चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 7 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 7

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(7)

डाउन में घर - 14 सितम्बर 1842 से लेकर वर्तमान 1876 तक

सर्रे और दूसरे स्थानों पर काफी खोजबीन के बाद हमें यह घर मिला और हमने खरीद भी लिया। चाक मिट्टी की बहुतायत वाले इलाके में पायी जाने वाली हरियाली चारों ओर थी, और मिडलैन्ड इलाके में जिस वातावरण का मैं आदी था, उससे अलग माहौल था, तो भी उस स्थान की अत्यधिक शान्ति और नैसर्गिकता से मैं अभिभूत था। जर्मन पत्रिकाओं ने मेरे घर के लिए लिखा था कि वहाँ केवल टट्टू ही पहुंच सकते थे, लेकिन मेरा घर इतने एकान्त और दुर्गम स्थान पर भी नहीं था। हम कितनी अच्छी जगह रह रहे थे इसका बेहतर जवाब हमारी संतानें दे सकती हैं, कि वहाँ बार-बार जाना और पहुंचना कितना आसान था।

जितने एकान्त में हम रह रहे थे, कुछ लोग उससे भी ज्यादा एकान्त में जीवन बिताते हैं। फिर भी अपने रिश्तेदारों के घर और समुद्र किनारे या फिर एकाध और जगह जाने के अलावा हम कहीं नहीं गए। यहां निवास के पहले दौर में हम थोड़ा-बहुत सोसायटी में जाते थे और कुछ दोस्तों को बुला लेते थे। मेरी सेहत खराब रहती थी, मुझे बार-बार दौरे पड़ते। भयंकर कंपकंपी होती और कई बार उल्टियां शुरू हो जाती थीं। इसलिए मैं कई बरस तक डिनर पार्टियों से दूर रहा, और इस तरह कई चीज़ों से वंचित भी रहा, क्योंकि ये पार्टियां मुझमें जोश भर देती थीं। इस कारण से मैं अपने घर पर भी बहुत कम वैज्ञानिक सभाएं करा सका।

सारी ज़िन्दगी मेरी खुशी का कारण और एकमात्र रोज़गार वैज्ञानिक लेखन ही रहा, और मैं ऐसे काम में कुछ इस तरह से डूबता था कि समय का भान ही नहीं रहता था। यही नहीं, मैं अपनी तकलीफ भी भूल जाता था। शेष बचे जीवन के लिए कुछ लिखने को नहीं, हां इतना ज़रूर है कि मेरी कुछ किताबों का प्रकाशन उल्लेखनीय है। मैं यह ज़रूर बताऊंगा कि मेरी कुछ किताबों की रूपरेखा कैसे बनी।

मेरे विभिन्न प्रकाशन : सन 1844 के पहले भाग में मेरे संस्मरण प्रकाशित हुए थे जो बीगल की यात्रा के दौरान देखे गए ज्वालामुखीय द्वीपों के बारे में थे। सन 1845 में काफी मेहनत करके मैंने जर्नल ऑफ रिसर्च के नए संस्करण का संशोधन किया। पहले यह 1839 में फिट्ज राय के लेखन के साथ प्रकाशित हो चुका था। मेरी इस प्रथम साहित्यिक कृति की सफलता मुझमें मेरी ही अन्य पुस्तकों के मुकाबले अधिक गर्व का संचार कर देती है। आज भी इंग्लैन्ड और संयुक्त राज्य अमरीका में इसकी काफी बिक्री होती है, और जर्मन में इसका दो बार अनुवाद तो हुआ ही, फ्रेन्च तथा अन्य भाषाओं में भी इसके अनुवाद प्रकाशित हुए। यात्रा वृत्तांत, खासकर वैज्ञानिक कोटि की पुस्तक के प्रथम प्रकाशन के इतने दिन बाद भी ऐसी बिक्री आश्चर्यजनक है। इंग्लैन्ड में दूसरे संस्करण की दस हजार प्रतियां बिक गयीं। सन 1846 में मेरी कृति जिओलॉजिकल आब्जर्वेशन्स ऑन साउथ अमेरिका प्रकाशित हुई। मैं हमेशा एक डायरी लिखता था और उसमें यह दर्ज है कि मेरी तीनों जिओलॉजिकल पुस्तकों (कोरल रीफ्स् सहित) में साढ़े चार बरस की मेहनत लगी; और इंग्लैन्ड लौटे हुए मुझे दस बरस हो चुके हैं। कितना ही समय मैंने बीमारी में गंवाया। इन तीनों किताबों के बारे में मुझे और कुछ नहीं कहना। हां, इनमें से एक का नया संस्करण आ रहा है, इसकी हैरानी जरूर है।

