तानाबाना - 20 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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तानाबाना - 20

20

चिट्ठी मिलते ही परिवार में खुशी की लहर दौङ गयी । अंदाजा तो पहले से था पर इस चिट्ठी ने पुष्टि कर दी । चलो दोनों सहीसलामत हैं । पर अब आगे क्या । अंत में फैसला किया गया कि जैसे भी हो, परिवार के बेटा – बहु हैं, सही सलामती की चिट्ठी भेज दी , ये क्या छोटी बात है । सबसे बङी खबर ये कि अब बेटा जिम्मेदार हो गया है । घर गृहस्थी की जिम्मेदारी समझने लगा है । कमा कर खाने लग गया है । मिलने चलते हैं, अगर आ गया तो साथ ही ले आएंगे,वरना देख सुन तो आएंगे ही । तुरंत सब लोग जाने की तैयारी में लग गये । दो संदूकचियों में कपङे भर लिए गये । रात को खाने के लिए रोटियाँ बना ली गयी । और ये लोग कुल जमा तीन घंटे में सब तैयार हो स्टेशन पहुँच गये । चार बजे जैसे ही गाङी प्लेटफारम पर लगी, गाङी में सवार हो गये । खचाखच भरी गाङी में फर्श पर चटाई बिछाने की जगह मिली तो सब लोग वहीं टेढे मेढे हो अधलेटे हो लिए । उधर सूरज की पहली किरण ने धरती के चरण स्पर्श किए, उधर रेलगाङी ने सहारनपुर शहर का प्लेटफार्म छुआ । इक्का तांगा उन्हें दालमंडी पुल पार करा कर मटियामहल की सङक पर मुङ गया । तब तक सङक पर चहल – पहल शुरु हो गयी थी । लोग हाथ में डोल लटकाए दूध लेने निकल पङे थे । औरतें गंगाजली और टोकरी में पान फूल जमाए मंदिर जा रही थी । जमादारिन सङक बुहारना खत्म कर आँचल से पसीना पौंछ रही थी । भिश्ती दोनों हाथों में मश्क लिए नालियों में पानी छोङ रहा था । शहर नींद से जाग उठा था । सवारियाँ आँख बिना झपकाए इतने बङे और पुराने शहर की भूलभुलैया जैसी गलियों का नजारा देख रही थी कि वाहक ने घोङे की रास खींची । झटका खा कर इक्का रुक गया । ठिकाना आ गया था ।

इक्के वाले को बोहनी का सवा रुपया थमा ये लोग उतरे । इक्के वाले की खुशी का ठिकाना न था । लोग तो तयशुदा भाङा देने में भी चिकचिक करते थे । यहाँ बिना मोल भाव किये बारह आने की बजाय सवा ऱूपया मिल गया । उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से मुकुंद को देखा तो वह हँस पङा – भई बोहनी का टैम है । ऊपर से पंजभीखी एकादशियों के दिन, रख ले बच्चों के लिए किलो - आधा किलो मिठाई ले जाना । कृतज्ञ भाव से हसन ने संदूक उठा लिए । साथ ही सांकल भी बजा दी । दरवाजा रवि ने ही खोला था । पूरे परिवार को एक साथ घर के बाहर देख वह आश्चर्य मिश्रित खुशी से भर गया । सब लोग भीतर आए । बेटा बहु ने दिल खोल स्वागत किया । पुरानी बातों को याद करने का कोई फायदा नहीं था तो किसी ने उनका जिक्र ही नहीं किया । नाश्ता करके सब लोग शहर देखने निकले । घंटाघर, नेहरु मार्कीट, नखास, जामा मस्जिद वाला कपङा बाजार, लालजी का बाङा सब घूमते घामते शाम हो गयी तो वे लौट पङे । वापसी पर समधन से मिलने मीरकोट गये । मंगला और सुरसती ने दूध का छन्ना भर भर सबको पिलाया तो सारी थकावट दूर हो गयी ।

