानों ने गेहूँ के लॉक को अपने-अपने खलिहानों में सम्भालकर इस प्रकार रखा था, जिस प्रकार कुशल गृहणी अपने घर में वस्तुओं को रखती है। खलिहानों में सजाये लॉंक के ढेर के ढेर ऐसे लगते मानो छोटे-छोटे किलों ने इस गाँव की घेराबंदी कर दी हो। लोग उन किलों में संरक्षकों की तरह दिन-रात डटे रहते थे।
सभी सुबह-शाम खलिहानों में काम करते दिखते। कोई गेहूँ की दॉंय कर रहा है किसी के खलिहान में अनाज का ढेर लग गया है। राजराशि की पूजा की जा रही है। प्रसाद में गुड़ बाँटा जा रहा है ,लेकिन कान्ती भी अनमने मन से दांय करने में लगा है। दोपहर हो गई। उसने अपने बैल मेल दिये। तपती धूप में पंचागुरा लेकर दांय को खुखेरने लगा। दम फूल गया। दांय अधूरी छोड़कर खटिया में आ गिरा।
बहुत दिनों से उसका स्वास्थ्य विगड़ता जा रहा है। रवि ने शहर के बड़े अस्पताल में दिखाने की कह दी तो पर पैसे के लालच में वह इलाज न करा रहा था। हरिहर ने तो कई बार कहा, लेकिन वह क्यों मानता, घर का मालिक जो है।
पत्नी बड़बड़ाती हुई पास आ गई और बोली, ‘इतैक दिनन से रवि डाक्टर इलाज की कह रहे है सो तुम तो सुनत नानें। अरे कछू हो गयो तो मैं कौन के जी कों रोऊंगी।‘
‘अरे तो का मैं मत्तों, सों तें ऐसे कह रही है।‘
‘तोउ कहा है इलाज तो करानों ही चाहिए।‘
‘तू तो पागल है अपने आप सब ठीक हो जाऊंगो। ज रवि है ना वाय इलाज करनों नानें। तईं बानें बड़े अस्पताल की कह दई।‘
पेट पर हाथ फेरते हुए वह धीरे-धीरे कराहने लगा। शायद धीरे-धीरे इसलिए कि ज्यादा जोर से कराहता तो रवि डॉक्टर को पतो चल जाएगो। वे शहर ले जावे की कहेंगे। पत्नी पीड़ा समझ गई बोली-‘डॉक्टर ये बुला लाऊं।‘
‘अरे व कहा जाने इलाज-फिलाज। चल मैं घर हीं चलतों।‘ वह चलने लगा तो गिरने को हुआ। पत्नी सलौनी ने झट से सहारा दिया। धीरे-धीरे घर ले गई और डाक्टर रवि को बुलाने चली गई।
वपिस रवि को लेकर लौटी। अब तक वह कई बार उलटियां कर चुका था। डॉक्टर रवि को देखकर कान्ती बोला-‘डॉक्टर तुम्हाओ इलाज कुन मोय लगतो।‘
‘मैं तुमसे कई बार कह चुका कि तुम्हें अलसर है। बड़े अस्पताल में दिखाना चाहिए किसी दिन बात बढ़ जायेगी तो कोई कुछ न कर लेगा।‘ कान्ती पैसे से चीस था बोला-‘हमें तो डाक्टर अपरेशन से डर लगतो। अरे जो भगवानयें कन्नो है सो होयगो।‘ अब तक बातें करने में रवि ने दो इन्जेक्शन लगा दिये।, दवा पिलायी और कान्ती की मां की ओर इशारा करके बोला-‘जल्दी से बैलगाड़ी तैयार कराओ इन्हें शहर अभी ही ले चलना पड़ेगा।‘ और रवि चला गया।
अब कान्ती की मां और हरिहर में बातें होने लगीं। कान्ती बोला, ‘वाई जे हमसे पैसा नहीं लेत तई ज बात है।‘ बेटे के प्रवाह में कान्ती की मां आ गई और बोली-
‘अरे पोथी कोरी की मोड़ी मुन्नी इतैक बीमार हती, जिन्ने वाय कैसे बचा लयी।‘ अब कान्ती फिर बोला-‘अरे बिना पैसन की दवाई तो ऐसी ही होते।‘