अक्तूबर 1846 में मैं `सिरीपेडिया' (जलयान की तली में चिपके रहने वाले घोंघे) पर काम कर रहा था। चिली के समुद्र तट पर मुझे इसकी बड़ी ही अजीब किस्म मिली। यह कान्कोलेपास के खोल में घुसा हुआ था, और यह दूसरे `सिरीपेडिया' से इतना अलग था कि मुझे इसके लिए नया अनुक्रम बनाना पड़ा। बाद में पुर्तगाल के समुद्र तटों पर भी इसी प्रकार के समवर्गी शंख मिले। इस नए घोंघे की संरचना को समझने के लिए मुझे कई सामान्य प्रकार के घोंघों की चीरफाड़ करनी पड़ी और इससे मैंने क्रमश: एक नया समूह ही बना डाला। आने वाले आठ बरस तक मैं इसी विषय पर जी जान से जुटा रहा और अन्तत: दो मोटे खंड प्रकाशित कराए, जिनमें सभी जीवित प्रजातियों का विवरण था और दो छोटे प्रकाशन विलुप्त प्रजातियों के बारे में थे। मुझे संदेह नहीं कि सर ई लेट्टन बुलवर ने अपने एक उपन्यास में जिस प्रोफेसर लाँग का जिक्र किया है, वह मैं ही हूं। उपन्यास का प्रोफेसर भी चिपकू घोंघों के बारे में पुस्तकों के दो खंड लिखता है।

हालांकि मैं इस काम पर आठ बरस तक लगा रहा, लेकिन डायरी में मैंने बताया है कि दो बरस तो बीमारी की भेंट चढ़ गए। बीमारी के ही चलते मैंने 1848 में कुछ माह के लिए मेलवर्न में जाकर जल चिकित्सा से इलाज कराया, जिससे मुझे काफी फायदा भी हुआ। इसके बाद घर लौटते ही मैंने काम संभाल लिया। मेरी सेहत इतनी खराब थी कि 13 नवम्बर 1848 को पिताजी का देहान्त होने पर उनको दफनाने या बाद में वसीयत का हक लेने भी नहीं जा सका।

मैं समझता हूं कि सिरीपेडिया' के बारे में मैंने जो अध्ययन किया वह काफी मूल्यवान है, क्योंकि इसमें इस घोंघे के विभिन्न अंगों की सजातीयता का उल्लेख है - मैंने घोंघे के खोल बनाने वाले अंगों को खोजा, हालांकि खोल बनाने वाली ग्रन्थियों के बारे में मैंने बहुत बड़ी गलती की थी, और अन्तत: मैंने सिद्ध किया था कि घोंघों की कुछ नस्लों में सूक्ष्म नरों की विद्यमानता उभयलिंगियों की अनुपूरक और उन पर परजीवी होती है। मेरी अंतिम खोज की पूरी तरह से पुष्टि हो चुकी है, हालांकि एक समय ऐसा भी था जब एक जर्मन लेखक ने इस समूची खोज के बारे में कहा था कि यह सब मेरी कल्पना का विलास है। इस घोंघे की इतनी ज्यादा और अलग-अलग प्रजातियां हैं कि सभी का वर्गीकरण करना बहुत कठिन है। मेरा यह काम उस समय मेरे बहुत काम आया जब मैंने `ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज' में प्राकृतिक वर्गीकरण पर विचार विमर्श प्रस्तुत किया। इस सबके बावजूद मुझे संदेह है कि इस काम में क्या इतना समय लगाना ठीक रहा।

