चीखता वीरान किला - 1 आयुषी सिंह द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चीखता वीरान किला - 1

"मां हमें छोड़कर मत जाओ मां, मां रुक जाओ....मां" चीखता हुए हम जाग गए। इस सपने ने हमेशा से ही हमारी नींद खराब कर रखी है। हम हमेशा एक ही सपना देखते हैं, एक खंडहर सा किला है जिसमें एक अजीब से दरिंदे के साथ हमारी मां हमें अकेला छोड़कर चली जाती हैं। हम इस सपने से थक चुके हैं, कई बार पापा से इस सपने का मतलब भी पूछ चुके हैं मगर उनका कहना है कि यह सपना हमारा बस एक भ्रम मात्र है, हमारा अवचेतन मन बचपन में सुनी कहानियों के कारण वहीं सब देखता रहता है जो हमने उस वक़्त कहानियों में सुना था। पापा कहते हैं मां की मौत का कारण हार्ट अटैक था, इस सपने का और मां के जाने का कोई ताल मेल नहीं। हम पापा पर बहुत भरोसा करते हैं मगर कई बार हमें ऐसा लगता है जैसे वे कुछ छिपा रहे हों हमसे। हम बिस्तर पर लेटे लेटे ही सब सोच रहे थे।

"बिहान... मैं कब से आवाज़ दे रही हूं कहां खोए हुए हो तुम?" कहती हुई हमारी पत्नी तृषा हमारे पास आई जिसकी आवाज से हमारी सोच पर विराम लगा और हम वर्तमान में लौटे।

"हम्म कहो" हमने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखते हुए कहा।

"बिहान यह देखो, हमारे उदयगढ़ वाले किले के बाहर आज फिर दो लाशें मिली हैं, यह सब कुछ मेरी समझ में नहीं आ रहा है। अगर यह सब ऐसे ही चलता रहा तो प्रेजेंट में हमारे नेम और फेम, और फ्यूचर में उस किले को रेनोवेट कराकर बनने वाले हमारे होटल के लिए बहुत अच्छा नहीं है" तृषा ने कहा। हम उसे गौर से देख रहे थे, हमारी शादी को दो साल हो गए थे। तृषा को हमारे उसे वक़्त न देने से परेशानी थी जबकि हमारे पास खुदको देने के लिए भी ज्यादा वक़्त नहीं था। पापा उदयगढ़ छोड़कर यहां मुंबई आ गए थे और आज राघव सिंह चौहान एक ऐसा नाम था जिसे मुंबई में हर कोई जानता था, और इस नाम को बनाए रखने की जिम्मेदारी अब हम पर थी इसलिए हम अक्सर ही बिजनेस में उलझे रहते। इसी कारण तृषा को वक़्त नहीं दे पाते थे। चंचल सी तृषा जब हमें अपने जैसा न बना पाई तो खुद ही हम जैसी बन गई और पिछले छह महीनों से बिजनेस में भी हमारा हाथ बंटाने लगी।

"हम्म, अब हम खुद ही उदयगढ़ जाकर देखेंगे, अब तक वहां की पुलिस ने, अपने लोगों ने, किसी ने भी कोई संतुष्ट करने वाला जवाब नहीं दिया है। सब बस एक ही बात कहते हैं, लाश तो मिलती है मगर कातिल नहीं मिलता, कोई सबूत तक नहीं मिलता, भला यह कैसे संभव है?" हमने तृषा से कहा ।

"बिहान मुझे समझ नहीं आता, उदयगढ़ में हमारा सब कुछ है, हमारा परिवार तो रहा नहीं मगर वहां हमारे अपने लोग तो हैं, वहां का पत्थर पत्थर तक पापा को जनता है फिर हम अपना सबकुछ छोड़कर यहां क्यों आ गए? बिहान हम राजपरिवार से हैं, जैसी जिंदगी को पाने के लोग सपने देखते हैं, वैसी जिंदगी होते हुए भी हम उस जिंदगी से, अपनी ही जमीन से दूर क्यों हैं?" तृषा ने अबतक यह सवाल मुझसे पचासों बार पूछ लिया था। उसे राजपरिवार के बारे में, उनके रहन सहन के बारे में जानने की काफी उत्सुकता थी क्योंकि वह खुद एक सामान्य परिवार से थी।

