नई चेतना - 28 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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नई चेतना - 28

रमेश बड़ी तेजी से शहर में दवाई की दुकान की तरफ बढ़ा जा रहा था । जल्दबाजी में वह अस्पताल के नजदीक ही स्थित मेडिकल स्टोर को कब का पीछे छोड़ आया था । कुछ आगे जाने पर उसने एक स्थानीय आदमी से मेडिकल की दुकान के बारे में पूछा । उस आदमी के बताने के अनुसार रमेश ने कार बस अड्डे की तरफ बढा दी थी जिसके नजदीक ही बने दुकानों की कतार में एक मेडिकल की दूकान भी थी । दवाइयां खरीदने के बाद रमेश ने बस अड्डे के सामने ले जाकर गाड़ी वापसी के लिए घुमाई । यही वह समय था जब अमर मेडिकल के बगल में ही स्थित एक छोटे से भोजनालय से भोजन करके बाहर निकलकर काउंटर पर पैसे दे रहा था । जब तक अमर पैसे देकर बाहर निकलता रमेश गाड़ी घुमा कर बड़ी तेजी से आगे बढ़ चुका था । पीछे से देखने पर भी अमर ने अपनी गाड़ी पहचानने में कोई गलती नहीं की थी । लेकिन अपने शहर से इतनी दूर उसे अपनी गाड़ी देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ था । उसकी जानकारी के मुताबिक इस शहर से या इसके नजदीक उनका दूर दूर तक कोई रिश्ता या जानपहचान नहीं थी। यहाँ तक कि कोई कारोबारी रिश्ता भी नहीं था । तो फिर …………. उसकी गाडी यहाँ है मतलब बाबूजी यहाँ हैं ! …… लेकिन क्यों ? यही सवाल उसे परेशान किये जा रहा था ।

इधर रमेश ने दवाईयां पहुंचा दी थी । अब रात काफी बित चुकी थी । समय से आवश्यक दवाईयां मिल जाने की वजह से सुशिलाजी अब पहले से काफी बेहतर महसूस कर रही थीं । लालाजी का बड़ी देर तक साथ देने के बाद रमेश उनकी आज्ञा लेकर कार में ही जाकर सो गया । बाबू भी वहीँ गहन चिकित्सा कक्ष के सामने के बरामदे में जमीन पर ही पसर गया । लालाजी की आँखों से नींद गायब थी । उनके दिमाग में कई विचार उथल पुथल मचा रहे थे । पिछले पूरे घटनाक्रम पर नजर डालने से उन्हें कहीं किसी की कोई गलती महसूस नहीं हुयी । अमर ने कभी खुलकर उनका विरोध नहीं किया । धनिया को नहीं पाकर ही उसने कड़ा कदम उठाया था । धनिया और उसके बापू को दूर रखने का मकसद भी नियति की वजह से ही पूरा नहीं हुआ जबकि धनिया और बाबू ने पूरी ईमानदारी से इसके लिए प्रयत्न किया था । तो आखिर नियति को क्या मंजूर था ? काफी सोच विचार के बाद लालाजी ने एक दृढ निश्चय कर लिया था और उस निर्णय को करने के बाद उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे उनके सीने पर पड़ा कोई बोझ उतर गया हो ।

उन्होंने तय कर लिया था कि अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए वह समाज और उनके बनाये झूठे उसूलों से लड़ सकते हैं लेकिन नियति से लड़ना इंसान के बस की बात नहीं । धनिया से मिलते हुए स्नेह से उसे उठाकर आशीर्वाद देती सुशिलाजी की तस्वीर अभी तक उनकी निगाहों में थी । उस तस्वीर ने भी लालाजी को यह फैसला करने में मदद की थी । सभी तरह से सोच विचार के बाद अब वह काफी आश्वस्त नजर आ रहे थे ।

अब उन्हें अमर की चिंता सताने लगी थी । सुशिलाजी तो उनकी नजरों के सामने ही थीं लेकिन उनके जिगर का टुकड़ा अमर पता नहीं कहाँ होगा । किस हाल में होगा ? पता नहीं उसके पास पैसे थे या नहीं ? यह भी तो नहीं पता ? कक्ष के बाहर कुर्सी पर बैठे बैठे ही रात के न जाने किस पहर में लालाजी नींद के आगोश में चले गए यह वह खुद भी नहीं समझ सके ।

