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मंथन 2

मंथन 2

दो

जब रवि कान्ती बाबू के यहाँ से लौटा, आठ बज चुके थे। आज रवि ने अस्पताल नहीं खोला था, इसलिए वह सीधे ही घर चला आया। घर में जैसे ही प्रवेश किया, बशीर साहब उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। रवि ने मुस्करा कर उनका अभिवादन किया। बशीर साहब अभिवादन स्वीकार करते हुए बोले, ‘डॉक्टर, मैंने सोचा मैं बरात में तो जा नहीं पाया। चलकर शादी की मुबारकवाद ही दे आऊं !‘

‘आप बरात में क्यों नहीं चल पाये, इसकी सजा तो आपको भुगतना ही पड़ेगी !‘

‘भई सजा भुगतने को तो तैयार हूँ, पर जरा बुढ़ा आदमी हूँ, सजा सोच-समझ कर देना, जिससे भुगतने में आसानी रहे।‘

‘ऐसी बात है तो भरपेट नाश्ते की जगह हल्का नाश्ता कराये देता हूँ।‘

‘अरे वाह भई, तब नाश्ता तो मैं भरपेट ही करूंगा !‘

‘लेकिन बुढ़ापे के कारण जो सजा से मुक्ति मांगी थी ?‘

अब तक नाश्ते की प्लेटें आ चुकी थीं। देखकर बोले, ‘अरे इतना सारा, भई जरा कम कर लो।‘

‘साहब हम कम करने वाले कौन होते हैं ?‘

‘क्यों ?‘ चौंककर बशीर साहब ने प्रश्न किया।

उत्तर में रवि बोला, ‘हम सजा देत,े इससे पहले ही सजा का इश्तहार जारी कर दिया गया तो हम क्या करें ?‘ तभी रवि की मां बैठक में आई और बोली- ‘भइयाजी, बहू ने नाश्ता भिजवाया है।‘

‘ओह ं ं ं अब समझा ! लेकिन भाभी, बहू को दिखाओगी नहीं ?‘

इतना ही कह पाये थे कि लड्डुओं की प्लेट हाथ में लिए साधना ने कमरे में प्रवेश किया।

‘अरे बेटी तुम....... ! पहचानते हुए बशीर साहब ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। तब साधना बोली-

‘हाँ चाचाजी , मैंने आपको आते हुए छत से देख लिया था।‘

‘लो भाभी, यह तो मेरी ही बेटी है। इसके पिताजी श्यामसुन्दर जी मेरे सहपाठी रहे हैं। बहुत दिनों से उनके यहाँ नहीं जा पाया हूँ। व्याह की चिठ्ठी आई थी, पर मैं इन दिनों देहली चला गया था इसी कारण तो शादी में भी नहीं पहुँच पाया।‘

‘आपको तो भाईजान, फुर्सत ही नहीं मिलती है। कहीं कुछ भी हुआ करे। आप तो अपने कामों में ही व्यस्त रहते हैं। अरे! धीरे-धीरे क्यों खा रहे हा, लड्डू और लीजिए न। रश्मि बहू, अपने चाचा को जरा और दे दे!

‘लेकिन भाभी, इसका नाम तो साधना है।‘

बशीर साहब ने यह कहा तो रवि की मां बोली, ‘भाईजान, इसकँूा नाम बदलकर यहाँ की परम्परा के अनुसार इसका नया नाम रश्मि रख लिया है।‘

‘ओह ! अब समझा। लेकिन बेटी, मेरे से इतना नहीं खाया जायेगा।‘ बात सुनकर रश्मि परोसने से रुक गई। वह जाने लगी तो उन्होंने अपनी जेब से ग्यारह रूपये निकाले और उस ओर बढ़ाने लगे।

रश्मि चुपचाप खड़ी रह गई।

‘अरे खड़ी क्यों है, ले ना। अपनी बेटी के लिए दे रहा हूँ।‘

अब रवि बोला, ‘आपकी यह बात अच्छी नहीं लगी।‘ यह सुनकर बशीर साहब रवि को डांटते हुए बोेले, ‘अरे, तुमसे किसने कहा, चाचा-भतीजी के बीच में बोलने को !‘ यह सुनकर रवि चुप हो गया। बशीर साहब ने रूपये बढ़ा दिए। रश्मि को रुपये लेने ही पड़े। रश्मि बशीर साहब के चरण छूने को हुई तो बशीर साहब ने उसे रोक दिया। बोले-‘मैं भले ही कम्युनिष्ट विचार धारा का पथिक हूँ ,लेकिन इस धरती की परम्पराओं में पला बढ़ा हूँ, इनसे मैं अपना नाता नहीं तोड़ पा रहा हूँ। अपने यहाँ बेटी से पैर नहीं छुआये जाते वल्कि छुये जाते हैं। बेटी , तुम मेरे दोस्त की बेटी सो मेरी बेटी, समझे।

