चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 14 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 14

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(14)

जब बातचीत करते हुए वे अपने शब्दों में ही फंस जाते तो उनकी एक खास आदत सामने आती थी। वे वाक्य के पहले शब्द पर हकलाने लगते। और मुझे याद आता है कि इस तरह का हकलाना सिर्फ एक ही अक्षर डब्ल्यू के साथ होता था। ऐसा लगता है कि इस अक्षर के साथ उन्हें खासी मशक्कत करनी पड़ती थी। इसके पीछे उन्होंने ये कारण बताया था कि बचपन में वे डब्ल्यू का उच्चारण नहीं कर पाते थे और एक बार तो उन्हें छ: पेंस के सिक्के का लालच भी दिया गया कि व्हाइट वाइन शब्द का उच्चारण करके दिखायें। वे इन्हें राइट राइन ही कहते रहे थे। शायद ये उच्चारण दोष उन्हें इरास्मस डार्विन से विरासत में मिला हो। वे भी हकलाया करते थे।

वे कई बार भाषा संबंधी अन्य भूलें भी कर बैठते और तुलनात्मक वाक्यों में कुछ नये ही गुल खिला देते। वे दरअसल जिस बात पर जोर देना चाहते, उसके चक्कर में गलत वाक्य विन्यास कर बैठते। वे कई बार ऐसी जगह बात को बढ़ा चढ़ा कर कह देते जहां जरूरत न होती। लेकिन इससे एक बात तो होती ही कि उनकी उदारता और गहरी प्रतिबद्धता के ही दर्शन होते। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि वे बात करते हुए गुस्से में आ गये और अपनी बात कह नहीं पाये। वे जानते थे कि गुस्सा विवेक का दुश्मन होता है और वे चाह कर भी ऐसे मामले में कुछ नहीं कर पाते थे।

वे बातचीत में अत्यधिक विनम्र बने रहते। इसका सबूत मैं यही दे सकता हूं कि एक बार रविवार की दोपहर उनसे मिलने सर जॉन लब्बाक्स के उनके कई मेहमान आये। कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि वे भाषणबाजी में या उपदेश देने जैसी मुद्रा में आयें हों, हालांकि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ था। जब वे किसी से छेड़खानी करते और वह भी मजे लेने के लिए तो वे बहुत भले लगते। ऐसे वक्त में वे बेहद हल्के फुल्के स्वभाव वाले और बच्चों जैसे हो जाते और तब उनकी प्रकृति की बारीकी बहुत मुखर हो उठती। इसलिए ऐसा भी होता कि जब वे किसी ऐसी महिला से बात कर रहे होते जिसने उन्हें खुश और मुदित किया हो तो वे उस पर सौ जान न्यौछावर हो जाते और उसके प्रति सम्मान और चुटकी लेने की उनकी भावना देखते ही बनती। उनके व्यक्तित्व में एक निजी किस्म का आत्म सम्मान था जो बहुत अधिक परिचित मुलाकातों में भी डिगता नहीं था। सामने वाले को यही लगता कि कम से कम इस व्यक्ति के साथ तो छूट नहीं ही ली जा सकती है। और न ही मुझे ऐसा कोई वाक्या याद ही आता है कि किसी ने इस तरह की छूट लेने की कोशिश की हो।

जब मेरे पिता से मिलने कई मेहमान एक साथ आ जाते तो वे बहुत ही बढ़िया ढंग से उनसे निपटते। सबसे अलग अलग बात करते या फिर दो तीन मेहमानों को अपनी कुर्सी के आस पास बिठा लेते। इस तरह की बातचीत में आम तौर पर मज़ाक चलता, वे अपनी बात को किसी हंसी भरी बात की तरफ मोड़ देते या फिर खुलापन आ जाता बातचीत में जिससे सबको अच्छा लगता। शायद मेरी स्मृति में हंसी मज़ाक वाले मौके ज्यादा दर्ज हैं। उनकी सबसे अच्छी बातें मिस्टर हक्सले के साथ होती थीं। उनमें गजब का हास्यबोध था। मेरे पिता को उनका ये हास्यबोध बहुत भाता था और वे अक्सर कहते थे,`मिस्टर हक्सले भी क्या शानदार आदमी हैं।' मेरा ख्याल है, लायेल और सर जोसेफ हूकर के साथ उनकी बातचीत वैज्ञानिक तर्कों के रूप में (एक तरह से झगड़े की तरह) ज्यादा होती थी।

