हंसता क्यों है पागल - 1 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हंसता क्यों है पागल - 1

कुछ दिन पहले शाम को पार्क में अपने साथी सीनियर सिटीजंस के साथ टहल कर गप्पें लड़ाते समय पड़ौस में रहने वाले एक साथी ने बताया कि आज तो उनका सारा दिन बहुत आराम से बीत गया। उनका गीज़र खराब हो गया था। जब उसे सुधारने वाला आया तो उनकी बहू बोली - पापाजी, मैं चौंची को स्कूल से लेने जा रही हूं, आज उसके स्कूल में कोई प्रोग्राम है तो लौटने में देर लगेगी, ये गीज़र वाला आया है, आप इससे काम करवा लीजिएगा।
बस, थोड़ी देर के लिए वो घर के मालिक बन गए और उनकी दोपहरी ख़ूब बढ़िया बीती।
तभी से मैं सोच रहा था कि मेरा गीज़र भी तो काफ़ी पुराना हो गया है, कभी भी टें बोल सकता है।
और लो! आज ही।
वैसे तो मैं अपने फ्लैट में अकेला ही रहता था पर कल रात को मेरा एक छात्र आ गया। ये अब बीए करने के बाद अपने घर गोरखपुर चला गया था लेकिन इसकी कोई परीक्षा थी, जिसका सेंटर यहां आया था। सरकारी परीक्षायें होने पर ट्रेन के साथ साथ होटल धर्मशालाओं में भी ज़बरदस्त भीड़भाड़ होने के चलते ये एक रात पहले मेरे पास ही रुकने के लिए आ गया था। अगली दोपहर में परीक्षा थी और शाम की गाड़ी से उसकी वापसी।
मैं सुबह चाय पीने के बाद बालकनी में बैठा अख़बार पलट रहा था कि उसने आकर बताया - सर, गीज़र में पानी तो गर्म हुआ ही नहीं!
- अरे क्या हुआ? कहता हुआ मैं उसके साथ- साथ बाथरूम तक आया तो सही, पर मन ही मन मैं समझ गया कि मेरे पड़ौसी वाली बीमारी मेरे गीज़र को भी हो गई। वैसे भी पिछले दिनों बिजली विभाग की मेहरबानी से फ्लक्चुएशंस कुछ ज्यादा ही हो रहे थे। इसी के चलते मेरा माइक्रोवेव ओवन भी बंद पड़ा था।
उसे नहाकर जल्दी ही जाना था। इतना समय नहीं था कि मैं मैकेनिक को बुला कर गीज़र ठीक करवाऊं। मैंने उससे कहा - दो मिनट रुको, मैं पानी गैस पर गर्म करके देता हूं। कह कर मैं ज़ोर से हंसा।
वह आश्चर्य से मेरी ओर देखता रहा। उसे समझ में नहीं आया कि इसमें हंसने की क्या बात है? उसने एक बार खु़द अपनी ओर भी देखा। उसे लगा कि कहीं मैं उसका हुलिया देख कर तो नहीं हंसा?
बाथरूम से निकल कर आने के कारण वो केवल छोटे से अंडरवियर में ही खड़ा था। बाल फैले बिखरे थे।
वैसे भी बच्चे कॉलेज पास कर लेने के बाद अपने प्रोफेसर्स के दोस्त ही बन कर उनसे काफ़ी खुल जाते हैं फ़िर मैं तो अब रिटायर भी हो चुका था। उसे कहां याद होगा कि कभी क्लास में हाज़िरी लेते हुए उनके नाम पुकारने पर लड़के "यस सर" भी बहुत संजीदगी और संकोच से बोलते थे क्योंकि मैं सिर्फ़ प्रोफ़ेसर ही नहीं, बल्कि डायरेक्टर भी रहा था।
पर वो मेरा विशेष छात्र रहा था और कई बार फ़ोन पर संपर्क रहने से मुझसे काफ़ी खुला हुआ भी था। हम हर विषय पर बात करते थे।
इस समय मेरी हंसी का कारण वो या उसका हुलिया था भी नहीं!
मैंने एक बड़े से बर्तन में पानी गर्म होने रख दिया। और हम दोनों रसोई में ही खड़े खड़े बातें करने लगे।
मैंने देखा कि कॉलेज पूरा होने पर यहां से जाने के बाद शायद उसने कोई जिम ज्वाइन करके अच्छी खासी बॉडी बना ली थी। वो भी सम्भवतः भांप रहा था कि मैं उसके मेहनत से बनाए हुए बदन का आकर्षण देख रहा हूं।
वो भी तो चाहता ही होगा कि उसकी ये प्रोग्रेस कोई देखे, इसी से खुले बदन ही खड़ा था। उसने तौलिया कंधे पर डाल रखा था लेकिन क़मर पर लपेटा हुआ नहीं था।
मैंने उसकी सराहना करने की नीयत से उसके सीने पर हाथ लगाते हुए कहा - सीना खूब उभार लिया तुमने!
