हंसता क्यों है पागल - 6 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हंसता क्यों है पागल - 6

वैसे तो समीर का फ़ोन पिछले कई दिनों से ही आ रहा था, पर आज नई बात ये थी कि उसने पहली बार मुझसे वीडियो कॉल पर बात करने का अनुरोध किया। समीर से आप समझ गए होंगे कि मेरा वही छात्र जो कुछ दिन पहले मेरे पास रुक कर गया था और अब जल्दी ही फ़िर आने वाला था।
एक बार मैंने सोचा कि उससे कल दिन में बात करने के लिए कहूं, क्योंकि अब काफ़ी रात हो चुकी थी। लेकिन तभी मुझे ये एहसास भी हो गया कि समय क्या हुआ है, ये तो उसे भी मालूम है... अगर वो इसी समय बात करना चाहता है तो मुझे सुनना चाहिए। फ़िर भी मैंने एक बार कहा - वीडियो कॉल क्यों? कहो, तुम्हारी आवाज़ तो मैं सुन ही रहा हूं।
वो बोला - सर, बात कुछ लंबी है, और ज़रा सी अटपटी भी। इसलिए आपको देखते हुए बात करना चाहता हूं कि कहीं आप नाराज़ तो नहीं हो रहे!
- ओह! मैं हंसा।
उसने बोलना जारी रखा - करूं सर?
आप जानते ही हैं कि कॉलेज पास कर लेने के बाद लड़के अपने प्रोफ़ेसरों के दोस्त ही हो जाते हैं, कुछ देर बाद हम दोनों वीडियो कॉल पर आमने - सामने थे।
वो बोला - सर, मुंबई हाईकोर्ट ने तीन लड़कियों को महिला सुधारगृह से रिहा करने का आदेश दिया है।
- तो ये बात तुम मुझे आधी रात को वीडियो कॉल करके बता रहे हो? मैंने कुछ मुस्कुराते हुए कहा।
- सर, कोर्ट ने कहा है कि किसी भी बालिग महिला को अपना प्रोफ़ेशन चुनने का अधिकार है। वह कुछ उत्तेजना में आ गया था। वह बोला - अठारह साल से बड़ी किसी भी लड़की को उसकी सहमति के बिना लंबे समय तक सुधारगृह में नहीं रखा जा सकता।
अब मैं कुछ ऊबने लगा था, मैंने उससे कहा - क्या ये बात हम कल आराम से नहीं कर सकते? तुम्हें नींद नहीं आ रही तो अपनी परीक्षा के लिए कुछ पढ़ो।
वह बोला - सॉरी सर, मैंने आपको डिस्टर्ब कर दिया।
मैंने कहा - नहीं, डिस्टर्ब नहीं किया, पर ये चर्चा हम आराम से करेंगे। ये सब भी तो कोर्ट ने देखा होगा न, कि लड़कियों को क्यों पकड़ा गया था, उन पर चार्ज क्या था, उन्हें सुधारगृह में भेजा क्यों गया था...
