चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 8 Suraj Prakash द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 8

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(8)

मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि मेरे समीक्षकों ने मेरे कार्य को ईमानदारी से से जांचा परखा। इनमें वे पाठक शामिल नहीं हैं जिन्हें वैज्ञानिक ज्ञान नहीं था। मेरे विचारों को बहुधा पूरी तरह से गलत तरीके से पेश किया गया। बड़े ही तीव्र विरोध हुए और मज़ाक तक उड़ाया गया, लेकिन मैं समझता हूँ कि यह सामान्यतया सद्भावना से किया गया। कुल मिलाकर मुझे इसमें सन्देह नहीं कि मेरे कार्यों की तो कई बार ज़रूरत से ज्यादा तारीफ हुई। मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि मैं कभी विवादों में नहीं पड़ा और इसका श्रेय लेयेल को जाता है, जिसने मेरे भूवैज्ञानिक लेखन के बारे में मुझे सख्त हिदायत दी थी कि कभी विवादों में मत पड़ो। इससे लाभ तो कुछ होता नहीं उल्टे समय और स्वभाव दोनों बिग़ड़ते हैं।

जब कभी भी मुझे लगा कि मैंने गलती की या मेरा काम दोषपूर्ण रहा, और जब भी बड़े ही अनादरपूर्वक मेरी आलोचना हुई या जब कभी अत्यधिक तारीफ के वशीभूत हुआ तो मैं अपने आप से बार-बार यही कह कर खुद को तसल्ली दे लेता कि मैं जितनी मेहनत कर सकता था, मैंने की, जितनी शुद्धता ला सकता था, लाया, और दूसरा कोई भी इससे बेहतर नहीं कर सकता।' मुझे याद है जब गुड सक्सेस बे में, टियेरा डेल फ्यूगो में जब मैं सोच रहा था (मुझे याद है कि इसके बारे में घर पर खत भी भेजा था) कि प्राकृतिक विज्ञान में थोड़ा-सा योगदान करने से बढ़ कर मेरे जीवन का दूसरा उपयोग क्या हो सकता था। मैंने अपनी लियाकत के मुताबिक सर्वश्रेष्ठ किया। आलोचक जो चाहें कहते रहें, लेकिन वे इस दृढ़ विश्वास को नष्ट नहीं कर सकते।

सन 1859 के आखिरी दो महीनों में दि ओरिजिन के दूसरे संस्करण की तैयारी कर रहा था और साथ ही प्राप्त हुए खतों के विशाल ढेर को भी निपटा रहा था। पहली जनवरी 1860 को मैं अपने आलेखों को व्यवस्थित करके घरेलू वातावरण में पशुओं और पौधों में बदलाव के बारे में वेरिएशनस ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्टस अन्डर डोमेस्टिकेशन शीर्षक से लेखन की तैयार कर रहा था। लेकिन यह काम 1868 की शुरूआत में ही प्रकाशित हो पाया। इस देरी का कुछ कारण मेरी बार बार की बीमारी रही। एक बार तो मैं पूरे सात महीने बीमार रहा। इसका कुछ कारण यह भी रहा कि मुझे उस समय कुछ अन्य विषयों में रुचि हुई और मैं उन्हीं पर कुछ लिखने और प्रकाशित कराने को लालायित हो उठा।