अब हरिहर को बोलना ही पड़ा-‘भैया यदि तुम जिन दवाइन के पैसा देतै तो तुम जे बातें न कत्तै।‘
कान्ती हरिहर पर नाराज हो गया- ‘तें कहा जाने, जे बातें। अरे बिन्हे घर की घरान्द आतै। जे अपने मतलब से चल्तयें।‘
अब हरिहर से बातें सुनी न गईं तो बैलगाड़ी तैयार करने चला गया। कान्ती के पास उनकी पत्नी खड़ी थी। उसने उसओर देखा तो सलौनी की आंखें डबडबा आईं। उसे रोता देखकर बोला-‘बाई मैं अब नहीं बच सकत।‘
‘बेटा चिन्ता न कर बड़े अस्पताल में चलतैं।‘
सलौनी बोली-‘तुम कह देऊ तो मेऊ संग चलों।‘
अब कान्ती ने उत्तर दिया-‘ ते चिन्ता मति करै। तें भें कहा करेगी।‘
अब सलौनी में कहाँ साहस था कि कह बिना आज्ञा के साथ जा सकती ूं। चुप रह गई। अब रवि तैयार होकर वापिस लौट आया था। हरिहर गाड़ी तैयार कर चुका था। आते ही रवि बोला-चलो ! कान्ती ने उठने का मन किया। पर उठ न पाया। हरिहर और रवि ने उसे गाड़ी में बैठाया और गाड़ी चल दी।
चर्चा सारे गाँव में फैल गई। सभी जान गये कि आपरेशन होगा। आपरेशन की बात सुनकर गाँव के लोग स्वांसा में आसा छोड़ देते हैं। गाड़ी खलिहानों के पास से निकली। सभी लोग अपने-अपने खलिहानों में पुनः काम करने लग गये थे। कान्ती ने सोचा जैसे अन्य लोग बड़े अस्पताल में ले जाये जाते हैं। लोग दर्शन के लिए इकट्ठे हो जात हैं। कान्ती ने ऐसा ही सोचकर गाड़ी पेड़ के नीचे रूकवा दी थी। शायद लोग मिलने ओयें। लोगों ने गाड़ी रूकी देखी पर सब अपने-अपने काम में लगे रहे, कोई आता न दिखा तो रवि बोला-
‘क्यों देर कर रहे हो ?‘ कान्ती की मां बोली- ‘जों सोची कोऊ गाँव के देखिबे आंगे, कछू कहेंगे सुनेंगे, बे अभै हू ऐंठ बांधें हैं।‘
‘बुआ तुम्हें अभी भी यही बातें आ रही हैं।‘ अब कान्ती बोला-
‘अरे एक गाँव में रहतैं। जे बातें अच्छी नानें।‘ कहते हुए चुप हो गया। मन ही मन पश्चाताप करने लगा। ‘कुछ भी हो दोश मेरो है।‘ यह बात सोचते हुए जोर से बड़बड़ाया।
‘यार आऊ जातैं तो कुन ठीक करें देतये।‘
अब रवि बोला-अपन इलाज कराने चल रहे हैं, तुम तो ऐसी बातें करते जा रहे हो। अरे पहले ठीक हो जाऊ, फिर तुम्हें दिखे सो करना।‘ बात सुनकर सभी चुप हो गये।
गाड़ी आंखों से ओझल हो गई तो लोगों ने उस ओर देखना बन्द कर दिया। सप्पो विशुना का छोटा भाई था। वह शहर में कक्षा आठ में पढ़ता था। आज छुट्टी थी तो खलिहान में काम कर रहा था। दांय चल रही थी, सप्पो दांय हाँक रहा था। विशुना वहीं खटिया पर बैठा था। जब गाड़ी दूर निकल गई तो सप्पो बोला, ‘विशुना भैया ज कान्ती बड़ो कमीना हतो, वा दिना जब अपनो पानी लग रहो तो मोसे लड़ि परो।‘
‘अरे यार, तूने तो बाय अभै ही मरो जान लओ।‘
सप्पो ने पुनः उत्तर दिया, ‘ज सुसर को अब बचवे वारो नाने, जाके पाप तो निकरेंगे।‘
विशुना बोला-‘‘ठीक है, तू जे बातें छोड़। जल्दी-जल्दी दांय हाँक। बैल नाज खातैं।‘
‘खान दे यार ज्यादा मति कुचियाय।‘
