चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 13 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 13

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(13)

उसकी इन किलकारियों के अलावा भी उसका व्यवहार बहुत ही प्रेमपूर्ण, निश्छल, सहज, सरल था। उसमें जरा भी दुराव छिपाव नहीं था। उसका मन अबोध और निर्लिप्त था। उसे देखते ही कोई भी उस पर भरोसा कर सकता था। मैं हमेशा यही सोचता था कि इस बुढ़ापे में भी हमारी आत्मा उसी तरह बनी रहती जिस पर इस संसार चक्र का कोई असर किसी भी दशा में न पड़ता। उसके सभी काम ऊर्जा से भरे, सक्रिय और सलीकेदार होते थे। मैं सैन्डवाक पर काफी तेज़ चलता था, लेकिन जब कभी वह मेरे साथ होती थी तो मेरे आगे आगे ही अपनी पैरों के पंजों पर फुदकती चलती तो बड़ा ही मनोहर लगता था, और इस सारे समय उसके चेहरे की आभा और मधुर मुस्कान आज भी आँखों के आगे तैर जाती है। मेरे सामने वह जिस तरह से नखरे करती थी, उसकी याद भी मुझे भाव विभोर कर देती है। कई बार वह बातें बढ़ा चढ़ाकर पेश करती थी, और जब मैं उसी की भाषा का प्रयोग करते हुए उससे कुछ पूछता तो अपने सिर को हल्का सा झटका देकर कहती,`ओह! पापा! आपको इतना भी नहीं मालूम!' अपनी बीमारी के छोटे से दौर में उसके मुखड़े पर बहुत ही ज्यादा सहजता और दैवतुल्य भाव दिखाई देते थे। उसने कभी कोई शिकायत नहीं की, कभी भी अधीर नहीं हुई, हमेशा दूसरों का ख्याल रखती थी और उसके लिए जो कोई भी जो कुछ भी करता था, तो वह बड़े ही सभ्य और करुणामय ढंग से अपना आभार प्रकट करती थी। जब वह बहुत थक गई और बोलने में तकलीफ होने लगी तो भी उसका लहजा नहीं बदला। जब भी उसे कोई चीज दी जाती थी तो वह आभार जरूर प्रकट करती जैसे,`वह चाय तो बहुत अच्छी थी।' जब मैं उसे पानी पिलाता थे वह बोल उठती, इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद, और मुझे लगता है कि यही उसके वे बेशकीमती बोल थे, जो उसके होंठों से निकल कर मेरे कानों में शहद घोल जाते थे।

पिताजी ने उसके बारे में लिखा था,`हमारे पूरे परिवार की रौनक चली गई, हमारे बुढ़ापे की चश्मे-चिराग थी वो, उसे भी मालूम होगा कि हम उसे कितना प्यार करते थे। काश, वह जान पाती कि हम कितनी गहराई और नज़ाकत से उसे प्यार करते थे। उसका प्यारा मुखड़ा आज और हमेशा हमारी आँखों के आगे घूमता रहेगा। उसे बहुत बहुत दुआएँ!'

`अप्रैल 30, 1851'

बचपन में हम सभी उनके साथ खेलने का आनन्द उठाते थे। वे जो कहानियाँ सुनाते थे इतनी अनूठी होती थीं कि हमें अपने साथ बाँध कर रख लेती थीं।

उन्होंने हमारा लालन पालन किस तरह किया, वह इस घटना से स्पष्ट हो जाएगा। यह घटना मेरे भाई लियोनार्ड के बारे में है। पिताजी हमें यह घटना अक्सर सुनाते रहते थे। वे बैठक में आए और देखा कि लियोनार्ड सोफे के किनारे पर खड़ा नाच रहा था, इससे तो सारी कमानियाँ खराब हो जाएँगी, पिताजी बोले,`अरे लेनि! यह ठीक नहीं है,' इस पर लियोनार्ड जवाब देता तो फिर ठीक है कि आप कमरे से बाहर चले जाइए। लेकिन पिताजी ने आजीवन किसी भी बच्चे पर गुस्सा नहीं किया, फिर भी कोई बच्चा ऐसा नहीं तो जो उनकी अवज्ञा करता था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब एक बार मेरी लापरवाही के लिए पिताजी ने मुझे झिड़क दिया था, मुझे अभी भी वह घड़ी याद है कि किस प्रकार मैं उदास हो गया था, लेकिन पिताजी ने मुझे ज्यादा देर तक उदास नहीं रहने दिया। जल्द ही इतनी दयालुता से उन्होंने मुझसे बात की, कि मेरी सारी उदासी दूर हो गई। हमारे प्रति उनकी प्रसन्नतापूर्ण, प्रेमपूर्ण भावना सदा सर्वदा बनी रही। कई बार मुझे हैरानगी होती है कि वे ऐसा किस तरह से कर पाते थे, क्योंकि हम लोग तो उनके मुकाबले कुछ भी नहीं थे, लेकिन मुझे इतना तो पता ही है कि उन्हें यह मालूम था कि उनके प्रेमपूर्ण वचनों और व्यवहार से हम सब कितना खुश होते थे। वे अपने बच्चों के साथ हँसते थे, और अपने ऊपर भी हँसने देते थे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हमारे बीच के सम्बन्ध काफी संतुलित थे।