"तृषा तुम्हें भी पता है कि इसका कोई जवाब हमारे पास नहीं है, हम खुद भी नहीं जानते कि क्यों हमें अचानक सब छोड़कर आना पड़ा। हम तो तब सिर्फ तीन साल के थे। पापा ने आज तक हमें भी कुछ नहीं बताया है। पर अब हम खुद उदयगढ़ जाएंगे और वहां जाकर न सिर्फ उस किले के बारे में बल्कि वहां से हमारे यह आने के बारे में भी पता करने की कोशिश करेंगे" मैंने तृषा ने कहा तो उसके चेहरे पर चमक आ गई।

"मैं भी उदयगढ़ जाऊंगी" तृषा ने आंखों में चमक लाकर कहा तब हम उसे न नहीं का सके, न कहने की कोई वजह भी नहीं थी।

हम जानते थे पापा कभी भी हमें उदयगढ़ नहीं जाने देंगे इसीलिए हम दोनों ने उन्हें बताया कि हम दोनों जयपुर जा रहे हैं, किसी मीटिंग के लिए और उसके बाद तृषा को जयपुर घुमा दूंगा। यह बात पापा को कन्विंसिंग लगी तो उन्होंने हमें जाने दिया। और बस हम दोनों उदयगढ़ के लिए निकल पड़े।

उदयगढ़ जयपुर से करीब तीन घंटे की दूरी पर था। वहां एक महल और एक किला था। एक महल था, जहां हम रहा करते थे और दूसरा वह वीरान किला था जो बन्द पड़ा हुआ था। पापा कहते हैं उस किले को राजपुरोहित जी ने किन्हीं वास्तु दोषों के कारणों से सदियों पहले ही बंद करवा दिया था। जिस महल में हम तीस साल पहले रहा करते थे उसकी रख रखाव के लिए वहां केयर टेकर रहते थे। हमने अपने वहां पहुंचने की खबर उन्हें पहले ही कर दी थी। जब हम उदयगढ़ की सीमा पर पहुंचे तो देखा कि वहां अब भी ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है, सब कुछ लगभग पहले जैसा ही था। वहीं से हमने और तृषा ने अपना बंद पड़ा वह किला देखा। उस देखकर लग रहा था जैसे वर्षों से वहां कोई गया न हो, चारों तरफ झाड़ियां उग आईं थीं। काफी दूर से ही किले को देखकर तृषा की आंखें चमक उठीं। इतना बड़ा और भव्य किला उसने पहली बार देखा था। "यह सब हमारा है?" वह किले को देखकर हमसे पूछ बैठी और हम मुस्कुरा पड़े और कहा "जिस महल में हम रहा करते थे वह इससे भी ज्यादा बड़ा और भव्य है"

कुछ देर बाद हम अपने महल में पहुंचे तो देखा कि वहां केयर टेकर्स ने उसे काफी अच्छे से संभाल रखा है। हमारा महल उस वीरान किले से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर था। मगर दोनों ही काफी ऊंचे थे सो महल की ऊपर की मंज़िल पर जाकर हम उस किले को देख पाते थे। तृषा पागल सी हो गई थी चारों तरफ घूम घूम कर महल को देखे जा रही थी और खुशी से बच्चों की तरह उछल रही थी। शाम हो गई थी और हम दोनों महल की सबसे ऊपरी मंज़िल के एक कमरे में थे जहां से वह वीरान किला हम अपनी खिड़की से आसानी से देख सकते थे।