सितम्बर 1854 से मैंने अपना सारा समय अपने नोट्स के ढेर को व्यवस्थित करने में लगाया, साथ ही जीव-प्रजातियों की काया पलट के बारे में भी मैंने ध्यान दिया और कुछ प्रयोग भी किए। बीगल की यात्रा के दौरान मैंने पेम्पीयन संघटना के जीवाश्म खोजे थे, जो इस समय पाए जाने वाले आर्माडिलोस की भांति कठोर खाल से ढंके होते थे; दूसरी बात यह कि उसी महाद्वीप पर जैसे जैसे हम दक्षिण की ओर बढ़े तो बड़ी ही निकट सजातीयता वाले जीव एक दूसरे का प्रतिस्थापन करते दिखाई दिए। और तीसरी बात यह कि दक्षिण अमरीकी लक्षणों के मुताबिक गेलापेगोस द्वीप समूह के अधिकांश जीव जन्तु अलग ही थे। यही नहीं, प्रत्येक द्वीप पर वे अपने ही समूह के जीवों से थोड़ा-सा अलग थे; जबकि इनमें भूवैज्ञानिक दृष्टि से कोई भी द्वीप बहुत प्राचीन नहीं था।

यह तो स्पष्ट ही एक प्रकार के और इसी तरह के अन्य तथ्यों की व्याख्या केवल इसी प्रत्याशा के आधार पर की जा सकती है कि जीव प्रजातियां धीरे धीरे बदलती चली जाती हैं और फिर इसी विषय ने मुझे विचलित किया। लेकिन साथ-साथ यह भी स्पष्ट था कि प्रत्येक प्रकार का जीव अपने जीवन की परिस्थितियों के प्रति बड़े ही सुन्दर ढंग से अनुकूलित होता है। ऐसे असंख्य मामले दिखाई देंगे, लेकिन इसमें परिस्थितियों या जीव की इच्छा (खासकर पौधों के बारे में) का कोई योगदान नहीं होता है - उदाहरण के लिए कठफोड़वा या पेड़ पर चढ़ने वाले मेंढक या कांटों या पिच्छपर्ण की सहायता से दूर-दूर तक पहुंचने वाले बीज। मैं इस प्रकार की अनुकूलताओं से हमेशा ही प्रभावित हुआ और मुझे लगता है कि जब तक इनकी व्याख्या नहीं हो जाती है अप्रत्यक्ष प्रमाणों से यह सिद्ध करना कि जीव प्रजातियों में परिवर्तन हुए हैं - निरर्थक प्रयास ही कहा जाएगा।

इंग्लैन्ड लौटने के बाद मुझे यह लगा कि भूविज्ञान में लेयेल के उदाहरण का अनुसरण करने और घरेलू या प्राकृतिक वातावरण में जीव जन्तुओं और पेड़ पौधों में बदलाव के बारे में जरा-सा भी सम्बन्ध रखने वाले सभी तथ्यों का संग्रह करने के बाद ही समूचे विषय पर शायद कुछ रोशनी पड़ सके। मेरी पहली नोट बुक जुलाई 1837 में शुरू हुई। मैंने पूरी तरह से बेकोनियन सिद्धान्तों पर कार्य करना शुरू किया और बिना किसी नियम को अपनाए बड़े पैमाने पर तथ्यों का संग्रह करता रहा। इसमें मैंने पालतू पशुओं में प्रजनन पर अधिक ध्यान दिया। इसके लिए मुद्रित पूछताछ सामग्री एकत्र करता था। कुशल प्रजनन कराने वालों और मालियों से बातचीत करता और खूब पढ़ता था। जिन किताबों को मैंने पढ़ा और उनमें से तथ्यों का संग्रह किया, उनकी सूची और जर्नलों तथा ट्रंजक्शन्स की समूची श्रृंखला पर नज़र डालता हूं तो अपनी मेहनत पर मुझे भी आश्चर्य होता है। जल्द ही मुझे यह आभास हो गया कि जानवरों और पौधों की उपयोगी नस्ल तैयार करने में मानव की सफलता की महत्त्वपूर्ण कुंजी है प्रजातियों का सही चयन। लेकिन प्रजातियों का यह चयन प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले जीव जन्तुओं में किस तरह होता होगा - कुछ समय तक यह तथ्य मेरे लिए रहस्य बना रहा।