वे हरेक की योजनाओं या सफलताओं में हमेशा रुचि लेते थे। हम उनके साथ ठिठोली करते थे, और कहते थे कि उन्हें अपने बेटों पर भरोसा नहीं है। मिसाल के तौर पर, वे अपने बेटों की इस बात पर जल्दी यकीन नहीं करते थे कि हम लोगों ने कुछ काम किया है, क्योंकि वे यह नहीं मानते थे कि हम सब पूरी तरह समझदार हो चुके हैं। दूसरी तरफ यह भी रहता था कि वे हमारे काम को देखकर काफी तरफदारी भी करते थे। जब मैं यह सोचता था कि किसी भी काम को लेकर उन्होंने काफी ऊँची कसौटियाँ बना रखी हैं, तो इस समय वे काफी रुष्टता दिखाते और झूठे क्रोध से भर जाते थे। उनके संदेह भी उनके चरित्र के अभिन्न अंग थे। जिस किसी भी चीज़ को स्वयं से जोड़कर देखते तो उस काम के प्रति उनका नज़रिया बहुत ही अनुकूल रहता था, और इसीलिए वे हरेक के प्रति उदार रहते थे।

वे अपने बच्चों के प्रति भी आभार प्रकट करना नहीं भूलते थे, इसके लिए उनका अपना ही तरीका था। मुझे याद नहीं आता कि मैंने उनके लिए कोई खत लिखा हो या कोई किताब पढ़कर सुनायी हो और उन्होंने आभार न प्रकट किया हो। अपने छोटे पौत्र बर्नार्ड पर तो वे जान छिड़कते थे। वे कई बार बताते थे कि लंच करते समय ठीक सामने अगर बर्नार्ड बैठा होता था, तो उन्हें बेहद खुशी होती थी। उनकी और बर्नार्ड की पसन्द भी एक जैसी ही थी। स्वाद को ही लें तो दोनों ही सफेद शक्कर के बजाय भूरी शक्कर पसंद करते थे, और नतीजा होता, `हमारी पसंद एक है न!'

मेरी बहन लिखती है :

`हमारे साथ खेलकर पिताजी कितना खुश होते थे, यह मुझे अच्छी तरह से याद है। वह अपने बच्चों के साथ बहुत गहराई तक जुड़े हुए थे, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे संतानों के प्रति अंध प्रेम रखते थे। हम सभी के लिए वे बहुत अच्छे दोस्त थे, बहुत ही श्रेष्ठ, संवेदनशील व्यक्ति थे। हालांकि इस बात को बता पाना पूरी तरह से नामुमकिन है कि वे अपने परिवार के प्रति कितना प्रेमपूर्ण व्यवहार रखते थे। जब हम बच्चे थे तब भी और जब हम बड़े हो गए तब भी।'

हमारे बीच प्रगाढ़ता और खेल के दौरान वे कितने अच्छे साथी थे, इन दोनों बातों का प्रमाण इससे मिल जाएगा कि एक बार उनके चार वर्षीय बेटे ने उन्हें सिक्स पेन्स (जैसे भारत में पहले इकन्नी चलती थी उसी प्रकार इंग्लैंड का एक सिक्का) का लालच दिया और कहा कि चलो काम के समय भी खेलें।

वे अपने आप में बहुत ही सहनशील और प्रसन्नवदन नर्स भी थे। मुझे याद है कि जब भी मैं बीमार होता था तो मैं उनके साथ स्टडी सोफे पर बैठा हुआ महसूस करता मानों मैं शांति और आराम के सागर में बैठा हूं। इस दौरान मैं दीवार पर टंगे भूगर्भीय नक्शे पर आँखें गड़ाए रखता था। शायद उनके काम करने का समय होता था क्योंकि वे हमेशा घोड़े के बाल से बनी कुर्सी पर अलाव के पास बैठे रहते थे।