इधर अमर भोजनालय से निकल कर बस अड्डे के मुसाफिर खाने में जाकर बैठ गया । पूछ ताछ खिड़की से उसने राजापुर के लिए अगली बस के बारे में पता कर लिया था जो सुबह दस बजे की थी । यह जानकारी प्राप्त करके वह निश्चिन्त हो गया था । किसी परिवहन अधिकारी के पूछने पर राजापुर की बस पकड़नी है बता कर पुरे अधिकार से इस मुसाफिरखाने में ठहर सकता था । यहाँ मुसाफिर खाने की कुर्सी पर बैठा हुआ वह बड़ी देर तक भविष्य के बारे में सोचता रहा फिर वहीँ उसे नींद आ गयी ।

भोर होते ही सृष्टि में नव चैतन्य का संचार हो जाता है । विलासपुर के अस्पताल में भी सुबह होने के साथ ही हलचल शुरू हो गयी थी । जमीन पर ही सोया बाबू कभी का उठकर बाहर सैर करके आ गया था । लालाजी अभी तक कुर्सी पर बैठे ही सो रहे थे । शायद देर रात तक जागते रहने की वजह से ही वह अभी तक गहरी नींद में थे । रमेश भी भोर में ही उठने का अभ्यस्त था । जल्दी उठकर अस्पताल में ही नित्यकर्म से फारिग हो चुका था रमेश । हाथ मुंह धोकर चाय पीकर तरोताजा होकर वापस कार के पास आ गया और उसकी साफ़ सफाई में लग गया ।

अपने आसपास हलचल महसूस करके लालाजी की नींद उचट गयी । अचानक नींद खुलते ही लालाजी आँखें मसलते हुए ही गहन चिकित्सा कक्ष में जा पहुंचे । सुशिलाजी को अभी भी कई मशीनों के सहारे रखा गया था । साथ ही नाक में ऑक्सिजन की नली भी लगी थी । उनकी आँखें बंद थीं । शायद सो रही होंगी । उनपर एक नजर डालकर लालाजी कक्ष में ही मौजूद डॉक्टर रस्तोगी से मिले । रस्तोगी ने सुशिलाजी की सेहत के बारे में लालाजी को बताया । उनके मुताबिक अब सुशिलाजी बिलकुल ठीक हैं लेकिन अभी दोपहर तक उन्हें डॉक्टरों की निगरानी में रखना होगा । डॉक्टर रस्तोगी की बात सुनकर लालाजी ने राहत महसूस की ।

अब सुबह का उजाला पूरी सृष्टि में फ़ैल चुका था । अँधेरा कहीं दुम दबा कर भाग चुका था । धनिया और बाबू दोनों ही सघन चिकित्सा विभाग के सामने लालाजी के सामने हाथ जोड़े खड़े थे । धनिया के सर पर अभी भी पट्टी बंधी हुयी थी । अस्पताल का कपड़ा उसने बदलकर अपनी वही सूती पिली साड़ी पहन ली थी । बाबू ने दोनों हाथ जोड़ते हुए लालाजी से कहा “मालिक ! अब मालकिन की तबियत कैसी है ?” लालाजी ने उसकी तरफ देखे बिना ही जवाब दिया ” अब पहले से बहुत बेहतर है बाबू ! लेकिन डरते हैं जब फिर अमर के बारे में पूछेगी तो हम क्या जवाब देंगे ? हमारे ही कारण अमर को यह कदम उठाना पड़ा था । इस पूरे बवाल का कोई असली गुनहगार है तो वो हम हैं । न हम अपनी झूठी शान का रोना रोते न अमर ऐसा कदम उठाता और न आज ये दिन देखना पड़ता । ”

और भी न जाने क्या क्या बुदबुदाते रहे । बाबू को उनकी कही अधिकांश बातें समझ में नहीं आई । लेकिन वह इतना तो समझ ही रहा था कि लालाजी किसी गहरी पीड़ा से गुजर रहे हैं । कुछ देर के इंतजार के बाद बाबू ने लालाजी से हाथ जोड़ते हुए कहा ” मालिक ! मालकिन अब ठीक हैं जानकर बहुत बढ़िया लग रहा है । अब हम और आपके सामने नहीं रुकना चाहते । अब हमें आज्ञा दीजिये मालिक और साथ ही आशीर्वाद भी कि हम आपको दिया हुआ अपना वचन पूरा कर सकें । मैं सरजू से धनिया की शादी करने जा रहा हूँ । और हाँ मालिक ! अगर हो सके तो मालकिन को लेकर आप भी शिकारपुर आ जाना और धनिया और सरजू को आशीर्वाद देने की कृपा करना । अच्छा मालिक ! राम राम ! अब हम चलते हैं । ” कहकर बाबू धनिया के साथ जाने के लिए मुड़ा ही था कि तभी ” बाबू ! “लालाजी की गूंजती धीर गंभीर आवाज ने बाबू के पैरों में मानो ब्रेक लगा दिए हों ।