सन 1862 में 15 मई को शतावरी में निषेचन प्रक्रिया के बारे में मेरी छोटी सी पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था - फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड । इस पुस्तक में मेरी दस माह की मेहनत लगी थी। इसके अधिकांश तथ्यों का संग्रह विगत कई बरसों में हुआ था। सन 1839 में ग्रीष्मऋतु के दौरान, और पिछली गर्मियों में मैंने कीट पतंगों द्वारा फूलों के संकर परागण पर ध्यान दिया था। इससे मैंने तो यही नतीजा निकाला था कि इस प्रकार का परागण विशिष्ट प्रकारों को स्थायी बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके बाद प्रत्येक ग्रीष्मऋतु में मैं कमोबेश इसी काम पर लगा रहा। यही नहीं राबर्ट ब्राउन की सलाह पर मैंने सी के स्प्रेन्गेल की उत्कृष्ट पुस्तक दास एन्टडेक्टे गेहीम्निस डेर नेचुर मंगवा कर पढ़ी। इस पुस्तक को पढ़ कर मैं अपने इस काम में दूनी लगन से जुट गया। सन 1862 से पहले मैंने कुछ वर्ष तक अपने इस ब्रिटिश आर्चिड के परागण का अध्ययन किया था। इससे मुझे लगा कि मैं पौधों के समूहों पर बेहतर से बेहतर लेख तैयार करूं, बजाये इसके कि अन्य पौधों के बारे में धीरे-धीरे तथ्य बटोर कर उनके ढेर का प्रयोग करूँ।

मेरा संकल्प बुद्धिमानीपूर्ण सिद्ध हुआ, क्योंकि मेरी पुस्तक प्रकाशित होने के बाद से सभी प्रकार के फूलों में परागण विधि के बारे में लेखों और शोध प्रबन्धों का तांता-सा लग गया। यह मानना पड़ेगा कि ये सभी मेरे कार्य की तुलना में काफी बेहतर थे। बेचारे स्पेन्गेल का जो काम काफी समय तक बेनामी के गर्त में पड़ा था, उसकी मृत्यु के कई वर्ष बाद अचानक ही सर्वमान्य हो गया।

इसी बरस मैंने दि जर्नल ऑफ दि लिन्नेयन सोसायटी में एक आलेख प्रकाशित कराया जिसका शीर्षक था आन दि टू फार्म्स ऑफ डायमोर्फिक कन्डीशन ऑफ दि प्रिमुला । इसके बाद आगामी पाँच वर्ष में उभयरूपी और त्रिरूपी पौधों पर पाँच अन्य आलेख प्रकाशित हुए। इन पौधों की संरचना का आशय निरूपित करने में मुझे जितना संतोष मिला, पूरे जीवन में किसी वैज्ञानिक कार्य से नहीं मिला। सन 1838 या 1839 की बात है, जब मैंने अलसी की उभयरूपता पर ध्यान दिया। पहली बार तो मैंने सोचा कि यह मात्र असंगत अस्थिरता का मामला है, लेकिन प्राइमुला की सामान्य नस्लों की जाँच करने के बाद मैंने पाया कि इसकी दो किस्में अधिक नियमितता और निरन्तरता लिए हुए थी। इसलिए मैं लगभग यकीन कर चुका था कि सामान्यतया पाए जाने वाले पीत सेवली और बसंत गुलाब दोनों ही ऐसे पौधे हैं जिनके नर और मादा फूल अलग अलग लगते हैं - यह भी कि एक किस्म में छोटे स्‍तर केसर और दूसरी किस्म में छोटे पुंकेसर अवर्धन की ओर अग्रसर थे। इसलिए इन दोनों पौधों को इसी दृष्टिकोण के तहत परखा गया; लेकिन जैसे ही छोटे स्‍तर केसर वाले फूलों में परागण के बाद प्रजनन हुआ तो उनसे अधिक बीज प्राप्त हुए। इतने बीज अन्य चार सम्भव परागणों में से किसी में भी नहीं मिले, लेकिन अवर्धन का यह सिद्धान्त एक सिरे से ही खारिज कर दिया गया। इसके बाद किए गए कुछ और प्रयोगों से यह प्रमाणित हो गया कि इसकी दोनों ही किस्मों में साफ तौर पर उभयलिंगी गुण थे। इसके बावजूद इनमें आपस में वैसे ही परागण होते थे जैसे सामान्य पशुओं के नर और मादा में संसर्ग होता है। रक्त कुसुम (लायथ्रम) के साथ प्रयोग तो और भी रोचक रहे। इसकी तीनों किस्मों में एक दूसरे का संयोग स्पष्ट था। बाद में मैंने पाया कि एक ही किस्म के दो पौधों के संयोग से होने वाली संतति भी संवृत और प्रबल सादृश्यता रखती है। यह सादृश्यता दो अलग अलग प्रजातियों के पौधों के संयोग से उत्पन्न संकर किस्मों जैसी ही होती है।