उनमें कितना धैर्य था, इसका पता इस बात से भी चल जाएगा कि जब कभी भी हमें बैंड एड टेप, गोंद, धागे, पिन, कैंची, डाक टिकटों, फुट पट्टी या हथौड़ी की ज़रूरत होती तो उनके अध्ययन कक्ष में दनदनाते हुए चले जाते थे। ये सब चीज़ें और ऐसी ही कई दूसरी ज़रूरी चीज़ें जो कहीं और नहीं मिलती थीं, उनके पास शर्तिया मिलती थीं। वैसे तो उनके काम के समय में हमें वहाँ जाना गलत लगता था, लेकिन जब बहुत ज़रूरी ही जाता था तो हम जाते ही थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनके चेहरे पर कितना धैर्य था जब उन्होंने मुझसे यह कहा था,`तुम्हें क्या लगता है कि तुम बाद में नहीं आ सकते थे, मुझे बहुत परेशानी होती है।' जब कभी भी हमें स्टिकिंग प्लास्टर की ज़रूरत होती थी तो उनके कमरे में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, क्योंकि उन्हें यह बिल्कुल पसन्द नहीं था कि हम अपने हाथ-पैर काटते रहें। यहीं तक होता तो चल जाता लेकिन खून देखकर उनके जो संवेदनशील भाव जाग उठते थे, हम उससे भी बचना चाहते थे। मैं हमेशा ध्यान रखता था कि वे पर्याप्त दूरी पर चले गए हों और तभी मौका पाकर प्लास्टर ले उड़ता था।

`मैं अतीत में झांक कर देखूं तो जीवन के उन शुरुआती दिनों में काफी नियम कायदे थे, और सिवाय कुछ रिश्तेदारों (और कुछेक ज़िगरी दोस्तों) के, हमारे घर में कोई और नहीं आता था। दिन की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद हम जहाँ चाहें वहाँ जाने के लिए आज़ाद थे, और हमारे जाने की जगह खास तौर पर दीवानखाना या बगीचा होता था, और इस तरह से हम लोग हमेशा अपने माता-पिता के साये में ही रहे। हमें उस समय बहुत ही खुशी होती थी, जब वे बीगेल की कहानियाँ या श्रूजबेरी में बीते बचपन की घटनाएँ - कुछ स्कूली जीवन और कुछ अपनी शरारतों के बारे में बताते थे।'

वे हमारी रुचियों और इच्छाओं का बहुत ख्याल रखते थे और उन्होंने हमारे साथ जीवन जिस ढंग से बिताया वैसा तो बहुत कम ही लोग कर पाते हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि इस प्रगाढ़ता में भी हमें कभी भी यह नहीं लगता था कि हम दूसरों की इज़्ज़त करने और उनका हुक्म मानने में कोई आनाकानी करें या कमी आने दें। वे जो कुछ भी कहते थे वह हमारे लिए पत्थर की लकीर होता था। हमारे किसी भी सवाल का जवाब देने में वे अपना पूरा दिलो-दिमाग़ लगा देते थे। ऐसा ही रोमांचक वाकया मुझे याद आता है, जो मुझे यह एहसास दिलाता है कि हम जिस चीज़ की फिक्र करते थे, उसकी उन्हें भी उतनी ही फिक्र रहती थी। वे बिल्लियों में बहुत रुचि नहीं लेते थे, लेकिन मेरी बहुत-सी बिल्लियों की खासियत उन्हें मालूम थी, और कुछेक की आदतों और खासियतों का बखान तो उन्होंने तब भी किया जबकि उन बिल्लियों को मरे हुए कई साल हो चुके थे।

`अपनी संतानों के साथ वे जिस तरह से पेश आते थे, उसकी एक और खासियत यह भी थी कि वे अपने बच्चों की आज़ादी और व्यक्तित्व के बारे में ऊँचे विचार रखते थे। यहाँ तक कि छोटी लड़की के रूप में जो आज़ादी मुझे मिली थी उसकी याद भी मुझे खुशी से भर देती है। हमारे माता-पिता को यह जानने या सोचने की ज़रूरत नहीं रहती थी कि हम लोग क्या करते हैं, जब तक कि हम खुद ही न बताएँ। वे हमें हमेशा यह याद दिलाते रहते थे कि हम भी ऐसे प्राणी हैं जिनके विचार और ख्यालात उनके लिए बहुत खास हैं। इसलिए हमारे भीतर के सभी गुण उनकी मौज़ूदगी में और भी निखर उठे।