वे कहा करते थे कि इस बात से उन्हें तकलीफ होती है कि जिंदगी के बाद के हिस्से वाले दोस्तों के लिए वे अपने भीतर वह गर्मजोशी नहीं पाते जो युवावस्था के दोस्तों के लिए हुआ करती थी। कैम्ब्रिज से हरबर्ट और फॉक्स को लिखे गये उनके शुरुआती पत्र इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं। लेकिन इस बात को मेरे पिता के अलावा और कोई नहीं कहेगा कि अपने दोस्तों के प्रति उनका स्नेह पूरी जिदंगी उसी तरह की गर्मजोशी वाला नहीं रहा। अपने किसी दोस्त के लिए कुछ करते समय वे अपने आपको भी नहीं बक्शते थे और उसे अपना कीमती समय और शक्ति स्‍वेच्छा से दिया करते थे। इस बात में कोई शक नहीं कि वे किसी भी सीमा तक जा कर अपने दोस्तों को अपने से बांधे रखने की ताकत रखते थे। उनकी कई शानदार दोस्तियां थीं। लेकिन सर जोसेफ हूकर के साथ उनकी जो दांत काटी दोस्ती थी, वैसी दोस्ती की मिसाल आम तौर पर पुरुषों में कम ही दिखायी देती है। अपनी रीकलेक्शंस में उन्होंने लिखा है,`मैंने हूकर जैसे प्यारे शायद ही किसी दूसरे इन्सान को जाना हो।'

गांव के लोगों के साथ उनका नाता खुश कर देने वाला था। वे जब भी उनके सम्पर्क में आते तो वे उनके सुख दुख में बराबरी से शामिल होते और उनके जीवन में दिलचस्पी लेते और सब के साथ एक जैसा व्यवहार करते। जब वे डाउन में बसने के लिए आ गये तो कुछ ही अरसे बाद उन्होंने एक मैत्री क्लब स्थापित करने में उनकी मदद की और तीस बरस तक उस क्लब के खजांची बने रहे। वे क्लब की गतिविधियों में खूब रस लेते और बारीकी से और एक दम सही तरीके से उसका हिसाब किताब रखते। क्लब को फलता फूलता देख उन्हें बहुत खुशी होती। हरेक छुट्टी वाले सोमवार के दिन क्लब बैनर लगाये घर के सामने गाजे बाजे के साथ जुलूस की शक्ल में निकलता और खूब रौनक रहती। वहां पर वे क्लब के लोगों से मिलते और उन्हें क्लब की शानदार माली हालत के बारे में बताते। इस मौके के लिए पिताजी खास कुछ घिसे पिटे लतीफों के साथ अपना भाषण देते। अक्सर ये होता कि वे बीमार चल रहे होते और इतनी सी कवायद कर पाना भी उनके लिए भारी पड़ता। लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि वे उन लोगों से न मिले हों।

वे कोयला क्लब के भी खजांची थे। उन्हें वहां के लिए भी कुछ काम करना पड़ता। वे कुछ बरस तक काउंटी मजिस्ट्रेट के पद पर भी काम करते रहे।

गांव की गतिविधियों में पिताजी की दिलचस्पी के बारे में मिस्टर ब्रॉडी इन्स ने कृपापूर्वक मुझे अपनी स्मृति के खजाने में से ये घटना सुनायी है:

`जब मैं 1846 में डाउन का धर्मगुरू बना तो हम दोनों दोस्त बन गये और ये दोस्ती उनकी मृत्यु तक चलती रही। मेरे और मेरे परिवार के प्रति उनका स्नेह असीम था और बदले में हम भी उनके स्नेह का प्रतिदान करने की कोशिश करते थे।'

चर्च के सभी मामलों में वे हमेशा सक्रियता से हिस्सा लेते। स्कूलों, धर्मार्थ कामों और दूसरे कारोबारों में वे हमेशा दिल खोल का दान देते और कभी कहीं कोई विवाद हो भी जाता, जैसा कि दूसरे गिरजाघरों में होता रहता था, मुझे यकीन होता था कि वे अपना समर्थन किसे देंगे। वे इस बात के कायल थे कि जहां सचमुच कोई महत्त्वपूर्ण आपत्ति न हो, वहां पर उनका समर्थन पादरी के पक्ष में जाना चाहिये। वही व्यक्ति ऐसा होता है जो सारी स्थितियों को जानता बूझता है और वही मुख्य रूप से जिम्मेवार भी होता है।'