रात को खाना खाकर हम तृषा को राजपरिवार से जुड़े काफी किस्से कहानियां सुनाते जा रहे थे और वह बड़े ध्यान से उन सभी कहानियों को सुनती जा रही थी और फिर न जाने कब वह सो गई। उसके सोने के बाद हम खिड़की के पास जाकर खड़े हो गए और उस वीरान किले को देखने लगे जो अक्सर हमारे सपने में आया करता था। जहां हमारी मां हमें छोड़कर किसी राक्षस जैसे दिखने वाले एक प्राणी के साथ कहीं चली गई थीं। अचानक ही उस किले में पीला उजाला हो गया जैसे हर खिड़की , हर गलियारे में किसीने कईयों लालटेन जला दी हों। हम आश्चर्यचकित रह गए कि यह कैसे संभव है। वहां तो सदियों से कोई नहीं गया मगर देखने से वह किला ऐसा लगता था जैसे कोई हमेशा से ही उस किले में रहता रहा हो। हमारे महल से ज्यादा तो रात को वह किला चमक रहा था, हम दंग रह गए और तभी एक और अजीब घटना हुई उस किले में कोई गा रहा था, किसी आदमी की आवाज़ थी और इसके तुरंत बाद वहां से एक गुर्राहट सुनाई दी। ऐसा लग रहा था वह गुर्राहट हमें ही सुनाने के लिए हो, हमें ही डराने के लिए हो। "हम नहीं डरते, डरना राजपूतों के खून में नहीं" हमने अपने आप से ही कहा। और जाकर तृषा के पास ही सो गए।

अगली सुबह हम दोनों के लिए ही बहुत महतत्वपूर्ण थी। हमें सबसे पहले उस वीरान किले की पूरी कहानी जाननी थी और उसके बाद तृषा के लिए हमें अपने उदयगढ़ छोड़ने की वजह जाननी थी। सुबह सुबह ही हम दोनों तैयार होकर महल के ही केयर टेकर रामावतार काका के पास पहुंचे। महल में खुले से आंगन में हम तृषा और रामावतार काका खड़े हुए थे। वहां खड़े होकर हमें वह वीरान किला साफ नजर आ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वह किला हमें ही घूर रहा हो।

"काका आज हम आपसे साफ साफ पूछना चाहते हैं उस किले के पास इतनी मौतें क्यों होती है? और पापा उदयगढ़ छोड़कर क्यों चले गए थे?" हमने रामावतार काका से पूछा।

"हम नहीं जानते युवराज,हम कुछ भी नहीं जानते।" रामावतार काका ने हाथ जोड़कर हमसे कहा।

"नहीं काका आप सब जानते हैं मगर बस पापा के कहने पर बता नहीं रहे हैं, काका हम आपसे वादा करते हैं हमें सारा राज किसने बताया हम कभी पापा को पता नहीं चलने देंगे" हमने फिर एक कोशिश की मगर सब विफल। काका हमें कुछ नहीं बताना चाहते थे।

"युवराज, आप जानते हैं कल रात उस वीरान किले की बाहर दस लोग एकसाथ मारे गए। देखिए युवराज राजमहल की दीवारों में कौनसे राज दफन हैं, हमें नहीं पता मगर हमें इतना ताजुर्बा जरूर है कि राजमहल की दीवारों में दफन राज को कभी खोलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए" रामावतार काका ने हाथ जोड़कर कहा।

"काका प्लीज़ हमारी मदद कीजिए न, आप तो सालों से पापा के करीबी रहे हैं, काका हमारा नाम, हमारा बिजनेस सब पर एक कला धब्बा बनता जा रहा है वह वीरान किला, अगर वहां होने वाली मौतें नहीं रुकी तो सब खत्म हो जाएगा काका, प्लीज़ हमारी मदद कीजिए" तृषा ने काका के आगे हाथ जोड़ लिए थे।

"बहू हम कुछ नहीं जानते और जो जानते हैं उसे जानकर आप लोगों का कोई फायदा भी नहीं होगा" कहकर काका वापस अपने काम में लग गए।