मैंने पन्द्रह महीने बाद अक्तूबर 1838 में सूत्रबद्ध रूप से पूछताछ शुरू की। मैंने मनोरंजन के लिए माल्थस लिखित `दि पॉपुलेशन ' भी पढ़ा और जीव जन्तुओं तथा पौधों की आदतों पर लम्बे समय से लगातार ध्यान देते हुए ज़िन्दा रहने के संघर्ष की प्रशंसा भी करने लगा। इसी बीच मुझे अचानक ख्याल आया कि इन परिस्थितियों में अनुकूल विभेदों को संरक्षित करने और प्रतिकूल को नष्ट करने की प्रवृत्ति रहती है। इसके परिणामस्वरूप नई नस्ल का जन्म होता है। यहां आकर मुझे एक नियम मिला जिसके अनुसार मैं काम कर सकता था, लेकिन साथ ही मैं पूर्वाग्रहों से बचना चाहता था, इसलिए मैंने यह भी फैसला किया कि कुछ समय तक इसके बारे में लेशमात्र भी नहीं लिखूंगा। जून 1842 में मैंने अपने सिद्धान्तों का सारांश लिखने की शुरूआत की और लगभग 35 पृष्ठ पेन्सिल से लिखे; और 1844 की गरमियों तक मैंने 230 पृष्ठ लिख लिए। इसके बाद मैंने इनकी साफ साफ नकल तैयार की जो अभी तक मेरे पास है।

लेकिन उस समय मैंने एक महत्त्वपूर्ण समस्या की अनदेखी कर दी थी, और यह मेरे लिए अचरज की बात है, क्योंकि कोलम्बस और उसके अण्डे की कहानी वाली बात अलग थी, यहां मैंने अपनी समस्या और उसके समाधान दोनों की ही अनदेखी कर दी थी। समस्या यह थी कि जैसे जैसे संपरिवर्तन होता है तो एक ही वंशमूल के जीवों के लक्षणों में अन्तर आना शुरू हो जाता है। वे बड़े ही विशाल स्तर पर बंटते चले गए हैं। यह विभाजन इस रीति में भी प्रकट हो जाता है जिसके अनुसार सभी नस्लों को प्रजातियों, प्रजातियों को परिवारों, परिवारों को उप विभाजनों और इसी प्रकार आगे वर्गीकृत कर दिया गया है। मैं सड़क पर आज भी उस स्थान को भूला नहीं हूं, जहां पर मैं अपनी टमटम में बैठा था और अचानक ही मुझे इसका समाधान सूझ गया। यह बात डाउन आने के काफी बाद की है। मेरे मतानुसार समाधान यही है कि प्रकृति की गृहस्थी में सभी प्रमुख और वृद्धिशील नस्लों की संपरिवर्तित संततियां अनेक और अत्यधिक विभेदित स्थानों के अनुसार अपने आपको ढालती जाती हैं।

