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नई चेतना - 1


नई चेतना भाग -1
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लाला धनीराम की गिनती रामपुर के धनाढ्य लोगों में होती थी । अनाज के थोक व्यापार के अलावा उनकी धान कूटने की मशीन थी । मसाला कूट कर उसकी पैकिंग करके आसपास के शहरों में वितरित करने का काम भी चलता था । गाँव के ही कुछ लोग लाला धनीराम के यहाँ मजदूरी करते थे । बाबू हरिजन की बेटी धनिया भी लाला के मसाला फैक्ट्री में काम करने आती थी ।

धनिया गौरवर्णीय बहुत ही खुबसूरत लड़की थी । वह जितनी खुबसूरत थी अपने काम में उतनी ही चुस्त और फुर्तीली भी थी । मसाला फैक्ट्री का अधिकांश काम लाला का इकलौता बेटा अमर ही देखता था । धनिया की चुस्ती फुर्ती और उसकी खुबसूरती से उसकी तरफ आकर्षित अमर कब उससे प्यार करने लगा उसे पता ही नहीं चला । अब किसी दिन अगर किसी वजह से धनिया काम पर नहीं आती तो अमर बेचैन हो जाता और दूसरे दिन उसे देखकर उसका मन मयूर नाच उठता ।

एक बार धनिया लगातार तीन दिनों तक काम पर नहीं आई । अमर बड़ा परेशान और बेचैन रहा लेकिन अपनी बेचैनी उसने किसी पर जाहिर नहीं की । उसे अपनी मर्यादा का भी तो ध्यान रखना था जैसा की उसे बचपन से ही संस्कार मिला था । आखिर कब तक खुद पर काबू रख पाता ? पहुँच ही गया हरिजनों की बस्ती में । बस्ती में शोर मच गया ‘ छोटे मालिक आये हैं ‘ तभी तो अमर के पहुँचने से पहले उसके आने की खबर धनिया के घर पहुँच गयी थी । बस्ती के कुछ युवकों ने अमर को बाबू के घर तक पहुंचा दिया । बस्ती के आखरी छोर पर घास फूस से बनी झोपड़ी ही बाबू का आशियाना था ।

इस झोपड़ी के अगले ही हिस्से में बाबू हरिजन नीचे जमीन पर एक चटाई बिछाए लेटा हुआ कराह रहा था और धनिया उसके सिरहाने बैठी उसका सिर दबा रही थी । झोपड़ी के एक कोने में मिटटीे का चुल्हा बना हुआ था और उसके समीप ही कुछ बर्तन रखे हुए थे । चुल्हे को देखकर अनुमान लगाया जा सकता था कि उसका दो दिनों से इस्तेमाल नहीं हुआ है ।

अमर को अपने घर में सामने खड़ा देख बाबू ने भरसक उठने की कोशिश की लेकिन अमर के मना करने पर लेटे लेटे ही कृतज्ञता से दोनों हाथ जोड़ लिए । धनिया भी उठकर एक कोने में खड़ी हो गयी थी । अमर बाबू के समीप नीचे ही बैठते हुए बोला, ” काका ! लगातार तीन दिनों से धनिया काम पर नहीं आ रही सो सोचा कारण पता करते चलूँ । इसीलिए आ गया। ” अमर के बैठने से पहले ही धनिया ने वहीँ समीप ही पड़ी साड़ी नीचे बिछा दी थी ।

” क्या करूँ मालिक ? बहुत तेज बुखार आ गया था । घरवाली तो रही नहीं सो अब धनिया ही मेरा ख्याल रखती है । अब यही मेरी बेटी भी है और बेटा भी । मैंने तो इसे कहा था कि काम पर चली जाये लेकिन नहीं मानी । कहने लगी ‘मैं काम पर चली गयी तो फिर आपका ख्याल कौन रखेगा ? मालिक ! मुझसे बड़ा स्नेह करती है इसीलिए मुझे बुखार में देखकर परेशान हो गयी है । आप नाराज नहीं होना । कल धनिया अवश्य काम पर आयेगी ।” बाबू शायद अमर के अचानक आने से डर गया था ।

अमर ने उसे दिलासा दिया “अरे काका ! आप कैसी बातें कर रहे हैं । पहले आप अच्छे से अपना इलाज कराके ठीक हो जाइये । फिर काम के बारे में सोचिये। ” अमर जाते जाते दो हजार रुपये बाबू के सिरहाने रख गया था ।

उसके जाने के बाद धनिया बड़ी देर तक अमर के ही बारे में सोचती रही । उसकी विनम्रता ‘ मधुर व्यवहार ‘ शराफत ‘ और उच्च जाति का होकर भी हरिजन जाति के उसके बापू को काका कह कर संबोधित करना सभी कुछ उसके जेहन में गहरे पैठते जा रहे थे । इधर अमर के जेहन में भी धनिया ही हलचल मचाये हुए थी । माँ के न होने के बावजूद किस बहादुरी से अपना और अपने बीमार बाप का गुजर बसर कर रही थी । उसकी विपन्नता ने अमर के दिल में हलचल मचा दी थी और वह द्रवित हो उठा था ।