हम और तृषा खिसियाते से महल से बाहर कुछ दूरी पर बसे गांव की तरफ चल पड़े इस उम्मीद से कि शायद वहां से कुछ पता चल जाएगा। हम जब गांव के अंदर गए तो वहां जाकर देखा चारों तरफ मातम छाया हुआ था। गांव के है दस लोगों की मौत हुई थी, बूढ़े, बच्चे, औरतें,था सब थे उन मृत लोगों में। सबका परिवार तबाह हो गया था और उसकी वजह था मन्हूसियत के बोल चीखता वह वीरान किला। हम एक घर की ओर गए वहां कोई मातम जैसा माहौल नहीं था। हमने वहां बैठे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति से पूछा - " यहां क्या हुआ है काका?"

"क्या हुआ है, अरे बेटा तुम देखो हर दिन उस वीरान किले के पास एक मौत हो जाती थी, कभी इस गांव वालों की तो कभी आस पास बसे चालीस गांव में से किसी न किसी गांव में से किसी की मौत हो जाती है।" काका ने बताया।

"वह कौन है काका जी सबको मार देता है और रात को उस किले ने से कभी कभी गाने की आवाज़ें भी आती हैं, कभी कभी कोई दहाड़ता भी है, वह है कौन काका?' हमने पूछा।

" बेटा हर रोज रातों को उस किले में वह विरह गीत गाता है तो कभी दहाड़ता है। सब जानते हैं वह कौन है मगर कोई भी उसे खत्म करने का रास्ता नहीं जानता, कोई नहीं जानता कि वह कैसे वापस जी उठा। अरे जाओ बेटा तुम क्यों सोचते हो इतना जब हमारे राजा को ही अपनी प्रजा की जान की परवाह नहीं है तो तुम क्या करोगे जानकर" काका ने लगभग धिक्कारते हुए कहा और यह सुनकर हमारी आत्मा कांप उठी। कल रात को उस विरह गीत से हम नहीं डरे थे, उस भयानक गुर्राहट से नहीं डरे थे मगर अपनी प्रजा के मुंह से अपने पापा, अपने राजपरिवार के लिए वे धिक्कार भरे शब्द सुनकर हम डर गए थे।

"राजा साहब यहां से कहीं चले गए हैं न काका, वे क्यों चले गए हैं?" अबकी बार सवाल तृषा ने पूछा।

"अरे बेटा राजा साहब डर गए थे उससे, किले के उस दरिंदे से सो अपना राजपाठ छोड़कर, अपनी जानता को मरने को छोड़कर चले गए, अब हमारे जख्मों पर नमक मत छिड़को तुम लोग" इतना कहकर काका अपने घर में चले गए और हमारे मुंह पर दरवाज़ा बन्द कर दिया।

हम बुरी तरह डर गए थे और हमसे ज्यादा डरी हुई तृषा थी। वह क्या सोचकर यहां आई थी कि कितना सम्मान होगा पापा का मगर यहां के लोगों में पापा के लिए इतनी कड़वाहट देखकर हम दोनों ही डर गए थे। शाम को हम वापस अपने महल लौट आए।

हम दोनों डायनिंग टेबल पर बैठे हुए थे और रामावतार काका की बेटी हमें खाना परोस रही थी। वह हमसे कोई दो साल ही छोटी होगी मगर हमने उससे कहा "बेटा काक को भेजो" हम्म शायद उदयगढ़ अकर हमारे अंदर का राजसी खून उबाल लेने लगा था। अपनी प्रजा अब हमें अपनी संतान लगने लगी थी। कोई दो मिनट बाद ही काका हमारे सामने थे।

"काका महल के बाहर हो रही बातों से आप अनजान तो नहीं होंगे। हमारे पापा को सब धिक्कारते हैं, कोसते हैं, डरपोक कहते हैं, एक राजा के लिए क्या यह सुनकर जी पाना संभव होगा। एक राजपूत जीते जी और मरने के बाद भी अपनी वीरता नहीं छोड़ता है मगर यह के लोग हमारे पापा साहब को डरपोक कह रहे हैं, किस डर से आप चुप हैं काका, और क्या देखना बाकी रहा था हमारे लिए?" अन्तिम वाक्य में हमने अपने सामने रखी थाली उठाकर दूर फेंक दी और काका पर चिल्ला पड़े।