- जी, जज साहब ने ये भी कहा है कि अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम का उद्देश्य देह व्यापार को खत्म करना नहीं है।
- बिल्कुल, इम्मोरल ट्रैफिकिंग एक्ट 1956 महिला और पुरुष दोनों को ही कुछ अधिकार भी तो देता है। ये मामला रनौत और राउत की तरह राजनैतिक नहीं है। मेरी नींद अब लगभग भाग चुकी थी। शायद इसी कारण आवाज़ में भी थोड़ी बुलंदी आ गई हो।
वह बोला - कोर्ट ने सुधार गृह से निकाल कर उनकी कस्टडी लड़कियों के माता - पिता को देने के लिए भी नहीं कहा। बल्कि यही आदेश दिया है कि लड़कियां ख़ुद तय कर सकती हैं कि वो कहां रहें और कौन सा पेशा चुनें।
- हां, देखो ये एक्ट किसी भी एडल्ट को सेक्स बिहेवियर से नहीं रोकता, केवल ये देखता है कि सेक्स व्यवहार का दुरुपयोग न किया जाए, जैसे कि धन या किसी अन्य लालच की पूर्ति के लिए इसका व्यावसायिक या कारोबारी उपयोग। और माता - पिता के पास भेजना तो वैसे भी अपेक्षित नहीं है क्योंकि हमारे यहां कुछ जातियों में माता- पिता ख़ुद अपनी मर्जी से अपनी संतान को इस पेशे में भेज देते हैं।
मैं बोलते हुए ये भी भुला बैठा था कि रात के इस पहर में मैं केवल एक पायजामा पहने हुए अपने छात्र से मुखातिब हूं और उधर बीस- इक्कीस वर्षीय छात्र तो केवल शॉर्ट्स में ही मेरी बात सुन रहा है।
पर अब मेरा ध्यान इस बात पर गया और मैंने उसे देखते हुए कहा - गुड, तुम लगभग सिक्स पैक तक पहुंच चुके हो।
वो कुछ शरमाया और नीचे अपने पेट की ओर देखता हुआ बोला - नहीं सर, अभी और कुछ दिन वर्क आउट्स लगेंगे। उसने शॉर्ट्स को थोड़ा खींचते हुए कहा।
- सर क्या आप जानते हैं कि ऐसी कौन सी जातियां हैं जो अपने बच्चों को परमिट करती हैं ये व्यापार? उसने सहज रूप से ही पूछा।
- बेड़िया हैं, और भी कुछ... मैंने जैसे बात को खत्म करने के अंदाज में कहा।
मेरी समय पर सोने और समय पर उठने की आदत शुरू से रही है इसलिए यदि एक बार सोने का सामान्य समय निकल जाए तो फिर नींद आसानी से नहीं आती।
चाहे कुछ भी टाइम हुआ हो, फ़िर मुझे हल्का- फुल्का सा कुछ पढ़ने के लिए उठाना ही पड़ता है। लेकिन इस वक्त मैं कोई किताब या पत्रिका पढ़ने के मूड में बिल्कुल नहीं था क्योंकि मैंने आज ही एक किताब "उस महल की सरगोशियां" पढ़ कर खत्म की थी।
लेकिन जागते हुए बिस्तर पर पड़े रहना तो और भी उलझन भरा था। न जाने क्या - क्या याद आ जाए और फिर साथ में किसी विद्वान की कही ये बात भी याद आ जाए कि आदमी आख़िरी वक्त में अपनी बीती ज़िन्दगी शिद्दत से याद करता है।
विद्वानों ने बड़ा नाक में दम किया है।
मैंने थोड़ी देर के लिए हल्की आवाज में टीवी खोल लिया।
एक पुरानी फ़िल्म आ रही थी "रिहाई"। ये हेमामालिनी और विनोद खन्ना की एक असरदार फ़िल्म थी।
फ़िल्म उन औरतों की ज़िन्दगी पर बात करती थी जिनके पति रोज़ी- रोटी कमाने के लिए महानगरों में चले जाते हैं और फ़िर काम व आर्थिक तंगी के चलते लंबे समय तक अपने परिवार के पास नहीं लौट पाते।
ऐसे में अकेले- अकेले ये पुरुष तो बाजारों में क्षणिक सुख ढूंढते हैं और उधर उनकी स्त्रियां बच्चों व बुजुर्गों को लेकर आर्थिक व शारीरिक दोराहे पर भटकती जीवन काटती हैं।
ओह, एक वो भी ज़माना था जब दो बजे तक कमरे की बत्ती जली देख कर माता - पिता का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता था। वे सोचते थे कि बच्चा मेहनत कर रहा है ज़रूर परीक्षा में कुछ अच्छा करेगा। और एक ये ज़माना कि नींद नहीं आ रही, फ़िल्म भी खत्म! पर सोना तो है।
कोई पूछे कि क्यों सोना है?
इसलिए कि फ़िर सुबह उठना है।
यदि सुबह उठा नहीं गया तो फ़िर डॉक्टर बतायेगा कि कहां गड़बड़ है... क्या- क्या नहीं खाना, क्या कम खाना है, क्या खूब खाओ!
और निश्चित रूप से जो खूब खाने को कहेगा वो ज़रूर कड़वा कसैला बेस्वाद सा होगा।
हुंह! ये ही तरक्की की है चिकित्सा विज्ञान ने?
क्या मुसीबत है!