‘ जी चाचाजी।’ यह कहते हुए रश्मि अधिक देर तक खड़ी न रह सकी, अन्दर चली गई।

बशीर साहब ने रवि की ओर मुँह किया और बोले, ‘अब कहो बरखुरदार, अभी कहाँ से आ रहे थे।‘

‘आज सुबह-सुबह हमारी बुआजी का बुलावा आया था। उनकी तबियत खराब थी।‘

‘भई, उनका लड़का कान्ती तो अपनी समझ में नहीं आया। उससे तो कुछ हरिहर ही ठीक है।‘

‘लेकिन साहब, हरहिर की कहाँ चलती है !‘

‘कान्ती तो बहुत लोभी है, सुना है काम के दिनों में वह अपनी पत्नी को यहाँ रखता है और बैठक के दिनों में मैके भेज देता है।‘

‘मैं तो उसे कई बार समझा चुका हूँ, पर वह पैसों के लिए रोता रहता है।‘

‘तो इलाज के पैसे तो मिल जाते होंगे।‘

‘अरे छोड़ो साहब, रिश्तेदारी है निभानी ही पड़ती है, दवाओं के पैसे, बल्कि दवाएं शहर से भी मंगा कर देनी पड़ती हैं।‘

‘तब तो हो चुकी तुमसे डॉक्टरी । वह मेरे भी हजारों डकार चुका है।‘

‘तो क्या करूं ? बुआ को मर जाने दूं।‘

‘यह तो ठीक है, कोई गरीब हो तो मान सकता हूँ, उसके पास पैसों की कमी थोड़े ही है।‘

‘वह तो ठीक है साहब, पर कोई न दे तो इलाज बन्द कर दूं।‘

‘इलाज बन्द न करो, प्रारम्भिक उपचार के बाद शहर ले जाने की कह दिया करो।‘

‘वे सारे गाँव में ढोल पीटने लगते हैं, मुझे क्या आता है ?‘

‘यानि मुफ्त इलाज करो, नहीं तो ब्लैकेमल शुरू ं ं ं !‘

‘मैं इसकी चिन्ता नहीं करता।‘

‘लेकिन उसआदतेें खराब हो रही हैं। उसका जिम्मा भी तुम्हारे ऊपर है।‘

‘यह तो आप मुझे ही उलटे डांटने लगे।‘

‘और नहीं तो क्या ? उसे डाटूंगा !‘

‘लेकिन रिश्तेदारी ं ं ं !‘

‘भइया, दुकानदारी में रिश्तेदारी नहीं चलती और चलती है तो दुकानदारी बन्द कर दो, कहीं नौकरी तलाशने लगो।‘

‘लेकिन आप तो कहते हैं कि मुझे गाँव की सेवा में लग जाना चाहिए।‘

‘इसका मतलब यह तो नहीं कि आप अधिक वफादारी में दूसरों की आदतें खराब करने लगो।‘

‘घाटा भी मैं ही सहता हूँ और उनकी आदतें भी मैं ही बिगाड़ता हूँ।‘

‘भइया, दुष्टों को छूट देना भी उनकी आदतें खराब करना ही है। उनके साथ वैसा ही बर्ताव करना पड़ता ह,ै जैसा वे तुम्हारे साथ करते हैं।‘