"शांत हो जाओ बिहान" तृषा ने हमें वापस अपनी जगह बैठा दिया।

"हां हम सब जानते हैं मगर हम डरते हैं युवराज, प्रजा असलियत नहीं जानती है, असलियत केवल हम, राजा साहब और रानी मां जानते थे। आपकी जान बचाने के लिए ही राजा साहब ने चुपचाप डरपोक का चोगा अपने सिर ओढ़ लिया और यहां से हमेशा हमेशा के लिए चले गए।" काका ने सिर झुका कर कहा।

"हमारी जान.... अरे हम तो आज जीते जी मार गए जब हमने अपने पिता के लिए वे शब्द सुने, लोग उन्हें ऐसे धिक्कार रहे थे। हम राजपूत हैं काका, अपनी जान दे सकते हैं मगर यह डरपोक का चोगा ओढ़कर नहीं जी सकते। हमें बताइए की आखिर बात क्या है?" हमने काका के आगे अपने घुटनों पर बैठकर अन्तिम कोशिश की।

"हमें यह बात राजा साहब ने ही बताई थी, राजा साहब के खास थे हम। सदियों पहले हमारे राज्य पर मुगलों ने हमला किया था। राजा साहब के ही पूर्वजों ने उस समय अपनी सारी शक्ति लगा दी थी मगर इतने बड़े भारत के अधिकांश इलाकों पर कब्जा कर लेने वाले मुगल साम्राज्य के खिलाफ लड़ने के लिए हमारी सेना और हमारी शक्ति दोनों ही बहुत कम थे। उस वक़्त राजा लोग अपने दुश्मन से जीतने के लिए काली शक्तियों का इस्तेमाल करते थे। इसलिए जब मुगलों ने उदयगढ़ पर हमला किया, उस वक़्त राजा साहब के पूर्वजों ने काले जादू के इस्तेमाल से एक ऐसे जीव का निर्माण करवाया जो न तो पूरी तरह इंसान था और न ही पूरी तरह से जानवर। वह एक मृत इंसान के शरीर में भेड़िए की आत्मा डालकर तैयार किया हुआ नरपिशाच था। पूर्णिमा की उजियारी रात में जन्मा हुआ वह नरपिशाच अमावस के अंधेरे का प्रतीक था। वह नरपिशाच जब जागृत हुआ तब उसका विकराल रूप देखकर मुगलों की आधी सेना तो यूंही डर से भाग खड़ी हुई। करीब दस फुट लंबा वह नरपिशाच, इंसान धड़ और भेड़िए जैसी आंख , चेहरा , हाथ पैरों का मालिक था। वह एक मनावभेडिया था। वह रणभूमि में चला गया और एक ही पल में सारी मुगल सेना को तबाह कर दिया उसने। जब अगली सुबह उदयगढ़ की सेना रणभूमि में गई तो वहां मुगलों के क्षत विक्षत शरीर देखकर उन्होंने राहत की सांस ली। उस नरपिशाच के लिए ही वह किला बनवाया था, वह उसी में रहा करता था। राजपरिवार का बनवाया हुए वह नरपिशाच उदयगढ़ वालों के लिए एक वरदान था। मगर था तो वह एक दरिंदा ही, उसकी उदयगढ़ को बचाने की पहली शर्त ही यही थी कि उसे हर हफ्ते एक इंसान चाहिए और जिस दिन ऐसा न हुआ उस दिन वह नरपिशाच पूरा उदयगढ़ खत्म कर देगा। मगर उस बनाने वाले तांत्रिक को यह नहीं पता था कि उसके बनाए उस नरपिशाच की यही शर्त एक दिन पूरे उदयगढ़ के लिए मुसीबत का कारण बन जाएगी। नरपिशाचों के मुंह कितना खून लगता है, खून पीने के लिए उनकी प्यास उतनी ही बढ़ती जाती है। नरपिशाच ने पहले हर हफ्ते एक इंसान की शर्त रखी थी मगर जैसे जैसे वक़्त बीता, उसकी खून की प्यास और बढ़ती