सन 1856 के प्रारम्भ में ही लेयेल ने मुझे सलाह दी कि मैं अपने दृष्टिकोण को विस्तारपूर्वक लिख डालूं, और मैंने तुरन्त ही तीन या चार गुणा बड़े पैमाने पर लेखन शुरू कर दिया जो मेरी पुस्तक दि ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज में भी दिखाई देगा। तो भी जितनी सामग्री मैंने बटोरी थी, उसका सारांश था इसमें। और इस रूप में मैं केवल आधा कार्य ही प्रस्तुत कर पाया। लेकिन मेरी योजना धरी रह गयी क्योंकि 1858 की गर्मियों की शुरुआत में ही मलय द्वीप समूह से मिस्टर वैलेस ने `आन दि टेन्डेन्सी ऑफ वैरायटीज टू डिपार्ट इन्डैफिनेटली फ्रॉम दि ऑरिजनल टाइप,' विषय पर एक निबन्ध भेजा। इस निबन्ध में वही सिद्धान्त थे जिनकी मैंने रूपरेखा बनायी थी। मिस्टर वैलेस ने लिखा था कि यदि मैं उनके निबन्ध को सही समझूं तो लेयेल के अवलोकन हेतु भिजवा दूं।

मैंने जर्नल ऑफ दि प्रोसीडिंग्स ऑफ दि लिन्नेयन सोसायटी, 1858, पृष्ठ 145 पर उन परिस्थितियों का जिक्र किया है, जिनके कारण मैंने लेयेल और हूकर के इस अनुरोध को माना था कि मैं अपने संस्मरण वृत्तांत को 5 सितम्बर 1857 को एसा ग्रे के पत्र सहित भेजूं और वे भी वैलेस के निबन्ध के साथ ही छपें। पहले तो मैं सहमति देने का इच्छुक ही नहीं था, मुझे लग रहा था कि मिस्टर वैलेस मेरे इस काम को अन्यायपूर्ण मानेंगे, क्योंकि मैं नहीं जानता था कि उनकी मनोवृत्ति कितनी उदार और दयालुतापूर्ण है। मेरे संस्मरण वृत्तांत और एसा ग्रे को लिखा पत्र दोनों ही को छपवाने का अभिप्राय तो था ही नहीं, और ये बहुत बेकार ढंग से लिखे हुए भी थे। दूसरी ओर मिस्टर वैलेस का निबन्ध बेहतरीन अभिव्यक्ति और स्पष्टता के साथ लिखा हुआ था। इसके बावजूद हमारे संयुक्त प्रकाशन ने बहुत कम लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इसके बारे में डबलिन के प्रोफेसर हॉटन ने ही एकमात्र समीक्षा प्रकाशित करायी थी, और कुल मिलाकर उनका फैसला यही था कि उन आलेखों में जो कुछ नया था वह असत्य था और जो कुछ सत्य था वह पुराना था। इससे यही सिद्ध होता है कि किसी भी नए दृष्टिकोण की व्याख्या काफी विशद होनी चाहिए ताकि उस पर लोगों का ध्यान भी जाए।

लेयेल और हूकर के काफी कहने पर सितम्बर 1858 में मैंने जीव प्रजातियों में तत्त्व परिवर्तन पर एक पुस्तक लिखने की तैयारी की। लेकिन सेहत ने बीच बीच में धोखा दिया। इस कारण मुझे मूर पार्क स्थित डॉक्टर लेन के सुन्दर जल चिकित्सा केन्द्र में भी जाना पड़ा। मैंने अपने वृत्तांत को 1856 में बड़े पैमाने पर शुरू किया था और अपनी पुस्तक को कुछ छोटा आकार देते हुए पूरा कर लिया। इसमें मुझे तेरह महीने और दस दिन मेहनत करनी पड़ी। नवम्बर 1859 में इसका प्रकाशन दि ऑरिजन ऑफ स्पीशेज के नाम से हुआ। यद्यपि बाद के संस्करणों में इसमें काफी कुछ जुड़ता गया और संशोधन भी हुए लेकिन पुस्तक का मूलरूप बरकरार रहा।