‘इससे तो अभी तक का किया-धरा सब चौपट हो जाएगा।‘

‘वह तो कभी न कभी होना ही है, फिर आज से ही क्यों नहीं।‘

‘अच्छा साहब, आगे ध्यान रखूंगा, पर आज से नहीं।‘

‘अच्छा-अच्छा, आज तुम्हारी शादी होकर आई है इसलिए ं ं ं।‘

‘कुछ भी समझ लो।‘

‘कुछ भी कैसे, सच बात तो यही लगती है।‘

‘उत्तर में रवि चुप रह गया तो बोले ‘अच्छा बरखुरदार, अब मैं चलता हूँ। हम तो तुम्हारे भले की कहते हैं। हमें क्या ? हम भी सब कुछ इसी गाँव के लिए लुटा चुके, तो भी यहाँ के लोग कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं। सारी जिन्दगी निकल गई, लेकिन लोगों को एक मंच पर खड़ा नहीं कर पाया। यहाँ के लोग ही ऐसे हैं जो ं ं ं ! अच्छा खुदा हाफिज !‘ रवि ने दरवाजे तक साथ दिया और फिर ठिठक कर रह गया !्

दोपहर के खाने के बाद रश्मि से एकान्त में मुलाकात हो गई। वह रवि को सामने पाकर पूछ बैठी, यह बशीर साहब तो इसी गाँव के रहने वाले हैं।‘

‘और तुम क्या जानती थी ?‘

‘यह ठीक रहाँ चलो पहले से परिचित इस गाँव में कोई तो निकला।‘

‘परिचय कैसे हुआ ?‘

‘ ये पापा के सहपाठी रहे हैं। शहर जाते तो, कभी-कभी पार्टी के काम से पापा के पास जाया करते थे। बहुत दिनों से, जब से आपके पापाजी ने राजनीति से सन्यास ले लिया ह,ै तो आना जाना बन्द हो गया है।‘

‘तब तो तुम्हारे पापा भी सोशलिस्ट पार्टी यानी सोपा के सक्रीय कार्यकर्ता रहे हैं।‘

‘जी !‘

‘तभी इनसे उनका ताल-मेल अधिक रहा है। यही तो मैं सोच रहा था कि यह चाचा-भतीजी कैसे निकल पड़े।‘

‘शनैः-शनैः की बढ़ी हुई निकटता, भाईचारे के सम्बन्धों को पनपा देती है।‘

रवि को कहना पड़ा-‘बशीर साहब सोशलिस्ट के सच्चे भक्त हैं। वे अन्य पार्टी के सदस्यों की तरह नहीं है। जो खाते यहाँ का हैं और गीत गाते हैं विदेशों के। हमारे चाचाजी के दयालु स्वभव के कारण उनकी सारी जायदाद मिट गई। दुःख तकलीफ में‘ कोई कुछ मांगने पहुँच गया, वे मना नहीं कर पाते हैं। जो ले जाता है उसने उन्हें कभी नहीं लौटाया।’

‘लेकिन राजनीति की मंजिल इनसे कोसांे दूर रही है।‘

‘राजनीति सीधे सच्चे लोग नहीं कर पाते। इसमें आदमी चतुर चालाक होना चाहिए, सो ये ऐसे हैं नहीं, !‘

रश्मि ने उत्तर दिया-‘क्यों नहीं कर पाते? सच को साथ लेकर चलने वालों की मंजिल ठोस होती है।‘

‘बशीर साहब फिर मंजिल तक क्यों नहीं पहुँच सकँू ?‘

‘सच्चाई और ईमानदारी से मंजिल पर धीरे-धीरे ही पहुँचा जा सकता है।‘ रश्मि ने परामर्श दिया।

‘मुझे लगता है कि कभी मंजिल पर पहुँच ही न सकेंगे। गाँव की सरपंची जैसी चुनाव तक में तो हार खाए बैठे हैं।‘

‘डाक्टर साहब, चुनाव की जय-पराजय से मंजिल का मापदण्ड नहीं किया जा सकता है।‘

‘फिर भी आज की राजनीति का मापदण्ड तो यही है।‘

‘यदि इसी रफ्तार से ये चलते रहे तो निश्चित मंजिल मिल सकेगी।‘

‘चलते-चलते बाल सफेद हो गए। बुढ़ापा आ गया, अभी और कितना चलना शेष है?‘

‘जब तक सफलता नहीं मिलती, चलते चले जाना चाहिए।‘

‘तो क्या हमें भी अपने जीवन में यही लक्ष्य बना लेना चाहिए।‘

‘लक्ष्य चाहे जो हो, ठोस हो। सेवा की भावना से पाटी गई मंजिल ठोस होती है।‘

तभी रवि के बड़े भाई आनन्द की पत्नी वहाँ से निकली। उन्हें देखकर दोनों शंकोच कर वहाँ से हट गए। रश्मि वहाँ से उन्हीं के उस-उस चली गई।

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