हंसता क्यों है पागल - 8 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हंसता क्यों है पागल - 8

लगभग एक सप्ताह बाद समीर का फ़ोन आया कि वह अगले दिन आ रहा है। उसने बताया कि वह रात तक पहुंचेगा और अगली सुबह उसकी एक परीक्षा है।
उसके आने पर रात को खाने खाने के बाद जब हम बैठे तो वह अचानक स्वर को कुछ धीमा करते हुए बोला - सर, मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूं...
- बोलो, इसमें पूछना क्या... मैंने सोचा कि अगली सुबह उसकी परीक्षा है, वो उसी परीक्षा के सन्दर्भ में कुछ पूछेगा। प्रतियोगिता परीक्षाओं में तो अंतिम समय तक एक- एक सवाल के लिए विद्यार्थियों को जद्दोजहद करनी ही पड़ेगी, एक - एक अंक से मेरिट इधर- उधर होती है।
लेकिन मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा जब उसने बताया कि वह अपनी परीक्षा के लिए बिल्कुल भी गंभीर नहीं है, वह तो कोई और बात ही करना चाहता है।
मैंने अचंभे से कहा - अरे, इतनी दूर से पैसा ख़र्च करके, परेशानी उठा कर यहां परीक्षा देने आए हो, और कहते हो कि परीक्षा के लिए गंभीर नहीं हो?
- सॉरी सर, लेकिन इस से कोई फायदा भी तो नहीं है, एक के बाद एक कितनी परीक्षाएं तो दे चुका, कुछ नहीं होता। परीक्षा केन्द्र देख कर ही बुखार चढ़ जाता है, सौ - दो सौ पदों के लिए लाखों परीक्षार्थी... महीनों तक परिणाम का इंतज़ार... परीक्षा हो भी जाए तो इंटरव्यू का भरोसा नहीं.. और फ़िर हर जगह रिश्वत...! उसने कुछ मायूसी से कहा।
ज़िन्दगी शुरू करते हुए मासूम और युवा लड़के को अभी से इस निराशा में घिरे देख कर मुझे भी कुछ बेचैनी सी हुई, लेकिन फ़िर भी मैंने उसे समझाया - ये सब तो हमेशा होता ही रहा है, फ़िर समय आने पर सफ़लता भी मिल ही जाती है। कभी- कभी तो नौकरी मांगते - मांगते लोग दूसरों को नौकरी देने वाले भी बन जाते हैं। दुनिया में काम की कोई कमी थोड़े ही है, कोशिश करते रहो तो...
- जी सर, बिल्कुल यही कह रहा हूं मैं... उसने कहना शुरू किया - इस बार तो मैं परीक्षा देने नहीं, बस परीक्षा के बहाने आपसे सलाह लेने ही आया हूं... न जाने आप मेरी बात सुनकर क्या कहेंगे, पर मुझे पूरा यकीन है कि आपसे मुझे सही मार्गदर्शन मिलेगा। वह अब काफ़ी ख़ुश और आश्वस्त सा हो गया।
मुझे भी तसल्ली हुई कि चलो, इसके पास अपने भविष्य को लेकर कोई प्लान तो है।
वह एकदम से जैसे बदल गया। उसके चेहरे पर कुछ आत्मविश्वास आ गया। अब वह कोई मायूस याचक नहीं, बल्कि नया "स्टार्ट- अप" शुरू करने को इच्छुक किसी शिक्षित युवक की तरह बात कर रहा था।
- सर, आपने बताया था कि बड़े शहरों में सिर के बाल भी बिक जाते हैं? उसने पूछा।
- हां, आजकल तो बालों से हज़ारों तरह के विग्स तैयार हो जाते हैं जो फैशन इंडस्ट्री, एक्टिंग और ग्लैमर वर्ल्ड में बहुत कीमती प्रॉडक्ट के तौर पर बिकते हैं। मैंने कहा।
- ब्लड भी बिकता है, बॉडी ऑर्गंस भी... वह कुछ संकोच से बोला।
- बिल्कुल.. पर तुम ये सब क्यों सोच रहे हो, क्या कहना चाहते हो.. मैंने उसे देखते हुए कहा।
- सर, सर्विसेज़ भी बिकती ही हैं.. कहते हैं सदियों से मजबूरी में स्त्रियों ने अपने तन - बदन से भी रोज़ी - रोटी चलाई है। वह अब कुछ खुलने लगा था।
मुझे सहसा अपनी ही बात याद आई कि कॉलेज पास कर लेने के बाद लड़के अपने प्रोफ़ेसरों के दोस्त बन ही जाते हैं।
मैंने कुछ दृढ़ता से कहा - हां, देह व्यापार दुनिया में कोई नई बात नहीं है किंतु ये मजबूरी में स्त्रियों के लिए अंतिम अस्त्र के रूप में रहा है। किसी भी औरत ने इसे ख़ुशी से नहीं अपनाया।
मेरी बात और लहज़े से शायद उसका उत्साह कुछ आहत हुआ पर वह संभलते हुए बोला - सर आप कहते हैं न कि आज़ादी के समय सिर्फ़ तैंतीस करोड़ लोगों की ज़िम्मेदारी उठाने वाले हमारे देश के पास अब एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों का पेट पालने की ज़िम्मेदारी है। ये भी तो एक मजबूरी ही...