सन 1864 की शरद ऋतु में मैंने लताओं के बारे में एक विशद लेख लिखा जिसका शीर्षक था - क्लाइम्बिंग प्लान्ट्स। यह लेख प्रकाशन के लिए लेन्नियन सोसायटी को भिजवा दिया। इस आलेख के लेखन में चार माह लगे, लेकिन जब इसका प्रूफ मुझे मिला तो मेरी सेहत इतनी खराब थी कि मैं इसे ठीक नहीं कर पाया और कुछ गूढ़ बातों को सही तौर से समझा भी नहीं सका। इस आलेख पर कम ही लोगों का ध्यान गया, लेकिन 1875 में जब इसी को संशोधित रूप में प्रकाशित कराया तो इसकी खूब बिक्री हुई। इस विषय की ओर मेरा रुझान एसा ग्रे के लेख को पढ़ कर हुआ था। यह लेख 1858 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने मुझे बीज भेजे और कुछ पौधे उगाने के बाद मैं पौधे के तने और लता तन्तुओं की घुमावदार बढ़ोतरी देखकर हैरान परेशान हो गया। यह बढ़ोतरी पहली नज़र में तो काफी जटिल प्रतीत हुई लेकिन वास्तव में काफी सरल थी। इसके बाद ही मैंने बहुत सी लताओं के पौधे लगाए और उनका अध्ययन किया। हेन्सलो ने अपने व्याख्यानों में जुड़वां बनते जाने वाले पौधों के बारे में जो व्याख्या दी थी उससे असन्तुष्ट हो कर मैं इस विषय की ओर और भी आकर्षित हुआ। उन्होंने कहा था कि इन पौधों की कोंपलों में ऊपर की ओर बढ़ने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की लताओं में भी अनुकूलन की प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार रोचक हैं, जिस प्रकार की प्रवृत्ति शतावरी में संकर परागण के दौरान दिखाई देती है।

वेरिएशन ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्ट अन्डर डोमेस्टिकेशन शीर्ष से मेरी पुस्तक की शुरुआत 1860 में ही हो चुकी थी, लेकिन इसके प्रकाशन का कार्य 1868 के शुरू में ही हो पाया। यह बहुत ही बड़ी पुस्तक थी। इसके लेखन में मुझे चार बरस और दो माह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी। हमारे घरेलू वातावरण में जीव जन्तुओं और पौधों के परागण के बारे में विभिन्न स्रोतों से बटोरे गए तथ्यों को इस पुस्तक में मैंने विस्तार से प्रस्तुत किया है। पुस्तक के दूसरे खण्ड में परिवर्तनों के नियमों और कारणों, वंशानुक्रम आदि पर विचार किया गया है। हाँ, इतना अवश्य है कि इस विचार विमर्श का दायरा उस समय उपलब्ध जानकारी के भीतर ही रहा। पुस्तक के अन्त में मैंने पेग्नेसिस के बारे में अपनी तथाकथित बदनाम परिकल्पना का जिक्र किया है। यह देखते हुए कि अप्रमाणित परिकल्पनाओं का कम या कोई मूल्य नहीं होता है, लेकिन इतना ज़रूर है कि यदि इन परिकल्पनाओं से प्रभावित होकर कोई भी व्यक्ति इन पर शोध कार्य करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है और इन्हें प्रमाणित करता है, तो मैं समझता हूँ कि मैंने अच्छा कार्य किया है। इस तरीके से बहुत सारे प्रछन्न तथ्यों को आपस में जोड़ते हुए उन्हें बुद्धिपरक रूप दिया जा सकता है। सन 1875 में इसका दूसरा और काफी संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसमें मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी।