दूसरे दिन अमर जैसे ही फैक्ट्री में घुसा सामने ही धनिया लाल मिर्ची के ढेर के सामने बैठ कर बड़ी फुर्ती से उसकी डंठलें अलग कर रही थी।अमर नजदीक पहुँच कर धीरे से बोला ” अरे ! धनिया ! तुम काम पर क्यों आई ? तुम्हें तो अपने बापू का ध्यान रखना चाहिए था घर पर ही रह कर । ”

धनिया कुछ भी नहीं बोली । धीरे से उठकर पल्लू से बंधे रुपये अमर की तरफ बढ़ाते हुए बोली ” बापू अब ठीक हैं और उन्होंने ही मुझे काम पर भेजा है और साथ ही आपका धन्यवाद कहते हुए यह पैसे भी भेजा है।”
अमर अब क्या कहता ? धनिया के हाथ से पैसे लेते हुए धनिया की उँगलियाँ छू जाने मात्र से उसकी धड़कनें बढ़ गयीं थीं । सिर्फ उसके नजदीकी का अहसास करके ही वह रोमांचित हो उठा था । धनिया और उसके बापू के इस फैसले ने अमर के दिल में बाप बेटी की इज्जत बढ़ा दी थी ।

धीरे धीरे दिन बीतते रहे । धनिया भी अब अमर के बारे में सोचने लगी थी । उसकी हालत को वह भी भलीभाँति महसूस कर रही थी । साथ ही वह यह भी समझ रही थी कि उसकी ख्वाहिश पूरी होना तो चाँद तारे तोड़ लाने जैसा असम्भव सा कार्य है लेकिन उसका भी क्या कसूर है । अमर तो स्वयं ही उसकी तरफ आकर्षित हुए हैं । लेकिन जब तक अमर स्वयं पहल न करे वह कैसे आगे बढ़ती ? संस्कारों की डोर से बँधे दोनों मन ही मन एक दुसरे को पसंद तो करने लगे थे लेकिन एक दुसरे की हालत से पूरी तरह से नावाकिफ थे ।

धनिया की तो हिम्मत ही नहीं थी ऐसा सोचने की लेकिन अमर भी इसी उहापोह में था ‘कहीं धनिया बुरा मान गयी तो ? तो वह फैक्ट्री से भी काम छोड़ देगी । उसके दीदार को भी तरस जाऊँगा मैं । नहीं ! नहीं ! इससे तो अच्छा है कि उससे कुछ न ही कहा जाये । '

एक दिन रोज की तरह दोपहर के भोजन के लिए अमर घर पहुंचा तो घर के सामने खड़ी कार देख कर चौंक उठा । चौंका इसलिए था क्योंकि वह कार उसके किसी परिचित की नहीं थी । तो फिर किसकी थी ? इस बाबत माँ से पूछने पर पता चला पड़ोस के गाँव के लाला अमीरचंद अमर के लिए अपनी बेटी का रिश्ता लेकर आये थे ।

यह जानकर अमर सहम सा गया । अगले ही पल धनिया का मुस्कराता चेहरा उसकी आँखों के सामने कौंध गया । अब वह समझ गया था की उसके लिए फैसला लेने की घडी अब आ गयी थी । या तो चुप रहकर अपने पिताजी के उच्च आदर्शों और सामाजिक मान मर्यादा की रक्षा करते हुए अपने प्यार का गला घोंट दे और जीवन भर के लिए एक नासूर पाल ले या फिर अपनी पसंद जताकर माँ बाप से अपनी और धनिया की ख़ुशी की भीख मांग ले । धनिया के मनोभावों से अंजान होने की स्थिति ने उसकी दुविधा को दुगुना कर दिया था ।

फैक्ट्री में जरुरी काम का बहाना बनाकर अमर सीधे फैक्ट्री पहुँच गया । फैक्ट्री में भी मजदूरों को भोजन के लिए अवकाश का समय था । सभी मजदूर या तो अपने घर गए थे भोजन करने या फिर सामने के बगीचे में आम के पेड़ की छाँव में बैठे भोजन कर रहे थे । अमर की नजर तो धनिया को ढूँढ़ रही थी जो उसे कहीं नजर नहीं आ रही थी ।

यूँ ही बेख्याली में चलते हुए अमर अपनी फैक्ट्री के पिछवाड़े स्थित छोटे से तालाब के किनारे पहुँच गया और वहीँ तालाब के किनारे बैठी धनिया को देखकर उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा । उसने भगवान का धन्यवाद किया और इसे अपने लिए शुभ संकेत भी मान बैठा । अनायास ही धनिया उसे मिल जो गयी थी ।

