गीज़र का मैकेनिक जिस दुकान से आया था, वहां से अगले दिन सुबह फ़ोन आया कि जिस दुकान से आपके गीज़र का पुर्जा आना था वो आज बंद है इसलिए वो काम आज नहीं हो सकेगा। मैंने उसे सूचना दे देने के लिए धन्यवाद देने के साथ साथ ये भी पूछ लिया कि आज दुकान क्यों बंद है?
उधर से फ़ोन करने वाले को शायद इतनी तहकीकात की आशंका नहीं थी इसलिए उसने कुछ खीज कर कहा - क्या पता जी, शायद उसके घर में कोई गमी (मौत) हो गई है।
- ओह! मैंने कहा और फ़ोन रख दिया।
आज तो मैं वैसे भी गैस पर पानी गर्म करके नहा लेने के लिए मानसिक रूप से तैयार था ही। मैं अपने दैनिक कामों में लग गया।
मैं जब नहाने के लिए बाथरूम में गया तो एक अजीब सा ख्याल मेरे दिमाग़ में आया। मैं मन ही मन सोचने लगा कि किसी नदी या समंदर में नहाने की बनिस्बत बाल्टी में पानी लेकर नहाना ज़्यादा निरापद है क्योंकि बाल्टी में भरे पानी में कोई उथल पुथल नहीं होती। बंद बाथरूम में शायद आकाश से चंद्रमा भी अपनी कलाओं का कोई प्रभाव नहीं डाल पाता। शायद इसीलिए यहां पागलपन की कोई आशंका भी नहीं होती।
लेकिन पागलपन की बात यहां बीच में ही आ कैसे गई? क्या समंदर या नदी में नहाने वाले सभी पागल थोड़े ही होते हैं। केवल पूर्णिमा की रात को चांद की कलाओं का थोड़ा असर ज़रूर समंदर के पानी पर होता है। उस असर से पानी में उथल पुथल होती है। किसी के दिमाग़ पर कुछ भी असर कैसे हो सकता है?
वैसे भी चांद तो रात को ही चमकता है। और रात को कोई नहाने नहीं जाता समंदर में। अगर जाए, तो चंद्रमा का क्या दोष, वो आदमी तो पहले से ही पागल होगा।
रात को पढ़ते - पढ़ते जब मैंने सोने के लिए किताब बंद कर के लाइट ऑफ़ करने को हाथ बढ़ाया तो एकाएक मेरा मोबाइल बज उठा।
इस समय फ़ोन आने पर मेरे पास ये देखने का धैर्य प्रायः नहीं होता कि फ़ोन किसका है, मैं अक्सर उठा ही लेता हूं। क्योंकि किसका फ़ोन है, ये देखने के लिए आंखों पर चश्मे का होना जरूरी होता है और सोने के लिए लाइट ऑफ़ करते समय मैं अपना चश्मा बाकायदा केस में रख चुका होता हूं।
फ़ोन उठाया तो उसी लड़के का था जो कल परीक्षा देकर यहां से गया था।
मैं एकाएक उससे ये भी नहीं पूछ सका कि इस वक्त इतनी रात गए उसने मुझे फ़ोन किसलिए किया? क्या कोई ज़रूरी काम आ पड़ा?
लेकिन उसके नमस्कार और "कैसे हैं सर" का उत्तर देते देते मुझे सहसा याद आया कि कल उसके जाते समय शिष्टाचारवश मैंने ही तो उससे कह दिया था कि पहुंच कर फ़ोन कर देना। प्रायः किसी भी जाने वाले से ऐसा कहा ही जाता है। इससे दो- तीन लाभ होते हैं। एक तो आपको पता चल जाता है कि जाने वाला आराम से अपने गंतव्य पर पहुंच गया,उसे रास्ते में कोई असुविधा या बाधा तो नहीं आई। दूसरे, मेहमान के वापस लौट कर अपने शहर पहुंच जाने की पुख़्ता सूचना मिल जाती है और ये पक्का हो जाता है कि वो अब इस शहर में नहीं है।
यदि मेहमान अवांछित या अप्रत्याशित भी है तो ये सूचना पक्की तौर पर मिल जाती है कि अब वह शहर से जा चुका है, उसके वापस लौट कर आ जाने की संभावना नहीं है।
मेरा ये मेहमान अवांछित नहीं था, मुझसे लगाव के चलते ही वो यहां आया था, इसलिए उसका फ़ोन करके मुझे पहुंच की सूचना देना उस की आज्ञाकारिता ही लगी कि उसने मेरी बात का सम्मान करके मुझे फ़ोन किया है।