वो बोला - सर जब तक नौकरी नहीं मिले, और काम ही क्या है!
गर्म पानी लेकर वह झटपट नहाया और खाना खाकर वापस निकल लिया।
दोपहर में बैठा हुआ मैं सोचता रहा कि आख़िर मुझे उस समय इतनी ज़ोर से हंसी क्यों आ गई कि लड़का भी किसी संदेह और संकोच से घिर गया।
क्या वृद्धावस्था में धीरे - धीरे आदमी इसी तरह बात - बेबात पर हंसने लगता है?
ओह, मुझे बैठे- बैठे याद आया कि एक बार जब मैं यूनिवर्सिटी में निदेशक था, तब मनोविज्ञान के छात्रों को शहर के पागलखाने में विजिट कराने की अनुमति मांगने वाला पत्र उनके विभाग की ओर से आया था। विभाग के हेड की अनुशंसा होने के कारण मैंने बच्चों को पागलखाने ले जाने की अनुमति तो तत्काल दे दी थी, किंतु पत्र पर हस्ताक्षर कर देने के बाद भी अपने चैम्बर में अकेला बैठा मैं, देर तक ये सोचता रहा था कि पागल खाने को "ल्यूनैटिक असायलम" क्यों कहते हैं।
ल्यूनैटिक तो चंद्रमा संबंधी बातों को कहा जाता है। तो क्या पागलपन का कोई संबंध चंद्रमा की कलाओं से है? सचमुच मुझे याद आया कि पूर्णिमा की रात को जब शफ्फाक चांद अपने पूरे जलाल पर होता है तब समंदर के पानी में भी लहरों की ज़बरदस्त उथल - पुथल होती है। तो क्या चांद की ये कलाएं इंसान के दिमाग़ को भी ऐसे ही आलोड़ित करती हैं? क्या दिमाग़ की ये उथल- पुथल ही पागलपन है?
और जब विद्यार्थी पागलखाने के विजिट से वापस आ गए तो एक दिन एक छात्र ने ही मुझे बताया कि पूर्णिमा की रात को पागलखाने में इमरजेंसी होती है। उस दिन कुछ एक्स्ट्रा डॉक्टर्स ड्यूटी पर तैनात रहते हैं और सीवियर अर्थात ख़तरनाक ढंग के पागलों को बांध कर रखा जाता है।
विचित्र बात थी। अद्भुत नैसर्गिक प्रभाव। इंसानी व्यवहार शास्त्र का एक जटिल पहलू।
दोपहर को मेरे पास आकर ठहरे उस छात्र के चले जाने के बाद गीज़र का मैकेनिक आया। वह बाथरूम में खड़े होकर गीज़र दुरुस्त करने लगा। मैं भी नज़दीक खड़ा होकर उसका काम देखने लगा।
ख़ाली रहने वाले रिटायर्ड आदमी को ऐसा कोई काम देखने का मौका मिल जाए तो ये एक बेहतरीन टाइमपास ही तो है।
लगभग बीस मिनट तक मुस्तैदी से खुले गीज़र का पुर्जा - पुर्जा झांकने और टटोलने के बाद मैकेनिक थोड़ी मायूसी से उस स्टूल से नीचे उतरा, जिस पर चढ़ कर वो काम कर रहा था और बुझे से स्वर में बोला - ये काम आज नहीं हो पायेगा।
- क्यों? मैंने सामान्य सी जिज्ञासा से ही पूछा।
और तब उसने बताया कि गीज़र का कोई ऐसा पार्ट ख़राब है जो बदलना पड़ेगा और वो इस वक्त उसके पास नहीं है।
- तो ले आओ जल्दी से.. मैंने कहा।
वो बोला - वो पार्ट नज़दीक में नहीं मिलेगा, उसे काफ़ी दूर से ही लाना होगा, इसलिए अब वह कल ही आकर इसे ठीक कर सकेगा।
कोई चारा नहीं था। फ़िर ऐसी कोई मजबूरी भी तो नहीं थी। एक दिन और मैं गैस पर ही पानी गर्म करके काम चला सकता था।
अब एक दिन का काम दो दिन में हो तो हो, इसमें ख़ाली रहने वाले रिटायर्ड आदमी को भला क्या ऐतराज?