अजनबी लोगों के साथ उनकी मुलाकात सजग और औपचारिक विनम्रता से पगी होती। दरअसल सच तो ये था कि उन्हें अजनबियों के सम्पर्क में आने के मौके ही बहुत कम मिलते और डाउन में जिस तरह के एकांत में वे जी रहे थे, वहां बड़े भीड़ भड़क्के वाले आयोजनों में वे अपने आपको भ्रम में पड़ा हुआ पाते। उदाहरण के लिए रॉयल सोसाइटी के आयोजनों में वे अपने आपको आंकड़ों में खोया हुआ महसूस करते। बाद के बरसों में यह भावना कि उन्हें लोगों को जानना चाहिये और उस पर तुर्रा यह कि वे नाम भूल जाते थे, इस तरह के मौकों पर उनकी मुश्किलें और बढ़ा देते थे। वे इस बात को समझ नहीं पाते थे कि वे तो फोटो से ही पहचान लिये जायेंगे, और मुझे एक किस्सा याद आता है कि क्रिस्टल पैलेस एक्वेरियम में जब एक अजनबी ने उन्हें पहचान लिया तो वे खासे बेचैन हो उठे थे।

मैं यहां पर थोड़ा सा जिक्र इस बात का भी करना चाहूंगा कि वे अपना काम किस तरह से करते थे। उनकी सबसे खास बात थी समय के लिए सम्मान। वे समय के मूल्य को कभी भी नहीं भूलते थे। इस बात का अंदाजा इस तथ्य से ही लग जायेगा कि वे किस तरह से अपनी छुट्टियों को कम करते जाते थे। और इस बात को ज्यादा साफ तौर पर बताऊं तो वे अपनी कम अवधि की छुट्टियों को तो बिल्कुल खत्म ही कर देते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि समय की बचत करना, काम पूरा करने का एक तरीका होता है। मिनट दर मिनट बचाने के प्रति अपने प्यार को वे चौथाई घंटे और दस मिनट में किये गये काम के बीच के अंतर के जरिये बताते थे। वे कभी कुछ पलों की भी बरबादी भी सहन नहीं कर पाते थे कि काम के समय समय बरबाद तो नहीं ही करना है। मैं अक्सर इस बात को ले कर हैरान रह जाता था कि वे अपनी सामर्थ्य की अंतिम बूंद तक काम करते रहते थे कि तभी अचानक यह कह कर डिक्टेशन देना बंद कर देते थे कि मुझे लगता है कि बस हो गया, मुझे और नहीं करना चाहिये। समय बरबाद न करने की यही उत्कट चाह तब भी सामने आती थी जब वे काम करते समय चुस्ती से अपने हाथ पांव हिलाते। मैंने इस बात को खास तौर पर उस वक्त नोट किया जब वे फलियों की जड़ों पर एक प्रयोग कर रहे थे जिसके लिए बहुत सावधानी से काम करने की जरूरत थी, जड़ों के ऊपर कार्डों के छोटे छोटे टुकड़े बांधने का काम बहुत सावधानी से और अनिवार्य रूप से धीरे धीरे किया गया, लेकिन बीच के सभी हावभाव बहुत तेज थे। एक ताजी फली लेना, ये देखना कि उसकी जड़ स्वस्थ है, उसे एक पिन पर उठाना और कार्क पर टिकाना, ये देखना कि ये सीधी खड़ी है आदि। ये सारी प्रक्रियाएं अपने आपको नियंत्रण में रखते हुए उत्सुकता से पूरी की गयीं। वे सामने वाले को ये अहसास दिला देते थे कि वे अपने काम में बहुत आनंद ले रहे हैं और कत्तई बोझ की तरह नहीं कर रहे हैं। मेरी स्मृति में उनकी वह छवि भी अंकित है जब वे किसी और प्रयोग के नतीजे दर्ज कर रहे थे और प्रत्येक जड़ को उत्सुकता से देख रहे थे और उतनी ही तेजी से लिखते जा रहे थे। मुझे याद है, जब वे प्रयोग की वस्तु और अपने नोट्स देख रहे थे तो उनका सिर तेजी से हिल रहा था।