फरवरी 1871 में डीसेन्ट ऑफ मैन का प्रकाशन हुआ। सन 1837 या 1838 में मुझे यह आभास हुआ कि सभी प्रजातियों में विकार होते रहते हैं, तो इस नियम में मानव का भी तो समावेश होगा। बस इसी आधार पर मैंने अपने संतोष के लिए इस विषय पर तथ्यों का संकलन शुरू कर दिया, काफी समय तक इसे प्रकाशित कराने का मेरा कोई इरादा नहीं था। हालांकि द ओरिजिन ऑफ स्पीशेज में किसी प्रजाति विशेष के मूल उद्भव पर विचार नहीं किया गया है, तो भी मैंने यह उचित समझा कि, `मानव के उद्गम और उसके इतिहास पर भी कुछ प्रकाश डाला जाए,' ताकि कोई सज्जन मुझ पर यह आक्षेप न लगाएँ कि मैंने अपने दृष्टिकोण को छिपाया है। यदि अपनी पुस्तक में मैं मानव के उद्गम के बारे में अपनी अवधारणा के समर्थन में कोई प्रमाण न देता, तो यह पुस्तक अनुपयोगी रहती, साथ ही सफल भी न हो पाती।

लेकिन जब मैंने पाया कि बहुत से प्रकृतिवादियों ने प्रजातियों के उद्विकास के सिद्धान्त को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है तो मुझे यह उचित प्रतीत हुआ कि मानव के उद्गम के बारे में मेरे पास जो सामग्री उपलब्ध है उसके आधार पर विशेष लेख प्रकाशित कराऊं। ऐसा करने में मुझे काफी खुशी हुई क्योंकि इसमें मुझे नर मादा के चयन पर पूरा विचार विमर्श करने का मौका मिला - इस विषय में मेरी रुचि भी थी। यह विषय और हमारे घरेलू वातावरण में पौधों, जीव जन्तुओं की संततियों में बदलाव के साथ-साथ परिवर्तन के नियमों और कारणों, वंशानुक्रम और पौधों में संकर परागण मेरे एकमात्र विषय रहे, जिनके बारे में लिखते समय मैंने अपने पास एकत्र समस्त सामग्री का भरपूर उपयोग किया। दि डीसेन्ट ऑफ मैन के लेखन में मुझे तीन वर्ष लगे। हमेशा की तरह बीमारी ने मेरा पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा, कुछ समय नए संस्करणों और छिटपुट लेखन में भी लग गया। दि डीसेन्ट ऑफ मैन का संशोधित द्वितीय संस्करण 1874 में प्रकाशित हुआ।

सन 1872 की शरद में मानव और पशुओं में मनोभावों का प्रकटीकरण के बारे में मेरी पुस्तक एक्सपेशन ऑफ इमोशन्स इन मैन एन्ड एनिमल प्रकाशित हुई। मेरा अभिप्राय तो यही था कि डीसेन्ट आफ मैन पर केवल एक अध्याय ही लिखूँ, लेकिन जब मैंने सभी नोट्स बटोरने शुरू किए तो मुझे लगा, इसके लिए अलग से प्रबन्ध लेख लिखना पड़ेगा।

मेरी पहली संतान का जन्म 27 दिसम्बर 1839 को हुआ था, और फौरन ही मैंने उसकी सभी अभिव्यक्तियों पर बारीकी से ध्यान देना शुरू कर दिया था, क्योंकि मुझे लगा कि जिन जटिल और उत्कृष्ट अभिव्यक्तियों को हम बाद में देखते हैं, उनकी बुनियाद तो जीवन की शुरुआत में ही पड़ जाती है और बाद में उनका क्रमिक तथा प्राकृतिक विकास होता चला जाता है। मैंने अभिव्यक्तियों के बारे में सर सी बेल का प्रशंसनीय लेख भी पढ़ा था, और इससे मेरी रुचि इस विषय में बढ़ी, लेकिन मैं उनकी इस धारणा से सहमत नहीं हो पाया कि अभिव्यक्ति के लिए शरीर में विभिन्न पेशियां खास तौर पर बनी हुई हैं। इसके बाद मैं कभी कभार मानव और पालतू जीवों के सम्बन्ध में इसी विषय को लेकर कुछ लिख-पढ़ लेता था। मेरी पुस्तक खूब बिकी। प्रकाशन के पहले ही दिन इसकी 5267 प्रतियां बिक गयीं।