‘काय नहीं कुचियाय ? क खात नानें।‘
‘ विशुना भैज्जा, तेई जे बातें अच्छी नहीं लगत।‘
विशुना चुप हो गया, उसने सोचा कुछ ज्यादा कहूँगा तो दांय छोड़ के भाग जायेगा।
शाम के छः बजा चाहते थे। धूप अभी भी दिख रही थी। सारा गाँव खलिहानों में था। सभी अपने-अपने खलिहानों में काम कर रहे थे। बात एक खलिहान से दूसरे में, फिर तीसरे में फैलने में देर न लग रही थी। काम तेजी पर था। काम के साथ रोज की तरह बातें भी चल रही थीं।
महान भारत के वे खलिहान जिनमें स्वर्ग आकर बस जाता है। गाँव का स्वर्ग या तो खेतों में होता है या खलिहानों में। खेतों का स्वर्ग खलिहानों में आ गया था। छोटे-छोटे बच्चे, औरतें, बूढ़े-बड़े सभी काम कर रहे थे। जब एक खलिहान में काम तेजी से होता दिखा तो दूसरे खलिहानों वाले भी उन्हें देख जल्दी-जल्दी काम करने में जुट जाते। जब काम ढीला पड़ता, एक-दूसरे के काम का मूल्यांकन किया जाता। आज सबसे ज्यादा काम किसने किया है। यही देश की प्रगति का लक्षण है। यही सच्ची देशभक्ति है। इसकी प्रशंसा करते रवि अघाता नहीं है। लोग चलेंगे तो सबसे आगे निकलने के लिए। अनाज उगायेंगे तो सबसे अधिक उगाकर बतायेंगे। यही है गाँव की मर्यादा ।
रवि कान्ती को बड़े अस्पताल में भर्ती करवा कर लौट आया था।
रात हो चुकी थी, लोग रखवाली के लिए अपने-अपने खलिहानों में आ गये थे। हवा के नाम पर पत्ता भी नहीं हिल रहा था। कोई खटिया पर सो रहा था तो कोई धरती पर। सभी बेहोश सोये हुए थे। बेहोश क्यों न सोयें, सारे दिन खलिहानों में काम करना पड़ता है।
कुछों की खांसी रखवाली का काम कर रही थी। कुछ खलिहानों में कुत्ते भौंक रहे थे। अब कुत्तों का भूंकना तेज हो गया था। रात काफी हो गई। यकायक कुत्तों ने तेजी से भूंकना प्रारम्भ किया। शायद चोर हो। अनाज चुराने आये हों। सभी जाग गये। सभी ने अपने-अपने लठ्ठ सम्हाल लिये। जिससे आक्रमणकारियों का मुकाबला किया जा सके। एक प्रतिच्छाया खलियों की तरफ आती दिखी। डा0 रविकान्त के खलिहान की ओर छाया मुड़ती गई। सभी ने शंका की।
डा0 रवि की आवाज सुन पड़ी। सारा जोश ठण्डा हो गया।
रवि कह रहा था-‘आनन्द दादा।‘
‘काये रवि !‘
‘कुछ नहीं, कान्ती नहीं रहाँ‘
‘अब कहाँ है ?‘
‘यहीं टैम्पू से ले आये हैं। टेम्पू घाटी पर आकर खराब हो गया है टेम्पू वहीं खड़ा है। चलो बाय ले आवें।‘
बातों बातों में सभी इकट्ठे हो गए। सारे खलिहानों में बात फैल गई। लोग उसके दाह संस्कार में भी जाने को तैयार न थे। पर कुछ बूढ़े पुराने लोग रवि के समझाने पर तैयार हो गये।
हरीहर के घर सम्वेदना व्यक्त करने वाले रिश्तेदार आने लगे। वैसे रश्मि की सास भी वहाँ रहने पहंुच गई थी। रश्मि ने सोचा मैं भी सम्वेदना व्यक्त कर आऊं और सलौनी दीदी को समझा आऊं। जाने को तैयार खड़ी थी इतने में रवि आ गया और बोला-
‘कहाँ जा रही हो ? सलौनी के यहाँ ?‘