अगले दिन ये सब लोग हरिद्वार नहान को गये । गाङी तब लक्सर होकर जाती थी । लक्सर में इंजन उतार कर आगे से पीछे लगा दिया जाता । इस सब में आधा पौना घंटा लग जाता । गाङी चलना शुरु करती तो लगता कि वापिस सहारनपुर जा रहे हैं । थोङी देर बाद ट्रेन अपना ट्रैक पकङ लेती तो लोग ईश्वर को धन्यवाद करते । हरिद्वार पहुँच कर सबने हर की पैङी जाकर गंगा में डुबकी लगाई । घाट के मंदिरों में माथा टेका और वापिस लौट पङे । रात की गाङी से वापिस लौटना जरुरी था । दोपहर होते न होते ये लोग क्वार्टर में लौट आए । आते ही रवि ने सामान की छँटाई करनी शुरु कर दी । जो सामान ले जाया जा सकता था, वह थैलों और गठ्ठरियों में समा गया । जो सामान काम आ सकता था उसे उस घर पहुँचा दिया गया । फालतू चीजें कबाङी को उठवा दी गयी । कुछ ही घंटों में सारा घर खाली हो गया । धम्मो मन ही मन रोती हुई चीजें संभलवा रही थी । घूँघट में कैद उसका चेहरा कोई देख पाता तो देखता, सारे जहान की पीङा और करुणा उसके चेहरे पर चस्पा हो गयी थी । एक एक चीज उसने बङे जतन से किफायत कर करके संजोयी थी और ये तो आरंभ था । यहाँ रहते तो उसने कितना कुछ और जोङ लेना था । थोङे से दिनों में इस जगह और यहाँ के लोगों से बहनापा हो गया था । अब सबको छोङकर कैसे जी पाएगी । पर वह बिना एक शब्द बोले या आँसू टपकाए साथ लगी रही । जब ये लोग निकले तो सारे सहकर्मी फूट फूट कर रो रहे थे । मालिक और उसकी पत्नि अपनी टमटम में बैठाकर खुद स्टेशन छोङने आए । सुबह जब ये लोग अपनी गली में पहुँचे, रास्ते में धाय माँ मिल गयी । मुकुंद ने दोनों हाथ जोङ राम राम बुलाई । दुरगी गले मिली । रवि और धम्मो अम्मा के पैर छूने के लिए झुके । आशीष देने के लिए उठी अम्मा जमाई की पारखी निगाह धर्मशीला के चेहरे और कपङों पर एकसाथ गयी तो वे चीख उठी – दुरगी तू अंधी है क्या बहु को जल्दी से घर ले के जा । कपङे बदलवा । मैं कुछ सामान ले कर पहुँचती हूँ । धर्मशीला के कपङे पूरी सलवार कमीज खून से तरबतर हुए पङे थे और चेहरा हल्दी जैसा पीला ।

दुरगी ने घर पहुँच अभी साँस भी नहीं लिया था कि अम्मा अपनी पोटली थामे आ पहुँची ।

बहु, नहाई धोई कब थी

धरमशीला संकोच से भर गयी – वो तो तीन महीने से ऊपर हो गये ।

हे राम तेरी तो सास और माँ दोनों बेवकूफ हैं । दिखाई नहीं देता था । ऐसी हालत में ऐसा लंबा सफर करवा दिया – उसने जाँच करते करते कहा ।

बाहर आकर उसने सारे परिवार को आङे हाथों लिया । चार महीने का शिशु गर्भपात में जा चुका था । परिवार के लोग भी सदमे में आ गये । तीन साल बाद बहु उम्मीद से थी और उन्होने अनजाने में इतनी बङी लापरवाही कर दी थी । पर अब क्या हो सकता था । जो होना था वह तो हो चुका था । धरमशीला पहले ही दुखी थी, इस खबर ने उसे और उदास कर दिया ।

अम्मा हमामजस्ता और खरल ले बैठी । कई जङी बूटियों पीस कर काढा बनाकर पिलाया । उसके बाद पंद्रह दिन अम्मा बिननागा आती,दवाइयाँ डाल कर बनाए तेल से मालिश करती । बातों से बहलाती । धर्मशीला की हालत सुधर रही थी । दो महीने में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गयी । पर चंचल हिरनी जैसी आँखों में उदासी घर कर गयी ।