सन 1860 की गरमियों में मैं हार्टफील्ड के निकट आराम करता रहा। वहाँ पर कीटाश (सनड्यू) के पौधों की दो प्रजातियाँ बहुतायत से थीं। मैंने यह भी ध्यान दिया कि इनके पत्तों में बहुत से कीट भी फंसे हुए थे। मैं कुछ पौधे घर पर लाया और उन पर फिर से कीट डालने के बाद मैंने देखा कि पत्तियों के रोमों में कुछ हलचल होने लगी थी। इसके आधार पर मैंने सोचा कि सम्भवतया यह पौधा कीटों को किसी खास मतलब से पकड़ता है। सौभाग्य से मैंने एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण भी किया। वह यह कि मैंने बहुत से पत्ते विभिन्न प्रकार के नाइट्रोजनयुक्त और नाइट्रोजन रहित घोल में डाल दिए। इन सभी घोलों का घनत्व एक समान था; इस परीक्षण से मैंने पाया कि केवल नाइट्रोजन सहित घोल में ही ऊर्जावान हलचल हुई। इससे इतना तो साफ ही था कि अन्वेषण का एक नया क्षेत्र सामने था।

बाद के वर्षों में जब भी मैं फुरसत में होता तो अपने प्रयोग शुरू कर देता था। और इस तरह कीट भक्षक पौधों पर मेरी पुस्तक इन्सेक्टीवोरस प्लान्टस् जुलाई 1875 में प्रकाशित हुई। यह प्रकाशन पूरे सोलह बरस बाद हुआ था। इस मामले में, और मेरी अन्य पुस्तकों के प्रकाशन में देरी से मुझे लाभ भी हुआ, क्योंकि इतने अन्तराल के बाद कोई भी अपने काम की आलोचना उसी तरह से कर सकता है, जैसे किसी दूसरे के काम की करता। उचित तरीके से उत्तेजित करने पर कोई पौधा ऐसा तरल पदार्थ भी निकालता है जिसमें अम्ल और खमीर हो - ऐसा तत्त्व किसी जीव के पाचक रस की तरह होता है - इस तथ्य की खोज निश्चय ही उल्लेखनीय खोज है।

सन 1876 में मैंने वनस्पति जगत में संकर और स्व निषेचन के प्रभावों के बारे में इफेक्टस ऑफ क्रास एन्ड सेल्फ फर्टिलाइजेशन इन दि वेजिटेबल किंग्डम - नामक पुस्तक प्रकाशित कराने का विचार बनाया है। यह पुस्तक फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड की अनुपूरक होगी, जिसमें मैंने यह दर्शाया था कि संकर निषेचन के उपाय कितने पारंगत थे, और इस पुस्तक में मैं बताऊंगा कि इनके नतीजे भी कितना महत्त्व रखते हैं। ग्यारह साल की इस अवधि के दौरान मैं ने जो विभिन्न प्रयोग किए उनका उल्लेख इस पुस्तक में है। वस्तुत: इस काम की शुरुआत महज संयोगवश हुई थी, और ऐसे कार्यों के लिए घटना भी मेरी आँखों के सामने ही हुई, जब मेरा ध्यान बहुत ही तेजी से इस ओर गया कि संकर निषेचन से पैदा हुए बीजों की नर्सरी के पौधों की तुलना में स्व निषेचित बीजों से तैयार नर्सरी के पौधे जल्दी कमजोर पड़ते हैं। मैं यह भी आशा कर रहा हूं कि आर्चिड के बारे में मैं अपनी पुस्तक का संशोधित संस्करण प्रकाशित कराऊँ। इसके बाद द्विरूपी और त्रिरूपी पौधों पर अपने आलेखों का प्रकाशन कराऊं। साथ ही इससे जुड़े कुछ और तथ्य भी प्रकाशित होंगे जिन्हें व्यवस्थित करने का समय मुझे नहीं मिला। यह भी लग रहा है कि अब कमजोरी बढ़ती जा रही है, और अब मैं किसी भी समय अल विदा कह सकता हूँ।