‘ जी। मैं जानती हूँ। नारी का स्वर्ग तो उसका पति होता है, चाहे वह कितना ही क्रूर व निर्दयी हो। जब तक वह ह,ै नारी अपने ऊपर एक साया महसूस करती है।‘
‘ ‘नारियों पर अत्याचार करने वाले लोगों का बहिश्कार करंे किन्तु मरने के वाद तो बस उसके किये कार्यें की यादें रह जातीं है।
इन्हीं विचारों में खोये हुये वे उसके संस्कार में पहुँच गये।
‘कान्ती की मां और हरिहर को रवि ने बहुत समझाया कि त्रयोदशा में तेरह ब्राह्मणों को ही खाना खिलाया जाए। पर कान्ती की मां ने यह बात अस्वीकार कर दी और सारे गाँव के लोगों को निमन्त्रण भेज दिया। आसपास के गाँव में भी निमन्त्रण भिजवा दिये। करीबन हजार ,आठ सौ लोगों के लिए खाना बना।
दिन के बारह बजे तक त्रयोदशाह का संस्कार भी करा दिया गया। अब ब्राह्मणों को बुलाया जाने लगा। दो घण्टे तक घर-घर चक्कर काटने के बाद भी कोई ब्राह्मण खाना खाने न आये। अब तो स्पश्ट हो गया कि लोग पुरानी बात को लेकर ब्राह्मणों को भोजन करने से रोक दिया गया है। अब रिश्तेदारों में से तेरह ब्राह्मणों को बुलाया जाने लगा।
उनमें से कुछ ऐसे थे जो तेरह ब्राह्मणों में भोजन नहीं करते थे। लेकिन जब ब्राह्मण ही नहीं मिल रहे थे तो उन पर दबाव डाला जाने लगा।
गाँव के लोग जब आते न दिखे तो रिश्तेदारों को तो संस्कार की अदायगी करनी ही थी। धीरे-धीरे संख्या बारह हो गई थी। सभी रिश्तेदार आ चुके थे। अब एक ब्राह्मण की संख्या कम थी कि लोगों की भाग-दौड़ शुरू हुई, पर कोई न मिला।
बात सुनकर वहाँ रवि भी आ पहुँचा और सभी को सम्बोधित करते हुए बोला, ‘मैंने सुना है ब्राह्मणों के अभाव में अन्य जातियों के लोग तो अपनी जाति के बूढ़े-पुरानंे लोगों से अपना काम चलाने लगे हैं लेकिन ब्राह्मणों में उतनी गिनती की गो की पत्तल निकाल दी जातीं हैं।
उनकी बात सुनकर एक रिश्तेदार पंडित वहाँ बैठे थे, उत्तर में झट बोले, ‘ न मिलें तो न यही सही है , अब एक पत्तल गाय के लिए परस दी जाए।‘
हरीहर बोला-‘यह ठीक है, फिर क्यों देर की जाये। एक पत्तल गो के लिये डाल दी गई?‘
अब भोजन करने के लिए लोग बैठ चुके थे। लोगों ने रवि से कहा, ‘डा0 साहब आप भी बैठ लो।‘ रवि बोला-‘पहली बात तो यह है कि मैं मृत्यु भोज का विरोधी हूँ। दूसरी बात यह है कि मैं मान्य धान्य भी नहीं हूँ जो ं ं ं ।‘
रवि की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। बारह ब्राह्मणों को गोल घेरे में बैठाया गया। भोजन के विभिन्न व्यंजन परोसे जाने लगे।
भोजन परोसने के बाद भोजन करने की आज्ञा हुई, सभी प्रेम से भोजन करने लगे।
डाक्टर रवि और रश्मि खड़े-खड़े यह दृश्य देख रहा थे। उन्हें दिख रहा था कि एक मुर्दा पड़ा है, सफेद कफन से उसे एक दिया गया है। सभी मृत्यु भोजी ब्राह्मण उसके चारों ओर बैठे हुए बड़े प्रेम से भोजन कर रहे हैं। पंडित जी कह रहे थे कि ‘भोजन बहुत अच्छा बना है।‘