वे किसी भी काम को दोबारा न होने दे कर अपना बहुत सा समय बचा लेते थे। हालांकि वे अपने ऐसे प्रयोग भी धैर्यपूर्वक दोहराते रहते थे जहां कुछ भी हासिल होने वाला नहीं होता था, लेकिन वे इस बात को भी सहन नहीं कर सकते थे कि जो प्रयोग पूरी सावधानी बरतने के बावजूद पहली ही बार में कुछ नतीजे नहीं दे सकता था, उसे दोहराने का मतलब नहीं लेकिन इससे उन्हें लगातार ये चिंता भी बनी रहती थी कि प्रयोग व्यर्थ नहीं जाने चाहिये। वे मानते थे कि प्रयोग पवित्र होते हैं भले ही उनके नतीजे मामूली ही क्यों न हों। वे चाहते थे कि प्रयोगों से जितना अधिक सीख सकें, सीखें ताकि उन्हें वे सिर्फ उसी बिन्दु के आस पास चक्कर न काटते रहें जिसके लिए प्रयोग किया जा रहा था। एक साथ कई चीजों को देखने की उनकी शक्ति गजब की थी। मुझे नहीं लगता कि वे शुरुआती या रफ प्रेक्षणों की तरफ ध्यान देते रहे होंगे कि इन्हें मार्गदर्शक के रूप में और दोहराने के लिए इस्तेमाल में लाया जाये। जो भी प्रयोग किया जाता था, उसका कोई न कोई महत्त्व होता ही था और मुझे याद है, इस बारे में वे इस बात की जरूरत पर बहुत बल देते थे कि किसी भी असफल प्रयोग के नोट्स रखे जायें और इस नियम का वे कड़ाई से पालन करते थे।

अपने लेखन के साहित्यिक पक्ष में भी उन्हें समय बरबाद होने का यही हौवा सताता रहता था और उस वक्त वे जो कुछ भी कर रहे होते थे, उसी उत्साह से उसे निपटाते थे। इस बात ने उन्हें इतना सतर्क बना रखा था कि वे ऐसा लेखन करें कि किसी को बिना वजह दोबारा न पढ़ना पड़े।

उनकी प्राकृतिक प्रवृत्ति ये थी कि आसान तरीके और कुछेक औजार ही अपनाओ। उनकी युवावस्था के बाद से जटिल माइक्रोस्कोप का चलन बहुत बढ़ गया है और ये माइक्रोस्कोप सरल वाले की जगह पर आया है। आजकल हमें ये बात असाधारण लगती है कि जब वे बीगल की यात्रा पर निकले थे तो उनके पास जटिल माइक्रोस्कोप नहीं था। इस मामले में वे राबर्ट ब्राउन की बात को ही मानते हैं जो इस मामले में उस्ताद थे। उन्हें साधारण वाला माइक्रोस्कोप ज्यादा पसंद था और उनका मानना था कि आजकल तो इसे बिल्कुल भुला ही दिया गया है और कि हर आदमी को चाहिये कि जटिल माइक्रोस्कोप को अपनाने से पहले जितना ज्यादा हो सके, इस साधारण वाले यंत्र को ही इस्तेमाल में लाये। अपने एक पत्र में वे इसी मुद्दे पर बात करते हैं और उनकी टिप्पणी है कि मुझे उस आदमी के काम पर ही शक है जो साधारण माइक्रोस्कोप को इस्तेमाल ही नहीं करता।