`हमारे सद्गुणों के बारे में जो उन्हें अतिशय विश्वास था, हमारे बौद्धिक या नैतिक गुणों पर उन्हें जो गर्व था, उससे हम लोग बिगड़ैल या घमण्डी नहीं बने बल्कि और भी विनम्र और उनके प्रति शुक्रगुजार ही रहे। इसके पीछे नि:सन्देह यही कारण था कि उनके चरित्र, उनकी सदाशयता और उनकी अन्तरात्मा की महानता ही तो थी, जिसका अमिट प्रभाव हम पर पड़ा था। यह प्रभाव उनके द्वारा हमारी प्रशंसा या उत्साहवर्धन से कहीं ज्यादा हमारे भविष्य का नियन्ता बन गया।

परिवार के मुखिया के रूप में उन्हें बहुत स्नेह और इज़्ज़त मिली हुई थी। वे नौकरों से बहुत ही नरमी से पेश आते थे। नौकरों से कुछ भी माँगने से पहले वे यह ज़रूर कहते थे, `देखो, तुम मेरी मदद करो---' अपने नौकरों पर उन्होंने शायद ही कभी गुस्सा किया हो। मुझे याद है कि कभी बचपन में एक बार उन्हें किसी नौकर को डाँटते सुना था, मैं सारे माहौल से इतना घबरा गया था कि डर के मारे छत पर भाग गया। वे बगीचे, गायों आदि की रखवाली के पचड़े में नहीं पड़ते थे। वे घोड़ों पर थोड़ी बहुत चिन्ता जाहिर करते थे, कभी कभी बड़े ही संदेह में पड़ कर पूछते कि वे घोड़ागाड़ी चाहते हैं, ताकि सनड्यू के लिए केस्टन को भेजें या फिर पौधे मंगवाने के लिए वेस्टरहेम नर्सरी भेजें, या ऐसा ही कोई काम करायें।

एक मेज़बान के रूप में मेरे पिता में एक खास तरह का आकर्षण था; मेहमानों की मौज़ूदगी उन्हें उत्तेजना से भर देती थी और वे अपने सर्वोत्तम रूप में सामने आने को लालायित हो उठते थे। श्रूजबेरी में वे कहा करते थे कि ये उनके पिता की इच्छा थी कि मेहमाननवाजी लगातार करते रहना चाहिये। मिस्टर फॉक्स को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस बात के लिए खेद व्यक्त किया था कि घर मेहमानों से भरा होने के कारण वे खत नहीं लिख पा रहे हैं। मेरा ख्याल है कि वे इस बात से हमेशा बेचैनी महसूस किया करते थे कि वे अपने मेहमानों की आवभगत के लिए ज्यादा सब कुछ नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन नतीजे अच्छे ही रहते और इसमें कोई कमी रह भी जाती तो उसे इस तरीके से पूरा कर लिया जाता कि मेहमान इस बात के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र थे कि वे जो चाहें, करें। अमूमन सबसे ज्यादा आने वाले मेहमान वे ही लोग होते तो शनिवार को आते और सोमवार को लौट जाते। जो लोग इससे ज्यादा अरसे तक टिके रहते, आम तौर पर रिश्तेदार वगैरह होते और उनकी जिम्मेवारी पिता की तुलना में मां की ज्यादा रहती।

इन मेहमानों के अलावा कुछ विदेशी लोग होते। कुछ अजनबी लोग भी आते। ये लोग लंच के लिए आते और दोपहर ढलने पर लौट जाते। पिता जी उन लोगों को लंदन से डाउन के बीच की लम्बी दूरी के बारे में बताने के लिए खासी मेहनत करते और बताते कि ये सफर कितनी मुश्किलों से भरा हुआ है। वे सहज ही ये मान कर चलते कि इस सफर में जितनी तकलीफ खुद उन्हें होती है, उतनी ही मेहमानों को भी होगी। फिर भी, अगर वे आने से अपने आपको आने से रोक नहीं पाते तो पिता जी उनकी यात्रा का इंतज़ाम करते। वे उन्हें बताते कि कब आयें, और ये बताने से भी न चूकते कि वापिस कब जायें। उन्हें अपने मेहमानों से हाथ मिलाते देखना एक शानदार नज़ारा होता था। जब वे किसी से पहली बार मिल रहे होते तो उनका हाथ इतनी तेजी से आगे आता मानो मेहमान से मिलने के लिए वे कितने उतावले थे। पुराने यार दोस्तों से हाथ मिलाते समय उनका हाथ पूरी हार्दिकता से लहराता हुआ आता और ये देख कर दिल जुड़ा जाता। हॉल के दरवाजे पर खड़े हो कर जब वे किसी को विदाई देते तो इसमें खुशी की खास बात ये रहती कि वे मेहमानों के प्रति इस बात के शुक्रगुज़ार होते कि उन्होंने मिलने के लिए वक्त निकाला और आने के लिए जहमत उठायी।