गई, वह हर रात को किले से बाहर निकलता और एक इंसान को मार कर उसका खून पी लेता। धीरे धीरे हर दिन में एक मौत की जगह, कई मौतों ने ले ली। सारा राजपरिवार चिंता में पड़ गया और तब राजपुरोहित जी ने उसे मारने के दो उपाय बताए पहला उपाय था उसे जिंदा जला देना ताकि वह फिर कभी अपना खौफ न फैला सके और दूसरा उपाय था उसे कुछ समय के लिए मृत अवस्था में पहुंचा देना ताकि वक़्त आने पर राजपरिवार उसे फिर से जीवित कर सके। दूसरा उपाय ही तत्कालीन राजा साहब को ज्यादा ठीक लगा। राजपुरोहित जी के कहे अनुसार पूर्णिमा की ही रात में वह कमजोर होता था और उसी दिन उसके लिए एक जाल बिछाया गया। उसे एक इंसान देने के लिए कुछ लोग उस किले में गए और राजपुरोहित जी द्वारा तैयार किया गया अभिमंत्रित लकड़ी का एक खंजर लेकर तत्कालीन राजा साहब ने उसके सीने में घोंप दिया। उसे कुछ समय के लिए मृत अवस्था में पहुंचा दिया। और इस किले को हमेशा हमेशा के लिए बंद करवा दिया गया। इसके बाद अंग्रेजों के शासन के समय आपके पिता के दादाजी ने उस नरपिशाच को अपना रक्त देकर जागृत किया था और उदयगढ़ को अंग्रेजों से बचा लिया था। उदयगढ़ में एक बार फिर मौत अपना तांडव करने लगी थी और फिर राजपुरोहित जी के वंशजों ने उस महल को अभिमंत्रित कर के उसे हमेशा के लिए उस किले में कैद कर दिया। अब वह हमेशा उसी वीरान किले में रहता था और राजा साहब के कहे अनुसार उस तक हर दिन एक जंगली जानवर पहुंचा दिया जाता था। जंगली जानवरों को खाकर जीवित रहता था। यह सौदा बुरा नहीं था। फिर एक दिन रानी मां यानि आपकी मां लाख मना करने के बावजूद बिना किसी को बताए उस किले में चली गईं और वहां उस नरपिशाच को देखकर उल्टे पांव भागने लगीं। उनको ढूंढ़ते ढूंढ़ते राजा साहब और राजा साहब के पीछे आप उस किले में पहुंच गए। आप दोनों की आंखों के सामने उस नरपिशाच ने रानी मां को जिंदा निगल लिया। तब राजा साहब ने बड़ी मुश्किल से आपको उस नरपिशाच से बचाया और उस किले से बाहर निकल आए। वहां से आने के बाद राजा साहब ने सारी प्रजा को आदेश दिया कि न ही कोई उस नरपिशाच को जानवर पहुंचाएगा और न ही कोई उस किले के पास जाएगा। वे आपको खोना नहीं चाहते थे इसीलिए आपको यहां से दूर लेकर चले गए और सारी प्रजा की नजरों में खुदको गिरा लिया। इतने सालों से वह नरपिशाच वहां जाने वाले पशु पक्षियों को खा लेता था और मरणासन्न स्तिथि में जीवित रह रहा था। मगर एक दिन गांव का एक बच्चा उस किले में चला गया और एक बार फिर उस नरपिशाच के मुंह इंसानी खून लग चुका था और अब वह रात को महल में विरह गीत गा गाकर उधर से जाने वाले मुसाफिरों को भ्रमित करता है और किले के पास जाते ही वह उनका शिकार कर लेता है। गनीमत बाद यह है कि वह किले से बाहर नहीं निकल पाता।" इतना कहकर रामावतार काका ने कांपते हाथों से पानी पिया।