चीर फाड़ करने वाली उनकी मेज एक मोटे से पुट्ठे की बनी हुई थी जिसे अध्ययन कक्ष की खिड़की में फंसा दिया गया था। इसकी ऊंचाई साधारण मेज की तुलना में कम थी ताकि उन्हें उस पर खड़े हो कर काम न करना पड़े। लेकिन मुझे नहीं लगता कि अपनी ऊर्जा बचाने के लिए उन्होंने उसे ऐसा बनवाया होगा। वे चीर फाड़ करने की इस मेज पर एक निहायत ही छोटे से स्टूल पर बैठा करते थे। ये स्टूल उनके पिता का हुआ करता था। इसकी सीट एक आड़े खांचे पर घूमती थी। इसमें बड़े आकार के पहिये लगे हुए थे जिससे वे मनचाही दिशा में आसानी से घूम सकते थे। उनके साधारण औजार वगैरह मेज पर ही पड़े रहते थे लेकिन इस ताम झाम के साथ ही एक गोल मेज पर दूसरे कई तरह के यंत्र रखे रहते। ये मेज उनके दायीं तरफ रखी होती। इस मेज में खुलने वाली दराजें बनी हुई थीं। इन दराजों पर लेबल लगे हुए थे। बेहतरीन औजार, रफ औजार, नमूने, नमूनों की तैयारी, वगैरह। इन दराजों में रखे साज सामान की सबसे अजब बात ये थी कि इस बेकार के कबाड़ को बहुत ही संभाल कर रखा गया था। वे इस सुनी सुनाई बात में पक्का यकीन करते थे कि अगर आप किसी चीज को फेंक देते हैं तो तुरंत ही आपको उसकी जरूरत पड़ जायेगी। बस, यही सोच कर वे सब कुछ जमा करते चलते थे।

हां, अगर किसी की निगाह मेज पर फैले उनके साज सामान वगैरह पर पड़ जाती तो वह उनकी सादगी, जोड़ तोड़ कर बनाये गये सामान और अजीबो गरीब चीजों को देखकर हैरत में पड़ जाता।

उनकी दायीं तरफ शेल्फ बने हुए थे जिनमें कई तरह की चीजें, प्लेटें, बीजों को खमीरा करने के लिए बिस्कुटों के टिन के बक्से, रेत से भरी प्लेटें वगैरह भरे हुए थे। इस बात को देखते हुए कि वे अपने जरूरी कामकाज में कितने सलीकापसंद और तौर तरीके वाले इन्सान थे, इस बात को देख कर हैरानी होती थी कि उन्होंने कितनी अल्लम गल्लम चीजें जुटा रखी थीं। मिसाल के तौर पर सामान रखने के लिए भीतर से काला किये हुए सही आकार के डिब्बे रखने के बजाये वे कुछ भी ऐसा तलाशते जिस पर भीतर से जूता पालिश करके काला किया जा सके। बीजों के अंकुरण के लिए गिलासों के लिए उनके पास ढक्कन नहीं थे। इनके लिए वे किसी भी उल्टी सीधी चीज को इस्तेमाल में ले आते। कई बार तो ये चीजें इतने अजीब आकार की होतीं कि पूछिये मत। लेकिन उनके ज्यादातर प्रयोग सरल प्रकार के होते जिनके लिए लम्बे चौड़े तामझाम की जरूरत न पड़ती। लेकिन मेरा ख्याल है कि इस मायने में उनकी ये आदत अपनी शक्तियों पर काबू पाने की ललक की वजह से ज्यादा रहती होगी बजाये जरूरी चीजों पर उसे बरबाद करने की।

यहां मैं चीजों पर निशान लगाने की उनकी आदत के बारे में बताना चाहूंगा। अगर उन्हें बहुत सारी चीजों में फर्क करना होता, मसलन, पत्तियां, बीज, फूल वगैरह तो वे उनके चारों तरफ अलग अलग रंग के धागे बांध देते। ये तरीका वे आम तौर पर तब अपनाते जब उनके सामने फर्क करने वाली दो ही चीजें होतीं। मिसाल के तौर पर अगर उन्हें क्रास और स्वयं पुष्पित होने वाले फूल के बीच फर्क दिखाना होता तो उन पर वे काला और सफेद धागा बांधते। मुझे याद है एक बार उन्होंने दो कैप्सूलों के बीच फर्क करना था तो एक ही ट्रे में रखे कैप्सूलों पर उन्होंने काले और सफेद धागे बांध रखे थे। अगर उन्हें एक ही गमले में उगाये गये दो बीजों के बीच के फर्क का अध्ययन करना होता तो वे उनके बीच जस्ते की पट्टी खड़ी कर देते और उन पर जस्ते के लेबल लगा देते जिनसे प्रयोग के सारे ब्योरे मिल जाते। ये उनकी एक तरफ मेज पर रखे रहते जिससे उन्हें पता चल जाता कि कौन सा क्रास है और कौन सा स्वयं पुष्पित।