नि:सन्देह यह मेरे जीवन का प्रमुख कार्य रहा। यह पुस्तक प्रारम्भ से ही सफल रही। पहले संस्करण में छपी सभी 1250 प्रतियाँ पहले ही दिन बिक गयीं। इसके बाद जल्द ही दूसरे संस्करण की 3000 प्रतियाँ भी बिक गयीं। अब तक (1876) तक इंग्लैन्ड में इसकी सोलह हजार प्रतियाँ बिक चुकी हैं, और पुस्तक की जटिलता को देखते हुए यह संख्या काफी बड़ी है। इसका अनुवाद यूरोप की लगभग सभी जुबानों में हुआ, और स्पैनिश, बोहेमियन, पोलिश तथा रूसी भाषाओं में भी यह पुस्तक छपी। मिस बर्ड का कहना था कि इसका अनुवाद जापानी में हुआ और वहां भी काफी पढ़ी गयी। यही नहीं, हिब्रू भाषा में भी एक निबन्ध प्रकाशित हुआ, जिसमें यह कहा गया था कि यह सिद्धान्त तो ओल्ड टेस्टामेन्ट में भी है। इसकी समीक्षा भी जम कर हुई। ऐसा मुझे इसलिए मालूम है कि दि ऑरिजिन और मेरी अन्य किताबों के बारे में जो समीक्षाएं प्रकाशित होती थीं, उनको मैं एकत्र कर लेता था। कुल समीक्षाओं की संख्या (अखबारों में छपी समीक्षाएं शामिल नहीं) 265 थी। बाद में मैंने यह काम छोड़ दिया, क्योंकि इसका कोई उपयोग लग नहीं रहा था। इस विषय पर अलग से अनेक निबन्ध और पुस्तकें भी छपीं, और जर्मनी में प्रतिवर्ष या हर दूसरे वर्ष डार्विनवाद पर पुस्तक या ग्रन्थसूची प्रकाशित होती थी।

मेरा विचार है कि दि ऑरिजन की सफलता का श्रेय काफी हद तक दो संक्षिप्त रूपरेखाओं को जाता है जो मैंने काफी पहले लिखीं थी। और उसके बाद काफी बड़ी तैयारी के साथ लिखी पाण्डुलिपि को जाता है, जो अपने आप में सारांश थी। इन उपायों से मैं अधिक प्रबल तथ्यों और निष्कर्षों का चयन करने लायक बना। विगत कई वर्ष तक मैंने एक स्वर्णिम नियम अपनाए रखा - वह यह कि जब भी मैं अपना कोई तथ्य प्रकाशित करता और जैसे ही कोई ऐसा विचार मेरे मन में आता जो उस सामान्य परिणाम का विरोधी होता तो मैं बिला नागा फौरन ही उसे याददाश्त के लिए लिख लेता था, क्योंकि अपने अनुभव से मैंने जाना था कि विरोधी तथ्य और विचार याददाश्त में से जल्दी निकल जाते हैं। इस आदत के चलते मेरे दृष्टिकोणों के विरोध में बहुत कम आपत्तियाँ हुई जिन पर मैंने ध्यान न दिया हो या जिनका उत्तर न दिया हो।

कई बार यह कहा जाता है कि दि ऑरिजिन की सफलता से यह सिद्ध हो जाता है कि, `इस विषय पर काफी कानाफूसी हुई,' या `लोगों का मन इसके लिए तैयार किया गया था।' लेकिन मैं इसे पूर्ण सत्य नहीं मानता, क्योंकि मैंने किसी भी मौके पर एक भी प्रकृतिवादी को इसकी भनक नहीं लगने दी, और किसी ऐसे व्यक्ति से मेरी भेंट भी नहीं हुई जो नस्लों के स्थायित्व के बारे में तनिक भी संदेह करता रहा हो। यहां तक कि लेयेल और हूकर जो बड़े मनोयोग से मेरी बातें सुनते थे, भी सहमत प्रतीत नहीं हुए। मैंने एकाध बार कुछ लायक लोगों को यह व्याख्या बताने का प्रयास भी किया कि प्राकृतिक चयन से मेरा आशय क्या है, लेकिन मैं असफल ही रहा। हाँ, मैं जो पूर्ण सत्य मानता हूं वह यह था कि सभी प्रकृतिवादियों के मन में सुविचारित तथ्यों की भरमार थी, और जैसे ही उन्हें पर्याप्त व्याख्या के साथ नियम मिला तो उनके असंख्य विचारों को एक दिशा मिल गयी। इस पुस्तक की सफलता का एक अन्य तत्त्व भी था - इसका सामान्य आकार, और मैं इसका श्रेय देता हूँ डॉक्टर वैलेस के निबन्ध को। यदि मैंने पुस्तक का आकार वही रखा होता जिस पर मैंने 1856 में लिखना शुरू किया था, तो यह ऑरिजिन जितनी बड़ी होती और बहुत कम लोगों में इसे पूरा पढ़ने का धीरज होता।