मैं ज़ोर से हंसा।
मैंने उससे कहा - साफ़ - साफ़ बताओ, क्या सोच रखा है तुमने? ये यूनानी देवताओं जैसा गठीला बदन क्या इसीलिए बना रहे हो, दिन - रात मेहनत करके?
वह शरमा गया।
थोड़ी देर की चुप्पी रही हम दोनों के बीच।
फ़िर मैंने ही बात बदलते हुए कहा - आओ, कॉफी पियेंगे हम! कह कर मैं किचिन की ओर बढ़ा। मेरे पीछे - पीछे वो भी आया।
अब वो बिल्कुल किसी ऐसे बच्चे की तरह लग रहा था जिससे कुछ गलती हो गई हो और अब वो सिर झुका कर इस इंतज़ार में हो, कि देखें, क्या सज़ा मिलती है।
कॉफी अच्छी बनी थी। हम दोनों अपना अपना कप हाथ में लिए वापस कमरे में आ गए।
मैंने कॉफी सिप करना शुरू कर दिया था मगर वह कप हाथ में पकड़े शायद इसके कुछ ठंडी होने का इंतज़ार कर रहा था।
वैसे भी, उसकी बात के बीच से ही उसे टोक कर मैंने कॉफी पीने का प्रस्ताव दिया था इससे वो कुछ झिझक भी महसूस कर रहा था। शायद उसे लग रहा हो कि मैंने उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया और बीच में ही इस तरह छोड़ दिया जैसे ये कोई बेकार की बात हो।
वह इसीलिए चुप था और ये इंतज़ार कर रहा था कि मैं ही कुछ बोलूं। क्योंकि इसी से उसे यह पता चलता कि मैंने उसकी बात को किस गहराई से लिया है।
- तुम जिगेलो के बारे में जानते हो? जिन्हें हिंदी के अख़बार और पत्रिकाएं "पुरुष वैश्या" कह कर संबोधित करते हैं! मैंने एकाएक कहा।
उसके चेहरे पर फिर से उसका खोया भरोसा लौट आया। वह उत्साहित हो गया। बोला - सर थोड़ा बहुत सुना तो है, पर मैं अच्छी तरह नहीं जानता कि वो कौन होते हैं, क्या करते हैं!
उसने अब कॉफी पीनी शुरू कर दी थी।
मैंने सहसा कुछ चौंक कर कहा - अरे, सुबह तो तुम्हारा इम्तहान है न? क्या बिल्कुल तैयारी नहीं करनी? कितने बजे है? देने तो जाओगे न! मैंने जैसे प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी।
उसके चेहरे पर परीक्षा के नाम से ही जैसे कोई डर बैठ गया। उसके चेहरे का रंग भी कुछ फीका पड़ गया। धीमी आवाज में बोला - जाऊं क्या सर? कोई फ़ायदा है क्या? क्या होगा परीक्षाएं दे देकर? बस, जो लोग सलेक्ट होंगे उन्हें ये घमंड हो जायेगा कि हमारा चयन इतने सारे लोगों में से हुआ है।
मैंने कहा - लेकिन पास भी तो उन्हीं में से होंगे जो परीक्षा देंगे। और हो सकता है कि तुम भी पास हो जाओ।
इस बार वो हंसा। ज़ोर से। बिल्कुल मेरी तरह।
मैंने खिसियाते हुए भी उसे समझाने के स्वर में कहा - ऐसी बात नहीं है। एक्जामिनेशन एक लक भी है। जब दस बार ऐसा होता है कि हमें पास होने का भरोसा हो और हम सफ़ल न हों, तो ठीक उसी तरह कभी ऐसा भी तो हो सकता है कि हमें उम्मीद न हो और हम सफ़ल हो जाएं। इतने समय से पढ़ते तो हम रहते ही हैं, तो हमारे अवचेतन में परीक्षा की कुछ तैयारी तो हुई रहती ही है, बस परीक्षा की उस ख़ास अवधि में हमारे दिमाग़ ने कैसा बिहेव किया, उसी का सारा खेल है। उसी पर परिणाम का दारोमदार भी है!
- सर, आज मैं आपके साथ ही सोऊंगा। उसने जैसे चहकते हुए कहा।