अमर ने इधर उधर देखा । आसपास कहीं कोई नजर नहीं आ रहा था । अब और अधिक वक्त नहीं बचा है यह मानकर अमर धनिया के नजदीक पहुंचा और बोल उठा ” धनिया ! मेरी बात का बुरा नहीं मानना । मैं बहुत दिनों से तुमसे एक बात कहना चाहता था लेकिन डरता था कहीं तुम बुरा न मान जाओ । लेकिन आज मेरे लिए लाला अमीरचंद की बेटी का रिश्ता आया है और मैं मजबूर हूँ कुछ फैसला करने के लिए । मेरे पास वक्त की कमी है । बताओ ! क्या तुम मुझसे शादी करोगी ? ”

धनिया अवाक् रह गयी । जिस शब्द को सुनने के लिए उसके कान तरस गए थे वही शब्द अब उसे बेचैन कर रहे थे । क्या कहे ? कैसे कहे ? दिमाग ने याद दिलाया ‘ सोच ले ! कहाँ अमर और कहाँ तू ? जहां वह करोड़ों में खेलता सफल व्यवसायी है वहीँ तू उसीके टुकड़ों पर पलनेवाली एक अदना सी मुलाजिम । तेरा और उसका क्या मेल ? ‘

वहीँ दिल चीत्कार उठा ‘ अरे ! क्या सोच रही है तू ? जिस दिन का इतनी सिद्दत से इंतजार किया । अब वो मौका हाथ आया है तो उसे इतनी आसानी से गँवा देगी ? माना कि उसकी और तेरी कोई बराबरी नहीं है लेकिन प्यार क्या सोच समझ कर किया जाता है ? क्या लैला और मजनू शिरी और फरहाद जैसे प्रेमियों के बीच ऐसी ही उंच नीच की खाई नहीं थी ? क्या तू खुश रह पायेगी अमर के बिना ? ”

सोचते ही धनिया चीत्कार कर उठी ” नहीं ! ”

और अमर को काटो तो खून नहीं । धनिया का नहीं का चीत्कार उसके कानों में गूंजने लगा । अभी वह कुछ और सोचता कि धनिया बोल उठी ” मालिक ! यह आप क्या कह रहे हैं ? मेरा ऐसा कहाँ भाग्य जो मैं आपकी दुल्हन बनने के बारे में सोच भी सकूं ? खुशकिस्मत होगी वह लड़की जिसे आप मिलेंगे । आप मेरा ख्याल दिल से निकाल दीजिये और बड़े मालिक की मर्जी से लाला अमीरचंद की लड़की से ब्याह कर लीजिये । मालिक ! मैं तो आपकी पूजा ही कर सकती हूँ आपको पाने का ख्याल भी मन में नहीं ला सकती । अब आप ही बताइए मखमल में भी कोई टाट का पैबंद लगाता है भला ? ”

अमर गहरी सांस लेता हुआ टूटने के से अंदाज में बोला ” ठीक है धनिया ! शायद मुझसे ही गलती हो गयी । मैं सोच रहा था की मैं कहूँगा और तुम मान जाओगी । लेकिन मैं गलत था । शायद मैं तुम्हारे लायक नहीं ……………”

अचानक धनिया ने अपना हाथ उसके मुंह पर रख दिया ” नहीं मालिक ! ऐसा न कहो ! आप तो लाखों में एक हैं मैं ही आपके लायक नहीं । फिर भी अगर आप मुझे अपनाना ही चाहते हैं तो यह मेरी खुशकिस्मती होगी । मैं आपसे शादी करने के लिए तैयार हूँ।”
अमर को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था । अभी अभी ना और अभी अगले ही क्षण यह स्वीकारोक्ति । ख़ुशी के मारे वह वह अपने आप पर काबू नहीं रख सका और धनिया को अपनी बाहों में समेट लिया । धनिया भी उसकी बाहों में सिमटती सी चली गयी । दोनों सोच रहे थे काश ! यह जग यह सृष्टि यह वक्त यहीं थम जाता । लेकिन वक्त भला किसीके चाहने से कब रुका है ?

फैक्ट्री का सायरन जोर से चिंघाड़ उठा और दोनों प्रेमियों को समय का भान हुआ । धनिया शरमाती हुयी सी अमर के बाहों की कैद से खुद को आजाद कराके फैक्ट्री की तरफ दौड़ पड़ी । अब उसकी दौड़ में एक अजीब सी ख़ुशी दिख रही थी और उसकी तरफ देखता अमर मंद मंद मुस्कराते धीमे कदमों से फैक्ट्री की तरफ चल पड़ा ।

क्रमशः

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