"तो इसलिए हमे वह सपना आता था जब मां हमें छोड़कर उस दरिंदे के साथ चली जाती हैं" हमने सब समझते हुए कहा। तृषा अब भी सदमें में बैठी हुई थी।

"आज पूर्णिमा है काका, अगर आज उसे रोक लिया तो शायद कुछ समय के लिए यह मौत का तांडव वापस रुक जाएगा।" हमने कहा।

"पर युवराज आप कैसे उस रोक पाएंगे अब न तो राजपुरोहित जी हैं और न ही उनका वह खंजर.... नहीं.... खंजर है युवराज मगर हम आपको वहां नहीं जाने देंगे युवराज" काका ने हमारा हाथ कसकर पकड़ लिया था। जबकि हम तृषा की ओर देख रहे थे यह जानने के लिए कि उसका क्या फैसला है।

"तुम जाओ बिहान, जिंदगीभर डरपोक का काला चोगा ओढ़े रहने से सुकून कि मौत बेहतर है" तृषा ने सपाट लहजे में कहा। हम आज उस पर गर्व कर रहे थे, भले ही तृषा राजपरिवार से नहीं थी मगर उसमें राजपरिवार की बहू जैसा ही धैर्य और तेज था।

"हम जाएंगे वहां" कहकर हमने काका के बताए अनुसार महल के गर्भगृह से वह लकड़ी का खंजर निकाला और उस वीरान किले की ओर बढ़ गए। जैसे जैसे हम उस किले कि और बढ़ रहे थे, उस नरपिशाच की गुर्राहट बढ़ती ही जा रही थी। वह जैसे हमारा ही इंतजार कर रहा था। चारों तरफ धूल भरी आंधियां और बिजली की चमक थी। किले में अचानक कईयों लालटेन एकसाथ जल उठने जैसा उजाला हो गया था। हम अंदर पहुंचे सारे किले में एक सड़ांध थी कईयों क्षत विक्षत शरीर इधर उधर बिखरे पड़े थे। अचानक ही किसी ने हमारी गर्दन पकड़ कर पूरी ताकत से दबा दी, ऐसा लग रहा था जैसे हमारी गर्दन की सारी हड्डियां ही टूट जाएंगी, उसने हमें उठाकर किले कि एक दीवार की ओर फेंक दिया। वह गुर्रा रहा था। शायद विरह गीत के अलावा कोई और शब्द बोलना नहीं जानता था। गुर्राता हुआ वह हमारे पास आया और हमें उठाकर किले की दाईं ओर बनी सीढ़ियों पर फेंक दिया । अब तक हमारी शक्ति क्षीर्ण हो चुकी थी, वह हमें वार करने का एक मौका भी नहीं दे रहा था, इतने में खंजर भी न जाने कहां खो गया था। उसने तभी अपने दोनो पंजों से हमारा बायां हाथ चीर दिया और जैसे ही वह हमारा पेट चीरने लपका वह उछलकर दूर जा गिरा था, उसके सीने में लकड़ी का खंजर घुपा हुआ था और हमारे सामने तृषा खड़ी थी, तृषा ने हमें बचा लिया था। चारों ओर उस नरपिशाच की दर्दभरी चीखें गूंज रही थीं और अगले ही पल उसने अपने सीने में घुंपा वह खंजर निकाल कर तृषा के सीने में उतार दिया। वह नरपिशाच एक लाश बनकर जमीन पर पड़ा था। तृषा भरी आंखों से हमें देख रही थी और हम बहुत मुश्किल से चलकर उसके पास गए।
"राजपूत तो मैं भी थी बिहान, तुम्हें अकेले कैसे इससे लड़ने भेज देती" इतना कहकर वह एकटक मुझे देखती रह गई.... नरपिशाच चला गया था और मुझे बचाते बचाते मेरी तृषा भी जा चुकी थी...... हम एक बार फिर सब खोकर वापस मुंबई लौट रहे थे......