ये लंच पार्टियां मौज मजे के मौके जुटाने में बहुत सफल रहतीं। न किसी की टांग खिंचाई होती और न ही किसी को नीचा ही दिखाया जाता। पिताजी शुरू से आखिर तक उत्तेजना से भरे चहकते रहते। प्रोफेसर दे कांडोल ने मेरे पिता का एक सराहनीय और सहानुभूतिपूर्ण खाका खींचते हुए डाउन में अपनी एक विजिट के बारे में बताया था। वे लिखते हैं कि पिता का तौर तरीका वैसा ही था जैसा कि ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज में किसी स्कालर का होता है। मुझे तो ये तुलना बहुत अच्छी नहीं लगी। जब पिताजी सहज होते और अपनी प्राकृतिक अवस्था में होते तो उनकी तुलना किसी फौजी से की जा सकती थी। उस समय वे किसी भी आडम्बर और दिखावे से परे होते थे। उनकी इस आडम्बरहीनता, स्वाभाविकता और सादगी का ही कमाल था कि वे अपने मेहमानों के साथ बातचीत को उन्हीं विषयों पर ले आते जिन पर वे लोग बात करना चाहते हों, और ये बात पिताजी को किसी अजनबी के सामने भी एक शानदार मेजबान के रूप में पेश करती थी। वे जिस कुशलता से बातचीत का बेहतरीन विषय चुनते, वह उनके व्यक्तित्व के सहानुभूतिपूर्ण रवैये और विनम्रता से आता था और उसमें ये तथ्य छुपा रहता कि वे दूसरों के कामों में कितनी दिलचस्पी लेते हैं।

मेरा ख्याल है कि कुछेक लोगों को वे अपनी विनम्रता से हैरान परेशान भी कर बैठते थे। मुझे स्वर्गीय फ्रांसिस बेलफार का किस्सा याद है जब उन्हें एक ऐसे विषय पर अपना ज्ञान बघारने वाली स्थिति में आ जाना पड़ा जिसके बारे में पिताजी का हाथ बिलकुल तंग था।

मेरे पिताजी की बातचीत की विशेषताओं पर उंगली रख कर बताना निहायत ही मुश्किल काम है।

उन्हें इस बात से खासी कोफ्त होती थी कि लोग बाग उनके किस्से दोहरायें। वे अक्सर कह बैठते, `आपने मुझे ये कहते सुना ही होगा', या `मुझे लगता है, मैं आपको बता चुका हूं।' उनकी एक खास आदत थी जिससे वे अपनी बातचीत में एक रोचक प्रभाव ले आते। वे अपना वाक्य बोलना शुरू ही करते कि पहले ही कुछ शब्दों से उन्हें उस बात के पक्ष में या विपक्ष में कुछ और याद आ जाता और जो वे कहने जा रहे होते और इससे वे भटक कर किसी और मुद्दे पर जा पहुंचते और बात कहां की कहां जा पहुंचती। एक उप वाक्य से दूसरा उप वाक्य निकलता जाता और जब तक वे अपना वाक्य खतम कर देते, बातचीत का सिर पैर समझ में न आता कि वे कह ही क्या रहे थे। वे अपने बारे में कहा करते कि किसी के साथ तर्क को आगे बढ़ाने में वे तेजी नहीं दिखा पाते। मेरा ख्याल है, इस बात में सच्चाई भी थी। जब तक बातचीत का विषय वही न होता जिस पर वे उन दिनों काम कर रहे होते तो वे अपने विचारों को तरतीब देने में मुश्किल महसूस करते। ये बात उनके खतों में भी देखी जा सकती है। उन्होंने प्रोफेसर सेम्पर को एकांतवास के प्रभाव के बारे में दो खत लिखे थे और उनमें वे अपने विचारों को तरतीब नहीं दे पाये थे। ये कुछ दिन बाद तभी हो पाया था जब पहला खत भेजा जा चुका था।