मेरी एक किताब की रूपरेखा 1839 से ही चल रही थी, लेकिन इसका प्रकाशन 1859 में हो पाया। इस देरी से मुझे भी फायदा ही हुआ, क्योंकि इतने समय में सिद्धान्त और भी स्पष्ट हो गया। इससे मुझे कुछ नहीं खोना पड़ा बल्कि इसमें कुछ लोगों ने मेरे या वैलेस के सिद्धान्तों में मूलरूप से योगदान ही दिया। वैलेस के निबन्ध ने तो मुझे इस सिद्धान्त को अपनाने करने में भी मदद की। मैंने केवल एक ही महत्त्वपूर्ण तथ्य के बारे में पूर्वानुमान लगाया था, जिसके लिए मेरा अन्तर्मन मुझे धिक्कारता भी रहा। वह तथ्य था दूरवर्ती पर्वत शिखरों और आर्कटिक प्रदेशों में एक ही नस्ल के पौधों और कुछ पशुओं की मौजूदगी हिमनद-काल के कारण है। इस दृष्टिकोण ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैंने इस पर विस्तारपूर्वक लिखा। मुझे यकीन है कि इस विषय पर ई फोर्ब्स के प्रसिद्ध संस्मरण प्रकाशित होने से काफी पहले ही हूकर मेरा लेख पढ़ चुके थे। मैं कुछ मुद्दों पर असहमत था, लेकिन मुझे लगता है कि मैं सही था। बेशक मैंने मुद्रित रूप में यह इशारा कभी नहीं किया कि मैंने इस दृष्टिकोण को स्वतंत्र रूप से पोषित किया था।

दुनिया में कुछ नस्लें ऐसी हैं, जिनके वयस्कों और उन्हीं के भ्रूणों में काफी अन्तर होता है, और एक ही वर्ग के अलग अलग पशुओं के भ्रूणों में काफी समानता रहती है - इस स्पष्टीकरण ने मुझे इतना संतोष दिया, जितना अन्य किसी तथ्य ने नहीं दिया था - उस समय मैं द ओरिजिन पर काम कर रहा था। जहाँ तक मैं समझता हूँ द ओरिजिन की किसी भी समीक्षा में इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया गया था। मैंने एसा ग्रे को लिखे पत्र में इस बारे में हैरानी भी जाहिर की थी। कुछ ही वर्ष में विभिन्न समीक्षकों ने इसका पूरा श्रेय फिट्ज म्यूलेर और हेकेल को दिया, नि:सन्देह यही कार्य उन दोनों ने मेरी तुलना में अधिक व्यापक और सही रूप में किया था। इस बारे में पूरा अध्याय लिखने के लायक सामग्री मेरे पास थी, और मैंने विचारों को थोड़ा और विस्तार दिया होता तो बेहतर रहता। लेकिन यह तो स्पष्ट था कि मैं अपने पाठक को प्रभावित करने में असफल रहा और जो ऐसा करने में सफल हुआ, मेरे मतानुसार निश्चय ही श्रेय पाने का हकदार है।