पहली मई 1881 को लिखा - द इफेक्ट ऑफ क्रास एन्ड सेल्फ फर्टिलाइजेशन का प्रकाशन 1876 की शरद में हुआ। इसमें प्राप्त परिणामों की व्याख्या की गयी है, और मेरा विश्वास भी है कि एक ही प्रजाति के पौधों में एक पौधे से दूसरे पौधे तक पराग कणों के अभिगमन में कितना सुन्दर क्रिया व्यापार निहित है। हालांकि इस समय मैं यह भी मानता हूं कि - खासतौर पर हर्मेन मुलेर को पढ़ने के बाद - मुझे स्व निषेचन पर बहुत सी अनुकूलताओं पर अधिक दृढ़तापूर्वक लिखना चाहिए था, हालांकि मैं बहुत सी अनुकूलताओं के बारे में जानकारी रखता था। फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड का मेरा काफी बड़ा संस्करण 1877 में प्रकाशित हुआ।

इसी वर्ष फूलों की विभिन्न किस्मों के बारे में दि डिफरेन्स फार्म्स ऑफ फ्लावर्स का प्रकाशन हुआ और 1880 में इसका दूसरा संस्करण भी आ गया। इस पुस्तक में भिन्न परागवाही नलिका वाले फूलों पर विभिन्न आलेखों का संशोधित संग्रह था जो लिन्नेयन सोसायटी द्वारा प्रकाशित किए गए थे। पुस्तक में उस बारे में कुछ नई सामग्री भी जोड़ दी गयी थी, और कुछ ऐसे पौधों के बारे में भी निष्कर्ष दिए गए थे, जिनमें एक ही पौधे पर दो किस्म के फूल पैदा होते हैं। मैंने पहले भी यह उल्लेख किया है कि भिन्न परागवाही नलिका वाले फूलों की छोटी-सी खोज ने मुझे जितनी खुशी दी, उतनी और किसी बात ने नहीं दी। ऐसे फूलों के गलत ढंग से निषेचन के परिणाम भी काफी महत्त्वपूर्ण होंगे, क्योंकि इसका प्रभाव संकर किस्मों की अनुर्वरकता भी हो सकता है; हालांकि इस प्रकार के परिणामों पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है।

मैंने सन 1879 में डॉक्‍टर अर्न्स्ट क्राउज लिखित लाइफ ऑफ इरेस्मस डार्विन का अनुवाद प्रकाशित कराया। मेरे पास उपलब्ध सामग्री के आधार पर मैंने उनके चरित्र और आदतों के बारे में भी एक रेखाचित्र इसी पुस्तक में जोड़ दिया। इस छोटी-सी जीवनी को पढ़ने में लोगों ने बहुत कम रुचि दिखायी। मुझे हैरत हुई कि इस पुस्तक की केवल आठ नौ सौ प्रतियाँ ही बिक सकीं।