लेकिन ये फ़ोन वो दिन में किसी समय भी तो कर सकता था। वह तो अलसभोर सुबह सुबह ही पहुंच गया होगा। पहुंचने के बाद थकान आदि से सोया भी हो तो अब तो लगभग सोलह- सत्रह घंटे हो चुके हैं। और शिष्टाचार कॉल के लिहाज़ से भी तो ये वक्त कुछ ज़्यादा ही था।
खैर, मैं पहले भी कह चुका हूं कि कॉलेज पास कर लेने के बाद छात्र अपने प्रोफ़ेसरों के दोस्त ही हो जाते हैं।
अगली सुबह मैंने सोचा कि मैं ख़ुद पहले ही फ़ोन करके गीज़र मैकेनिक को बुला लूं ताकि उसे ऐसा न लगे कि मुझे अपने गीज़र की बिल्कुल चिंता नहीं है, वो ठीक हो चाहे न हो।
लेकिन मैकेनिक ने मुझे बताया कि जिस दुकान से उसे सामान लेकर आना है वो शायद आज भी नहीं खुली है। वो बोला कि वो कुछ देर इंतज़ार करेगा किंतु यदि एक घंटे में नहीं आया तो मैं समझूं कि काम आज भी नहीं होगा और फ़िर मैं उसका इंतज़ार न करके कहीं भी आने जाने के लिए स्वतंत्र हूं। उसने अपनी ओर से भारी जिम्मेदारी भरा काम कर दिया था ताकि मैं उसके इंतज़ार में फिजूल सारा दिन ख़राब न करूं।
फ़ोन मैंने नहीं काटा, अपने आप कट गया, क्योंकि इस बीच एक दूसरा फ़ोन आ गया था। मैंने इसे उठा लिया क्योंकि उससे पूरी बात मैं सुन ही चुका था।
ये फ़ोन उसी लड़के का था जिसने रात को भी फोन किया था। मुझे थोड़ी झुंझलाहट सी हुई पर मैंने फ़ोन कान से लगा लिया।
- कैसे हैं सर! उसके इस सवाल का मेरे पास एक ही उत्तर था - "ठीक हूं", मैंने उत्तर दिया और चुप हो कर फ़ोन कान से लगाए रखा कि वो अपनी बात कहेगा। लेकिन कुछ देर उसकी ओर से भी चुप्पी ही रही। शायद वो मुझसे ये आशा कर रहा हो कि मैं भी उससे पूछूं कि वो कैसा है?
लेकिन मैंने ये ज़रूरी नहीं समझा। ज़ाहिर था कि फ़ोन उसने किया था तो उसे मेरे बिना पूछे भी बताना ही चाहिए था कि क्या काम है! फ़ोन क्यों किया।
कुछ देर की चुप्पी को मैंने उसका संकोच समझा और केवल इतना कहा - बोलो!
- जी सब ठीक! उसने कुछ हड़बड़ा कर कहा।
अब मुझे विवश होकर पूछना ही पड़ा कि फ़ोन क्यों किया?
- जी बस ऐसे ही, आपकी कुशलता जानने के लिए। उसका ये जवाब सुन कर मुझे थोड़ी हैरानी सी हुई। रात को मेरी कुशलता जान तो ली थी! क्या बात है? मैं मन ही मन सोचने लगा। मेरी कुशलता की इतनी फिक्र? अभी परसों ही तो मिले हैं हम।
इससे पहले भी तो कॉलेज से जाने के बाद लगभग एक साल से हमें एक दूसरे की कोई खबर नहीं थी? वो तो यहां परीक्षा का सेंटर आ जाने के कारण अचानक हम दोनों मिले थे। फ़िर भी मेरे लिए उसकी इतनी फिक्र देख कर मैंने विनम्रता से उसे शुक्रिया कहा और फ़ोन रख दिया।
मैं सोने से पहले जो किताब लेकर पढ़ने बैठ गया था वो काफ़ी दिलचस्प थी। मुझे पता ही नहीं चला कि पढ़ते पढ़ते रात के बारह बज गए थे। अमूमन मैं ग्यारह बजे तक सो जाने का अभ्यस्त था।
मैं सोने से पहले वाशरूम जाने के लिए उठा ही था कि फ़ोन की घंटी बजी।
अभी चश्मा उतारा नहीं था मैंने। देख लिया कि फ़ोन उसी लड़के का है।
- क्या करूं? न उठाऊं?
पर मैंने सोचा कि कॉलेज पास कर लेने के बाद छात्र अपने प्रोफ़ेसरों के दोस्त हो ही जाते हैं। और दोस्तों के फ़ोन का टाइम क्या देखना। मैं फ़ोन हाथ में लेकर ही चल पड़ा।