पौधों में संचरण की शक्ति के बारे में मैंने (अपने पुत्र) फ्रैंक की मदद से 1880 में पॉवर ऑफ मूवमेन्ट इन प्लान्टस का प्रकाशन कराया। यह बहुत कठिन कार्य था। फर्टिलाइजेशन ऑफ आर्चिड का जो सम्बन्ध क्रास फर्टिलाइजेशन से रहा था, वही कुछ सम्बन्ध इस पुस्तक और क्लाइम्बिंग प्लान्टस में था क्योंकि उद्विकास के सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न वर्गों में विकसित लताओं की उत्पत्ति असम्भव होती, यदि सभी पादपों में समवर्गीय प्रकार का मामूली-सा भी संचरण न होता। मैंने इसे सिद्ध किया और मैं एक नए ही प्रकार के सामान्यीकरण की तरफ आगे बढ़ गया - और यह तथ्य थे कि संचरण के बड़े और महत्त्वपूर्ण वर्ग, प्रकाश से उत्तेजन, गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव तथा अन्य - ये सभी परिवृत्ति के आधारभूत संचरण की ही परिवर्धित किस्में हैं। पौधों को भी जीवित प्राणी मानते हुए उसी प्रकार से उनका विश्लेषण मुझे प्रिय रहा है, और यह बताने में खुशी होती है कि किसी भी पौधे की जड़ के मूल में नीचे की ही ओर बढ़ते जाने की जो अनुकूलता है वह कितनी प्रशंसनीय है।

केंचुओं द्वारा मिट्टी खोद खोद कर ढेर बनाने से वनस्पति गुच्छों के निरूपण के बारे में मैंने अब (पहली मई 1881) को प्रकाशक के पास एक पाण्डुलिपि भेजी है, जिसका शीर्षक है - दि फार्मेशन आफ वेजिटेबल माउल्ड थ्रू द एक्शन ऑफ वार्म्स। वैसे तो यह मामूली-सा विषय है और मुझे नहीं मालूम कि यह किसी पाठक को रुचिकर लगेगा, लेकिन यह विषय मुझे रोचक लगा। चालीस वर्ष पहले मैंने जिओलाजिकल सोसायटी के समक्ष एक आलेख पढ़ा था, उसी की पूर्णता इस पुस्तक में हुई। इसमें प्राचीन भूवैज्ञानिक विचारों को ही पुन: प्रस्तुत किया गया है।

इस समय तक मैंने अपनी सभी प्रकाशित कृतियों का जिक्र कर दिया है। ये पुस्तकें मेरे जीवन के महत्त्वपूर्ण सोपानों में से हैं, इसलिए अभी कुछ और भी कहने को बाकी है। पिछने तीस साल के दौरान मेरे दिमाग में हुए बदलाव के बारे में मैं सतर्क नहीं हूं। सिर्फ एक ही तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगा कि कोई विशेष बदलाव तो नहीं हुआ, हां, सामान्य-सी घिसावट ज़रूर हुई। मेरे पिताजी तिरासी साल तक जीवित रहे और उनके दिमाग में वही सतर्कता बरकरार थी जो शुरू में थी। उनके सोचने विचारने, चलने फिरने, यूँ कहिए दिमाग का हर हिस्सा जागरुक था; और मेरा विश्वास है कि मैं अपने दिमाग की सजगता में कमी आने से पहले ही चल बसूंगा। मैं समझता हूं कि मैं सभी स्पष्टीकरणों के बारे में आभास लगाने और प्रयोगात्मक परीक्षण में और भी दक्ष हो गया हूं, लेकिन शायद यह अभ्यास करते करते और ज्ञान की बढ़ोतरी से ऐसा हो गया होगा। मैं अपनी बात को स्पष्ट और सतर्क रूप में प्रस्तुत करने में हमेशा ही कठिनाई महसूस करता रहा हूं, और इस कठिनाई के चलते मेरा काफी समय भी बरबाद हुआ; लेकिन बदले में मुझे यह लाभ भी हुआ कि मैं प्रत्येक वाक्य के बारे में अधिक सजगतापूर्वक सोच सका, और इस प्रकार मैं वितर्क में गलतियों और अपने तथा दूसरों के निष्कर्षें में हुई चूक पर भी ध्यान दे सका।